Sunday, June 28, 2009

किया धरा सब अपना ही है!

जून महीने का आखिरी सप्ताह आते-आते हम आप तो बेचैन हुए ही, आमतौर पर बेचैन न होने सरकार के भी हाथ पांव फूलने लगे। दरअसल दिल्ली में भी जब भीषण बिजली कटौती और पानी की कमी पैदा हो गई तो सरकार का बेचैन होना स्वाभाविक हो गया। ...लेकिन इस बेचैनी से न कुछ होने वाला है और न कुछ हुआ। सबने समवेत राग में कहा : मानसून लेट हो गया है! इस सारी समस्या के लिए वही यानी मानसून जिम्मेदार है। वह समय पर आ जाता तो देश को यह दिन नहीं देखना पड़ता। ...फिर दिल्ली जैसी जगह में बारह-बारह घंटे की कटौती नहीं होती और न ही गर्मी के कारण शिमला जैसी जगह में स्कूलों को बंद करना पड़ता! मानसून समय पर आ जाता तो वन्य अभ्यारण्यों में पशु प्यास से नहीं मरते और शहरों को बिजली देनी वाली पनबिजली परियोजनाएं सूखे का शिकार नहीं होतीं। मानसून पर आरोप बहुत से हैं और दुनिया का विधान है कि आरोपी को दंडित किया जाना चाहिए! ...लेकिन मानसून को आप दंडित करेंगे कैसे? सच्चाई तो यह है कि मानसून ने मनुष्य को ही दंडित करना शुरु कर दिया है। ...और यह वाजिब भी है। अपने कुकृत्यों को छिपाने के लिए हम भले ही मानसून को दोषी ठहरा लें लेकिन वास्तविकता यही है कि दोषी मानसून नहीं बल्कि हम ओैर आप हैं जनाब! इस धरती का चीरहरण हमने किया है, पेड़ पौधों को धड़ल्ले से हमने काटा है। कई नदियों को मौत के घाट हमने उतार दिया है और बाकी को तबाह करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। प्रकृति द्वारा सृजित सैकड़ों प्रजातियों का विनाश हमने किया है। इस पृथ्वी को कचरा घर बना दिया है। जब हमारे कृत्य ऐसे हैं तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ेगा ही! जब प्रकृति का संतुलन बिगड़ेगा तो मानसून समय पर आएगा कैसे?मुझे याद है बचपन का वह दिन जब सावन और भादो के महीने में बारिश से परेशान होकर मेरी मां अपने आंचल का किनोर बांध लेती थी और कहती थी कि भगवान को बांध दिया है...जब तक बारिश नहीं रुकेगी तब तक गांठ नहीं खोलूंगी! मां की उस आस्था को फलीभूत होते देखना हमारे लिए अचरजभरी बात थी! यह बात बहुत पुरानी नहीं है...यही कोई ३०-३५ साल पहले की कहानी सुना रहा हूं। ...मां अब होती तो फिर गठान बांधती और कहती...जब तक बारिश नहीं होगी तब तक गठान नहीं खोलूंगी!कितना बदल गया सबकुछ! इस साल मानसून लेट होने लगा तो कुछ मित्रों ने मेंढ़कों की शादी कराई! पता नहीं मेंढ़की की शादी से बारिश का क्या लेना-देना! ...हां इतना जरूर पता है कि मेंढ़कों की संख्या बड़ी तेजी से कम हो रही है। इन्हें भी समाप्त कर देने की कोई कम पहल हमने नहीं की है। अपने गांव की ही एक घटना सुना रहा हूं...सुनकर थोड़ा आश्चर्य होगा लेकिन है सोलह आने सच। ८० के दशक में अचानक देश के ग्रामीण हिस्सों में मेंढ़क पकडऩे और बेचने का कारोबार चल निकला। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि मेंढ़कों को पकड़ा क्यों जा रहा है। बाद में पता चला कि उनकी टांगें और शरीर के दूसरे हिस्से अलग करके विदेशों में भेजा जा रहा था। मेंढ़कों को कई देशों में स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। जब सामाजिक संगठनों ने और पर्यावरण से जुड़े संगठनों ने हल्ला मचाया तब इस पर अंकुश लगा और मेंढ़कों का व्यापार बंद हुआ। पर्यावरण विज्ञानी मानते हैं कि मेढ़कों और बारिश का बड़ा पुराना रिस्ता है। कहने का मतलब है कि हम मनुष्यों ने पूरे पर्यावरण को हर तरह से क्षति पहुंचाई है और अब जब प्रकृति रुष्ट हो रही है तो हम भगवान से मन्नतें मांग रहे हैं और मेढ़कों की शादी करा रहे हैं। भाई मेरे भगवान की इस अनूठी रचना प्रकृति को नष्ट करने के पहले तो भगवान को याद करो! ध्यान रखिए!प्रकृति नष्ट होगी तो हम भी नहीं बचेंगे...!
विकास मिश्र

Tuesday, May 19, 2009

इन्तजार कीजिये

जरा सा इन्तजार करें ... बहुत कुछ होगा इस ब्लॉग पर ....