Wednesday, March 3, 2010

तेलंगाना में लगी आग

दूर दराज क्षेत्रों में बैठा हुआ आम आदमी जब यह खबर पढ़ता है कि अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर दसवीं कक्षा के एक छात्र ने खुद को आग लगा ली तो वह सोचने को मजबूर हो जाता है कि तेलंगाना में आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल जब कोई इलाका पिछड़ेपन की कगार पर पहुंच जाता है और देश या राज्य के दूसरे हिस्सों को वह तेजी से फलता फूलता देखता है तो वहां के लोगों के जेहन में यह सवाल पैदा होना शुरु होता है कि उनके साथ सौतेला व्यवहार क्योँ? तेलंगाना के लोगों को यही सवाल परेशान कर रहा है। इसमें कहीं कोई शंका है ही नहीं कि तेलंगाना का पूरा इलाका बुरी तरह पिछड़ा हुआ है। आंध्रप्रदेश के जिस हिस्से को तेलंगाना के नाम से पुकारा जाता है वहां कुल 10 जिले हैं। इनमें से 7 जिले गंभीर रूप से पिछड़े हुए हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि राज्य के राजस्व में आंध्रप्रदेश के इस परेशान इलाके का योगदान करीब 45 प्रतिशत है लेकिन खजाने में पहुंची राशि जब विकास के लिए बाहर निकलती है तो उसका केवल 28 प्रतिशत हिस्सा ही तेलंगाना के इलाके में पहुंच पाता है। वहां के लोगों को यदि ऐसा लगता है कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है तो इसके ठोस कारण भी हैं। नागार्जुन सागर डैम बना है नलगोंडा जिले में जो वास्तव में तेलंगाना का हिस्सा है लेकिन इसका ज्यादातर पानी मिलता है कृष्णा और गुंटुर जिले को। पूरे तेलांगाना के खेतों को सिंचाई के लिए उतना भी पानी नहीं मिलता जितना कि अकेले गुंटूर जिले को मिलता है। दो महत्वपूर्ण नदियां कृष्णा और तुंगभद्र आंध्रप्रदेश में महबूबनगर जिले से प्रवेश करती हैं जो तेलंगाना क्षेत्र में है लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि यह जिला भी भयंकर रूप से सूखाग्रस्त रहता है। देश के ज्यादातर हिस्सों में साल में कम से कम तीन और कई जगह चार फसल भी ली जाती है लेकिन सिंचाई के अभाव में पूरे तेलंगाना इलाके में केवल दो फसलें ही किसान ले पाते हैं। महबूबनगर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों से तो करीब 33 प्रतिशत लोग अपना गांव छोड़कर दूसरे इलाकों में जा चुुके हैं ताकि मजदूरी करके रोजी-रोटी की व्यवस्था कर सकें। बात केवल खेती और उपज की ही नहीं है। स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में भी यही हाल है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि तेलंगाना इलाके के रंगा रेड्डी जिले में एक भी डिग्री कॉलेज नहीं है। ग्रमीण क्षेत्रों में कई जगह अस्पताल तो दूर सरकारी डिस्पेंसरी भी नहीं हैं। भेदभाव का एक और उदाहरण यह है कि आंध्र सरकार रज्य में आमतौर पर 24 रुपए लीटर के भाव से दूध खरीदती है लेकिन यही भाव तेलंगाना में 22 रुपए किलो हो जाता है। लोग समझ नहीं पाते हैं कि ऐसा क्यों होता है? पिछड़पन से उबरने की चाहत ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग को हवा दी है। यदि आजादी के बाद इस इलाके का विकास हुआ होता तो ऐसी कोई मांग जोर नहीं पकड़ती। जनभावनाओं को राजनीति के एक हिस्से ने हवा दी तो दूसरे हिस्से ने जनभावनाओं से खिलवाड़ किया। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में ज्वाला भड़केगी ही। केंद्र ने पहले ऐसा संदेश दिया कि अलग तेलंगाना राज्य बनेगा और कुछ ही दिनों में सरकार पलटती नजर आई। तेलंगाना के लोगों को लगा कि सफलता उनके हाथ से निकल रही है इसलिए नए सिरे से आंदोलन की आग तेज हुई है। सरकार को इस बात का खयाल रखना चाहिए कि देश के हर हिस्से में विकास की बयार तेजी से पहुंचे और किसी भी इलाके के साथ कहीं कोई भेदभाव नहीं हो। तेलंगाना की समस्या को जल्दी सुलझाना जरूरी है लेकिन दुखद पक्ष यह भी है कि हमारे राजनेता हर मुद्दे में अपना हित देखते हैं। मुद्दे को लंबा खींचना उनकी राजनीति का हिस्सा होता है। इससे राजनेताओं को भले ही फायदा होता हो लेकिन देश और समाज का अहित ही होता है। सभी राजनीतिक दलों, केंद्र और राज्य सरकार को मिलबैठकर तेलंगाना की इस आग को जल्दी बुझाना चाहिए।

व्यंग

लैला की उंगलियां
मजनू की पसलियां
मुझे पता नहीं, मध्यप्रदेश के शहरों और कस्बों में कभी लैला की उंगलियां बिकी या नहीं। यह भी पता नहीं कि मजनू की पसलियां कभी तराजू पर तौली गर्इं या नहीं! बचपन यहां बीता नहीं इसलिए कुछ पता नहीं। हां, इतना पता है कि लखनऊ, बनारस और पटना में लैला की उंगलियां और मजनू की पसलियां खूब बिका करती थीं। गर्मी के दिन आते और ठेले वाले की आवाज आने लगती...आईए खाईए लैला की स्वादिष्ट उंगलियां...मजनू की स्वादिष्ट पसलियां! हम दौड़े चले जाते...हथेली में इकन्नी दबाए। दोनों चीजें अलग-अलग लाने जैसी कोई बात थी नहीं क्योंकि थीं तो दोनो एक ही...पतली-पतली ककड़ियां।
तब न हमें लैला की उंगलियों का कोई खास इल्म था और न मजनू की पसलियों से कोई लेना-देना था। हम तो दुबली पतली ककड़ियों के मुरीद थे, हैं और तय मानिए कि दांतों की सलामती और हाजमा दुरुस्त रहने तक मुरीद रहेंगे भी। किसी में दम हो तो हमें पतली ककड़ियों से डिगाकर देख ले!
खैर, चर्चा के लिहाज से ककड़ी नीरस विषय है। हम सरस विषय, लैला की उंगलियों की ओर लौटें। लैला-अल-अमीरिया कहां और कब पैदा हुई इस बहस में भी पड़ने की जरूरत नहीं है। बात लैला की अंगुलियों की हो रही है तो केवल दस उंगलियों की ही होगी। अपने यहां अंगुली पकड़ने से जो बात शुरु होती है वह काफी दूर तलक जाती है। हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है।
अब यहां प्रमुख मुद्दा यह है कि ठेले वाला ककड़ियों की तुलना लैला की उंगलियों से क्यों करता था? सामान्य बुद्धि के लोग यही कहेंगे कि लैला की उंगलियां पतली थीं इसलिए ककड़ी की तुलना उससे कर दी। यह बात जरा हजम नहीं होती क्योंकि पतली से पतली ककड़ी भी इतनी पतली तो नहीं होती कि किसी लड़की की उंगलियों जैसी हो जाए। ...और लैला कोई छोटी सी बच्ची तो थी नहीं। भरपूर जवानी वाली रही होगी, तभी तो मजनू की मति मारी गई! रसीली भी रही होगी अन्यथा किसी ऐरी-गेरी के लिए मति थोड़े ही मारी जाती है।
अब विचार का मुद्दा यह है कि पतली उंगलियां रसीली होती हैं क्या? अपन का अनुभव जरा इस मामले में टाइट है। व्यापक अनुभव वाले लोग बेहतर बता सकते हैं लेकिन ऐसे लोग अनुभव बांटते नहीं, इंज्वॉय करते हैं। वे बताएंगे नहीं। आपके सामने दो ही विकल्प हैं, या तो खुद अपना अनुभव पैदा कीजिए या फिर अंदाजा लगाते रहिए! अंदाजा यही है कि पतली उंगलियां भी थोड़ी बहुत तो रसीली होती ही होंगी। इस अंदाजे का आधार है मरियल होने के प्रति लड़कियों की दीवानगी! जितना कम खून, जितना कम गोश्त, जमाने में उतनी ही ज्यादा हिट! ...और लोग कहें-कितनी फिट! तो जनाब हिट होने के लिए फिट होना जरूरी है और फिट वही कहलाएगी जो कमर को खींचखांचकर अंगुठी से निकालने के नाप पर ले आएगी। ...लेकिन भौतिक रूप से ऐसा संभव नहीं है क्योंकि कमर है, कोई ढ़ाका का मलमल नहीं।
लैला फिट रही होगी तभी तो आज तक हिट है!
लेकिन दिल की बात बताऊं? लैला के ककड़ी हो जाने की कहानी है बड़ी दुखदायी। लैला है, उसे रसभरी कहते, हापुस कहते, चीकू संतरा भी कहते तो चल जाती! ये ककड़ी वाली बात लैला के प्रति नाइंसाफी है। तब तो मैं बच्चा था, आज कोई ककड़ी वाला लैला की उंगलियों का ऐसा भद्दा मजाक उड़ाए तो शायद मैं उसका मुंह नोंच लूं। ...रब्बा खैर करे!
अब बात जरा मजनूं के पसलियों की। मैं हर रोज ऐसे मजनूं देखता हूं जो एक नहीं कई-कई लैलाओं को अपनी पसलियां दिखाते फिरते हैं। ककड़ी वाले की बात यहां मुझे ज्यादा माकूल लगती हैं क्योंकि आधुनिक मजनुओं की पसलियां लगभग उतनी ही कमजोर होती हैं जितनी कि एक सामान्य ककड़ी। सलमान खान से लेकर आमिर खान और ऋतिक रौशन तक बाहें मरोड़-मरोड़ कर कई एब्स दिखा चुके हैं लेकिन छोकरे आकर्षित होने का नाम ही नहीं ले रहे। दो दंड बैठक मारने को कह दो तो अगले ही घंटे आयोडेक्स और झंडू बाम की मांग करने लगें।
...लेकिन उन्हें भी दोष क्यों दें? लैला की उंगलियां जब तक एनेमिया की शिकार रहेंगी तब तक मजनू की पसलियों में दम कहां से आएगा?