Tuesday, October 7, 2014

फारुख शेख का संभवत: अंतिम साक्षात्कार


दावे से तो नहीं कह सकता लेकिन मेरा खयाल है कि प्रख्यात फिल्म अभिनेता फारूख शेख ने अपना अंतिम इंटरव्यू मुङो दिया. इंटरव्यू के करीब डेढ़ महीने बाद ही वे हमसे बिछड़ गए. इस दौरान मैंने उनका कोई दूसरा इंटरव्यू कहीं पढ़ा भी नहीं. उन्होंने चलते-चलते मुझसे कहा था कि बात अधूरी रह गई है. इस विषय पर फिर से बातचीत करेंगे. दरअसल मैंने उनसे कविता को लेकर बातचीत की थी. दुर्भाग्य देखिए कि फिर कभी मुलाकात नहीं हो सकी. मैंने उन्हें अदम गोंडवी की कुछ कविताएं भेजी थीं और बिछुड़ने से तीन दिन पहले उनका एसएमएस आया था कि मिल गई हैं. पढ़ लिया है. मुलाकात होने पर चर्चा होगी. चर्चा न हो सकी. उनका साक्षात्कार शेयर कर रहा हूं- विकास




सबसे पहले मेरा खयाल है, हमारे मुल्क में खासकर कविता से आपका नाता फिल्मी गीतों के माध्यम से जुड़ता है. जिस जमाने में हम लोग स्कूल से भी पहले घर में रेडियो बजता था तो आप गीत सुन ही लेते थे. आपको याद होगा, एक बड़ा पॉपुलर कार्यक्रम होता था बिनाका गीतमाला. वो तो एक विकली हाईलाइट की तरह होता था. उसमें आप गाने सुनते थे. इत्तेफाक से उस जमाने के गानों में भी अच्छा खासा हिस्सा कविता का होता था, शायरी का होता था. अब तो ढूंढना पड़ता है कि इसमें लफ्ज कौन से हैं और हैं तो क्या हैं? मेरा खयाल है कि जुबान का इस्तेमाल जो है वो आम आदमी की जिंदगी में भी कम हो गया है. अब एसएमएस की जुबान हो गई है. जब हम एसएमएस दूसरे को भेजते हैं तो यह नहीं देखते कि इसका उच्चरण ठीक है या नहीं. तलफ्फुज को तो खैर ताक पर रख दीजिए! स्पेलिंग भी ठीक से नहीं लिखते, संक्षिप्त रूप में भेज दिया. गरज यह है कि बात आपकी समझ में आ गई ना! फिजुल की बहस में पड़ने की क्या जरूरत है लेकिन बात तो तब भी समझ में आ जाएगी जब हम केवल चीखें चिल्लाएं, सिर घुमाएं, मुस्कुराएं. लेकिन जुबान एक ऐसी चीज है जिसे मानव जाति ने हजारों सालों में विकसित होते-होते प्राप्त किया है. हजारों सालों में जाकर एक ऐसी मयार पर पहुंची जिसे हम अच्छी जुबान कहते हैं. मेरा खयाल है कि मुल्तान में एक कहावत है कि सास बाजी राग पाया, जैसे ही आप मुंह खोलते हैं, पता चल जाता है कि आप हैं कितने पानी में. अच्छे कपड़े मैं भी पहन लेता हूं, अच्छे कपड़े आप भी पहन लेते हैं. आप जब बात करेंगे तो पता चलेगा कि पढ़ा लिखा इनसान बोल रहा है, शाइस्ता इनसान बोल रहा है जिसकी जानकारी का एक दिमाग में डाटा बैंक है. मैं कुछ बोलूं तो बोलते ही पता चल जाएगा कि है कितनी औकात इसकी. तो जबान एक अच्छी चीज थी, बहुत काम की चीज थी. और एक रिफाइंड मैन का सबूत थी. मानव जाति में जो रिफाइनमेंट आई है, उसका सबसे बड़ा सबूत जुबान और भाषा है, हम तो यह करते हैं कि पच्चीस रुपए की एक चप्पल खरीदें तो उसे दस जगह से घुमाकर देखते हैं. हालांकि उसे रहना मिट्टी में है लेकिन उसे घुमाकर देखते हैं कि यार ये ठीक है या वो ठीक है. उसका सोल के नीचे की भी डिजाइन देखते हैं. तो चप्पल की भी अहमियत जुबान से ज्यादा है. हर चीज हमें सजावट के साथ चाहिए, उसका नक्शो निगार उसके अच्छे होने चाहिए, उसकी उपयोगिता कितनी है वो अपनी जगह है. वो इस्तेमाल में क्या आ रहा है या कितने दिन तक आएगी यह बात अलग है. मैं अगर पच्चीस हजार रुपए की चप्पल पहनता हूं तो मैं आपको यह उठाकर तो दिखाउंगा नहीं सिवाय इसके कि मेरा दिमाग खराब हो गया हो! लेकिन उसमें भी मुङो यह चाहिए कि चप्पल तो अच्छी होनी चाहिए. फलां कंपनी की होनी चाहिए ताकि मेरी शान में कोई खलल न हो. आगे लेकर मैं हालांकि चलूंगा मैं कीचड़ में. आजकल सड़क कम और कीचड़ ही ज्यादा नजर आता है या फिर गाड़ियां नजर आती हैं. लेकिन उसमें भी चाहिए नक्शो निगार लेकिन जुबान में इसकी जरूरत ही नहीं है. जो दौलत और हैसियत हमने इनसानी हजारों सालों में जमा की है, उसे यदि दो-चार दशक में गंवां दें तो ये बहुत बड़ी हिमाकत होगी. लेकिन इसकी तरफ लोग ध्यान नहीं देते हैं. हालांकि मुंबई से ज्यादा
मुशायरे और कवि सम्मेलन होते हैं तो सुबह हो जाती है. लोग उठते नहीं हैं. पूरी रात चलती है, लोग ठिठुरते रहते हैं लेकिन बैठे रहते हैं तो जुबान का अना एक जादू है लेकिन अब तो मैं जोर से चिल्ला दूं तो भी भाषा हो गई, चीख दूं तो भी भाषा हो गई, सिर्फ मुंह बना दूं या जोर से हंस दूं तो भी भाषा हो गई. अल्फाज की अहमीयत ही खत्म होती जा रही है.

रंगमंच है दृष्य काव्य
रंग मंच में तो सबकुछ वोकल ही है. उसे दृष्य काव्य ही कहा जाएगा.  जहां तक पहले की फिल्मों में लावण्य का सवाल है जीवन की कविता का सवाल है तो मैं एक बिल्कुल सादा सा उदाहरण आपको देता हूं समाज के हर तबके का मैकडोनलाइजेशन हो रहा है. जब आप मैकडोनलाइजेशन की बात करते हैं तो आप दुनिया के किसी भी हिस्से में चले जाएं बर्गर एक ही जैसा मिलेगा. तो आप जाइए पैसा पटकिए, वह भी बर्गर पटकर दे देगा. और आप उसे चलते-चलते दौड़ते-दौड़ते खा लेंगे. अब  ये तो हो सकता है कि  ये जल्दी मिल गया, काम तो हो गया न! पेट भरने वाली बात है वह भी दौड़ते-दौड़ते
शायरी और फिल्मों का संबंध था पहले. उस दौर को मिस करते हैं. हर आदमी मिस करता है लेकिन रियलाइज नहीं करता है. जैसे रफी साहब गाएं या लताजी गाएं तो ऐसा लगता है कि कान में शहद कोई घोल रहा है. मैं गाऊं तो ऐसा लगेगा कि इसका गला दबा दूं. तो जिस तरह भोंदी आवाज, भोंदा सुर कान को चुभता है उसी तरह गलत उच्चरण कान को चुभता है. और आपको फौरन इसका एहसास हो न हो लेकिन जब ढ़ाई घंटे की पूरी फिल्म आ देख चुके होते हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन कछ एक्टर और एक्ट्रेस ऐसी होती हैं कि जिनकी आवाज ही आपको अच्छी नहीं लगती. आपको लगता है कि यह चुप हो जाए तो अच्छा है. नाक में से बोल रहे हैं, चीख कर बोल रहे हैं. या सिवाय चिल्लाएं, बात ही नहीं करते तब लगता है कि यार ये न बोले तो अच्छा है. ये इसलिए है क्योंकि अच्छी जुबान आपको अच्छी लगती है, भली लगती है. आपको लगता है कि ये बोले तो सुनूं. मुङो अब भी याद है कि रेडियो पर देवकीनंदन पांडे जी समाचार पढ़ते थे तो क्या उनके पढने का अंदाज था, क्या अल्फाज थे, पेश करने का क्या तरीका था! मतलब खबर तो आप तक पहुंचती ही थी, आपको ऐसा लगता था कि जुबान की एक क्लास भी चल रही है.
दाल तो सौ जगह बनती है लेकिन मां के हाथ की जो दाल होती है वह बच्चों को अच्छी लगती है क्योंकि उसमें एक खास बात होती है. अच्छी जुबान बोलने की हम पर पहले जबर्दस्ती की जाती थी. जब हम लोगों ने शुरु किया तो माहौल यह था कि यार तुम अच्छी जुबान नहीं बोल सकते तो एक्टर क्यों बन रहे हो, कुछ और बन जाओ. मदारी बन जाओ या सर्कस में काम करो वहां जुबान की जरूरत ही नहीं है. यदि फिल्मों मेंआ रहे हो या रेडियो में हो तो बगैर सही जुबान जाने अच्छा कर ही नहीं सकते. अब जो है, मैं किसी की शौक पर न किसी की आदत पर एतराज करना न चाहता हूं लेकिन अब तो एक्टर जिम्नेजियम में तैयार होते हैं. वो वहां से एक्टर बन कर निकलते हैं कि मेरे छह पैक हैं तो कोई कहेगा मेरे आठ पैक हैं. अब मैंने फॉरेन से एक ट्रेनर बुलाया है जो हर रोज मुङो तीन घंटे ट्रेनिंग  देगा. उस जमाने में तो यह था कि जब जुबान नहीं आती तो एक्टर क्या बनेगा? कुछ और काम कर लो या फिर जुबान सीख लो, तलफ्फुज सीखो, अच्छे लोगों में उठना बैठना सीखो. अब यदि पांच एक्टर काम कर रहे हैं और एक बेसुरा है तो चार एक्टर कहेंगे कि क्या इनके सिवा और कोई मिलता नहीं आपको?

पुराने दौर शायर तो अब बनता नहीं और जो बनता है उसे जगह नहीं देते हैं. कितनी अजीब बात है लेकिन अहम बात भी है कि पिछले साठ सालों में या कम से कम पिछले तीस सालों में हिंदुस्तान जैसे मुल्क में जहां हर तरह का फन और कला और संस्कृति पाई जाती है जितनी दुनिया में कहीं नहीं मिलती ल ेकिन कोई एक लता मंगेशकर आपने पैदा नहीं किया, कोई एक मोहम्मद रफी पैदा नहीं किया, कोई तलत महमूद नहीं बनाया, कोई मन्ना डे आपको नही मिला. कोई साहिर लुधियानवी नहीं मिलता. मैं गालिब और मीर की तो बात ही नहीं कर रहा हूं. मेरी अपनी बेटियां जेके राउलिंग को पढ़ती हैं. तमाम इज्जत के साथ कहना चाहूंगा कि जे.के. राउलिंग उस मोहल्ले में खड़ी नहीं हो सकतीं जहां मुंशी प्रेमचंद थे. प्रेमचंद मिट्टी से जुड़ी बात करते थे. एसा लगता था कि ये सारे किरदार इनकी अपनी आंखों देखे हुए हैं. जे.के. राउलिंग का किरदार दिलचस्प हो सकता है लेकिन उनमें सतहीपन है. उनसे हम वाकिफ नहीं हैं. फिर भी हम बच्चों को उसमें आगे बढ़ा रहे हैं. पचास रुपए में पूरा मजमून प्रेमचंदजी का मिलता हो तो बच्चा नहीं पढ़ता उसे लेकिन 700 रुपए की राउलिंग पढ़ता है. और जितना खराबा, मुङो माफ करें, टेलीवीजन कर रहा है उसकी तो कोई हद ही नहीं है. हर तरह की बेतुकी बातें टीवी पर आपको नजर आती हैं और ट्रेजडी यह है कि अभी मैं आपको खिड़की खोलकर दूसरी बिल्डिंगों का नजरा दिखाऊं तो ऐसा लगेगा कि सारी फैमिली सुन रही है और एक आदमी बोल रहा है. तो तीन सौ पैंसठ दिन यदि सारी फैमिली तीन चार घंटे सुनती है और एक ही व्यक्ति बोलता है तो चाहते न चाहते आपके दिमाग में कोई न कोई चीज प्रवेशकरेगी और आपाके यही सुनने को मिल रहा है तो आपके दिमाग में जा क्या रहा है और आप कर क्या रहे हैं. जिंदगी के मुल्य क्या हैं. आप किस तरह की जिंदगी चाह रहे हैं. ये कुछ अजीबो गरीब है. जैसे मैने पहले अर्ज किया कि ये मैक्डोनलाइजेशन है. उससे  आप पौष्टिक खुराक की उम्मीद मत कीजिए. आप उससे दो चार घड़ी का मजा जरूर लेते हैं. चाट गली में मैं शहद बनाने तो जाता नहीं हूं. चाट गली में तो चटाखा ही मिलेगा. रोज तो आप चटाखा नही खा सकते ना, वर्ना दो हफ्ते बाद अस्पताल के चक्कर काटने पड़ेंगे. 

प्रकृति से ही कविता शुरु होती है. देखिए दुनिया में कोई और मुल्क तो ऐसा है नहीं जहां इतनी जुबानें हैं. और इतनी जुबानें मौजूदा दौर में चल रही हैं. मतलब यदि सारी बोलियां आदि मिला लें तो करीब 2600 हैं. संस्कृति के इतने अलग-अलग रूप भी कहीं नहीं हैं. विचार में भी नही आ सकते. ये सारी चीजें हिंदुस्तान की मिट्टी से उपजी हैं. कुछ ऐसी चीजें हैं जो मैं समझता हूं हिंदुस्तान के अलावा और कहीं पैदा ही नहीं हो सकती हैं. मिसाल के तौर पर उर्दू जुबान! इतनी हिंदुस्तानी जुबानों का मिश्रण है कि वो किसी और मुल्क में पैदा ही नहीं हो सकती. वह शहद भी है , नमकीन भी है. मोहब्बत तो बिना उदरु जुबान के पूरी ही नहीं हो सकती है. उसी उर्दू में आप इश्क भी कर सकते हैं, उसी में जंग भी कर सकते हैं. वही फिल्मों की बात ले लें तो शाहजादा अनारकली से मोहब्बत की बात कर रहा है और अकबरे आजम जंग का एलान कर रहे हैं.
अमीर खुसरो को लीजिए, दुनिया के किस हिस्से में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा हुआ है?कितनी सदियां गुजर गई हैं लेकिन आज भी मौजूं हैं. 600 साल बाद भी संदर्भ में हैं आगे भी रहेंगी. ये इस मिट्टी का कमाल है.
इन दिनों अदम गोंडवी को पढ़ रहा हूं.

गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद!


लोकमत समाचार की रचना वार्षिकी के लिए पिछले साल मैंने प्रख्यात गीतकार समीर अनजान से बातचीत की थी. अब इसे शेयर कर रहा हूं. समीर  जी ने जो जैसा कहा, मैंने वैसे ही उन्हीं की भाषा में उतार दिया है- विकास


मुङो लगता है कि जब मैं छठी या सातवीं कक्षा में आया तब से मुङो कभी-कभी कुछ पंक्तियों की आमद हो जाती थी. कई बार मैं चमत्कृत भी होता था कि मेरे दिमाग में ये चीजें आती क्यों हैं? लेकिन मुङो अच्छा लगता था. कभी-कभी रास्ते में चलते हुए गिरा हुआ पैसा मिल जाए तो अच्छा लगता है ना! ठीक उसी तरह से कभी-कभी चलते फिरते कोई पंक्ति दिमाग में आ जाती थी तो मैं बहुत खुश होता था. तब एक ही लाइन आती थी और बात आई गई हो जाती थी. मगर धीरे धीरे मुङो शौक पैदा होने लगा कि ये जो पहली लाइन आई है, उसे आगे कैसे बढ़ाया जाए? ये क्यों आई, इसके पीछे सोच क्या है? तो धीरे-धीरे वो जो जर्म्स थे वो डेवलप होने लगे. 
पहली कविता जिस पर मुङो मेरे कॉलेज का पुरस्कार मिला था उसके पीछे की कहानी दिलचस्प है. मैं हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज बनारस में पढ़ रहा था और बारहवीं में था. उस जमाने में नई कविता का दौर चला हुआ था और हम लोग दुष्यंत कुमार की गजलों से बहुत प्रभावित थे और जहां गुलजार साहब को लाकर रखा जाता है, नई कविता के दौर में उनका नाम सबसे ऊपर रखा जाता था. उन्होंने बहुत से गाने लिखे ‘मेरा कुछ सामान खो गया है’ से लेकर पत्थर की हवेली में सीसे के घरौंदो से..’! एक ऐसा शब्द चयन जो लोगों को चमत्कृत करे. उसका मतलब उसे समझ में आए या न आए. शब्द चयन ऐसा था कि लोगों को लगता था कि ये कोई बड़ी बात कह रहा है. तो वो जो मेरी कविता थी उसकी शुरुआत ही थी ‘गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद! लोग चमत्कृत हुए कि ये अजीब बात है, गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद! आप ताज्जुब करेंगे कि मुङो उस पर पहला पुरस्कार भी मिला! उस वक्त मेरा ये शौक था लेकिन मेरा जो  इनर था  वह अलग था. मैंने लिखा ‘ले गई नथुनिया वाली’ तो वहां से शुरु हुए थे हम लोग. उसके बाद मेरी एक ऑर्केस्ट्रा पार्टी हुआ करती थी जिसकी मैं कंपेयरिंग किया करता था. मेरे लिखे हुए गाने मेरे साथी कंपोज करते थे और हम गाते बजाते थे. कहीं न कहीं शुरु से इस तरह के गाने लिखने का शौक रहा लेकिन इस तरह की कविताएं भी लिखीं जिनको हम नई कविता का नाम देते है.
साहित्य में फिल्मों का भी योगदान
जब मैंने लिखना शुरु किया तब ऐसा नहीं था कि फिल्मों में आना था इसलिए लिखना था. दरअसल कहीं न कहीं वह ब्लड में था, जेनेटिक था क्योंकि पिताजी गीतकार थे. तो मुङो विरासत में मिली कविता. पहले तो शौकिया लिखता रहा लेकिन जब भी फिल्मी गाने सुनता था तो मैंने एक चीज अनुभव किया कि चाहे आप शैलेंद्र को सुनो या साहिर को सुनो या राजेंद्र किशन  को, इन सारे लोगों ने जब भी लिखा बहुत आसान लिखा. इन्होंने साहित्य से फिल्म का एक अलग रिस्ता बना कर रखा था. अब देखिए साहिर ने भी जब लिखा कि ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो’ तो इससे आसान और क्या हो सकता है? शैलेंद्र लिखते हैं..‘तेरे मन की गंगा और मेरे मन की जमुना..अब बोल राधा संगम होगा कि नहीं’, राजेंद्र किशन जी लिखते हैं कि ‘पल पल दिल के पास रहती है’ तो मेरे जेहन में यह बात बस गई कि जब आप इस मीडियम के लिए काम करें तो आम पब्लिक की बोलचाल की भाषा होनी चाहिए क्योंकि फिल्म देखने के लिए एक ऑटो रिक्शेवाला भी जाता है और एक लिटरेचर का आदमी भी जाता है. तो आप ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें कि जो सबकी समझ में आए. इसीलिए हमको लोग लिटरेचर से अलग करते हैं उसके पीछे उनका तर्क होता कि लिटरेचर में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है वह थोड़ी मुश्किल भाषा होती है और फिल्मों में वो नहीं होती है. मगर मेरा मानना है कि भाषा की क्लिष्टता या भाषा की जो मुश्किलाहट है, वह कोई पैमाना नहीं होना चाहिए साहित्य और सिनेमा को अलग रखने का. कहीं न कहीं बहुत बड़ा योगदान रहा है फिल्मों का भी साहित्य के साथ. कई लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. हां, कहने का तरीका, उसकी जमीन अलग हो सकता है. वहां चूंकि बंदिशें नहीं हैं, यहां हम बंदिशों में काम करते हैं मगर जहां तक रचना का सवाल है तो उसमें कोई दुराव नहीं होना चाहिए. कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. फिल्म की रचना हो या साहित्य की रचना हो, यदि वो अच्छी है तो उसको  साहित्य में वह दर्जा मिलना चाहिए.
मैं गंगा तट का बंजारा
पिता जी को शुरु शुरू में बहुत तकलीफ हुई. उन्होंने किताब लिखी है ‘‘मैं गंगा तट का बंजारा’’, उसमें जब आप उनकी निजी कविताएं पढ़ेंगे और जिस तरह के शब्दों का चयन उन्होंने किया है तो वह बिल्कुल अलग है. उन्हें लगा कि फिल्मों में आकर उन्हें समझौता करना पड़ा. फिल्मों में यदि काम करना है तो भाषा सरल होनी चाहिए लेकिन मुङो कभी नहीं लगा. मैं जब आया तो इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार था कि मुङो सरल भाषा में ही लिखना है. इसलिए मैंने कभी भी अपनी भाषा को कठिन बनाने की कोशिश नहीं की.
फिल्मों में विवशता यह है कि जो किरदार हमें मिलता है उसे ध्यान में रखना पड़ता है. मैंने कुली फिल्म के लिए लिखा तो इस बात का ध्यान रखना था कि कुली जब गा रहा है तो उसकी भाषा क्या होनी चाहिए. यदि कुली गा रहा हो.. ‘चंदन सा बदन, चंचल चितवन’ तो लोग हसेंगे. ऑटो चलाने वाला जब बात करेगा तो अपनी ही भाषा में बात करेगा. आप यह एक्सपेक्ट मत कीजिए कि आप जिस भाषा में बात करते हैं, उस भाषा में ऑटोवाला भी बात करे. यदि आप नाटक कर रहे हैं तो किरदार को तो आपको निभाना ही पड़ेगा. वह बात कहने का कोई मतलब नहीं जो किसी की समझ में न आए.
जुल्फ है या सड़क का मोड
पिताजी से तो मैंने जिंदगी में सबकुछ सीखा. वो नही होते तो शायद मैं गीतकार होता ही नहीं. मगर मैं प्रभावित दो राइटरों से बहुत हुआ था. एक तो आनंद बख्शी से और दूसरा मजरूह सुल्तानपुरी से. बख्शी से इसलिए क्योंकि सरलता गजब की थी. मुङो लगता था कि यदि सही मायने में फिल्म में गीतकार की उपाधि किसी को दी जानी चाहिए तो वह है आनंद बख्शी.  कहानी को और किरदार को आईने की तरह इतना साफ कहने वाला आदमी दूसरा कोई नहीं. मैं उनका एक उदाहरण देता हूं आपको. उनका एक गाना था जिसका सीन था कि एक ट्रक ड्रायवर एक तवायफ के कोठे पर जाकर गाना गाता है. अब आप देखिए कि गीतकर ने उस कैरेक्टर को कितना जिया हुआ है. गाना है..‘‘तुम्हारी जुल्फ है या सड़क का मोड़ है, तुम्हारी आंख है या नशे का तोड़ है ये..’’ अब ट्रक ड्रायवर जो बात कहेगा तो उसे वही ट्रक, वही शराब नजर आएगी. ये होता है गीतकार! तो मैं हमेशा इस बात का पक्षधर रहा कि जब आप गीत लिखें तो कहीं न कहीं ये सरलता और उस किरदार को जीने की ताकत आप में होनी चाहिए.
मजरूह साहब को इसलिए पसंद करता था कि उनकी वर्सेटिलिटी गजब की थी, ‘गम दिए मुस्तकिल कितना नाजुक है दिल..’ से लेके ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा..’ तक लिखा. इतना लंबा एरा जीनेवाला आदमी! क्या हुआ तेरा वादा, अपुन को भी जरा देखो ना, नासिर हुसैन की कव्वालियां देखिए तो पता चलेगा कि मजरूह साहब ने जितने रंग बदले. संतोषानंद जी की लाइन है  ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिसमें मिला दो लगे उस जैसा’, अगर इस पंक्ति पर आप खड़े उतरते हैं तब तो आप गीतकार हैं. नहीं तो आप यहां सक्सेसफुल नहीं हो सकते क्योंकि यहां हर तरह की सिच्यूसन मिलती है, हर तरह की किरदार मिलते हैं, हर तरह की कहानी मिलती है. तो, वर्सेटाइलिटी मजरूह साहब से मैंने सीखी.
नीरज और बच्चन पे प्रभावित किया
गोपालदास नीरज और हरवंशराय बच्चन ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं मुङो बहुत प्रभावित करती थीं, बहुत अच्छी लगती थीं. उनकी कविताएं मैंने पढ़ी भी बहुत. जैसे महादेवी वर्मा थीं, उनकी कविताएं क्लास का विषय थीं इसलिए पढ़ना पड़ा. मगर इनसे मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ उसके पीछे वही भाषा की क्लिष्टता थी, मुश्किलाहट थी इसीलिए उन कविताओं से मैं बहुत प्रभावित नहीं होता था. गजलों में दुष्यंतकुमार का प्रभाव बहुत रहा.  मैं हमेशा उन लोगों को पसंद करता हूं चाहे वो बोलने वाला हो, लिखने वाला हो या परफार्म करने वाला हो, जो जीता है. जी कर जो कहता है, उसकी कला में सच्चई नजर आती है. एक आदमी सोच कर लिखता है, एक आदमी जी कर लिखता है. सोच कर लिखने वाले हैं जैसे गुलजार साहब हैं. गुलजार साहब और मेरे में यही विरोधाभाष है. वो लोग मुङो ज्यादा प्रभावित करते हैं जो कविताएं लिखते हैं और लोग समझ पाते हैं.
भाषा का श्रृंगार
अक्सर जब मैं पत्रकारों के बीच होता हूं या क्रिटिक के बीच होता हूं और यह सवाल किया जाता है कि क्या भाषा का श्रृंगार समाप्त हो रहा है तो मेरी राय होती है कि ये जो गिरावट है, यदि आपको लगता है कि गिरावट है तो, केवल फिल्मी गीतों में नहीं हैं. वो पूरी तरह से हमारे समाज में है, हमारे देश में है, हमारी सोच में है. फिल्म समाज का आईना है. समाज में जो घटित होता है, उसका एक रंग फिल्म की कहानी में या किरदार में या कविताओं में नजर आता है. जब भाषा अपना स्वरूप बदलने लगती है. जैसे अभी मुझसे सवाल किया गया कि आपने बहुत से हिंगलिस स्टाइल के गाने लिखे. मेरे पास जवाब यह है कि चूंकि यह जनरेशन हिंगलिश है. हमारे भीतर बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाने का चलन शुरु हुआ. वो बच्चे अंग्रेजी सीखते हैं, आधे से ज्यादा बोलते हैं. हिंदी का प्रचलन कम हुआ है तो वो जो सुनना चाहते हैं वही लिखाजाएगा. और सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा वह ग्लोबलाइजेशन का है. हमारा म्यूजिक अब पूरी दुनिया में जाने लगा तो कहीं न कहीं डिफरेंट भाषा के इस्तेमाल से उसका आइडेंटिफिकेशन बढ़ता है. वो ज्यादातर लोगों के रीच तक पहुंता है. मैं कहता हूं कि भाई आपको यदि ‘चंदन सा बदन..’ सुनना है तो सरस्वतीचंद्र बनानी पड़ेगी. यदि आप कुली नंबर वन में या टपोरी नंबर 1 में यदि एक्सपेक्ट करते हैं तो वैसी भाषा का इस्तेमाल नहीं हो सकता. हम परिवर्तन चाहते हैं तो उसे जमीन से परिवर्तित करना पड़ेगा, हमको बदलना पड़ेगा. हमारी सोच को बदलना पड़ेगा, हमारे परिवेश को बदलना पड़ेगा तब जा कर हम उस तरह की चीजों को एक्सपेक्ट कर सकते हैं. तो ये जो परिवर्तन का असर रहा है, उसकी वजह से भाषा में गिरावट आई है इसमें कोई दो राय नहीं है. इसे चंचलता नहीं कह सकते. इसे प्रवाह कह सकते हैं. लेकिन आती क्या खंडाला और चंचल चितवन का फर्क तो है! ये तो आप नहीं कह सकते कि दोनों भाषाओं में समानता है और दोनों अपनी जगह सही हैं. हां, इन टोटलिटी में वो गिरावट आई है. पहले के जमाने में जो टपोरी होते थे, वो भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे. आज के टपोरी करते हैं. इसलिए मैं इसे बदलाव मानता हूं और बदलाव को स्वीकार कर लेने में ही भलाई है. हां, कोशिश होनी चाहिए कि यह ठीक हो और ठीक होने के लिए जो प्रयास चाहिए, वह निचले स्तर से शुरु होना चाहिए.
कविता जैसी है बनारस की जिंदगी
बनारस अभी भी मेरे जेहन में है, मेरी रूह में है. बनारस की मिट्टी में, खुशबू में कहीं न कहीं एक कल्चर और क्रिएटिविटी पलती है. मैं जब-जब जाता हूं और लौटकर आता हूं तो मुङो लगता है कि मेरा पुनर्जनम हुआ है. वो एक शहर अभी भी ऐसा है जो अपनी अस्मिता को, अपने रंग को, अपनी संस्कृति को जिंदा रखे हुए है. अभी भी बनारसी आदमी आपसे मिलेगा, छन्नूलालजी से मिलेंगे तो बात करने का जो लहजा है वह बनारस वाला ही मिलेगा. बिसमिल्ला खां को भारत रत्न दे दिया गया लेकिन बिस्मिल्ला खां में कोई परिवर्तन नहीं आया. उनके बात करने का जो लहजा था, काम करने का जो तरीका था, वो वैसा ही था जैसा चालीस-पचास साल पहले रहा होगा. दशाश्वमेघ घाट की शाम हो, वहां की भांग हो या वहां की नैया पर घूमना हो, वहां का खाना हो, या नास्ता हो, शाम को दूध के साथ मलाई, लस्सी, सब अद्भुद है. कोई करोड़पति भी होगा गमछा पहनकर नदी के पार ही जाएगा. मेरे कई रिस्तेदारों ने नौकरियां छोड़ दीं क्योंकि बनारस से ट्रांस्फर नहीं लेना है. वो पान, वो संकटमोचन, वो विश्वनाथजी उनको चाहिए. वो गलियां, वो कल्चर, वो खुशबू अगल ही है. और किसी शहर में मुङो वो रंग मिला ही नहीं. अच्छा दूसरा क्या होता है जो मैने मुंबई में आने के बाद महसूस की कि आप जिस मिट्टी में पलते हैं वहां की खुशबू और वहां का रखरखाव आपके जेहन में इस तरह से बस जाता है कि आप उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाते हैं. आप मुङो पैडर रोड ले जाकर रख दीजिए, मैं नहीं रह पाऊंगा. तो समझ लीजिए कि बचपन और जवानी जहां गुजरती है, वो जगह आप भूल ही नहीं सकते, भले ही आप पचास साल बाहर रह लें. उसे मिस करते रहते हैं. अभी भी मैं बनारस जाता हूं तो रिक्शे में ही घूमने में मजा आता है. अभी भी मैं दशाश्वमेघ घाट तक पैदल चलकर ही जाता हूं. सर्दियों में जेब में भुना हुआ चिनियाबादाम (मूंगफली) रखकर उसे खाते हुए जाने का जो मजा है वो कहीं नहीं मिलेगा! वहां के कवियों को सुनता हूं तो लगता है वह भाव अभी भी कहीं न कहीं मेरे भीतर जी रहा है. बनारस में लोग जीवन को सही मायनों में जीना जानते हैं. बनारस की हवा और मुंबई की हवा में ही ऐसी जंजीर है कि जो एक बार आया, वो कभी लौटकर नहीं गया! बनारस की जिंदगी में कविता, संगीत और स्वाद भरा हुआ है. मेरे लेखन में भी वह उतरकर आता है. जब-जब मुङो मौका मिला मैंने उस जीवन को गीतों में उतारने की कोशिश की है. वो मैने गान लिखा था..‘जेठ की दुपहरी में पांव जले है रामा या फिर वो यूपी वाला ठुमका लगाऊं कि हीरो जैसे नाच के दिखाऊं.. कल भी मेरे बच्चन साहब के साथ मेरी मीटिंग चल रही थी. उनके लिए जो मैंने लिखा उनमें बनारस को पिरो दिया है. होरी खेले रघुवीरा में भी बनारस की खुशबू है.

मनोज वाजपेयी बोले-लोगों के कविता भी इंस्टैंट चाहिए!

पिछले साल मैंने प्रख्यात अभिनेता मनोज वाजपेयी से बातचीत की थी. अब इसे शेयर कर रहा हूं. मनोज जी ने जो जैसा कहा, मैंने वैसे ही उन्हीं की भाषा में उतार दिया है- विकास


यह सवाल वाकई बड़ा दिलचस्प है कि क्या रंगमंच एक काव्य की तरह है? मैं  काव्यभाषा में कहूं तो रंगंमच एक संघर्षमय और पूर्ण माध्यम है एक अभिनेता के लिए. इससे ज्यादा पूर्ण माध्यम कोई है नहीं दुनिया में. हमेशा यह कहा जाता है कि आप थियेटर के अभिनेता को लीजिए, वह अच्छा अभिनय करेगा. ऐसा नहीं कि थियेटर के कलाकार में कोई सुरखाब का पर लगा हुआ है. दरअसल थियेटर का एक्टर एक अभिनय के माध्यम से आता है. अभिनय का माध्यम का मतलब यह होता है, वह जो माध्यम है पूरी तरह निर्भर करता है अभिनेता पर. उस पूरे दौर में अभिनेता जो है वह टूटता है, बौद्धिक रूप से, शारीरिक रूप से, अभिनय की दृष्टि से टूटता है, फिर से खड़ा होता है. इसमें साहित्य का बहुत बड़ा योगदान होता है. उसमें हर चीज का समावेश किया जाता है, उसके पूर्ण विकास के लिए शायद कविता, शायद एक खालिस लेखन या फिर पाठन की दृष्टि से उसे पूरी तरह तैयार किया जाता है. इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि रंगमंच किसी को भी करना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि उसे अभिनेता बनना है या नहीं बनना है. रंगमंच हर बच्चे को करना चाहिए क्योंकि रंगमंच एक व्यक्ति का पूर्ण विकास करता है. मैं यह भी कह सकता हूं कि रंगमंच सें काव्यात्मकता और लयबद्धता सीखता हैआदमी. यदि पूरे अभियन में लय नहीं हो तो सम पर समाप्त नहीं होगा. अगर सही मोड पर शुरु नहीं होगा तो यही कहेंगे ना कि कि सुर सही नहीं मिला, सुर अच्छा नहीं लगा. उसको हम संगीत से भी बांधकर देखते हैं, उसे कविता से भी बांध कर देखते हैं कि जो उसने सुना वह कानों को लग रहा है या नहीं. इसके लिए अलग से हम लोगों की एक एक्सरसाईज होती है जिसमें हम अलग से सिर्फ काव्य पाठ करते हैं. उसके लिए अलग से हम कोरस में शामिल होते हैं. इससे अभियन को एक आयाम मिलता है.
सूफीयाना शास्त्रीय संगीत
मेरा मानना है कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया जारी रहती है. समाज जब बदलता है तो बहुत सारी चीजें टूटती बिखड़ती हैं. उसमें शास्त्रीय संगीत सबसे बड़ा शिकार हुआ है. कविता भी हुई है. साहित्य भी हुआ है क्योंकि जब हम पूरी तरह से फास्ट फुड कल्चर में जाते हैं तो हम प्रक्रिया को हम नजरंदआदाज कर देते हैं. पहले पकौड़ा बनाने के लिए बेसन बनाया जाता था, फिर तेल गरम किया जाता था, आपके समाने पकौड़े डाले जाते थे, तलते थे. एक पूरी प्रक्रिया होती थी खाने के पहले की. अभी खाना बना बनाया तैयार चाहिए, ये जो पूरी प्रक्रिया है, उससे लोग ऊब गए हैं. शास्त्रीय संगीत एक प्रक्रिया है. कोई भी जो क्लासिकल फॉर्म है, वह प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया कला को निखारती है. शास्त्रीय संगीत कंठ को निखारता है लेकिन आज बैठकर इतनी देर कोई सुनना नहीं चाहता! मुङो खाना चाहिए, मुङो अचानक खाना है. अचानक स्वाद चाहिए. अचानक खत्म करूं. पैसे दूं और अगले काम पर बढूं.
हालांकि एक दूसरे पहलू को देखिए तो हाल फिलहाल में भले ही सूफी संगीत के माध्यम से ही क्यों न सही शास्त्रीय संगीत वापस आना शुरु हुआ है. उसमें लय बदले हैं, सुर जो है वह शास्त्रीय संगीत के ही आ रहे हैं. लय इसलिए बदला है क्योंकि पुराने धाकर लोगों ने आज के दौर को सामने रखते हुए एक दिशा लेने की शुरुआत की है. आज सूफी संगीत जो है, मेरे हिसाब से शास्त्रीय संगीत की परंपरा को कायम रखे हुए है. भले ही पीछे ढोलक न सही ड्रम सुनाई दे रहा है. उससे कोई मतलब नहीं है. कम से कम वह जो आवाज है, लय है, निखार है, तैयारी है, वह दिखाई दे रही है.


मेरा अभिनय, मेरा पढ़ना..!
मेरा जो दर्शक है. वह गहराई में जाकर नहीं सोचता है. उसे लयबद्धता चाहिए, एक प्रवाह चाहिए बिल्कुल किसी कविता की तरह, जो किरदार को सजीव कर दे. मैं जो अभिनय करता हूं, वह एक्शन से कट तक न शुरु होता है न खत्म होता है. मेरी लाइब्रेरी में जाएं तो आपको हिंदी की बहुत सी कविताओं की पुस्तकें मिलेंगी. कहीं भी जाता हूं, उठा कर ले आता हूं. पढ़ता हूं. अंग्रेजी साहित्य मेरी पत्नी बढ़ती है. मेरे हिसाब से पढ़ाई लिखाई आपकी मदद करता है, एक तैयारी हमेशा चलती रहती है. एक्शन से पहले की जो तैयारी है, उसकी कोई सीमा नहीं है, वह चलती रहती है. जब आप कोई सीन करने जाते हैं तो अंतरआत्मा तक में इतनी तैयारी पहले से हो जाती है कि अलग से कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती.
मेरे सामने यह सवाल रखा जाता है कि फिल्मों से शायरी और संगीत गायब हो रहा है. मुङो ऐसा नहीं लगता. मुङो तो लगता है कि बहुत ही सहजता के साथ आ रहा है. गालिब का कोई शेर आज कोई सुनता है उसमें से एक शब्द नहीं जानता है तो उसकी रुचि हट जाती है. आज जो भी शायरी आ रही है, चाहे वह संगीत के माध्यम से या किसी सीन के माध्यम से तो उसमें काफी सहजता है. वह किसी अनपढ़ आदमी को भी समझ में आती है. दरअसल लोगों का धैर्य खत्म हो चुका है. वे डिक्शनरी खोलकर नहीं बैठेंगे किसी शब्द का अर्थ जानने के लिए. उनको तत्काल सब बात समझ में आनी चाहिए. इंस्टैट समझ में आनी चाहिए. यदि वो नहीं हो रहा है तो हम वहीं पर असफल हो जाते हैं. ये जो सहजता की मांग है, दर्शक करता है.
मैं खुद की बात करूं तो मैं गालिब को भी पढ़ता हूं और फिराक को भी क्योंकि उसके लिए हमने रुचि पैदा की थी, वो समय अलग था. यदि हम रुचि पैदा नहीं करते तो अलग कर दिए जाते. कुछ माहौल ऐसा था कि आपने आज कौन सी किताब पढ़ी? इस महीने में कौन सी किताब पढ़ी? यदि आप लोगों से बातचीत कर रहे हों और उनको यह पता चले कि यह पढ़ता लिखता नहीं है तो समाज से बहिष्कार कर दिया जाता था. रंगमंच के उस ग्रुप से बहिष्कार कर दिया जाता था. इस दबाव में हमें पढ़ना पड़ता था. इसलिए पढ़ने की जो आदत लगी मुङो वह रंगमंच की वजह से लगी. पढ़ा लिखा हमेशा काम ही आता है. पढ़ना हर युग में जरूरी रहा है. मैं सबको पढ़ता हूं. यदि किसी नए व्यक्ति ने भी कोई कविता लिखी है और मुङो कूरियर कर देता है तो मैं जरूर पढ़ता हूं. यदि अच्छा लगा और उस कविता के साथ फोन नंबर भी है तो उसे मैसेज जरूर करता हूं कि भैया अच्छा लगा. कहने का आशय यह है कि आप कुछ भी पढ़ें लेकिन पढ़ें जरूर. मेरा अपना मानना है कि जरूरी नहीं कि आप गालिब को पढ़िए. आप किसी को भी पढ़िए, नए शायर को पढ़िए लेकिन पढ़िए जरूर. लोगों के जो विचार हैं, नजरिया है उसे देखने जानने की बहुत जरूरत है नहीं तो हम अपना नजरिया भी नहीं जान पाएंगे क्योंकि हम तो हर दूसरे सेकेंड में विरोधाभास में रहते हैं. अपने विरोधाभाष को  समझने के लिए दूसरे की कृति को पढ़ना बहुत जरूरी है.
कविता से मिली वो तालियों की गड़गड़ाहट
अपने काव्यानुराग की एक शुरुआती कहानी सुनाता हूं आपको. वास्तव में मेरे नैसर्गिक अभिनय की शुरुआत ही कविता से हुई है. मैं चौथी क्लास में था लेकिन मन के किसी कोने में यह भाव समाहित था कि एक्टिंग करुंगा लेकिन कोई जरिया नहीं था. मैं शर्मिला सा बच्च था. उसी दौरान एजुकेशनल कांटेस्ट होने वाला था और पता नही कि क्या सोचकर मेरे टीचर ने मुङो चुन लिया, उन्होंने कहा- मनोज प्रतिनिधित्व करेगा!  बेतिया (बिहार) के संत सतानलेस स्कूल का वो दिन मुङो आज भी याद है. मुङो जब चुन लिया गया तो मेरी जिम्मेदारी हो गई कि कुछ अच्छा करूं. मेरे सब्जेक्ट में हरिवंश राय बच्चन की कविता थी ‘‘जो बीत गई सो बात गई..’’ टीचर ने कहा कि इसे करो! इस तरह मेरा पहला परफॉर्मेस हरिवंशराय बच्चन जी से शुरु हुआ. अमित जी का फैन तो मैं बाद में बना हूं. हरिवंश राय बच्चन का फैन पहले बना. उस चक्कर में उनकी कुछ और कविताएं पढ़ीं, मधुशाला की पंक्तियां पढ़ लीं. समझ में आती नहीं थी, उतनी छोटी सी उम्र में मधुशाला आपको समझ में नहीं आएगी, केवल शराबी समझ में आएगा, उसके बाद कुछ समझ में नहीं आएगा. ..तो जो बीत गई सो बात गई के लिए मुङो पुरस्कार भी मिला और तालियों की गड़गड़ाहट मुङो आज भी याद है. उसके कारण यह हुआ कि अब एक्टर ही बनना है, कुछ और नहीं बनना है जीवन में, यह तय हो गया. उसके बाद एजुकेशनल कांटेस्ट और छोटी-मोटी नाटिकाओं के जरिए सफर जारी रहा.

..तब लोगों ने कहा था भांड हो गया है!
स्कूली जीवन में पहले नाटक खूब होते थे. सालाना उत्सव ज्यादा होते थे. अब कम हो रहे हैं लेकिन इसका मतलब यह नही कि इससे जीवन श्रृंगारकमी आई है. आज हर व्यक्ति चाहे वह मां-बाप हो या बच्च हो, अभिनय को केवल एक शौक की तरह से नहीं देखता है. अब उसे जिंदगी में जो भी पाना है उसका एक जरिया मानता है. जैसे आईपीएस, आईएएस को हम मानते थे, वैसे ही अब हमने अभियन को मानना शुरु कर दिया है. अभी नोयडा से किसी पिता ने मुङो फोन किया कि ‘‘मेरा बच्च दस साल का है और मुङो लगता है कि वह अभिनेता ही है. मुङो इसके लिए क्या करना चाहिए?’’. मैंने उन्हें सलाह दी कि पहले पढ़ने तो दीजिए उसे. मेरा यह कहना है कि ये जो एप्रूवल है वह समाज में था ही नहीं. कभी कोई पिता किसी को फोन नहीं करता बल्कि उल्टा बेटे को दो चांटे देता और कहता कि पढ़ाई कर. मैंने तो जब तक ग्रेज्यूशन नहीं किया था तब तक अपने पिता को बोला भी नहीं था कि मैं अभिनेता बनना चाहता हूं. डर इतना था. समाज का जो नजरिया था इस क्षेत्र को लेकर वो बिल्कुल अलग था. अभी वो बदल गया है. मैंने जब पिताजी को कहा कि अभिनय में जाना है तब तक मैं बहुत दूर दिल्ली पहुंच चुका था. उनका हांथ वहां तक नहीं पहुंचते. हालांकि मैंने जब बताया तो उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. समाज ने जरूर बहुत बुरा भला कहा था मेरे परिवार को- नाटक कर रहा है, भांड हो गया है, इतना पैसा लगाया इन लोगों ने पढ़ाने लिखाने पर. यूपीएससी करना चाहिए था! बहुत सी बातें थीं लेकिन मैं उसके लिए तैयार था.
नौस्टालजिक नहीं हूं मैं
पहले हिंदी फिल्मों में प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को कविताएं लिखकर भेजते थे. अब सवाल उठता है कि उस दौर को क्यों मिस किया जाए? सच कहूं तो मैं उस दौर को मिस नहीं करता हूं. मैं नौस्टाल्जिक (अतीत के लिए लालायित) आदमी नहीं हूं. मैं पीछे के समय से बंधकर नहीं रहता हूं. मेरा मानना है कि समाज बदलता है. मोतीलालजी या दिलीप साहब के समय जो समाज था वही आपको रिफ्लेक्ट होता था उनके सिनेमा में. वह समाज बदलकर जिस तरह से शम्मी कपूर जी के समय में परिलक्षित हुआ, उसी तरीके से रोमांश का समय राजकपूर जी के समय अलग था और राजेश खन्ना के समय अलग था. राजेश खन्ना के समय वह अपने मरने की बात करता  है, कुर्बानी की बात करता है. जब उस रोमांस से  व्यक्ति थक गया क्योंकि रोमांश खा नहीं सकता था, रोमांस नौकरी दे नहीं सकता था तो अमिताभ बच्चन के जरिए उस वक्त का गुस्सा और वो नाराजगी नजर आई. फिर शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान के जरिए एक अलग ढंग से आई लव यू कहने का नजरिया भी बदला क्योंकि समाज बदल रहा है. समाज अपने अपने ढंग  से बदलता रहा है, अपने ढंग से नायक भी सामने लेकर आता रहा है.
लड़कियों से डर लगता था
मैं प्रेम के लिए बोल नहीं पाता था, लड़कियों से डर लगता था, शायरी तो बहुत दूर की बात थी. मैं आया बहुत छोटी सी जगह से था जहां पर आप उस तरह की बात सोच भी नहीं सकते थे. किसी की तरफ दूर से देखते रहिए और समझते रहिए कि आपको प्यार हो गया है..! तब तक उसकी शादी भी हो जाती थी और उसके बच्चे भी हो जाते थे. रंगमंच में जब मैं पापुलर हुआ तो संपर्क में शहर लड़कियां थीं, वो खीज जाती थीं कि इतने सारे इशारे कर रही हूं और ये आदमी समझ नहीं रहा है. बाद में आकर बोल देती थीं कि बात समझ में नहीं आ रही है? एक लड़की ने तो मुङो डांट दिया था कि तुङो समझ क्यों नहीं आ रही है कि मैं तुझसे प्यार करती हूं. दिल्ली की बात है वो. हम लोग छोटी जगह से थे. लड़कियां यदि सीधे आकर प्यार का इजहार नहीं करती तो हम समझते ही नहीं. हम तो शादी के समय ही लड़की को जान पाते. ये तो बड़े शहर में आने के कारण हमारा कल्याण हो गया.
प्रकृति सबसे सुंदर कविता
मेरे खयाल से हिंदुस्तान से प्रकृति नष्ट हो रही है. जितनी बेहतर और काव्यात्मक थी वो खत्म हो रही है. नष्ट कर दिया लोगों ने. पश्चिमी देशों में बहुत सहेज कर रखा है प्रकृति को. आप जहां भी जाएं योरप या अमेरिका जाएं, बहुत काम किया है उन लोगों ने. नाव्रे मुङो बहुत कमाल लगा है. मेरे ख्याल से प्रकृति अपने पूर्ण रूप में नव्रे, स्वीडन, डेनमार्क और आईसलैंड जैसी जगहों पर दिखती है. अपने देश में शुटिंग करने जाता हूं और देखता हूं कि बेतरतीब तरीके से प्रकृति को विकास के नाम पर नष्ट किया जाता है तो दर्द होता है. मेरे इलाके (बेतिया, बिहार) में इतना घना जंगल था और इतना खूबसूरत था कि मैं प्रकृति के सानिध्य में हमेशा बाहर ही रहता था. मैं घर के भीतर बैठता ही नहीं था. विकास के नाम पर इस देश को जिस तरह से बर्बाद किया गया है, उससे पीड़ा तो होती है. मैं कहना चाहूं गा कि जिस प्रकृति को आप नष्ट कर रहे हो, वही आपके नष्ट होने का कारण बनेगा. केदार नाथ उसका बहुत बड़ा उदाहरण है. ये कभी भी हम लोगों के साथ होने वाला है. प्रकृति की प्रतिक्रिया शुरु हुई है, वह कहीं भी हो सकती है.

डब्बे तो लगा दिए लेकिन किसी काम के नहीं!

राष्ट्रीय राजमार्ग अर्थात नेशनल हाई वे से गुजरते हुए इन डब्बों को आपने निश्चय ही देखा होगा. कहीं ये दो किलो मीटर पर लगे हैं तो कहीं डेढ़ किलो मीटर पर! दर्जनों वाहन चालकों से लोकमत समाचार ने जानना चाहा कि ये डब्बे सड़क किनारे क्यों लगाए गए हैं? ज्यादातर लोगों ने माना कि डब्बे वे देखते हैं और उनके मन में भी यही सवाल उठता है कि ये क्यों लगाए गए हैं? लोगों ने यह भी माना कि कभी उन्होंने रुककर यह जानने की कोशिश नहीं की कि ये हैं क्या? ऐसे लोगों की संख्या नगण्य थी जिन्हें डब्बों के बारे में कुछ जानकारी थी! दरअसल इन डब्बों को स्थापित करने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने इस बात की जरूरत ही नहीं समझी कि इनके बारे में आम आदमी को जानकारी कैसे दी जाए. विदेश की तर्ज पर इन्हें बना तो दिया गया लेकिन प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था नहीं की गई.
अब चलिए हम आपको बताते हैं कि ये हैं क्या और इन्हें स्थापित करने का कारण क्या है! इन डब्बों को कहा जाता है ‘एसओएस’ बूथ. एसओएस एक अंतरराष्ट्रीय एब्रीविएशन अर्थात एक स्थापित वाक्य का संक्षिप्त स्वरूप है. इस एब्रिविएशन के सामान्यत: तीन पूर्ण वाक्य बनते हैं. 1. सेव आवर शिप यानि हमारे जहाज को बचाईए. 2. सेव ऑवर सोल यानि मेरी आत्मा को बचाईए. 3. सेंड आउट सकर यानि राहत भेजिए. राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगे डब्बे राहत ेभेजने या आत्मा बचाने यानि जान बचाने से संबंधित है.
कांग्रेस की पिछली सरकार के जमाने में मंत्री कमलनाथ ने इस बात के लिए पहल की कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर दुनिया के  िवकसित देशों की तरह हर डेढ या दो किलो मीटर पर सड़क के दोनों ओर एसओएस बूथ होने चाहिए ताकि दुर्घटना की जानकारी तत्काल कंट्रोल रूम को मिल सके. योजना यह थी कि कंट्रोल रूम तत्काल निकटतम टोल प्लाजा को जानकारी पहुंचाएगा ताकि वहां से अत्यंत कम समय में एंबुलेंस घटनास्थल पर पहुंच जाए. इससे दुर्घटना में घायल  व्यक्ति को तत्काल मेडिकल सहायता मिले और उसकी जान बचाई जा सके. इसे नियमों में शामिल किया गया और  वर्ष 2011 के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऐसे बुथ बनने शुरु हो गए. यह भी प्रावधान किया गया कि लोग सड़क की हालत के बारे में भी जानकारी दे सकते हैं और ऐसी शिकायतों को संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाया जाएगा ताकि सड़क जल्द दुरूस्त हो. इसे राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की वेबसाइट पर भी अपलोड करने की योजना बनी.
एक भी बूथ काम का नहीं
लोकमत समाचार ने यह जानने की कोशिश की कि नागपुर के पास बने एसओएस बूथ वाकई काम कर रहे हैं या नहीं! नागपुर से हैदराबाद जाने वाले मार्ग पर बहुत से एसओएस बूथ के भीतर के कलपुर्जे गायब थे. कुछ सही सलामत दिख रहे थे लेकिन उनका बटन दबाने पर कोई जवाब नहीं मिला. दरअसल बूथ के बाहर एक बटन होता है जिसे आप दबाएंगे तो वह कंट्रोल रूम के संपर्क में आ जाता है. वहां से सीधी बात होनी चाहिए. इस बाबद जब लोकमत समाचार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के एक वरिष्ठ अधिकारी से बात की तो उन्होंने माना कि बूथ काम नहीं कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि आम आदमी में इनके प्रति जागरूकता नहीं है और कुछ मनचले इसे तोड़ देते हैं. अधिकारी ने यह भी बताया कि चूंकि सड़क निर्माण के साथ इसका निर्माण भी शामिल था इसलिए ये बन गए हैं लेकिन हकीकत तो यही है कि अभी ये काम नहीं आ रहे. इनके काम करने की पद्धति भी बहुत पुरानी है. अधिकारी का कहना था कि अब मोबाइल का जमाना है, लोग उसी का उपयोग करते हैं. हां, नागपुर-बैतूल मार्ग पर एक निजी कंपनी के साथ मिलकर इस तरह के बूथ चलाने का प्रस्ताव प्राधिकरण को भेजा गया है लेकिन अभी तक कोई जवाब नही आया है.
टोल प्लजा पर एंबुलेंस नहीं
सामान्यतौर पर टोल प्लाजा से गुजरते हुए एंबुलेंस शायद ही किसी टोल प्लाजा पर दिखाई देता हो. यदि एसओएस बूथ स्थापित करने की योजना को आधार माना जाए तो हर टोल प्लाजा पर एक एंबुलेंस जरूर होना चाहिए जो दुर्घटना की स्थिति में तत्काल पहुंच सके. जाहिर सी बात है कि जब एसओएस बूथ ही काम नहीं कर रहा है तो एंबुलेंस की जरूरत ही क्या है? लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने कुछ जगह इमरजेंसी नंबर वाले बोर्ड लगा रखे हैं. यदि हर टोल प्लाजा पर एंबुलेंस हो तो इन नंबरों के माध्यम से भी जल्दी मेडिकल राहत पहुंच सकती है.
अब जरा वहां का हाल..!
दिल्ली में एक आरटीआई कार्यकर्ता को इन एसओएस बूथ का खयाल आ गया. उसने जानकारी मांग ली कि दिल्ली-गुड़गांव हाईवे पर कितने लोगों ने एसओएस बूथ का इस्तेमाल किया? जवाब मिला कि दो साल में दुर्घटनाएं तो हुईं लेकिन हर दो किलो मीटर पर एक बूथ होने के बावजूद किसी ने उनका उपयोग ही नहीं किया!