Wednesday, August 10, 2016

क्योटो नहीं बनना चाहता वाराणसी



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब घोषणा की कि वाराणसी को क्योटो बना देंगे तो पहली नजर में किसी को समझ ही नहीं आया कि वे करेंगे क्या? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला कि ये क्योटो है क्या! इस यात्र के दौरान मैंने दर्जनों लोगों से जानना चाहा कि वे इस मामले में क्या राय रखते हैं. सब यही कहते हैं कि वाराणसी को वाराणसी ही रहने दीजिए इसे क्योटो बनाने की कोई जरूरत नहीं है.
गोदौलिया चौराहे के पास बेहतरीन बनारसी पान लोगों को पेश करने वाले रामश्रवण कहते हैं कि क्योटो हमारे सामने लगता कहां है. वाराणसी तो दुनिया को राह दिखाता रहा है. यहां बाबा विश्वनाथ हैं जो जगत के मालिक हैं. क्योटो के पास क्या है? मैं उन्हें बताता हूं कि जापान का क्योटो शहर सांस्कृतिक शहर है. वहां प्रति वर्ग किलो मीटर 5200 लोग रहते हैं फिर भी बहुत साफ सुधरा है. वाराणसी में आबदी केवल 2400 लोग प्रति वर्ग किलो मीटर है फिर भी हालात बुरे हैं. रामश्रवण मुङो समझाते हैं कि वाराणसी अपनी धुन में बसने वाला शहर है. इसे क्योटो बनाने की कोशिश करेंगे तो सबकुछ बिगड़ जाएगा. वे मोदी की इस बात से बिल्कुल ही प्रभावित नहीं हैं कि जापान का क्योटा शहर हेरिटेज सिटी है. जहां 2000 मठ और मंदिर हैं. जिस तरह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद लंदन का नवनिर्माण हुआ या 2001 के भूकंप के बाद गुजरात के भुज का नवनिर्माण हुआ, उसी तरह का नवनिर्माण बनारस का भी होगा.
जहां तक सरकारी स्तर पर वाराणसी को क्योटो बनाने की पहल का सवाल है तो एक दल वाराणसी से वहां गया है और एक दल वहां से यहां आया है. जापान ने यह आश्वासन जरूर दिया है कि वाराणसी के 1400 हेरिटेज बिल्डिंग को सहेजने में तकनीकी सहयोग वह करेगा.
वाराणसी का मिजाज अलग है
बीएचयू के एक छात्र राधेरमण सिंह मुङो अस्सी घाट पर मिल गए हैं और मैंने क्योटो वाला सवाल उनसे भी पूछा है. वे कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाए यह जरूरी है कि पहले वाराणसी की तासीर को समझा जाए. वे बताते हैं कि वाराणसी शहर का मिजाज क्योटो से कहां मेल खाता है कि इसे क्योटो बना दिया जाए. क्योटो की संस्कृति अलग है, वाराणसी को आप कैसे क्योटो बना देंगे? यहां लाखों लोग घाट पर आते हैं. घाट किनारे जाने वाली सड़क पर करोड़ों का व्यापार फुयपाथ पर होता है. क्या आप फुटपाथ की दुकानें हटा देंगे? क्या आप 70 हजार से अधिक रिक्शा हटा देंगे? वाराणसी काक्योटो बनना संभव ही नहीं है.

आंकड़ बड़े बड़े
राजेंद्र घाट पर बैठे संत हरवंश तो बह़े बड़े आंकड़ों पर ही सवाल खड़ाकरते हैं. वे कहते हैं कि नमामी गंगा प्रोजेक्ट के लिए 6300 करोड़ रुपए की घोषणा हुई थी. इसमें से करीब 2000 करोड़ रुपए गंगा की साफ सफाई पर खर्च होना है. 4200 करोड़ नेविगेशन कॉरिडोर पर और करीब 100 करोड़ रुपए घाटों पर खर्च होना है. बहुत अच्छी बात है लेकिन काम कहीं दिखाई भी तो देना चाहिए. मोदी जी पर भरोसा किया है वाराणसी ने. उन्हें तेजी दिखानी चाहिए. वे भी क्योटो के विरोधी हैं. कह रहे हैं कि क्योटो और वाराणसी के बीच सिस्टर सिटी का समझौता हुआ है लेकिन दोनों शहर बहनें हो ही नहीं सकतीं. एक दूसरे को दोनों शहर जानते समझते ही नहीं हैं.

कहां काशी कहां क्योटो
यहां वाराणसी में कोई भी क्योटो के महत्व को मानने को तैयार नहीं है. जरा उनके तर्क सुनिए..!
1. काशी यानि वाराणसी पांच हजार साल से ज्यादा पुराना शहर है. क्योटो के पास क्या इतनी पुरानी सांस्कृतिक समृद्धि है?
2. वाराणसी के पास गंगा है, क्या क्योटो के पास है?
3. यहां गऊ माता सड़कों पर हमारे साथ घूमती हैं. क्योटो वाले घूमने देंगे क्या?
4. हमारे पास बनारसी पान है, हम कहीं भी पिच कर देते हैं. क्योटो में यह सुविधा नहीं होगी.
5. हमारे यहां 110 तरह की लस्सी बनती है. ब्लू लस्सी पीने क्योटो वाले भी यहीं आते हैं.
6. भांग के साथ मलाई पुष्टि लाजवाब पेय है, क्योटो में नहीं ही मिलता होगा.
7. हमरे यहां मणिकर्णिका घाट है जहां सैकड़ों साल से चिता की आग ठंडी नहीं हुई. क्योटो में ऐसा है क्या?
8. हमारी गलियां हमारी पहचान है. गलियों में जीवन बसता है. क्योटो के पास क्या ऐसी गलियां हैं.
9. काशी में मरने से मोक्ष मिलता है, क्योटो में मरने से क्या मिलेगा.
10. क्योटो बनाने के लिए वाराणसी की गलियों को चौड़ा कर देंगे तो बनारसी संस्कृति बचेगी कहां?

वरुणा और अस्सी को
जीवन मिलना मुश्किल
वाराणसी नाम के पीछे दो नदियों का नाम शामिल है. एक है वरुणा और दूसरी है अस्सी. वरुणा का स्वरप बड़े नाले जैसा बचा है तो अस्सी का स्वरूप इतना बिगड़ चुका है कि उसे ढूंढना भी मुश्कि होता है. बीएचयू जाते हुए मुङो एक नाला दिखाई दिया. मैंने रुक कर इस नाले के बारे में पूछा तो पता चला कि यह तो अस्सी है. इस नाले पर पूरी तरह अतिक्रमण है. मोदी विजन में अभी तक ये दोनों नदियां शामिल नहीं हुई हैं. दोनों ही नाले जाकर गंगा में मिल रहे हैं.

चाय अैर पप्पू दोनों ही निराले!
लीजिए आज की शाम हम आ पहुंचे हैं वराणसी के फेमस पप्पू की चाय दुकान पर. पहुंचते ही ऐसा लग रहा है कि जैसे बगल में कुछ विवाद हो रहा है. एक सज्जन पूरे ताव में हैं और करीब-करीब चिल्लाने की हालत में हैं. ध्यान देते ही पता चल जाता है कि वे मोदी, अखिलेश और वाराणसी के मसले पर दूसरे व्यक्ति के विचारों से गरम हो गए हैं. मैं पप्पू को तलाश रहा हूं. एक पप्पू दुकान पर बैठा है. मैं उससे पूछता हूं कि आप ही पप्पू हैं तो वह हां में सिर हिला देता है और साथ ही यह भी कहता है कि मेरे पिताजी से मिलिए. उसके पिताजी का नाम है विश्वनाथ सिंह. आप उन्हें सिनियर पप्पू कह सकते हैं. मोदी के चुनाव के पहले तक दुकान पर बैठते थे लेकिन अब नेताजी टाइप हाो गए हैं. मोदी की माला जपना शुरु करते हैं. बताते हैं कि मोदी से अभी तक आमने सामने मुलाकात नहीं हुई है लेकिन चाय पर वीहियो चर्चा इसी दुकान से हुई थी.  साथ में चाय की खासियत भी बताते जा रहे हैं कि बिल्कुल ताजा चाय बनाते हैं. कहानी भी सुना रहे हैं कि उनके पिताजी बलदेव सिंह ने कैसे इस चाय की दुकान को संस्कृति का केंद्र बनाया. इस बीच बगल में आवाज तेज हो गई है. बिल्कुल झगड़े जैसी! मैं उधर देखता हूं तो विश्वनाथ सिंह कहते हैं कि पढ़े लिखे लोग हैं, इनका काम ही है बहस करना. अब तो पुराने लोग रहे नहीं. पहले जैसी बहस भी कहां होती है. वे इतिहास के पन्नों में उलझ जाते हैं. बहुत सारे नाम ले रहे हैं. मैं चाय की चुस्की लेता हूं. वाकई बेमिसाल चाय है. पप्पू को नमस्कार करता हूं और अस्सी घाट की ओर बढ़ जाता हूं.



घाटों की तो मानों तकदीर बदल गई है!

वाराणसी, 23 मई।
कोई वारणसी आए और घाटों पर न जाए यह हो ही नहीं सकता! इन घाटों से मेरी पुरानी पहचान है लेकिन इस बार मैं यह देखने और आप तक यह जानकारी पहुंचाने आया हूं कि यहां की तस्वीर कितनी बदली है? यह प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है और उन्होंने घाटों की सफाई का संकल्प लिया हुआ है. बनारस लाइव का पहला सफर शुरु करते हैं इन घाटों के किनारे..!
मैं इस  वक्त दशाश्वमेघ घाट पर हूं. यह घाट वाराणसी के सबसे प्रमुख घाटों में से एक है और सबसे ज्यादा भीड़ भाड़ यहीं रहती है. पर्व त्यौहार के दिनों में यहां 2 लाख से ज्यादा लोग हर रोज स्नान करते हैं. इसलिए इसकी साफ-सफाई सबसे कठिन काम है. करीब दो साल पहले जब मैं यहां आया था तो इस घाट पर नहाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई थी. तब घाट के ठीक नीचे कचरा तैर रहा था. स्नान के लिए मुङो नाव लेकर गंगा के दूसरे किनारे पर जाना पड़ा था लेकिन इस साल मैंने अभी-अभी इसी घाट पर स्नान किया है. यह है बनारस के इस घाट की बदलती हुई तस्वीर! इसे हम चमत्कार भले ही न कहें लेकिन उम्मीद की किरण तो दिखाई जरूर देने लगी है. दशाश्वमेघ घाट पर पहुंचने वाले रास्ते भी बिल्कुल साफ सुथरे नजर आने लगे हैं. गोदौलिया चौक पर ठंडाई की दुकान चलाने वाले राजू केसरी ने मुझसे कहा है कि मोदी ने घाट किनारे सफाई का कमा तो दिखा दिया है.

वाराणसी में प्रमुख रूप से अस्सी घाट हैं. पहला है आदिनाथ घाट और अंतिम है अस्सी घाट. चलिए अब अस्सी घाट की ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफाई की शुरुआत की थी. नाव से यह सफर करीब एक घंटे का है. दरभंगा घाट, राना महल घाट, राजा घाट और भी बहुत सारे घाट. सारे घाटों के किनारे लोग नहाते हुए नजर आ रहे हैं. पिछली बार जब मैं आया था तब इन घाटों पर गंदगी इतनी थी कि नहाने की कोई हिम्मत ही नहीं कर सकता था. अब पानी मे गंदगी दिखाई नहीं दे रही है. मेरा नाव वाला रमेश शंकर कह रहा है कि पानी साफ है तो कोई अब गंदगी फेंकता भी नहीं है. यहां आने वालो का रवैया बदला हुआ है. हर कोई वारणसी के घाटों को स्वच्छ देखना चाहता है. गंगा को साफ देखना चाहता है. साफ सफाई देखकर वाकई दिल खुश हो रहा है और दिल चाह रहा है कि गंगा का पानी भी निर्मल हो जाए. तभी मेरी नजर जाती है राजा घाट के पास ड्रेनेज की एक मोटी पाइप पर जिसमें से थोड़ा ही सही लेकिन ड्रेनेज का पानी आ रहा है. वहीं एक व्यक्ति शौच भी कर रहा था. मेरे नाव वाले ने कहा कि इनका समझावें मोदी अईहें का?



काशी का अस्सी!
अब हम आ पहुंचे हैं अस्सी घाट . यह लेखकों, कवियों, कलाकारों और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के विद्वानों का पसंदीदा घाट है. कला और संस्कृति का यहां जमघट होता है इसीलिए नरेंद्र मोदी ने सफाई की शुरुआत यहीं से की. दशश्वमेघ घाट की तुलना में यहां भीड़ कम है. सफेद दुधिया रोशनी से पूरा घाट नहाया हुआ है. अस्सी घाट पर औसतन 300 लोग प्रति घंटे आते हैं. पर्व त्यौहारों के अवसर पर यह संख्या 2500 प्रति घंटे तक पहुंच जाती है. यहां एक साथ 22500 लोग जमा हो सकते हैं. मैं  यहां विदेशी पर्यटकों की भीड़ देख रहा हूं. तभी मेरी नजर जाती है वहं पास मे खुदाई कर रही मशीनों पर. मशीन दूसरे घाट पर है लेकिन वह भी अस्सी का ही हिस्सा है. पता चलता है कि यहां दिन और रात काम चल रहा है. यहां 26 मई को मोदी सरकार की सालगिरह पर कार्यक्रम होने वाला है.
मैं अभी उस पप्पू चायवाले की दुकान पर जाना चाहता हूं जो नरेंद्र मोदी के चुनाव में उनके नामांकन का एक प्रस्तावक था. पप्पू की दुकान खानदानी है और दुकान की उम्र 100 साल से उपर हो चुकी है. इसी घाट के नाम पर प्रसिद्ध लेखक काशिनाथ सिंह ने ‘काशी का अस्सी’ नॉवेल भी लिखा है. फिलहाल वक्त इजाजत नहीं दे रहा है. रिपोर्ट  फाइल करनी है. चलिए लौटते हैं. पप्पू की चाय इसी यात्र में किसी दिन पीएंगे.
लौटते हुए मुङो हिंदी साहित्यकार केदारनाथ सिंह की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं. वाराणसी के बारे में बहुत सटीक लिखा है..
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है.
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है

इस धीमी चाल वाले शहर में कम से कम घाटाों पर तो विकास की रफ्तार धीरे नहीं है. शहर भी घूमेंगे और देखेंगे कि वहां तस्वीार कितनी बदली है?


अब मोटरबोट पर लाशें
वाराणसी के घाट वाले इलाके की बड़ी समस्या रही है शव यात्रएं. हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि जिसकी मौत काशी में होती है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है. यही कारण है कि बड़े बुजूर्ग मोक्ष की चाहत में यहां खिंचे चले आते हैं. वे घाट किनारे की धर्मशालाओं में जिंदगी की अंतिम घड़ी का इंतजार करते हैं. जाहिर है कि वाराणसी में दिवंगत होने वालों की संख्या ज्यादा होगी ही. पहले मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट की ओर जाने वाली सड़क पर दिन भर शव यात्रएं निकलती रहती थीं. दुकानदार से लेकर सड़क पर चलने वाले तक परेशान होते थे. ट्रेफिक जाम होता रहता था. अब हालात बदल गए हैं. अब शव या तो मोटरबोट से ले जाए जाते हैं या फिर शव वाहन से. 5 शव वाहनों की व्यवस्था की गई है.  इसके लिए नव गठित संस्था‘मुक्ति मित्र’ काम कर रही है. गुजरात के उद्योगपति सुधांशु मेहता ने यह संस्था खड़ी की है.

नहाने से तलाक!
नारद घाट से गुजरते हुए मुङो इस घाट के बारे में फैेले एक वहम की याद आ गई पर अमूमन पति पत्नी कभी स्नान नहीं करते. इसका कारण एक बहुत बड़ा वहम है. वहम यह है कि यदि पति पत्नी नारद घाट पर स्नान कर लें तो उनका तलाक हो जाता है! गजब का वहम है यह! हां, कुंवारे लोग यहां स्नान जरूर करते हैं. 

थोड़ा सा काम हुआ है, अभी बहुत है बाकी!


वाराणसी, 25 मई।
वाराणसी इस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आश्वासनों की लंबी फेहरिस्त देखकर चकराया हुआ है. लोग मोदी से चमत्कार की उम्मीद किए बैठे थे लेकिन वाराणसी शहर में कोई चमत्कार दिखाई नहीं दे रहा है. परिवर्तन है केवल सफाई की. रात ढ़लते ही सफाई शुरु हो जाती है लेकिन सड़कों का वही पुराना हाल है. सड़कों को चौड़ा करना मुश्किल काम है. ऐसे में क्या वाकई परिवर्तन हो पाएगा?
इसी शहर में जन्में और पले बढ़े राजेश कुमार बता रहे हैं कि आंकड़े तो बहुत बड़े बड़े हैं लेकिन सवाल है कि ठीक से काम भी तो प्रारंभ होना चाहिए. एक साल बीत गए हैं. इस बीच ड्रेनेज की समस्या का निदान निकाला जा सकता था लेकिन अभी इस मामले में कुछ खास नहीं हुआ है.बुनकरों के लिए ट्रेड फैसिलिटेशन सेंटर की नींव पिछले साल प्रधानमंत्री ने रखी थी लेकिन काम अभी तक शुरु नहीं हुआ है.  उस पर एक ईंट नहीं रखी जा सकी है. शहर का गंदा पानी अभी भी गंगा में मिल रहा है. मेयर रामगोपाल मोहले कहते हैं कि करधना का वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट इस साल शुरु हो जाएगा लेकिन हकीकत यह है कि यह प्लांट 2012 से बनकर तैयार है लेकिन अभी तक इसे प्रारंभ नहीं किया जा सका है.
चेतगंज की अनुप्रिया मोदी की फैन हैं लेकिन अब उन्हें भी यह डर सताने लगा है कि सभी वादें शायद ही पूरे हो पाएं क्योंकि वाराणसी में जो रफ्तार दिखाई देनी चाहिए वह दिखाई नहीं दे रहा है. वे कहती हैं कि बहुत सी जगह पर सड़कें खाद दी गई हैं, अब बारिश आने वाली है, जरा सोचिए कि हमारी हालत क्या होगी. उनकी सहेली रश्मि को भी मोदी के सभी वादे पूरे होने में शंका है. वे तो मोदी की फेहरिस्त ही गिना देती हैं. वे मुझसे ही सवाल पूछती हैं कि मेट्रो, मोनो रेल, 6 लेन वाला हाईवे, फ्लाई ओवर्स, रिंग रोड, सैटेलाइट टाउन जैसे प्रोजेक्ट यदि इस शहर में आने हैं तो कहीं कोई सुगबुगाहट तो होनी चाहिए कि नहीं?  हां, वे भी शहर की सफाई की तारीफ करती हैं.
अस्सी रोड पर नरेंद्र मोदी का संसदीय कार्यालय है. रविवार को कार्याय बंद रहता है. सोमवार को भी इसके प्रमुख शिवशरण पाठक यहां मुलाकात नहीं हो पाई लेकिन उनके कार्यालय में हर रोज 50 से 60 शिकायतें आती हैं. ज्यादातर शिकायतें सड़कों को लेकर है कि खुदाई हो गई है लेकिन गड्ढे नहीं भरे जा रहे हैं.

गाय से पूछते हैं
रस्ता देबू?
टिपिकल बनारसी आदमी गाय को सड़क से भगाएग नहीं. यदि कहीं गऊ माता इस तरह खड़ी हों कि गली में जाना मुश्किल हो जाए तो वह आदमी गाय से कहेगा- रस्ता देब? कमाल की बात है कि गाय रास्ता भी दे देती है. मैंने कई बार इस तरह के दृष्य देखे. गाय सड़कों को घेर कर बैठी रहती हैं. ये शहर के लिए सबसे बड़ा संकट हैं. इन्हें हटाने पर यहां के लोग ही राजी नहीं हैं. गल्ले की दुकान चलाने वाले किसुन लाल कहते हैं कि गऊ माता शहर की संस्कृति का हिस्सा हैं. इन्हें परेशान नहीं करना चाहिए.

न अस्सी बची है और न वरुणा
वाराणसी नाम के पीछे दो नदियों के नाम हैं. वरुणा और अस्सी. शहर मे वरुणा का तो मुङो कहीं वजूद नहीं मिला. अस्सी एक जगह नाले के रूप में मिल गई. लोगों ने वरुणा और अस्सी नदी को अतिक्रमित कर लिया है. इसे हटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है. ये नदियां  अब नाले के रूप में गंगा में जाकर मिल जाती हैं.

डीएम साहब को धन्यवाद
एयर पोर्ट की तरफ जाने वाले मार्ग पर मैं अपने कार चालक अमित से पूछता हूं कि यह शड़क तो बहुत अच्छी है? मोदी के आने के बाद बनी है क्या? अमित बताते हैं कि चुनाव के समय डीएम प्रांजल यादव को बार-बार इस सड़क पर आना-जाना पड़ता था. उन्होंने सड़क बनवा दी. धन्यवाद डीम को देना चाहिए, मोदी को नहीं!

उफ् इतनी भीड़ भाड़!
वाराणसी शहर में घूमते हुए यहां की भीड़ भाड़ आदमी को चकरा देती है. आंकड़ों के लिहाज से देखें तो यहां प्रतिवर्ग किलो मीटर में 2400 लोग रहते हैं. पर्यटकों की संख्या इसमें शामिल नहीं है. तुलना के लिए आपको दो आंकड़ें और बताता हूं ताकि आपको पता चल सके कि कितनी सघन आबादी है. नागपुर में प्रति वर्ग किलो मीटर 470, औरंगाबाद में 286 और पुणो में 603 लोग रहते हैं. वाराणसी की यह सघन आबादी समस्याओं को और बढ़ाती है. शहर अब भी गंदगी के आगोश में है. इससे निपटना आसान नहीं है.

आंख मिचौनी कम हुई है
पिछले चुनाव से पहले या चुनाव के दौरान भी वाराणसी में बिजली की स्थिति ठीक नहीं थी. बमुश्किल 7 से 8 घंटे ही बिजली रहती थी. अब हालात बदले हैं. चौबीस घंटे में से 18 से 20 घंटे बिजली मौजूद रहती है. हालांकि वाराणसी संसदीय क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्रों मेंअभी भी दस घंटे से ज्यादा बिजली नहीं मिल रही है.

कचरा जाता कहां हैं?
बनारस में प्रतिदिन 400 मिलियन लीटर कचरा प्रतिदिन जेनरेट करता है.  शहर में केवल 3 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं जहां केवल 102 मिलियन लीटर कचरे का ट्रीटमेंट हो पाता है. तो सवाल है कि बाकी कचरा जाता कहां है?

तो क्या गंगा भी मोक्ष की ओर?


वाराणसी की इस यात्र की यह आखिरी शाम है. जाने से पहले गंगा को एक बार भरपूर नजरों से देखने आ पहुंचा हूं. हर रोज की तरह गंगा आरती का वक्त हो रहा है. घाट दुल्हन की तरह सजने लगी है. दुधिया और पीली रौशनी के बीच घुले मिले मंत्रों का उच्चरण पवित्रता प्रवहित कर रही है. इस  प्रवह के बीच मैं गंगा के प्रवाह को टटेलने की कोशिश कर रहा हूं. मैंने कोई 35साल पहले गंगा को उस रूप में देखा है जब दूसरा छोड़ नजर नहीं आता था. अब तो वो देखिए, उस पर के घाट पर लोग स्नना कर रहे हैं. आप थाड़े से भी सफल तैराक हैं तो गंगा के उस पर जाना कोई कठिन काम नहीं रह गया है. मैं उस घंगा को तलाश रहा हूं जिसके भीतर प्रवाह नहीं, गर्मी के दिनों में भी ऊफान हुआ करता था. अब तो किनारे से तीस फीट तक आप फर्राटे से जा सकते हैं. पानी चार फुट भी नहीं मिलेगा!
पहले दिन हम दशाश्वमेघ घाट से अस्सी की ओर गए थे. आज आदिनाथ घाट की ओर चलते हैं. इसी रास्ते में मणिकर्णिका घाट है जहां हर वक्त कोई न कोई मुर्दा जलता रहता है. इसी ओर सिंधिया घाट है, भोंसले घाट है लेकिन हर घाट एक जैसा नहीं है. कोई मेंटेन्ड है तो कोई थोड़ी सी सफाई वाला. मणिकर्णिक घाट से ठीक पहले नेपाल के राजाओं का घाट है. उसी परंपरा में अभी तक देखरेख हो रही है. पास में चूंकि मणिकर्णिका घाट है इसलिए बड़ेअक्षरों में लिखा है कि शवयात्र वाले मंदिर में न आएं.
मणिकर्णिका घाट किनारे से भी उतना ही सत्य स्थल नजर आता है जितना गलियों की ओर से वहां पहुंचने पर मुङो लगा था. वहां टंगा मोदी का एक श्लोगन मुङो याद आने लगा है-‘मोक्ष सबका अधिकार है’. पता नहीं मोदी ने ऐसा कहा भी होगा या नहीं लेकिन यहां एक बोर्ड तो टंगा है. मैं जीवन की अंतिम ज्वाला को देखते हुए आगे बढ़ रहा हूं. आगे आदिनाथ घाट देखने की इच्छा इसलिए प्रबंल हो रही है क्योंकि पर्चा भरने के पहले केजरीवाल ने यहां स्नानाकिया था. कितना अजीब है ना! पहले घाट को केजरीवाल ने पकड़ रखा है तो अंतिम घाट अस्सी को मोदी ने! बीच मे पूरी काशी है.
आदिनाथ घाट पर नहाने वलों की भीड़ नहीं है.
मैं लौट आता हूं फिर दशाश्वमेघ घाट. आरती खत्म होने को है. घाट पर पैर रखने की जगह नहीं है. मैं सोच रहा हूं कि घाट पर नाव टिकने में काफी वक्त लग जाएगा. मैं नाव नालक रामजी से कहता हूं कि किसी और घाट पर लगा लो, पैदल आ जाएंगे. वह मेरी बिल्कुल नहीं सुनता. एक नाव को ठेलता, दूसरे को पीछे घसीटता जगह बनाता जाता है. कुछ मिनटोंमें हम घाट पर उतरचुके होते हैं. नाव चालक रामजी कहता है बाबा विश्वनथ पर भरोसा रखिए, सबको रास्ता दिखाते हैं. मैं मुस्कुरा देता हूं.
एक चबूतरे पर बैठ गया हूं मैं. घाट की रौशनी दूसरे किानारे तक पहुंच रही है. गंगा जगमग हो रही हैं. मुङो लग रहा है कि यह तो ऐसा ही है जैसे किसी बीमार महिला को ब्यूटीफिकेशन कर दें और कहें कि बहुत स्वस्थ है ये! मंत्रोच्चर और आरती के मधुर स्वरों के बीच भी एक गाना मेरी जुबान पर चढ़ आता है..राम तेरी गंगा मैली हो गई! मैं खुद को दिलासा देने की कोशिश करता हूं. नमामी गंगे प्रोजेक्ट को याद करता हूं. गंगा को लेकर किए जा रहे प्रयासों को एक एक कर याद करता हूं ताकि गंगा को लेकर मेरा भय कुछ कम हो सके. फिर मुङो मणिकर्णिका घाट वाला वो बोर्ड याद आ जाता है..मोक्ष सबका अधिकार है!
..तो क्या गंगा का भी?
सरस्वती की तरह क्या गंगा भी लुप्त हो जाएंगी?
गंगा के बिना भारत मां का आंचल कैसा होगा?
देश के विशाल क्षेत्र को उपजाऊ मिट्टी कौन लाकर देगा? सवाल उमड़ घुमड़ रहे हैं.

लीजिए, आरती समाप्त हो गई है. घाट अब वीराना होना चाह रहा है.
मैं गंगा को प्रणाम करता हूं. थोड़ा जल अपने सिर पर डाल लेता हूं. बचपन में मैंने गंगा का साफ पानी पीया है. अब जो पानी है, उसे पीने की हिम्मत मुझमें नहीं है. काश! वो दिन लौट आए जब मैं गंगा का पानी फिर से पी सकूं.

भारत के मुहांने पर खड़ा आईएस

हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि जब संकट बिल्कुल हमारे सिर पर सवार हो जाता है तभी हम सक्रिय होते हैं. आईएस यानि इस्लामिक स्टेट को लेकर भी यही स्थिति है. भले ही हमारे नेतृत्वकर्ता यह कहते रहें कि इस्लामिक स्टेट से भारत को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, हकीकत यही है कि वह हमारे मुहाने तक आ पहुंचा है. बांगललादेश में जो कुछ भी हो रहा है, वह वहां के स्थानीय चरमपंथियों का नहीं बल्कि इस्लामिक स्टेट की हरकते हैं. कई पुजारियों की हत्या वहां हो चुकी है, दूसरे अन्य संप्रदायों के  साथ विदेशी नागरिक भी मारे जा चुके हैं. सवाल यह है कि यह सब क्यों हो रहा है जबकि बांगलादेशी समाज ज्यादा सहिष्णु और भाईचारे से लबरेज समाज माना जाता है. वहां धर्म और संप्रदाय को लेकर एक दूसरे के प्रति ठीक-ठाक समझ है.
दरअसल इन हत्यों के पीछे की वजह जानने के लिए इस्लामिक स्टेट की ऑनलाइन मैग्जिन ‘दबिक’ पर नजर डालना जरूरी है. ‘दबिक’ में उसने घोषणा की है कि उसका एक हिस्सा बांगलादेश में सक्रिय है. और भारत तथा बांगलादेश तक वह शरिया शासन लागू करना चाहता है. शेख अबु इब्राहिम अल हनाफी को बंगाल का अमीर यानि मुख्य नेतृत्वकर्ता घोषित किया गया है. इस शेख के बारे में अभी तक कुछ खास पता नहीं चल सका है.  हालांकि खुफिया सूत्र कह रहे हैं कि शेख अबु इब्राहिम अल हनीफ वास्तव में चौधरी नाम का व्यक्ति है जो कनाडा के ओंटोरियो में पहले रहा करता था और वहीं का नागरिक है लेकिन इससे ज्यादा उसके बारे में कुछ और जानकारी खुफिया संस्थाओं को भी नहीं है.
‘दबिक’ पत्रिका में अबु इब्राहिम का एक इंटरव्यू छपा है जिसमें उसने कहा है कि शेख हसीना की सरकार भारत की पिट्ठु है और रॉ की मदद कर रही है ताकि उसके लोग मारे जाएं. हसीना को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए आईएस हर कदम उठाएगा.  इंटरव्यू में उसने कहा है कि जब तक स्थानीय हिंदुओं का सफाया नहीं किया जाता तब तक ध्रुवीकरण नहीं होगा.
जाहिर है कि बांगलादेश में इस्लामिक स्टेट ध्रुवीकरण चाहता है ताकि उसे घुसपैठ करने में आसानी हो. अभी स्थिति यह है कि बांगलादेश का मुस्लिम समाज आईएस के बिल्कुल खिलाफ है और आतंकवाद की कोई भी घटना होने पर आतंकवादियों का पीछा किया जाता है. पुलिस को उसकी सूचना दी जाती है. इससे आईएस बहुत परेशान है. यही कारण है कि उसके गुर्गे मोटरसाइकिल पर आते हैं, हत्या करते हैं और भाग खड़े होते हैं. एक तरह से वे गुरिल्ला हमले कर रहे हैं. संस्थानों पर हमला करने की उनकी ताकत नहीं है. अबु इब्राहिम ने यह भी कहा है कि स्थानीय मुजाहिदिनों की मदद से भारत में गुरिल्ला हमले किए जाएंगे. उसने बर्मा को भी चेतावनी दी है.
इस्लामिक स्टेट की चेतावनी को भारत हल्के में नहीं ले सकता क्योंकि बांगलादेश के साथ 4096 किलोमीटर लंबी सीमा है. यह विश्व का पांचवा सबसे लंबा बोर्डर है. बांगलादेश के 6 डिवीजन ढ़ाका, खुलना, राजशाही, रंगपुर, शिल्हेट चित्तागॉंग भारतीय सीमा से मिलते हैं और हमले इन्ही इलाकों में हो रहे हैं. सबसे ज्यादा 2217 किलोमीटर सीमा बांगलादेश और पश्चिम बंगाल के बीच है. इस इलाके में बांगलादेशी घुसपैठियों की समस्या से भारत पहले ही जूझ रहा है. वास्तव में इस्लामिक स्टेट चाहता भी यही है कि बांगलादेश में रहने वाले हिंदुओं में खौफ का वातावरण पैदा हो और वे भारत की ओर पालायन करें. इससे दोनों देशों के बीच तनाव पैदा होगा और अभी मौजूद सामंजस्य का ताना बाना टूट जाएगा. ऐसे में आईएस को अपनी जड़ें जमाने में मदद मिलेगी.
भारत और बांगलादेश के बीच जो सीमा है उसमें 856 किलोमीटर सीमा त्रिपुरा, 443 किलोमीटर मेघालय, 262 किलोमीटर असम, 180 कि.मी. सीमा मिजोरम से मिलती है. बहुत बड़े हिस्से में फेंसिंग भी हो चुकी है लेकिन बहुत सा हिस्सा ऐसा है जहां से घुसपैठ होती रहती है. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पूवरेत्तर भारत का यह इलाका जनजातीय समूहों के संघर्ष और बाहरी तत्वों की मदद से उपजे आतंकवाद का शिकार पहले से ही है. यहां यदि इस्लामिक स्टेट ने भी अपनी पैठ बना ली तो भारत के लिए संघर्ष कठिन हो जाएगा.
दरअसल जरूरत अभी इस बात की है कि इस्लामिक स्टेट की रणनीति को समझा जाए और उसके पांव जमने से पहले ही उसे उखाड़ फेंका जाए.   इस्लामिक स्टेट की कार्यशैली से दुनिया परिचित है. कुछ साल पहले ही महाबलि अमेरिका ने कहा था कि इस्लामिक स््टेट का वजूद स्थानीय संगठन से बड़ा नहीं है. कुछ साल के भीतर ही वह दुनिया के लिए राक्षस बन बैठा. इसलिए बांगलादेश में आतंक की हर घटना से हमारा सरोकार है क्योंकि छोटा सा बांग्लादेश यदि इस्लामिक स्टेट की गिरफ्त में आ गया तो सबसे बुरा असर हम पर ही पड़ने वाला है. हमारे लिए यह सचेत होने का समय है.   आईएस हथियारों की आपूर्ति के लिए बंगाल की खाड़ी का इस्तेमाल न कर पाए इसलिए जरूरी है कि कुटनीतिक स्तर पर भी कोशिश होनी चाहिए ताकि इस इलाके के सभी देश आपसी मतभेद भूलकर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ एकजुट हो जाएं. बांगलादेश में यदि आईएस सफल हो गया तो वह मयंमार, थाईलैंड, वियतनाम, मलेशिया तक को गिरफ्त में ले सकता है. यमन और सोमालिया से अरब सागर होते हुए बंगाल की खाड़ी का रास्ता हथियारों की तस्करी का मार्ग बन सकता है. 

Monday, June 20, 2016

हम हिंदी की जगह हिंग्लिश क्यों सींचने में लगे हैं?

एक अखबारनवीस के रूप में मेरे सामने यह सवाल हमेशा ही मुंह बाए खड़ा रहता है कि भाषा कैसी होनी चाहिए? अक्सर कुछ लोग यह कहने से नहीं चूकते कि आपके आलेख का अमुक शब्द जरा कठिन था. मैं सोचने लगता हूं कि क्या वह शब्द वाकई कठिन था? फिर मुङो भारत सरकार के गजट की याद आ जाती है. गजट का हिंदी स्वरूप जब भी मेरे सामने आता है तो मैं उसे कई बार पढ़ता हूं और हर बार लगता है कि समझने में कुछ चूक हो रही है. अंतत: मैं गजट का अंग्रेजी स्वरूप देखता हूं और सबकुछ स्पष्ट हो जाता है. अब इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मैं अंग्रेजी का बड़ा ज्ञाता हूं और यह भी नहीं कि हिंदी मुङो ठीक से नहीं आती! दोनों भाषाएं ठीक-ठाक जानता हूं. दरअसल गजट मूलत: अंग्रेजी में तैयार होता है और उसके रूपांतरण में भाई लोग शब्दकोष से ऐसे-ऐसे शब्द चुन कर लाते हैं कि आदमी घबड़ा जाए! जब ऐसी हिंदी लिखी जाएगी तो उसे पढ़ेगा कौन? तब खयाल आता है कि हिंदी ऐसी होनी चाहिए जिसे आम आदमी पढ़ सके और समझ सके. दरअसल भाषा का यही तो उद्देश्य होता है!
..तो सवाल खह़ा होता है कि क्या मैं अपने आलेख में कुछ कठिन शब्दों का उपयोग करता हूं? मुङो लगता है-नहीं! किसी भाव को स्पष्ट करने के लिए जिन शब्दों की जरूरत हो, उनका उपयोग किया जाना चाहिए. अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए यदि कोई व्यक्ति पांच बार डिक्सनरी देख सकता है या गुगल पर शब्द के अर्थ जानने की जहमत उठा सकता है तो हिंदी का पाठक ऐसा क्यों नहीं कर सकता? क्या सरलता के नाम पर हिंदी को तंग दिल बना दिया जाए? मेरी राय है कि भाषा का अपना स्तर कायम रहना चाहिए. हां, बेवजह का अलंकरण नहीं होना चाहिए. यदि सरल शब्द मौजूद हैं तो बेवजह उसे क्लिष्ट बनाना ठीक नहीं है. वाक्य रचना भी ऐसी होनी चाहिए जो मगज तक सीधे उतर जाए. आप कुछ लिखें और पढ़ने वाला समझ ही न पाए तो उस लेखन का क्या अर्थ? आप कुछ कहें और सामने वाले के दिमाग में कुछ बैठे ही नहीं तो ऐसी बोलचाल का औचित्य क्या है? मजा तो तब है जब आप अपनी बात सामने वाले के दिमाग मैं बिठा दें, भाषा की सरलता के माध्यम से उसके दिल में उतर जाएं.
लेकिन इस  वक्त सवाल केवल हिंदी और हिंदी के शब्दों का नहीं है. सवाल हिंदी की अस्मिता का है. बाजारवाद की हवा में घुली अंग्रेजी हिंदी संसार को प्रदूषित कर देने की भरसक कोशिश कर रही है और इस कोशिश को और हवा दे रही है हमारी गुलाम मानसिकता जहां अंग्रेजी जानना और बोलना श्रेष्ठता का प्रतीक बन बैठा है. मां के मौम और पिता के डैड बन जाने तक तो ठीक है लेकिन कोफ्त तब होती है जब मॉम अबने बेटे को बड़े नाज-ओ-अदा के साथ बताती है-‘बेटा, लुक,  इट्स बटरफ्लाई. हाऊ कलरफुल ना!’ अपने बेटे को अंग्रेजी सिखाने की  ऐसी लत लगी है हमें कि हिंदी को ताक पर रख देने में कोई परहेज नहीं! कोई बच्च कितनी शुद्ध हिंदी बोलता है या लिखता है, उससे ज्यादा पूछ परख इस बात की है कि किसका बेटा अंग्रेजी में अच्छी गिटर-पिटर कर लेता है. अंग्रेजी जानना अच्छी बात है लेकिन क्या अपनी भाषा के प्रति तिरस्कार की कीमत पर? याद रखिए जो समाज अपनी भाषा के प्रति लापरवाह होने लगे, उसकी संस्कृति का क्षरण होने लगता है. दुर्भाग्य यह है कि हमारा समाज इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं है. उसे लगता है कि अंग्रेजी में सारा जहां समाया हुआ है.
अरे अपनी भाषा को जरा जानने की कोशिश तो कीजिए. बहुत फा होगा आपको. अंग्रेजी की औकात का अंदाजा भी हो जाएगा. अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लाफ’ अर्थात हंसना. हमारी हिंदी में हंसने के साथ और भी शब्द है जैसे खिलखिलाना, कहकहे लगाना. बहुत अंतर है हंसने, खिलखिलाने और कहकहे लगाने में. तीव्रता का अंतर है, भाव का अंतर है. इसी से मिलते जुलते शब्द ‘स्माइल’ यानि मुस्कुराने की बात कीजिए. हमारे हिंदी में मुस्कुराने के साथ ‘मुस्की मारना’ भी है. क्या अंग्रेजी में मुस्की मारने के लिए कोई शब्द है? मुस्कुराने और मुस्की मारने में न केवल अंदाज का फर्क होता है बल्कि नजरिए का फर्क भी होता है. ऐसे सैकड़ों शब्दों की चर्चा की जा सकती है. आशय यह है कि हिंदी की व्यापकता को यदि आप समझ पाएं तो सहज ही अंदाजा हो जाएगा कि यह किसी भी भाषा से श्रेष्ठता में कहीं कम नहीं बैठती. कम से कम अंग्रेजी से तो बिल्कुल नहीं. अंग्रेजी से ज्यादा श्रेष्ठ है हमारी भाषा. तो सवाल उठना लाजिमी है कि हम अंग्रेजी को अपनी भाषा में घुसेड़ने को क्यों लालायित रहते हैं? हम हिंदी की जगह हिंग्लिश क्यों सींचने में लगे हैं?
अंग्रेजी के पक्ष में कई लोग तर्क देते हैं कि वह अत्यंत सहज भाषा है. मेरा सवाल यह है कि हिंदी की सहजता में कहां कमी है? हम भाव की अभिव्यक्ति में अंग्रेजी से दस कदम आगे हैं. यदि कोई हिंदी को जानने की कोशिश ही न करे तो उसमें हिंदी का कहां दोष है? दोष तो मानसिकता में है! मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि वैश्विक तरक्की के लिए अंग्रेजी को जीवनशैली में शामिल कर लेना बहुत जरूरी है. यदि ऐसा होता तो दुनिया में तेज रफ्तार तरक्की करने वाला चीन कब का अंग्रजीमय हो गया होता. दरअसल मामला मानसिक गुलामी का है. अंग्रेज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अंग्रेजी की गुलामी हमने ओढ़ रखी है. अंग्रेज बन जाने को आतुर कुछ लोग एक और भी तर्क देते हैं कि अंग्रेजी जब दुनिया भर की भाषाओं से शब्दों को अपने में शामिल कर रही है तो हिंदी को अंग्रेजी के शब्द ग्रहण करने में क्या परेशानी है? ऐसे लोगों को मैं बताना चाहता हूं कि किसी भी भाषा के विकास में दूसरी भाषा के शब्दों का योगदान निश्चय ही मायने रखता है लेकिन इतना भी नहीं कि मूल भाषा ही परिवर्तित होने लगे. हिंदी की विकास गाथा यदि आप पढ़ें तो उसमें फारसी के करीब साढ़े तीन हजार और अरबी के ढ़ाई हजार शब्द शामिल हैं. इतना ही नहीं पश्तो के भी कई शब्द हिंदी में समाहित हैं.
शब्दों को शामिल करने का तर्क देने वालों को मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हिंदी से जुड़ी क्षेत्रीय बोलियों में शामिल किए जाने वाले शब्दों को भी यदि हम हिंदी के शब्दकोष का हिस्सा मान लें तो दुनिया की कोई दूसरी भाषा हमारे पासंग में भी नहीं बैठती! जब इतनी श्रेष्ठ भाषा है हमारी तो हम क्यों इसे बर्बाद करने में लगे हैं. याद रखिए कि किसी भी भाषा के विकास में सैकड़ों-हजारों वर्षो का वक्त लगता है. कुछ वर्षो और अंग्रेजी के प्रति थोड़ी सी सनक में इसे बर्बाद मत कीजिए. हिंदी बोलिए, हिंदी में काम करिए और हिंदी जानने का अभिमान भी करना सीखिए!

जर्मन बनाम संस्कृत


सरकार तो सरकार है! कुछ भी कर सकती है! आपके नफा नुकसान से उसे क्या लेना देना? वह तो अपना नफा नुकसान देखती है. जर्मन भाषा जर्मनी की है, उससे कोई नफा तो सरकार को होने वाला है नहीं. इसलिए केंद्रीय विद्यालयों से उसे बाहर का रास्ता दिखाने में क्या हर्ज है? संस्कृत अपनी है. संस्कृत जानने वाले अपने हैं. देव भाषा है भाई!  इसे स्थापित करेंगे तो अपनी राजनीति चमकेगी. सरकार का नाम होगा! लोग कहेंगे कि इसे सरकार कहते हैं जो अपनी भाषा की चिंता करे! अभी तक किसी सरकार ने चिंता नहीं की थी. ये सरकार कर रही है! ..लेकिन सरकार से यह कौन पूछे कि जर्मन भाषा को एक झटके में कोर्स से खत्म कर देने का जो नुकसान देश को होगा, उसकी भरपाई कौन करेगा?
मैं संस्कृत का कतई विरोधी नहीं हूं. सच कहें तो संस्कृत में बसती है हमारी संस्कृति. हम जिस भाषा में बोलते-चालते हैं वह संस्कृत की ही उपज है. इस देश में और भी कई भाषाएं हैं जिनकी बुनियाद में संस्कृत ही है. इसलिए संस्कृत के प्रति पूरा सम्मान है जेहन में. और हां, मैं जर्मन तो बिल्कुल नहीं जानता और न कभी जर्मनी गया हूं, इसलिए उसका पक्षधर होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता!
हां, मैंने जितना पढ़ा है और जितना जाना है, उसके आधार पर यह सवाल जरूर खड़ा करना चाहता हूं कि जर्मन की जगह संस्कृत स्थापित करने के पीछे क्या केवल संस्कृत प्रेम है? क्या कोई राजनीति नहीं है? क्या एक वर्ग को खुश करने की कोशिश नहीं है? कमाल तो यह है कि जिस वर्ग को खुश करने की कोशिश है, उस वर्ग का बड़ा हिस्सा ही अपने बच्चों को संस्कृत नहीं पढ़ाता! उसे पता है कि एक विषय के रूप में संस्कृत बहुत बेहतर रोजगार दे पाने की स्थिति में नहीं है. हां संस्कृत के प्रकांड हो जाएं तो बात अलग है. किसी भी भाषा के प्रकांड को बेहतर जगह मिल ही जाती है. मैं तो सामान्य सी बात कर रहा हूं. जब हिंदी के प्रति ही प्रेम नहीं बचा है तो संस्कृत के प्रति प्रेम कहां से पैदा होगा?
चलिए, यह जानने की कोशिश करते हैं कि केंद्रीय विद्यालयों में अभी जर्मन क्यों पढ़ाया जा रहा है. दरअसल विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत और जर्मनी का सहयोग काफी पुराना है. विज्ञान और तकनीक के संदर्भ में जर्मनी के साथ 1971 और 1974 में दो महत्वपूर्ण समझौते हो चुके हैं जिसका फायदा हमें ज्यादा मिला है. भारत और जर्मनी के बीच 170 साइंस प्रोजेक्ट चल रहे हैं. भारतीयों को अभी तक 1800 फेलोशिप मिल चुका है. जर्मनी की मैक्स प्लैंक सोसायटी ने भारत के साथ विज्ञान और तकनीक में सहयोग के लिए 50 से ज्यादा प्रोजेक्ट हाथ में लिए हैं. जर्मनी के मेंज और भारत के चेन्नई के वैमानिक मिलकर स्वास्थ्य और जलवायु पर रिसर्च कर रहे हैं. दिल्ली में अक्टूबर 2012 में जर्मन हाउस फॉर रिसर्च एंड  इनोवेशन की स्थापना हुई. दुनिया में इस तरह के केवल पांच संस्थान हैं. जाहिर है कि इतने सारे प्रकल्प चल रहे हों तो भारत में ऐसे लोगों की जरूरत होगी जो जर्मन भाषा जानें. जर्मनी में भी ऐसे लोगों की जरूरत होगी जो भारतीय हों और जर्मन लिख बोल सकते हों. यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भाषा की निकटता से आपसी संबंध ज्यादा मधुर होते हैं.
यह मान भी लें कि जर्मनी अपनी भाषा को बढ़ाने की कोशिश कर रहा  है तो सवाल उठता है कि संस्कृत या हिंदी को बढ़ाने से हमें किसने रोका है? हम ताल ठोंक सकते हैं कि दुनिया के 200 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. लेकिन क्या हम यह कह सकते हैं कि विज्ञान और तकनीक की शब्दावली हमने तैयार कर ली है? आपको बता दें कि अंग्रेजी के बाद जर्मन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी वैज्ञानिक भाषा है. रिसर्च और डेवलेपमेंट में उसका स्थान दुनिया में तीसरा है. हिंदी का हाल तो यह है कि अपना सरकारी गजट ही आप नहीं समझ सकते! संस्कृत तो बहुत दूर की बात है! जर्मन भाषा ने विश्व बाजार में पहले अपनी हैसियत बनाई है फिर दुनिया में निकला है. जर्मनी अपनी भाषा जानने वालों को ढ़ेर सारा स्कॉलरशिप देता है. कुशलता प्राप्त प्रोफेशनल्स को वर्किग वीजा भी देता है. जर्मन पढ़ने वाले बच्चों को एक्सचेंज प्रोग्रराम के तहत घूमने का मौका देता है.जर्मन पढ़ने से व्यापार व्यवसाय और नौकरी में बेहतर अवसर मिल सकते हैं.  जर्मनी के टूरिस्ट बड़ी संख्या में पर्यटन पर जाते हैं और सबसे ज्यादा खर्च करते हैं. उन्हें जर्मन जानने वाले दुभाषिए की जरूरत रहती है.
जर्मनी भारतीय स्कूलों को भविष्य का पार्टनर कहता है. 1100 सीबीएससी विद्यालयों के साथ उसका एसोसिएशन है. दुनिया में हर तीसरी किताब जर्मन भाषा में छपती है. योरप के विभिन्न देशों में, खासकर पूर्वी योरप में जर्मन भाषा खूब  बोली जाती है. सरकार, आप जर्मन को स्कूल से निकाल देंगे तो कुछ राजनीतिक नफा आपको जरूर होगा लेकिन देश की नई पीढ़ी को नुकसान बहुत हो जाएगा.
जर्मनी आपकी राजनीतिक मजबूरी को समझता है इसलिए उसने अब प्रस्ताव रखा है कि पांचवीं से आठवीं तक जर्मन नहीं पढ़ा सकते तो कम से कम नवीं से ग्यारहवीं तक जरूर पढ़ाएं. आपसे गुजारिश है कि फैसला बच्चों पर छोड़ दीजिए कि वे कौन सी भाषा पढ़ना चाहते हैं. संस्कृत पढ़ाना ही है तो पहली से पांचवीं तक पढ़ाईए ताकि संस्कृत के प्रति समझ तो पैदा हो!



खतरा डिजीटल डार्क एज का



जरा कल्पना कीजिए कि अगले तीस साल तक अपनी तस्वीरें, अपनी रिपोर्ट्स और दूसरे डाटा कंप्यूटर के हार्डडिस्क पर निरंतर सेव करते जा रहे हैं. इस बीच आप कंप्यूटर भी बदल रहे हैं और नए कंप्यूटर पर या एक्सटर्नल हार्डडिस्क पर सभी डाटा ट्रांस्फर भी कर रहे हैं. तीस साल बाद किसी दिन आपका नया कंप्यूटर अचानक आपका कोई डाटा नहीं खोल पाता है. आप कंप्यूटर इंजीनियर के पास पहुंचते हैं और वह कहता है कि जिस फॉर्मेट में इसे सेव किया गया था, वह अब चलन में नहीं है. इसे कैसे खोले? जाहिर है कि आपके पास पछताने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं होगा. बीस साल पहले जिन लोगों ने फ्लॉपी पर डाटा सेव किया होगा, आज उन्हें फ्लापी डिस्क वाले कंप्यूटर ही नहीं मिलेंगे जिसमें वे फ्लॉपी लगा सकें! इस स्थिति की कल्पना भी सिहरन पैदा करती है. इसी स्थिति को कंप्यूटर वैज्ञानिकों ने नाम दिया है-डिजीटल डार्क एज!

तो क्या हम डिजीटल डार्क एज की ओर वाकई बढ रहे हैं? कोई और कहता तो शायद हम उसकी बात को हंसी में उडा देते लेकिन यह चेतावनी कंप्यूटर की दुनिया के महारथियों की ओर से आ रही है. गुगल के वाइस प्रेसिडेंट और इंटरनेट के पितामह कहे जाने वाले विंटन ग्रे सर्फ ने फोटोग्राफरों और डाटा स्टोरेज करने वालों को चेतावनी दी कि सबकुछ प्रिंट करके भी रखें अन्यथा किसी दिन डिजीटल डार्क एज के शिकार हो सकते हैं. उनकी यह चेतावनी वाकई बहुत गंभीर है. कंप्यूटर में जो भी डाटा रहता है, उसे देखने, पढने या समझने के लिए कंप्यूटर कई तरह के प्रोग्राम्स और ऑपरेटिंग सिस्टम का उपयोग करता है. वक्त के साथ डाटा एक्सेस करने वाले तरीके पुराने पर जाएंगे. उदाहरण के लिए फ्लॉपी डिस्क के डाटा या पुराने वीसीआर टेप को देखना अब सामान्य व्यक्ति के लिए असंभव जैसा हो गया है. यहां तक कि फोटोशॉप के तीन साल पुराने वर्जन को नए आधुनिक कंप्यूटर पर लोड करना अत्यंत कठिन काम है. टेक्नोलॉजी के विकास के साथ इस तरह की समस्याएं भी बढती चली जाएंगी. दुनिया में डिजीटल डाटा बढता ही जा रहा है इसलिए यह जरूरी है कि उसे पढने, देखने और समझने के सॉफ्टवेयर को भी वजूद मे बनाए रखा जाए. जरूरी हो तो उसे नए फॉर्मेट में तब्दील कर लिया जाए.  

स्थिति की गंभीरता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि नासा जैसी संस्था को भी डिजिटल डार्क एज की समस्या से जूझना पड़ा है और एक बार नहीं, कई बार. 1976 के विकिंग मार्स लैंडिंग के मैग्नेटिक टेप करीब दस साल तक अनप्रोसेस्ड रहे. बाद में जब कंप्यूटर पर उनका विश्लेषण करने की कोशिश हुई तो वह पढा नहीं जा सकता था क्योंकि उसका फॉर्मेट अज्ञात था. ओरिजनल फॉर्मेट  या तो समाप्त हो चुका था या नासा ने उसका प्रयोग बंद कर दिया था. बहुत मुश्किल से कुछ तस्वीरें प्राप्त की जा सकीं.

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ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर
से होगी आसानी
एक महत्वपूर्ण खतरा फाइल फॉरमेट को लेकर भी है. कई फॉर्मेट वक्त के साथ पीछे छूटते चले गए . ऐसे सॉफ्टवेयर भी खत्म होते जा रहे हैं जो शुरुआती दौर में फाइलिंग के लिए काम में आते थे. वर्ष 2क्क्7 में माइक्रोसॉफ्ट ने ब्रिटेन के नेशनल आर्काइव के साथ एक संयुक्त कार्यक्रम बनाया ताकि भविष्य में कभी डिजीटल डार्क एज की समस्या पैदा न हो. अभी जो करोडों अनपढी कंप्यूटर फाइलें हैं, उन्हें पढा और देखा जा सके. सबसे बेहतर विकल्प है कि किसी फाइल फॉर्मेट को पढने या उसकी भाषा में लिखने का कोड सार्वजनिक हो. अभी बहुत से कोड सार्वजनिक नहीं रहते हैं. ब्रिटेन के नेशनल आर्काइव ने कहा भी है कि ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर से सबकुछ आसान होगा.

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पितामह का सुझाव
सर्फ कहते हैं कि 21वीं शताब्दी के डाटा को बचाना है तो हमें ऐसा सिस्टम विकसित करना होगा जो हर तरह का डाटा स्टोर करने के साथ ही उस डाटा को एक्सेस करने वाले सभी आवश्यकताओं को भी स्टोर करे. उदाहरण के लिए 32 बिट से 64 बिट आर्किटेक्चर ऑपरेटिंग सिस्टम पर जब मैक ने चेंज किया तो नए सिस्टम को इस तरह तैयार किया गया कि 32 बिट सिस्टम भी उसमें शामिल रहे ताकि पुराने सॉफ्टवेयर भी उपयोगी बने रहें. सर्फ का मानना है कि यदि हम इस तरह का सिस्टम विकसित नहीं कर पाए तो 21वीं शताब्दी ‘सूचनाओं का ब्लैक होल’ बन जाएगी.

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इल्फा की बैठक में
पहली बार हुई चर्चा
‘डिजिटल डार्क एज’ के बारे में सबसे पहली बार 1997 में इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ लाइब्रेरी ऐसोशिएशन्स एंड इंस्टीट्यूशन्स  (इल्फा) की बैठक में सुना गया. 1998 में डिजिटल टेक्नॉलॉजी के भविष्य को लेकर हुई ‘टाइम एंड बिट्स’ कांन्फ्रेस में भी इस शब्द को लेकर काफी चर्चा हुई. सवाल केवल लिखित दस्तावेजों को लेकर नहीं है. डिजीटल डार्क एज का खतरा फोटो, वीडियो, ऑडियो और सभी तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को लेकर है. 

लक्ष्मी घर क्यों नहीं आई?


जब से होश संभाला है तब से लक्ष्मी को मैं दो रूपों में जानता रहा हूं. जब भी किसी के घर में बिटिया का जन्म होता है या बहु आती है तो कहा जाता है-‘लक्ष्मी घर आई है!’ दूसरी उस लक्ष्मी को जानता हूं जिसे हम सभी धन कहते हैं और निश्चित रूप से जो जीवन का आधार भी है. दिवाली के दिन इसी लक्ष्मी की पूजा खास तौर पर की जाती है ताकि हमें कभी धन की कमी का समाना न करना पड़े. इस लक्ष्मी को यूं तो हम हर दिन और हर वक्त मन ही मन पूजते ही रहते हैं लेकिन दिवाली खास मौका होता है. यह एक उम्मीद की पूजा भी है कि हमारे जीवन में सदा उजियारा रहे. जीवन जश्न से भरपूर हो.

फिलहाल हम दिवाली की पौराणिक कथाओं से हट कर जरा ये सोचें कि हमारी संस्कृति उन दोनों लक्ष्मियों के बारे में क्या सोच रखती है और क्या हम अपनी सांस्कृतिक विचारधारा के अनुरूप लक्ष्मी के दोनों स्वरूपों को पूज रहे हैं? यह एक गंभीर सवाल है और सच मानिए कि जिस दिन हमने और हमारे समाज ने इस सवाल को सुलझा लिया, उस दिन जीवन में वाकई उजियारा आ जाएगा! बहरहाल मौजूदा वक्त का सच यही है कि हम दूसरी लक्ष्मी के लिए इतना अधीर हुए जा रहे हैं, इतने बेसब्र हैं कि यह सोचते तक नहीं कि ये दूसरी लक्ष्मी आ किस रास्ते से रही है? बस लक्ष्मी चाहिए, किसी भी तरह चाहिए!

..और पहली लक्ष्मी? कुछ आंकड़े आपको भयभीत कर सकते हैं. हरियाणा के सत्तर गांवों में पिछले कई सालों से किसी लड़की का जन्म ही नहीं हुआ है. हरियाणा में लक्ष्मी के साथ क्रूरता की खबरें आती रही हैं लेकिन इसी साल मेनका गांधी ने जब पानीपत में यह खुलासा किया तो रोंगटे खड़े हो गए. इतने सारे गांवों में लड़कियों का जन्म नहीं ले पाने का कारण क्या हो सकता है? दरअसल मेनका गांधी ने ही एक दूसरे आंकड़े से यह बता दिया कि ऐसा क्यों हो रहा है. और यह आंकड़ा है कि इस देश में हर दिन करीब 2000 लड़कियों को गर्भ में ही खत्म कर दिया जाता है. साल के 365 दिनों से इसे गुना कर दें तो यह आंकड़ा सालाना 7 लाख 30 हजार के आसपास पहुंच जाता है. जो देश इतनी सारी बच्चियों को जन्म ही न लेने दे, वहां लक्ष्मी के घर आने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है. हरियाणा में स्थिति थोड़ा ज्यादा विकट है लेकिन देश के दूसरे राज्यों में अच्छी स्थिति कहां है? सरकार ने लिंग परीक्षण और कन्या भ्रुण हत्या को दंडणीय अपराध घोषित कर रखा है. प्रचार माध्मों पर इसका खुलासा होता रहता है फिर भी इस देश में हजारों, लाखों ऐसे परिवार हैं जो बेटियों को जन्म ही नहीं लेने दे रहे हैं. सवाल पूछना लाजिमी है कि इन घरों में लक्ष्मी क्यों नहीं आ रही है?

लक्ष्मी यदि घर आ भी जाती है तो उसके साथ हम कैसा सलूक करते हैं. लड़कों और लड़कियों में भेदभाव क्या इस देश की वास्तविकता नहीं है? ऐसे कम ही घर होंगे जहां लड़कियों को वही लार दुलार और प्यार मिलता होगा जितना लड़कों को मिलता है! इसके कई घृणित कारण हमारे समाज के मानस में जमा हुआ है. इनमें से सबसे बड़ा कारण दहेज है जो देश के ज्यादातर हिस्सों में फैला हुआ है. उत्तर भारत में तो लड़की के जन्म के साथ ही दहेज की तैयारियां भी शुरु हो जाती हैं क्योंकि लड़की शादी यदि किसी कमाऊ लड़के से करनी है तो उसके लिए लाखों लाख रुपए का दहेज चाहिए. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि लड़के का बाप पूरा हिसाब किताब लड़की के पिता के सामने रख देता है कि लड़के को पढ़ाने लिखाने में कितना खर्च हुआ है. वह एक बार भी नहीं सोचता कि लड़की को पढ़ाने लिखाने में भी तो खर्च होता है. बहुत से लोग यह भी तर्क देते हैं कि लड़की की शादी में दहेज देते हैं तो लड़के की शादी में दहेज क्यों न लें? यह घृणित मानसिकता है.

दहेज दे वास्तव में हमारे समाज में दानव का रूप ले लिया है. देश में हर डेढ़ घंटे में एक बहु दहेज के लिए जला दी जाती हैं, किसी और तरीके से मार दी जाती हैं. ऐसे में यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि जिस देश में बहु को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया वहां लक्ष्मी के साथ यह र्दुव्‍यवहार क्यों किया जाता है? क्या हम लक्ष्मी के इस स्वरूप का सम्मान नहीं कर सकते? पूजने की बात तो बहुत दूर की है, लक्ष्मी के इस रूप को हमारे समाज का बड़ा हिस्सा धन रूपी लक्ष्मी लाने का माध्यम मान बैठा है. जब इस तरह क पिशाची प्रवृति हावी हो जाए तो लक्ष्मी के घर आने और खुशहाली से वास करने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है?

अब जरा दूसरी वाली लक्ष्मी की बात करें. दूसरी यानि धन स्वरूपा लक्ष्मी की. हमारी संस्कृति में धन के साथ एक और शब्द जुड़ा हुआ है. वह संपदा. संपदा का अर्थ केवल भौतिक चीजों से नहीं है बल्कि संपदा तो हम उन चीजों को मानते रहे हैं जो प्रकृति की ओर से धरती को मिली हुई है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि हमने संपदा को नष्ट करने की ही ठान ली है. अपने आस पास नजर दौड़ाकर देखिए कि प्रकृति की कितनी संपदा को हम सहेज रहे हैं? हम केवल धन की बात कर रहे हैं. संपदा कहीं पीछे छूट गई है. धन रूपी लक्ष्मी के लिए इतना आदर उमड़ पड़ा है, इतनी चाहत पैदा हो गई है हमारे भीतर कि हम कुछ भी करने को तैयार हैं. लक्ष्मी यदि सामने के रास्ते से न आ रही है तो उसे चोर दरबाजे से ले आओ. हमारी इसी प्रवृति ने भ्रष्टाचार को जन्म दे दिया है. जो जहां बैठा है, लक्ष्मी की लूट में शामिल होने से नहीं कतरा रहा है. एक अधिकारी के घर पर छापा पड़ता है तो दो करोड़ रुपए नगद मिल जाता है.  दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसकी किस्मत में धन वाली लक्ष्मी है ही नहीं!

हमारी भारतीय संस्कृति में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि जिस घर में लक्ष्मी का सम्मान होता है वहां बरकत होती है. तरक्की होती है. खुशहाली आती है. अब आप ही सोचिए कि लक्ष्मी के दोनों स्वरूपों की यदि हम पूजा न करें, सम्मान न करें तो क्या वास्तविक लक्ष्मी का वास हमारे घर हो पाएगा? जब घर की बेटी और बहु ही खुशहाल न हो तो घर में खुशहाली कहां से आएगी? दिवाली का उजियारा कैसे आएगा?

बेटी और बहु का सम्मान ही वास्तविक लक्ष्मीपूजन है.

हम खौफ की गोद में क्यों जा बैठे हैं?


पि छले  सप्ताह दिल्ली में एक डॉक्टर की हत्या हुई और कुछ ही मिनटों में खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई क्योंकि इसमें फटाफट मीडिया के लिए भरपूर मसाला मौजूद था. क्रिकेट था, गुंडे थे, आतंक था, बाप को मरते हुए देख रहा आक्रांत बच्च था, धर्म का फैक्टर था!  फटाफर मीडिया ने खबर फैलाई और  सोशल मीडिया पर टिप्पणियों और भड़ास का सैलाब आ गया. मरने वाला इस धर्म का था, मारने वाला उस धर्म का था! कुछ लोगों ने जरूर गिनाया कि मारने वालों में दोनों ही धर्मो के लोग शामिल थे लेकिन ऐसे लोगों की सुनता कौन है? सोशल मीडिया पर नफरत की आंधी अब भी चल रही है.
अब जरा इस बात पर गौर करिए कि इस पूरे प्रकरण में वो मुद्दा ही गौण हो गया जिस पर एक सभ्य समाज के नाते हमें गौर करना चाहिए. डॉ. नारंग पर जब हमला हुआ तब उन्होंने शोर मचाया, खुद को बचाने के लिए पड़ोसियों को आवाज देते रहे. उनका बेटा चीखता रहा, चिल्लाता रहा लेकिन एक भी पड़ोसी उनकी मदद के लिए बाहर नहीं निकला! अब टीवी पर किस्से सुनाने के लिए बहुत से पड़ोसी निकल आए हैं लेकिन घटना के वक्त सबको काठ मार गया था. सब खौफजदा हो गए थे या यूं कहें कि खौफ की गोद में जाकर बैठ गए थे! ऐसा क्यों? यदि आप मानव विकास की श्रृंखला पर नजर  डालें तो समूह की ताकत को पहचानते हुए ही संयुक्त बसाहय की शुरुआत हुई. बस्तियां बनीं. आधुनिक भाषा में हम जिसे कॉलोनी या कहते हैं. आज यह सामूहिकता समाप्त हो रही है और समाज पर डर इस कदर हावी हो गया है कि काोई किसी की जान लेता रहे, कोई मनचला किसी लड़की को छेड़ता रहे या फब्तियां कसता रहे, राह से गुजरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता है! उसे तो केवल यही खयाल आता है कि इस पचड़े में हम क्यों पड़ें? वह कभी नहीं सोचता कि यही हादसा उसके साथ भी हो सकता है! सच मानिए, पहले हालात इतने बुरे नहीं थे. पड़ोसी की चीख सुनकर पड़ोसी दौड़ता हुआ था लेकिन अब तो खिड़की भी नहीं खोलता.
मुङो याद है कि पहले यदि किसी मोहल्ले के किसी व्यक्ति को यदि बाहर का कोई आदमी चमकाने की कोशिश करता था तो पूरा मोहल्ला एक हो जाता था. रात में यदि किसी ने ‘चोर-चोर’ की आवाज लगा दी तो पूरा का पूरा गांव डंडे लेकर निकल पड़ता था और गांव की सीमा से बाहर तक जाकर चोर को ढूंढता था. क्या अब ऐसा होता है? कहीं अपवाद स्वरूप कुछ उदाहरण दिखाई दे जाएं तो अलग बात है अन्यथा ज्यादातर लोग अपने घरों में दुबके रहते हैं. कोई दूसरे की मदद के लिए बाहर निकलने के बारे में सोचता तक नहीं है. जब हालात इतने बुरे हों तो गुंडों और मवालियों को खौफ का राज स्थापित करने में सहूलियत होगी ही!
यही कोई 30 साल पहले रांची शहर के फिरायालाल चौक से गुजरते हुए मैं एक बोर्ड देखकर ठिठक गया था. बोर्ड पर वहां के एसपी(पुलिस अधीक्षक) का बड़ा सा संदेश चस्पा था-‘अपराधी वहीं पनपते हैं जहां के लोग डरपोक होते हैं’. उन दिनों रांची बिहार का हिस्सा हुआ करता था (अब झारखंड की राजधानी है) और अपराधियों का बोलबाला था. शाम ढ़लने के बाद लोग घरों में रहना ही बेहतर समझते थे. उस एसपी ने लोगों को समझाया कि जब तक डरोगे, तभी तक कोई आपको  डरा सकता है. उस शहर ने जैसे ही डरना छोड़ा. अपराधियों की सल्तनत बिखड़ गई.
कहने का आशय यह है कि यदि आप भी सुरक्षित रहना चाहते हैं तो सबसे पहले डरना छोड़िए! एक बात तो तय है कि लोहे का गेट लगाकर घर के भीतर दुबकने से आप सुरक्षित नहीं रह सकते. जब तक एक-दूसरे की मदद के लिए आगे नहीं आएंगे तब तक अपराधियों का बोलबाला रहेगा. आतंक घरेलू हो या बाहरी, उससे लड़ना ही एकमात्र विकल्प है. 

अफरीदी की एक सोची समझी चाल

टी-20 विश्वकप से बाहर होने के बाद मोहाली के मैदान पर पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कप्तान शाहिद अफरीदी ने एक बड़ी चालाकी भरा बयान दिया. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और कश्मीर से आए दर्शकों का शुक्रिया जिन्होंने हौसला अफजाई की. मोहाली के मैदान पर ही इसके पहले न्यूजीलैंड के साथ मैच के समय भी  अफरीदी ने कश्मीर से आए दर्शकों का शुक्रिया अदा किया था. उस वक्त भी विवाद खड़ा हुआ था लेकिन शुक्रवार को तो उन्होंने खासतौर पर पहले पाकिस्तान का नाम लिया और फिर कश्मीर का!
इसके पहले किसी खिलाड़ी ने खेल के मैदान पर पाकिस्तान और कश्मीर के दर्शकों के प्रति इस तरह साथ-साथ शुक्रिया अदा किया हो, ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आ रहा है. यदि आप हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो यह स्पष्ट लगता है कि अफरीदी ने कश्मीर के लोगों के प्यार में डूबने की वजह से यह बयान नहीं दिया है. इस बयान के पीछे अफरीदी की एक सोची समझी चाल है. जब वे टीम लेकर भारत आए थे तभी उन्होंने कहा था कि पाकिस्तना से ज्यादा प्यार उन्हें भारत में मिलता है. यह बात पाकिस्तनानियों को नागवार गुजरी और लोग क्रोधित हो गए. सोशल मीडिया पर तो पाकिस्तानियों ने उनके खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया! इससे अफरीदी ने खुद को संकट में जरूर पाया होगा. उसके बाद भी अफरीदी को उम्मीद रही होगी कि भारत को यदि मैदान पर धूल चटा दी तो लोग उनके इस बयान को भूल जाएंगे. वे भले ही टी-20 वर्ल्ड कप न जीत पाएं लेकिन भारत से जीत गए तो पूरा पाकिस्तान उनके लिए गलीचे बिछा देगा. हुआ उल्टा! पाकिस्तान को भारत ने धूल चटा दी. ऐसी स्थिति में पाकिस्तानियों का दोहरा गुस्सा उन्हें देश पहुंचकर भुगतना है. अफरीदी जानते हैं कि भारत से हार कर पाकिस्तान लौटने वाले खिलाड़ियों का वहां किस तरह से स्वागत किया जाता है. उन्हें याद ही होगा कि कई बार तो खिलाड़ियों को छुपाकर एयरपोर्ट से निकाला गया ताकि उन पर  हमला न हो जाए.
अब अफरीदी के पास एक ही रास्ता था जो रास्ता उनके देश के राजनेता से लेकर सेना प्रमुख तक हमेशा अपनाते रहे हैं. बहुत परखा हुआ रास्ता है और उस पर चलने से पाकिस्तान की जनता खुश भी हो जाती है. तो वही रास्ता अफरीदी ने अपनाया और ‘राग कश्मीर’ अलापने लगे. सोचने वाली बात है कि उन्हें कैसे पता कि कश्मीर से कितने लोग मैच देखने आए हैं और वे अफरीदी के समर्थक ही हैं? दूसरी बात कि अफरीदी ने भारत के किसी और राज्य के दर्शकों का नाम नहीं लिया इसका मतलब साफ है कि वे कश्मीर को एक देश मानकर ऐसा बयान दे रहे थे. एक मित्र ने बड़ी चुटीली टिप्पणी की-‘अरे वो उस कश्मीर की बात कर रहे थे जिस पर पाकिस्तानियों ने कब्जा कर रखा है!’

बेईमानी आखिर किस सीमा तक?

दो  घटनाएं एक के बाद एक हुईं. दोनों घटनाएं बिल्कुल अलग किस्म की हैं लेकिन दोनों की बुनियाद एक है. कोलकाता में अचानक एक पुल का निर्माणाधीन हिस्सा गिर गया. कुछ लोग मर गए, बहुत से लोग घायल हो गए. कुछ दिनों तक हो हल्ला मचेगा. फिर सबकुछ शांत हो जाएगा. दूसरी घटना कर्नाटक की है जहां दसवीं का पर्चा दो बार लगातार दूसरी बार लीक हो गया. 40 लोगों को सस्पेंड कर दिया गया है. यह मामला भी कुछ दिनों में खत्म हो जाएगा. जिस तरह से हम दूसरी घटनाओं को भूल जाते हैं, उसी तरह इन घटनाओं को भी भूल जाएंगे. लेकिन इन दोनों घटनाओं ने एक बार फिर हमारे सामने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया है कि बेईमानी आखिर किस सीमा तक?
छोटी मोटी बेईमानी हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है और हम भले ही थोड़ा नाक भौं सिकोड़ लें लेकिन हकीकत यही है कि बेईमानी को हम करीब-करीब स्वीकार भी कर चुके हैं. जिसे जहां मौका मिल रहा है, थोड़ी डंडी तो मार ही रहा है. कहीं कोई ग्राहकों को लूट रहा है तो कहीं कोई इनकम टैक्स बचाने की जुगत में लगा रहता है. ऐसी बेईमानी जब बड़े स्तर पर रंग दिखाती है तो कोई पुल अचानक ढह जाता है और बेकसूर लोग मारे जाते हैं. बेईमानी करने वाला पुल के नीचे कभी नहीं दबता और न कभी सिनेमा हॉल में जलता है. वह तो कानून की बड़ी-बड़ी किताबों को कवच बना लेने की जुगत में लगा रहता है. ‘न्याय दिलानेवालो’ की बड़ी फौज न्याय को लंबा खींचती रहती है. तब हमारे आपके जैसे लोगों को कोफ्त होतीहै और हम इस बात पर खीझते रहते हैं कि न्याय का मजाक क्यों बनाया जा रहा है.
बहरहाल पुल गिरना, सड़क का बह जाना, बिल्डिंग कोलैप्स होजाना जैसी घटनाएं शायद उतनी खतरनाक नहीं हैं जैसी कि कर्नाटक की घटना है! अबकी बार तो ‘पेपर लीक’ होने की जानकारी लीक हो गई इसलिए दूसरी बार भी परीक्षा रद्द करनी पड़ी. यदि जानकारी लीक नहीं हुई होती तो निश्चय ही परीक्षा हो जाती. होती भी है. देश के कई हिस्सों में प्रश्नपत्र लीक होने और परीक्षा में चोरी किए जाने की घटनाओं के बावजूद परीक्षा पूरी होती है. न केवल शैक्षणिक परीक्षाएं बल्कि नौकरी मिलने वाली परीक्षा में भी चोरी और बेईमानी की घटनाएं हमें हमेशा ही चिंतित करती रहती हैं. बिहार और उत्तरप्रदेश तो इस मामले में शुरु से ही कुख्यात रहा है लेकिन मध्यप्रदेश में व्यापम घोटाले के रूप में हम सब इसका विभत्स चेहरा देख ही रहे हैं.  न जाने कितने लोग फर्जी तरीके से मेडिकल की पढ़ाई करने लगे और न जाने कितने लोग सरकारी नौकरियों में पहुंच गए. हां, कुछ लोग इस समय घोटाले को लेकर जेल में हैं. शायद कुछ और दिन जेल में ही रहें. हो सकता है कि कुछ लोगों को सजा हो भी जाए लेकिन जरा कल्पना कीजिए कि जो लेग इस तरह से परीक्षा पास करते हैं वे अपनी जिंदगी में क्या करेंगे? उनकी तो बुनियाद में ही चोरी और बेईमानी है तो भविष्य में भी वही करेंगे! वे इंजीनियर बनें या ठेकेदार, वो तो ज्यादा से ज्यादा पैसे ही बचाना चाहेंगे. ऐसे में पुल गिरेगा नहीं तो क्या होगा?
मुङो तो उन मां-बाप पर तरस आता है जो अपने बच्चों को चोरी से परीक्षा पास कराते हैं, गलत तरीके से व्यावसायिक शिक्षा का कोर्स कराते हैं. एक बार भी यह नहीं सोचते कि जो बेईमानी उसे सिखा रहे हैं, वह उसकी जिंदगी को नरक भी बना सकता है. मध्यप्रदेश के अरविंद जोशी और उत्तरप्रदेश के यादव सिंह का उदाहरण हमारे सामने है जिनके यहां इतना नोट मिला कि नोट गिनने की मशीन लगानी पड़ी. ..लेकिन वो आज कहां हैं? जेल में हैं! उम्मीद करें कि कानून उन्हें बख्शेगा नहीं.
इस बात पर थोड़ा बहुत संतोष किया जा सकता है कि बेईमानों को सजा मिलने की घटनाओं में थोड़ी वृद्धि हुई है लेकिन अभी भी वक्त इतना लग रहा है कि बेईमाकों के भीतर कोई खौफ नहीं बैठा है.
 मन में यह सवाल पैदा होता है कि परीक्षा के लिए प्रश्नपत्र सेट किए जाएं और जिन पर इसे गोपनीय रखने की जिम्मेदारी हो, वही इसे लीक कर दें? एक बार नहीं, दो-दो बार! ऐसा कोई कैसे कर सकता है? मन में सवाल यह भी पैदा होता है कि यह सब कितने पैसे के लिए किया गया होगा? पेपर लीक में शामिल लोगों को कुछ हजार या कुछ लाख मिल गए होंगे. इससे ज्यादा तो नहीं ही मिले होंगे! क्या इन थोड़े से पैसों के लिए हजारों हजार बच्चों को भी बेईमान बना देना छोटा-बोटा अपराध है? यह तो सीधे-सीधे राष्ट्रहित के साथ खिलवाड़ माना जाना चाहिए. एक तरफ हम मेक इन इंडिया की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ बच्चों को बेईमानी सिखा रहे हैं?
हमें इस बात पर गंभीरता से  िवचार करना होगा कि देश के लिए हम कैसी संतान तैयार कर रहे हैं. यह सोचना इसलिए जरूरी है क्योंकि जिन्होंने बेईमानी सीख ली है, वे तो इसे छोड़ने से रहे, भले ही जेल चले जाएं! वैसे लोगों की संख्या कम है और ज्यादातर अच्छे लोग हैं लेकिन बेईमानें की उपरी कमाई अच्छे लोगों को भी आकर्षित करने लगती है. ऐसे लोगों पर ज्यादा जिम्मेदारी है कि वे बेईमानों के प्रति आकर्षित न हों और बच्चों को सही राह दिखाएं. वास्तव में हमें उम्मीदें अगली पीढ़ी से ही लगानी चाहिए. बेईमानी के खिलाफ अगली पीढ़ी ही परचम लहरा सकती है. बेईमानी पूरी तरह समाप्त हो जाए, यह उम्मीद तो नहीं कर सकते लेकिन बेईमानी की कोई सीमा तो हो! 

आलोक सागर

आलोक सागर पिछले 25 साल से ज्यादा समय से मध्यप्रदेश के घोड़ाडोंगरी विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले शाहपुर विकासखंड के कोचामऊ गांव में एक आदिवासी की तरह रह रहे हैं. गांव और इलाके के लोग उन्हें सेवाभावी एक्टिविस्ट के रूप में जानते थे. उनकी वास्तविक शैक्षणिक हैसियत का किसी को पता नहीं था.  पिछले तीस साल से उनकी डिग्रियां झोले में पड़ी थीं लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि डिग्रियां बाहर आ गईं.
घोड़डोंगरी विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है. 30 मई को चुनाव होने वाले हैं.  इसी दरम्यान पुलिस को खयाल आया कि जो भी बाहरी लोग यहां रह रहे हैं, उन्हें इलाके से खदेड़ा जाए! फरमान आलोक सागर तक भी पहुंचा. एक पुलिस वाला धमकी देकर आया कि इलाका छोड़ दो नहीं तो जेल में डाल देंगे. इस धमकी के बाद आलोक सागर पुलिस थाने जा पहुंचे और बातचीत के दौरान जब अपने बारे में बताया तो पुलिस भी हैरान रह गई!
उनके पिता भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी थे और मां दिल्ली मिरांडा हाउस में फिजिक्स की प्रोफेसर थीं. आलोक सागर ने 1973 में आईआईटी दिल्ली से एमटेक करने के बाद 1977 में ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी टेक्सास अमेरिका से शोध डिग्री ली. इसी यूनिवर्सिटी से डेंटल ब्रांच में पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद उन्होंने समाजशास्त्र विभाग डलहौजी यूनिवर्सिटी कनाडा में फैलोशिप पूरी की. भारत लौटने के बाद वे आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर हो गए. कुछ समय तक प्रोफेसर रहने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और समाज सेवा की ओर मुड़ गए. वे आदिवासियों की जिंदगी को सहज बनाना चाहते थे. 1990 के आसपास वे कोचामऊ पहुंचे और आदिवासियों के बीच अपनी नई जिंदगी शुरु की. धीरे-धीरे वे आदिवासियों के बीच घुल मिल गए. उन्होंने अपने उच्च शिक्षित होने की बात इसलिए छिपा ली. उन्होंने आदिवासियों की जिंदगी बदलने के काम शुरु किया. अभी तक वे 50 हजार से ज्यादा फलदार पौधे लगा चुके हैं जिसका सारा फायदा गांव के आदिवासियों को मिलता है. वे एक झोपड़ी में रहते हैं और कुएं से खुद बाल्टी भर कर पौधों को पानी देते हैं. गांव में लगे चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मौसबी, किन्नू, संतरा, रीठा, मूनगा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के पेड़ फल देने लगे हैं.
वे एक झोपड़ी में रहते हैं, साइकिल से आसपास का इलाका घूमते हैं और बच्चों को पढ़ाते हैं. बहुभाषी होने के साथ आदिवासी भाषा जानने वाले आलोक सागर का मानना हैं कि उनकी पढ़ाई और डिग्री को वे बता देते तो आदिवासी उनसे दूरी बना लेते. खुद हाथ से आटा पीसकर जीवन जीने वाले आलोक सागर के छोटे भाई अंबुज सागर आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर हैं एक बहन कनाडा में तो एक बहन जेएनयू में कार्यरत थी. 

बड़ा राक्षस है आईएस, उसे जड़ से उखाड़ना होगा




जनाब अब्दुल बासित पहले ऐसे पाकिस्तानी उच्चयुक्त हैं जिन्होंने नागपुर की यात्र की है. वे यहां लोकमत समूह द्वारा भारत-पाकिस्तान संबंध पर आयोजित चर्चा सत्र में भाग लेने आए थे. इस यात्र के दौरान अब्दुल बासित ने खास साक्षात्कार में देश और दुनिया को लेकर बड़ी बेबाकी से अपनी राय व्यक्त की. उन्होंने कहा कि दुनिया के समक्ष इस समय सबसे बड़ा राक्षस इस्लामिक इस्टेट (आईएस) है.  प्रस्तुत है अब्दुल बासित से बातचीत का ब्यौरा..!

दुनिया के कई देशों में इस समय गदर मची हुई है. गृह युद्ध जैसे हालात हैं. इस्लामिक इस्टेट जैसे आतंकी संगठन इस्लाम के नाम पर कत्लेआम मचा रहे हैं जबकि इस्लाम बेगुनाहों के कत्ल की इजाजत नहीं देता! कहां जाकर रुकेगा यह सब?

गदर तो है! कहां जाकर रुकेगा, इसकी भविष्यवाणी करना तो बहुत कठिन है लेकिन जो मेजर पावर्स हैं, अमेरिका, चीन, रूस और क्षेत्रीय ताकतों को यह सोचना चाहिए कि कत्लो गारद से समस्या का हल नहीं हो सकता. हजारों की तादाद में रिफ्यूजी योरप जा रहे हैं. इराक 2003 के बाद कहां रह गया. सीरिया, लीबिया को देख लीजिए, जो कुछ भी हो रहा है. हमारे लिए कुछ अच्छी बात नहीं है. खास तौर पर जिन मुल्कों में यह हो रहा है, वे मुस्लिम मुल्क हैं, इसलिए हमें ज्यादा तकलीफ होती है.
इस्लामिक इस्टेट एक ऐसा राक्षस है जिसका हम सबको मिलकर सामना करना है. इस्लाम में तो इस तरह के इस्टेट की कोई गुंजाइश ही नहीं है. तमाम मुसलमान मुल्क इस बात पर एकमत हैं कि इस राक्षस को खत्म करना है. उसे खत्म हाना चाहिए. हमें यह भी देखना है कि खुदा न खास्ते यह हमारे इलाके में भी आ जाए तो वह बहुत बड़ा खतरा होगा. वो कहते हैं ना ‘निप इन द बड’ जड़ से उखाड़ देना चाहिए. मुङो उम्मीद है कि यदि हम सब मिलकर इस बात पर विचार करें,सोचें तो खतरा आगे नहीं बढ़ेगा. लेकिन दुनिया इस वक्त एक मुश्किल सिच्यूशन में है. देखिए न, कोल्ड वार खत्म हो गया. बायपोलर से हमने सोचा कि यूनिपोलर स्थिति बन रही है. कुछ अर्से बाद हमने देखा कि यूनिपोलर वर्ल्ड, तमाम मसायलों को हल नहीं कर सकता. वह कितना भी पावरफुल क्यों न  हो! फिर हमने चाइना का राइज देखा, आज मल्टी पोलर वर्ल्ड है लेकिन अमेरिका आज भी सुपर पावर के तौर पर है. और भी एक्टर हैं जो अपना किरदार निभा रहे हैं. तो इस वक्त ये जो दुनिया है, वह अपना शेप ले रही है. हमें नहीं मालूम कि किस तरफ जाएगी. लेकिन इकॉनॉमिक कोऑपरेशन सेंट्रल थीम है ग्लोबलाइजेशन की. मैं समझता हूं कि देशों के बीच जो संबंध को इकॉनॉमिक इंटरेस्ट डॉमिनेट करेंगे आने वाले दिनों में. इसके अलावा जो चैलेंजेज हैं, साइबर क्राइम, दहशतर्गी, पर्यावरण के इश्यू हमें साथ लेकर आएंगे क्योंकि हमारा इंटरेस्ट इसी में है.

तालीबान के एक टुकड़े से पाकिस्तान भी तो परेशान है. जिसे हम पाकिस्तानी तालीबान कहते हैं, अफगानिस्तानी तालीबान अलग है. पाकिस्तान का नजरिया क्या है?
पाकिस्तानी तालीबान हमारा मसला है और हम उससे निपट रहे हैं. ये जरूर है कि पाकिस्तानी तालीबान के कुछ लीडर इस वक्त अफगानिस्तान में मौजूद हैं. इसमें अब्दुल्ला फजुल्लाह है. उससे हमें परेशानी होती है. लेकिन तहरीके तालीबान को हम खत्म करके रहेंगे. पिछले दो साल से हमने काफी कामयाबी हासिल की है. यदि आप देखिए तो पहले जो सुसाइड बॉंबिंग होती थी, या जो हिंसा होती थी. वह काफी कम हो गया है. कराची में रौशनी वापस आ रही हैं. दहशत को हम इंशाअलल्ला खत्म करके ही रहेंगे.

लेकिन पाकिस्तान क्यों चाहता है कि अफगानिस्तान में तालीबान से बातचीत हो. आखिर उसी तालीबान ने तो अफगानिस्तान का यह बुरा हाल किया है! उससे बातचीत क्यों होनी चाहिए?
देखिए,दुनिया ये मानती है, अमरीका मानता है, चीन मानता है, रूस मानता है और अफगानिस्तान की हुकूमत मानती है कि तालीबान के साथ बातचीत होनी चाहिए. सबका यह खयाल है कि बातचीत जरूरी हैयदि अफगानिस्तान में अमन लाना है. बातचीत की जरूरत से कोई भी इनकार नहीं कर रहा है. देखना यह है कि तालीबान को किस तरह बातचीत की मेज पर लाएं. किस तरह बात आगे बढ़े.

चलिए भारत-पाकिस्तान के रिश्ते की बात करते हैं. बातचीत में गर्मजोशी क्यों नहीं है?

देखिए किसी एक किसी मुल्क को कहें कि वहां से गर्मजोशी नहीं है या मैं यह कहूं कि हमारे यहां से गर्मजोशी है. किसी एक खास सेगमेंट को लेकर कहना ठीक नहीं है. हमारे यहां दिक्कत यह है कि हमने मसायलों को ठीक तरह से हल करने की कोशिश नहीं की है. अब यह है कि हमें विन सिच्यूशन की कोशिश करना चाहिए. हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि एक दूसरे की बात को समङों और आगे बढ़ने की कोशिश करें. खुद ब खुद गर्मजोशी पैदा हो जाएगी. लोगों में तो गर्मजोशी है. एक दूसरे से मिलना चाहते हैं. पाकिस्तान जाना चाहते हैं, पाकिस्तान के लोग भारत आना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि गर्मजोशी नहीं है. मुद्दा यह है कि गर्मजोशी को कैसे हम एक ताल्लुक में बदल सकते हैं. यह एक बड़ा चैलेंज है. मैं समझता हूं कि बातचीत आगे बढ़े और आहिस्से-आहिस्ते अपने मसायलों को हल करना शुरु कर दें तो हम आगे बढ़ जाएंगे. जो भी हमारे मसायल हैंै, विवाद हैं उनको दूर करें. दुनिया बदल रही है. हमें भी बदल जाना चाहिए.

दोनों देशों के बीच ये अविश्वास का वातावरण क्यों है?
मैं यह नही कहूंगा कि अविश्वास का वातावरण नहीं है. पाकिस्तान में भी लोग इस तरह सोचते हैं, समझते हैं. आपके यहां भी हैं लेकिन यह तभी दूर होगा जब हम एक दूसरे से मिलेंगे, बातचीत करेंगे. संबंध बढ़ेंगे, एक दूसरे के यहां आना जाना बढ़ेगा. अब देखिए एक जिंदगी चैनल है जिस पर लोग पाकिस्तानी ड्रामें देखते हैं. पहले शायद पाकिस्तान को एक मुख्तलिफ अंदाज से देखते थे लेकिन उन ड्रामों को देखने के बाद लोगों को एहसास हो रहा है कि पाकिस्तान तो हमारे जैसा ही है. यहां पर मैने कुछ ड्रामें देखे हैं. वो जो खातून होती है वो जेवर पहनकर ही जगती है और जेवर पहन कर ही सो जाती है. हमें यह बात  समझ में नहीं आती है. हमारे ड्रामें थीम बेस्ड हैं. मुङो अच्छा लगता है कि यहां पर हमारे ड्रामों को देखा जाता है. हम चाहेंगे कि यह सिलसिला आगे बढ़े.

गवादर, छबहार को लेकर बहुत चर्चाएं हो रही हैं. आपका नजरिया अलग है, हमारा नजरिया अलग है. ये नजरिया अलग क्यों?
गवादर का जहां तक ताल्लुक है तो यह चाइना-पाकिस्तान कॉरिडोर का हिस्सा है. हम समझते हैं कि पाकिस्तान की जो ग्राफिकल लोकेशन है, वह हमें नेचुरल इकॉनामिक बनाती है. लैंड लॉक्ड सेंट्रल एशिया है, अफगानिस्तान भी है. इन दोनों के बीच हम ही आते हैं. हमें कोई शक नहीं है कि पांच साल बाद, दस साल बाद, पंद्रह साल बाद पाकिस्तान इस क्षेत्र का इकॉनॉमिक हब बन जाएगा. इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री की जो पॉलिसी है डेवलपमेंट फॉर पीस एंड पीस फॉर डेवलपमेंट, ये उसी का एक हिस्सा है. हम देख रहे हैं कि पाकिस्तान एक इकॉनॉमिक पावर की तरफ बढ़ रहा है और इन दोनों रीजन को मिलाएगा. जब तक इंटीग्रेशन और कनेक्टिवीटी नहीं होगी तब तक हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे. इसलिए जरूरी है कि जितने प्रोजेक्ट हैं, उन्हें हम पॉजिटिवली देंखें. कोई कंपीटिशन नहीं है. इकॉनॉमिक कंपीटिशन है, हेल्दी कंपीटिशन होना चाहिए.
और छबहार पर आपकी क्या राय है?
बहुत से लोग छबहार को लेकर प्रायवेटली बहुत कुछ कहते हैं लेकिन हमें नहीं लगता कि हमारा कोई राइवल है. इरान के साथ हमारे अच्छे ताल्लुकात हैं और बहुत गर्मजोशी है. कोई वजह नहीं है कि किसी चीज से यदि इरान को फायदा हो रहा है तो पाकिस्तान को उससे कोई आपत्ति हो. गवादर और छबहार एक दूसरे से समन्वय के सूत्र हो सकते हैं, राइवल नहीं होना चाहिए. गवादर की खूबी यह है कि यह दुनिया का सबसे गहरा पोर्ट है. इसमें चीन की जो दूरी है, उसमें हजारों किलो मीटर का फर्क पड़ जाएगा. हमारे हिसाब से भी, पाकिस्तान इस समय इनर्जी डिफिसिएंट यानि उर्जा संकट की कमी का सामना करने वाला देश है, उसे बहुत फर्क पड़ जाएगा. अब हमारे प्रोजेक्ट लग रहे हैं. उन्नति हो रही है. मिसाल के तौर पर पाकिस्तान में जो रोड कंडीशन है, इतना शानदार है कि कि और कहीं नजर नहीं आएगा. हमारे मोटर-वे जैसा मैंने अभी तक भारत में नहीं देखा. जो लोग पाकिस्तान जाते हैं, वे हैरान हो जाते हैं कि हम तो वेस्ट में आ गए. इतनी डेवलप्ड मोटर-वे है. हमारे यहां बहुत काम हो रहे हैं. मैं आपको एक और मिसाल देता हूूूं. जो हमारे इंस्टीट्यूशन्स हैं, वे बेमिसाल हैं. आप डिंगी के बारे में जानते होंगे. हमने एक साल के अंदर डिंगी पर काबू पाया. 2011 में बहुत से लोग डिंगी से मरे थे लेकिन अब हमने उस पर काबू पा लिया. हमारा तो तजुर्बा है. हमने ये श्रीलंका से सीखा था.

लेकिन पोलियो को लेकर ऐसी स्थिति क्यों नहीं है. पाकिस्तान में अब भी पोलियो की दवा पिलाने वालों को सुरक्षा की जरूरत पड़ती है. वहां कहते हैं कि इस्लाम पोलियो की दवा पिलाने की इजाजत नहीं देता!

देखिए ट्रायबल पॉकेट्स में इस तरह की बात कुछ लोग सोचते हैं. पुराने खयालात के लोग हैं, उनके जेहन में एक बात बस गई है. साल के अंत तक 20-30 केसेज थे लेकिन अब पाकिस्तान पोलियो मुक्त हो जाएगा. चूंकि हमारा अफगानिस्तान के साथ बोर्डर है, अफगानिस्तान में भी पोलियो है. उस बोर्डर से हर रोज पचास से साठ हजार लोग क्रास होते हैं. इस वजह से हमारे लिए उसे संभालना मुश्किल हो जाता है लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान पोलियो फ्री हो जाएंगे.

आपने अभी ट्राइबल पॉकेट्स की बात की है. क्या वो वही लोग हैं जो ‘पत्नी की हल्की पिटाई’ के मसले में शामिल हैं. अभी यह मुद्दा इंटरनेट पर खूब चल रहा है.
नहीं-नहीं, वो तो हमारी इस्लामिक आइडियोलोजी की एक संस्था है उसने एक रिकोमेंडेशन दी है. उस पर बहस हो रही है. जरूरी नहीं कि जो रिकोमेंडेशन दी है, उसे पार्लियामेंट में एक्सेप्ट ही कर लिया जाए. एक बहस है जो हो रही है. क्या फाइनल शेप लेता है. वाकई एक कानून बनता है तो हम देखेंगे कि क्या होता है. मैं समझता हूं कि अच्छी डिबेट है मुल्क के लिए. इससे लोगों के जेहन भी खुलते हैं. नई राहें भी निकलती हैं. डिस्कशन होने में कोई बुराई नहीं है.



भारतीय खाने में मिर्ची
बहुत पर रहा नहीं जाता
बातचीत के दौरान अब्दुल बासित ने कहा- भारतीय खानपान मुङो बहुत पसंद है. आप जहां भी जाते हैं, नई चीज खाने को मिल जाती है. नया टेस्ट मिलता है. मिसाल के तौर पर दाक्षिण भारत के खाने की लज्जत लाजवाब है. लखनऊ, हैदराबाद के खाने की बात ही कुछ और है. मेरे खयाल में भारत कल्चरली बहुत रिच मुल्क है. यहां पर उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक तरह-तरह की चीजें खाने को मिलती हैं. मैं तो बहुत शौक से खाता हूं. थोड़ी मिर्ची ज्यादा होती है लेकिन जायका इतना अच्छा होता है कि रहा नहीं जाता.