Monday, September 21, 2015

जया बच्चन के हीरो हैं दिलीप कुमार!

‘‘..एक लड़की हमारे यहां आने लगी थी और धीरे-धीरे कुछ ज्यादा ही आने लगी थी. उसका नाम था-जया भादुड़ी. मुङो नहीं मालूम अमित जया को पहले पहल कहां मिले थे और एक-दूूसरे के प्रति क्या प्रतिक्रिया हुई थी. ..हिंदी फिल्म संसार में जया की प्रसिद्धि ‘गुड्डी’ के साथ हुई थी. कुछ और बाद को आने वाली फिल्म में भी उसके काम की प्रशंसा हुई थी. ..उसमें अपना एक आकर्षण था, विशेषकर उसके दीर्घ-दीप्त नेत्रों का, और उसके सुस्पष्ठ मधुर कण्ठ का. वह अमित को ‘लंबू जी’ कहती और अमित उसे ‘गिटकी’ कहते.’’
-हरिवंश राय बच्चन (दशद्वार से सोपान तक, पृष्ठ 340)

जब जया बच्चन सामने बैठी हों और आप उनसे संवाद कर रहे हों तो वाकई उनके दीर्घ-दीप्त नेत्र आपको आकर्षित करते हैं. उनकी सुमधुर आवाज आपको भावविभोर करती है. अगस्त 2014 की एक दोपहर उनसे मुलाकात हुई लोकमत मीडिया लिमिटेड के चेयरमैन और सांसद (राज्यसभा) विजय दर्डा के दिल्ली स्थित निवास ‘यवतमाल हाऊस’ में. जया बच्चन की पहचान एक अनुशासन पसंद संस्कारशील महिला की है, उनकी आंखों में मोहक अनुशासन झलकता है. वे गंभीर बनी रहती हैं लेकिन उस दिन बातचीत के दौरान उनकी खुशमिजाजी भी देखने को मिली और उनकी भावनात्मकता भी! बचपन की यादों में खो गईं. लोकमत समाचार दीप भव के पाठकों के लिए यादों का पिटारा खोल दिया. वे अपने ससुर हरिवंश राय बच्चन की दीवानी हैं. अपनी सास तेजी बच्चन की दीवानी हैं. और दीवानी हैं दिलीप कुमार सहब की. वे कहती हैं-हमारे हीरो तो दिलीप साहब ही हैं! जयाजी खुद कहती हैं कि उन्हें अनुशासन से ज्यादा ऑर्डर पर विश्वास है!


बच्चन परिवार बेहद संस्कारशील और अनुशास्ति माना जाता है. पारिवारिकता की मिसाल के तौर पर लोग इस परिवार को देखते हैं. फिल्मी दुनिया में रहकर भी यह सब कैसे संभव हो पाया? क्या बचपन में मिले संस्कारों का प्रतिफल है यह?

हम लोग मीडिल क्लास के थे. हमारे पास बहुत कुछ तो नहीं थाऔर न हमने कभी बुहत कुछ पाने की इच्छा रखी. हमें कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. हमारे घर में हम तीन बहने हैं. हमें कभी ऐसे लगा ही नहीं कि बहन हैं कि भाई हैं या भाई होना चाहिए. तो ये सारे संस्कार हमें घर से मिले. माता पिता से मिले. हमारा एक तरह से संयुक्त परिवार हुआ करता था. उसके बाद सब अपनी नौकरी में चले गए. चाचा वगैरह सब अलग-अलग शहरों में थे. मेरे ग्रैंड पैरेंट्स हमेशा थोड़े-थोड़े दिन हर किसी के साथ रहने की कोशिश करते थे. ज्यादातर हमारे पिताजी के साथ रहते थे. और अंतिम समय में भी वे वहीं थे. मुङो आज भी याद है कि पहले मेरे ग्रैंड फादर की डेथ हुई थी और उसके बाद ग्रैंड मदर की. मेरे फादर बहुत रीलिजीयस नहीं थे. थोड़े नॉस्टालजिक थे और रिचुयल्स में यकिन नहीं था. बहुत ही प्रोगेसिव थे. मुङो याद है कि चोथे दिन वे अपने कमरे में बैठे हुए थे, मैं उनके पास गई तो वे उदास थे. मैंने उनसे पूछा कि आप यहां क्यों बैठे हैं तो उन्होंने कहा कि मुङो पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि मैंने इतने दिनों तक ध्यान नहीं दिया कि मेरी मां ने क्या किया. कैसे बच्चों को पाला, कैसे बड़ा किया. कैसे संभाला होगा. कहां से पैसे आए. मैं बड़ा लड़का था और जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई थी लेकिन मां ने कभी बताया नहीं था कि जिम्मेदारी तुम्हारी है. तो हमारे यहां परंपरा थी, संस्कार थे कि हम खुद ही समझ जाते थे कि हमें करना क्या है. कभी मैंने ध्यान नहीं दिया लेकिन मैं जब यह देख रहा हूं तो लग रहा है कि कितना कुछ छोड़ कर गए हैं. बगैर सिखाए, बगैर बताए संस्कार, ट्रेडिसन, रिच्यूल्स, मोरल्स क्या-क्या सिखा कर गई हैं. जो वो करती थीं, आज मेरी वाईफ कर रही हैं, मेरी तीनों बेटियां कर रही हैं. तो हम लोग अपने जिंदगी में जो मां होती है, उसका जो कंट्रीब्यूसन होता है. यह हमारे हिंदुस्तानी संस्कार में है. कभी न मां बताती है और न हम लोग उसको समझ पाते हैं लेकिन वो जब चली जाती हैं तो हमें समझ में आता है. उन्होंने क्या-क्या संस्कार छोड़े हैं.

मुङो ऐसा लगा कि मेरे पिता मुङो कुछ कन्वे करने की कोशिश कर रहे हैं. मेरे पिता जी जर्नलिस्ट होने के कारण बहुत बाहर रहते थे लेकिन जब भी घर पर होते तो रात का खाना बच्चों के साथ खाते थे. हमने उनके मुंह से कभी भी कोई छोटी बात नहीं सुनी. हमारे घर में बड़े-बड़े लीडर का आना जाना रहता था. मध्ययप्रदेश की सारी सरकार मेरे घर आती थी. वे बहुत पावरफुल और इमानदार थे. लोग उन पर भरोसा करते थे लेकिन कभी गुमान नहीं देखा.

मुङो बहुत कुछ सीखने को बच्चन जी ( हरिवंशराय बच्चन) से मिला. मैंने उनके साथ इतना समय बिताया है कि शायद कोई और नहीं बिता पाया होगा. उन्होंने बहुत कुछ अपने बच्चों को दिया है मगर उनका अनोखा ही तरीका था, कहने का समझाने का. रोज सुबह उनके पास नहा धोकर बैठती थी तो रामायण पढ़ते थे और सुनाते थे. , समझाते थे और उस दौरान बहुत कुछ कहते थे. जो मेरे अंदरर बात चली गई थी. देखिए ये जो वातावरण होता है ऐसे घरों में जहां आर्ट कल्चर, जहां सरस्वती जी विराजमान रहती हैं, वहां कुछ बोले बगैर आप समझ जाते हैं. यदि ऐसे ही परिवार से आप आते हैं और वैसे ही परिवेश में जाते हैं तो वहां भी कुछ एडिशन होता है.
हम लोगों की शादी कम उम्र में हो गई थी. हमारी मदर इन लॉ बहुत स्ट्रांग थीं. वो ऐसे परिवार से आई थीं जो बहुत ही धनाढ्य परिवार था. वो सिख थीं. उनके पिताजी के पास 12 कपड़ा मिलें थीं. उनका ननिहाल भी काफी संपन्न था. जब वे बच्चनजी से मिलीं तो उन्होंने सबकुछ छोड़ दिया. बरेली आई थीं अपने फ्रेंड के साथ. वहां डैड (हरिवंशराय बच्चन) से मुलाकात हुई. वो कहीं से कवि सम्मेलन करके आ रहे थे तो बरेली में रुके थे उनके यहां जहां मम्मी आई थीं. मदर इन लॉ सबकुछ छोड़कर आ गई. उनके फादर ने एक ब्लैंक चेक दिया था कि तुम्हे जब जरूरत हो भुना लेना क्योंकि तुम्हारी एक साड़ी की कीमत उतनी ही है जितनी की उस लड़के की मासिक तनख्वाह.

उस जमाने में प्रेम विवाह और वह भी अलग-अलग जातियों में! बहुत ही कठिन रहा होग? क्या समाज ने उन्हें आसानी से स्वीकार किया? इतने बड़े परिवार की बेटी के लिए कितनी कठिन रही होगी जिंदगी!

नहीं, हमारी सास कहती थीं कि वो रसोई के बाहर बैठती  थीं, उनकी सास रोटी बनाकर उन्हें फेंक कर देती थीं. रसोई के अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. एक सिख लड़की और कायस्थ से शादी. उस समय तो कायस्थों का बोलबाला था उत्तरप्रदेश में. जब मेरी सासू मां की सासू मां की डेथ हुई थी तो श्रद्ध के दिन कायस्थ लोगों को बुलाया था. कोई भी कायस्थ नहीं आया. उस वक्त बच्चनजी ने कहा था अब किसी कायस्थ को घर में नहीं बुलाया जाएगा और मैं कायस्थ नहीं हूं. इसीलिए उन्होंने अपना नाम बच्चन रखा. उनका नाम श्रीवास्तव था. उस जमाने के लोग और थिंकिंग. 73 साल पहले शादी हुई थी. पैसों की तकलीफ रहती थी. बच्चनजी कैंब्रिज चले गए थे डॉक्टरेट करने. नर्मली लोग तीन चार साल में पीएचडी करते थे, उन्होंने दो साल में कर लिया. वे बैठकर जब लिखते थे और थक जाते थे तो डेस्क पर खड़े होकर लिखते थे. नींद आती थी तो खड़े हो जाते थे. सोच सकते हैं क यहां हिंदुस्तान में घर में कितनी दिक्कत होती होगी पैसों की. वे विदेश से कविताएं भेजते थे, वो प्रेस में जाती थीं, छपती थीं और तब पैसे मिलते थे. उससे घर चलता था. एक महिला जो मायके से वैभव छोड़कर आई और ऐसे जीवन को अपनाया. अपने परिवार को बनाया. सासू मां के लिए बड़ा सम्मान और गर्व का भाव है मेरे भीतर. वो बहुत खूबसूरत थीं. जब वो घर से बाहर जाती थीं लोग देखने निकलते थे कि तेजी बच्चन जा रही हैं. बच्चनजी अकेले थे परिवार में. भाई और बहन की डेथ हो गई थी. वो मुङो बताती थीं कि एक पोएट और राइटर को संभालना बड़ा मुश्किल काम है.

आप में इतना अनुशासन कहां से आया?
देखिए मुङो अनुशासन से ज्यादा ऑर्डर में विश्वास है. मैं आपको बताती हूं. आई लाइक डिसिप्लीन. मुङो लगता है कि अनुशासन मेरे भीतर है तो वह मैंने बच्चनजी से सीखा. वैसे ये आदत मेरे फादर में भी थी कि आप घड़ी मिला सकते थे उनकी दिनचर्या से. यदि नहाकर आने में कभी मुङो देर हो गई तो बच्चनजी के सामने पहुंचते ही मैं कहती थी सॉरी  डैड. वे मुङो समझाते थे कि यदि आपको इज्जत कमानी है, अपने घर के सबसे बड़े होने का एक पीलर बनना है या फैमिली को सही रास्ते पर ले जाना है तो अनुशासन बहुत जरूरी है. जो पीलर होता है, जो घर को संभालता है, उसे कोई देखता ही नहीं. मैंने अपनी मदर इन लॉ से यह सीखा कि यदि आप चाहती हैं कि आपके लाइफ पार्टनर लाइफ में सक्सेसफुल हों, अच्छा काम करें, पैसे तो ठीक है अपनी-अपनी तकदीर से आएंगे क्योंकि फैमिली के लिए आप क्या छोड़कर जाएंगे, तो गिव हिम स्पेस. इट्स वेरी डिफिकल्ट!
एक किस्सा सुनाती हूं आपको. बच्चनजी जब विदेश से आए तो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ने उन्हें 100 रूपए का इन्क्रीमेंट दिया. वे अंग्रेजी के फ्रोफेसर थे, लिखते हिंदी में थे. उन्होंने नेहरूजी से कहा कि यह तो इंसल्ट है. यदि 100 रुपए ही कमाना है तो वह मैं अपनी लेखनी से कर लूंगा. पंडितजी ने उन्हें दिल्ली बुला लिया और वे  ेविदेश मंत्रलय में पहले ओ.एस.डी (विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी) बने. अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में जितने ट्रांस्लेसन होते थे वो उनकी नजर से होकर गुजरता था. आप उनकी जीवनी में पढ़ेंगे कि एक बार पंडितजी ने उनसे कहा था कि बच्चन ये ट्रांस्लेसन मुङो ऐसा नहीं ऐसा चाहिए था तो  बच्चनजी बोले कि यदि आप समझते हो कि यह ट्रांसलेसन गलत है तो मैं अपना इस्तीफा दे देता हूं. आप खुद इतने अच्छे ट्रांंस्लेटर हैं, किसी को भी डिक्टेट कर दीजिए वो लिख लेगा, मेरी क्या जरूरत है? इस तरह के वो इनसान थे.

आपने अभी पार्टनर को स्पेश देने की बात की. अमिताभजी को आपने कितना स्पेश दिया और अमिताभजी ने आपको कितना?
आप बताईए! बहुत स्पेश देते हैं! अमितजी जी अत्यंत कम बोलते हैं. ज्यादा बात करने की उन्हें आदत नहीं है. चुप रहते हैं. अपने आप में खोए रहते हैं. मैने कभी भी उनके स्पेश में प्रवेश नहीं किया. वो भी बहुत स्पेश देते हैं. वे जानते हैं. तो एक अंडरस्टैंडिंग इस तरह की हो गई है हम दोनों में.

फिल्मी पत्रिकाओं की गौसिप ने कितना प्रभावित किया?
अमितजी जो जब काम के बाद घर आते हैं तो बिल्कुल घर के होते हैं. गेट के बाहर उनका जीवन अलग और घर के भीतर अलग. हमारे घर में कभी भी उस तरह का  वातावरण नहीं रहा कि बाहर की चर्चा हो. हमारे घर में वातावरण यह होता था कि हम सब खाने की मेज पर एक घंटा बैठते थे. कोशिश करते थे कि सनडे के दिन सब एक साथ खाना खाएं. अमितजी शहर में होते थे तो सनडे की छुट्टी रखते थे. सनडे को लंच, डीनर, चाय सब एक साथ. उस वक्त जो बाते होती थीं, हमारे यहां शाम को. डैड बैठे-बैठे कविता सुनाने लगते थे. या कुछ पढ़ने लगते थे. वो सब एटमॉस्फेयर हमारा बिल्कुल अलग था. हमारे यहां फिल्म इंडस्ट्री के लोग भी जो मिलने आते थे वो भी हल्के माहौल में बैठने के लिए नहीं आते थे.

मैंने सुना है कि परिवार में कोई बाहर गया है तो एसएमएस करना जरूरी है?
ैहां, बच्चनजी (अमिताभजी) इस मामले में बहुत सख्त हैं कि आप कहीं भी जाओ तो बोर्डेड और लैंडेड का एसएमएस जरूर लिखो.  घर के भीतर जो चीजें हैं, उनके लिए मैं बहुत स्ट्रीक्ट हूं. समय पर उठना, खाना, सीलेके से उठना बैठना, सफाई इन सब चीजों में मैं सख्त हूं.

अभिषेक जी में कैसे संस्कार भरे?
देखिए, स्कूल में जब पढ़ते थे तब मैं छोड़ने जाती थी, लेने जाती थी. मगर जब विदेश में रहते थे तब हर दूसरे महीने उनसे मिलने जाती थी. जब दोनों बच्चे बोर्डिग में थे और जब घर आते थे छुट्टियों में हम हंिदूुस्तान से बाहर नहीं जाते थे. अमितजी कोशिश करते थे कि शूटिंग ऐसी जगह रखें जहां बच्चे भी जा सकें. तो हम लोगों में यह कभी नहीं था कि हमारे बच्चों को होलिडे नहीं मिल रहा है. अजिताभजी मुंबई में ही रहते थे. उनके चार बच्चे और मेरे दो साथ में ही बड़े हुए. एकसाथ बड़े हुए.
एक बार बच्चनजी(हरिवंशराय बच्चन) बीमार थे. कुछ ऑपरेशन हुआ था. उस वक्त अमिताभजी का म्यूजिकल टूर चल रहा था विदेश में. हर शनिवार और रविवार को शो होता था. शो खत्म होते ही प्लेन में बैठते थे और मुंबई आते थे. सोमवार से शुक्रवार की शाम तक मुंबई रहते थे और फिर म्यूजिकल टूर के लिए निकल जाते थे. अमितजी की मां करीब-करीब दो साल अस्पताल में रहीं. क्योंकि उन्हें घर में रखना मुश्किल हो गया था तो अस्पताल में थीं. उस वक्त जरूरी नहीं था कि मुङो अमितजी बोलें. मैं रोज सुबह काम खत्म करके दोपहर में अस्पताल जाती थी. रात तक वहां रहती थी. ये सब चीजें संस्कार से आती हैं. संस्कार बोलकर नहीं सिखाए जाते, करके सिखाया जाता है. इस बात को अमितजी भी मानते हैं और मैं भी! मैंने कभी भी अपने बच्चों को बोलकर नहीं सिखाया. हां यह जरूर सिखाया कि घर कोई आया है तो नमस्ते जरूर करना है. नमस्ते करो! बेटा आपने नमस्ते किया?  इतना जरूर सिखाया है. आदत ऐसी है कि मेरी बेटी अभी 40 साल की हो गई है लेकिन अभी भी पूूछ देती हूूं  कि बेटा आपने नमस्ते किया? वह कहती हैं. हां मां! एक आदत सी बन गई!

परिवार का धार्मिक परिवेश कैसा है?
अमिताभ जी सुबह उठकर नहाने धोने के बाद रामायण और गीता पढ़ते हैं. हमारी सास हनुमानजी को बहुत मानती थीं. तो हमारे पूरे परिवार को आदत है हनुमान चालीसा पढ़ने की. मैं उतनी पूजा नहीं करती! मेरी सासू मां, सिख औरत हनुमानजी की भक्त बन गईं! अशोका रोड के बगल से जो एक सड़क जाती है वहां हनुमान मंदिर है. पता है, किसने डिस्कवर किया उसे? मेरी सास ने! छोटा सा एक पत्थर था जिसकी पूजा की जाती थी. हर मंगलवार को वहां जाती थीं. उन्हें पैसे देने का बहुत शौक था. कुछ खरीदते समय बार्गेन करती थीं. यदि दो रूपए दुकानदार कह रहा है और एक रूपए में मिल गया तो शेष एक रुपए किसी गरीब को दे देती थीं. उनकी बहुत आदते अच्छी थीं.

सुना है अमितजी को मीठाईयां बहुत पसंद है?
अमितजी ने मीठा छोड़ दिया. बिल्कुल मीठा नहीं खाते. कुछ आदतें उनकी बहुत वेस्टर्न थीं. खाने के बाद डेजर्ट जरूरी था. बच्चनजी को भी बहुत पसंद थी. उन्हें अल्सर था इसलिए खा नहीं सकते थे तो वे स्टूड एपल, हलकी चीजें खाते थे. सासूजी को भी मीठा खाने का शौक था. दोनों बेटों में भी यह आया. चॉकलेट बहुत पसंद था, जलेबी बहुत पंसद थी. सब छोड़ दिया. (जयाजी हौले से मुस्कुराती हैं और कहती हैं-मुङो छोड़ना बाकी है.)

बचपन की शैतानियों का कुछ जिक्र कीजिए!
शैतानी! मैं शैतान बच्ची नहीं थी. मेरी बीच वाली बहन बहुत शैतानियां करती थी. मैं शैतान नहीं थी. वास्तव में शैतानी करने का मौका नहीं मिला क्योंकि हमारे यहां माहौल ऐसा था, फ्रीडम इतनी थी. मैं एक बात बताती हूं. मेरे फादर कितने लिब्रल थे. हमारे यहां जब रिपोर्ट्स कार्ड आती थी स्कूल से तो हमारी मदर चिड़ चिड़ करती थीं कि मैथ में कम मार्क्‍स मिले, इसमें कम मिला, उसमें कम मिला. मेरे फादर सिर्फ लास्ट कॉलम पढ़ते थे और कहते थे कैन डू बेटर (अच्छा कर सकती हो). कभी फोर्स नहीं किया.

नागपुर की यादें..!
जब नागपुर में थे, पिता जी नागपुर टाइम्स में काम करते थे. मोटर बाइक में जाते थे. मैं बंगाली स्कूल में पढ़ती थी धनतोली से थोड़ा आगे. हम लोग धनतोली में रहते थे. बाद में कांग्रेस नगर चले गए थे. हमने अपने घर में कभी भी यह नहीं देखा, कभी यह महसूस भी नहीं हुआ कि फादर ने इतना स्ट्रगल किया है. घर में फ्रीज नहीं होता था, मटके का पानी आराम से पीते थे. उन दिनों मटके में नल भी नहीं होता था. उसमें चटाई लपेटते थे. पानी छिड़काव किया जाता था.
पटर-पटर अंग्रेजी..!
मुङो दुख होता है कि हम लोग आजकल वेस्टर्न कल्चर से इतने प्रभावित होते जा रहे हैं. हमारे ग्रैंड चिल्ड्ररेन जो हैं सब अंग्रेजी बोलते हैं, पटर-पटर-पटर-पटर. बच्चनजी तो कभी अंग्रेजी में बात नही करते थे. मेरी सासूजी को हिंदी नहीं आती थी ले किन उन्होंने हिंदी सीखी.


आप अपने सासूजी से बहुत प्रभावित हैं. क्या आपकी बहू भी आपसे प्रभावित हैं?
मैंने सास ससुर के साथ इतना समय बिताया कि स्वाभाविक है कि असर तो होगा. मैं कैसे कह सकती हूं कि मेरी बहू मुझसे प्रभावित होगी या नहीं? वैसे वह भी एक ट्रेडिशनल फैमिली से आई है. दक्षिण में तो तो संस्कार ज्यादा होता ही है.

आपने बहुत कम उम्र में सत्यजीत रे की फिल्म मे काम किया. कुछ बताएं.
केवल तेरह साल की उम्र में काम किया था. हमारे फादर ने इतनी किताबें लिखीं कि उन्हें बहुत लोग जानते थे. एक बार हम लोग कोलकत्ता गए थे वहां से पुरी गए. वहां एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. उसमे शर्मिला टैगोर भी थीं. और भी बहुत लोग थे. वहां शर्मिला टैगोर ने मुङो देखा और सत्यजीत रे से कहा कि महानगर के लिए एक लड़की आपको चाहिए तो इसे ले सकते हैं. मुङो तो कुछ फिल्मों की समझ थी नहीं. तेरह साल की उम्र थी. एमपी में रहने वाली लड़की थी. मैं तो सत्यजीत रे से मिलने भी तब गई जब मुङो कैडबरी की चॉकलेट मिली. उन्होंने पता नहीं क्या देखे मुझमें. उन्होंने मेरे फादर से बात की. फादर ने मुझसे कहा. मैंने तो मना भी कर दिया. स्कूल की बात थी, नन्स नाराज होतीं. फिर मुङो समझाया गया कि सत्यजीत रे के साथ काम करने की किस्मत सबकी कहां होती है. जिंदगी में कुछ ऐसे अवसर आते हैं, जिनका सदुपयोग करना चाहिए. स्कूल तो एक साल बाद भी जा सकती हो. लेकिन ये जो अनुभव मिलेगा, वह ज्यादा मायने रखता है. वही हुआ. शूटिंग करके हम लोग वापस आए. मुङो लग रहा था कि स्कूूल में बहुत डांट पड़ेगी लेकिन वहां तो माहौल ही अलग था. मेरा स्वागत हो रहा था. उनकी नजर में मैं स्टार बन गई थी. तो सच कहूं कि मुङो लगता था कि मैं स्कूल में एक साल पीछे हो गई लेकिन मेरे फादर ने मुङो समझाया कि देखो तुमने क्या गेन किया है. अब मुङो लगता है कि मैंने क्या पाया. मेरे जीवन पर उस घटना का इतना प्रभाव पड़ा कि जिंदगी उसी में गुजरी.
फिल्म इंस्टीट्यूट कैसे पहुंचीं और वहां के बारे में कोई अनुभव?
एक बार मैं फिल्म देखकर पैदल लौट रही थी, उस वक्त लोग पैदल ही जाते थे या बस से जाते थे. घर में तो गाड़ी थी नहीं. तो पिताजी लौटते समय कह रहे थे कि क्या बकवास काम करते हैं ये लोग. सरकार ने इतना बढ़िया इंस्टीट्यूूट खोला है, वहां जाकर सीखते क्यों नहीं है? मैंने तो कभी सुना नहीं था कि एक्टिंग भी सीखने की चीज है? मैंने फादर से पूछा कि क्या एक्टिंग सीखी जाती है? उन्होंने कहा कि हर कुछ सीखा जाता है. मेरा सवला था कि आप जो लिखते हैं, क्या वो सीखा है आपने? उन्होंने कहा- और नहीं तो क्या! प्रेरणा होती है, हर जगह है, आप ग्रहण करिए!
हायर सेकेंडरी करने के बाद छुट्टियों ेक दिन थे. मेरे फादर आए और कहा कि ये है पुणो फिल्म इंस्टीट्यूट का विज्ञापन. इसमें क्या मैं जा सकती हूं? मेरे सवाल पर उन्होंने कहा कि ऐसे थोड़े ही जा सकते हैं. परीक्षा पास करनी होगी. खैर, परीक्षा में मेरा सेलेक्शन हो गया. उस वक्त मेरे ग्रैंड पैरेंट दिल्ली में रहते थे. मुङो ऑडिशन के लिए बुलावा आया.  वहां भी मेरा सेलेक्शन हो गया. यह एक और आश्चर्य था मेरे लिए. मैं तो कॉलेज जाने की तैयारी में थी. सोच रही थी कि कॉलेज जाऊं या इंस्टीट्यूट जाऊं? मेरी छोटी बहन ने पूछा कि इंस्टीट्यूट कॉलेज से अलग है क्या?  वहां डिग्री मिलेगी या नहीं?  मैंने बताया कि मिलेगी. छोटी बहन ने कहा कि कॉलेज से डिग्री लेकर आओगी तो क्या करोगी? शादी हो जाएगी, बहुत होगा तो एमए, बीएड कर लोगी.साइंटिस्ट बनने वाली तो तुम हो नहीं. ट्राई करो इंस्टीट्यूट में यदि अच्छा नहीं लगे तो कॉलेज में लौट जाना. वहां तो दिवाली के बाद ही पढ़ाई करनी है.
तो इस तरह मैं पुणो फिल्म इंस्टीट्यूट पहुंच गई. उम्मीद नहीं थी लेकिन मुङो स्कॉलरशिप भी मिल गई. मुङो याद है कि मेरी स्कॉलरशिप होती थी 75 रुपए. उसमें फीस देने के बाद कुछ पैसे बच जाते थे. मेरे फादर मुङो 25 या 50 रुपए भेजते थे. मैंने ज्यादा भेजने से मना कर दिया था.
एनसीसी के पैसे काम आए
हम लोग जब छोटे थे तब कोई पॉकेट मनी वगैरह तो मिलता नहीं था. जो चाहो मांगो मिल जाएगा.
मेरी छोटी वाली बहन शैतान थी. फादर उसे पैसे देते थे सिगरेट लाने के लिए तो जो छुट्टे बचते थे, वह नहीं लौटाती थी और कहती थी कि आप क्या करोगे छुट्टे पैसे का, इसमें तो छेद है. (उस वक्त पैसों में छेद हुआ करता था). वह पैसे वो पाउडर के डब्बे में जमा करती थी.
मुङो पता था कि मेरे फादर बड़े भाई थे. उनके ऊपर जिम्मेदारियां बहुत थीं. मैं एकदम से हटकर अलग कुछ कर रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि मैं पिताजी पर और भार डालूं. कभी उन्होंने मना भी नहीं किया किसी चीज के लिए लेकिन हमें पता था कि क्या मांगना है. मेरे पास मेरे खुद के भी पैसे थे. मैं ऑल इंडिया एनसीसी की बेस््ट कैडेट थी. मैंने दिल्ली में 26 जनवरी को परेड भी की थी, जूनियर वर्ग में. उस वक्त एनसीसी में सिर्फ एक ही विंग हुआ करता था. नेवी और एयरफोर्स में लड़कियां नहीं होती थीं. मैं ऑल इंडिया बेस्ट कैडेट चुनी गई थी. प्रधानमंत्री की सराहना भी मिली थी. उसमें पैसे भी मिलते हैं सात सौ-आठ सौ रुपए या पता नहीं ऐसा ही कुछ! मैंने पिताजी को दिए पैसे तो उन्होंने कहा कि नहीं ये तुम्हारे पैसे हैं, अपने पास रखो. ये पैसा काम आया.

अमितजी की पहचना एक फस्र्ट पर्सन आर्टिस्ट के रूप में है. दिलीप कुमार साहब से उनकी तुलना की जाती है. एक कलाकार के रूप में जब आप आकलन करती होंगी तो आपकी नजर में दोनों का स्थान क्या है?
देखिए, दिलीप कुमार साहब तो मेरे चाइल्ड हुड आइडियल हैं. मातीलाल, दिलीपकुमर जैसे लोग मास्टर क्राफ्ट थे. मेरे लिए तो नंबर वन हमेशा दिलीप कुमार ही रहेंगे.
लेकिन हमारी पीढ़ी के लोग अमिताभ जी की तरफ ज्यादा आकर्षित है. 
देखिए, एक नया जनरेशन सेवेंटिज में आया. अमितजी ने उस जनरेशन को रिप्रजेंट किया. अब आप शाहरुख खान को लो, वो नेक्सट जनरेशन के हैं. अमितजी वर्सेटाइल कलाकार हैं. शायद मैं उनके साथ रहती हूं, पत्नी हूं तो मुङो वो फिल्म स्टार नजर नहीं आते. मेरे लिए तो फिल्म स्टार दिलीप कुमार ही रहेंगे.


रोल में ऐसे डूबते हैं अमितजी
अनुपम खेर को अमिताभजी के साथ काम करना था. वे कह रहे थे कि मैं बहुत नर्वस हूं. मैंने उसे बताया कि अमितजी से ज्यादा बात मत करिएगा, वो ज्यादा बात करना पसंद नहीं करते हैं. अनुपम को बात करने की बहुत आदत है. अनुपम से हमारी दोस्ती और अच्छी हो गई थी क्योंकि हम किरण को बहुत अच्छी तरह जानते थे. समर में शूटिंग हो रही थी, वह परेशान था गर्मी से. पास में ही शूटिंग के लिए दाढ़ी बढ़ाए और कंबल ओढ़े अमितजी बैठे थे. अनुपम ने पूछा कि आपको गर्मी नहीं ल ग रही है. उनका कहना था कि जब एक कलाकार रोल में डूब जाता है तो उसे नहीं लगता कि सर्दी है या गर्मी है या बारिश हो रही है. अमितजी को वैसे भी गर्मी कम लगती है, सर्दी ज्यादा लगती है. अभी एक और किस्सा कोई बता रहा था कि अमितजी एक जगह बैठे थे चुपचाप. लोग जा-जा कर उनसे पूछ र हे थे कि कुछ चाहिए तो नहीं. वे केवल कह देते थे कि आई एम फाइन. उनके फाइन बोलने का मतलब होता है कि तुम लोग मुङो डिस्टर्ब मत करो. लोगों को लग रहा था कि यह आदमी सूट पहनकर गर्मी में बैठा है और कह रहा है- आई एम फाइन! अमितजी का जो यह डिस्प्प्लीन है वह बच्चनजी से आया है.

अमितजी का कोई असर आप पर?
नहीं, कभी नहीं!
अमितजी सोशल मीडिया में बहुत एक्टिव हैं. आप क्यों नहीं?
अरे, मेरे में इतना पेसेंस नहीं है. अमितजी बहुत ङोल लेते हैं लोगों को.  वे या तो काम करते हैं या फिर सोशल मीडिया पर रहते हैं. कहते हैं कि बात करने से तो बेहतर है कि ये सब किया जाए. बात करने से बहुत परहेज करते हैं.

राजनीति में उन्हें बहुत परेशानी उठानी पड़ी लेकिन आपको लगता है कि राजनीति रास आ गई.
एक्चूअली मैंने बचपन से देखा हुआ है ना! मुङो कोई फर्क नहीं पड़ता और मेरे में डिप्लोमैसी थोड़ी कम है. एक कलाकार के लिए बहुत कठिन होता है. कभी-कभी मैं भी एग्री नहीं करती हूं लेकिन चुप रह जाती हूं. चुप रह जाना मेरी आदत नहीं है लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि पार्टी की  लाइन से आप सहमत नहीं होते हैं लेकिन एज ए पार्टी पर्सन आपको साथ रहना होता है.

अमितजी ने राजनीति में आने से रोका नहीं?
नहीं उस समय ऐसा हुअ कि अमर सिंहजी ने कहा जाने दीजिए क्यों आप रोक रहे हैं. तो उन्होंने सोचा कि मैं इंडीविज्यूलिटी को क्यों नकारूं. उन्होंने हां कर दी. आप स्पेश की बात कर रहे थे ना! उन्होंने स्पेश दी. इलेक्शन लड़ना नहीं चाहती, मैं कर भी नहीं सकती लेकिन कभी ऐसा हो तो अमितजी कभी नहीं मानेंगे.

अमरसिंह जी जब पार्टी छोड़कर गए तब कहीं आप पर भी दबाव रहा होगा कि आप भी इस्तीफा दें.
देखिए मैं कमेंट नहीं करना चाहती हूं. मैं उनके करीब थी. डिफेंस ऑफ ओपिनियन जरूर रही तभी तो अलगाव हुआ. एक बात मैं आपको बताऊं. यह मैं बहुत कनफिडेंस और सच्चई के साथ कह सकती हूं कि हमारे पार्टी में जितनी फ्रिडम किसी मेंबर को है, उतनी किसी पार्टी में नहीं है. हमारे पार्टी में यदि मैं कल खड़े होकर नेता के खिलाफ बोल दूं कि मैं मुलायमसिंह जी से सहमत नहीं हूं तो वो कभी बुरा नहीं मानेंगे. मुङो याद है, शुरु में मैं जब आई थी तब एक दिन मीटिंग में देखा कि लोग गुस्से से बाल रहे हैं और मुलायमसिंह जी चुप थे. मैंने उनसे पूछा कि यह सब आप कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं. मुझसे तो नहीं होगा. इतने लिब्रल हैं कि क्या बताऊं!

मुलायमसिंह जी को पहले से जानती थीं या अमरसिंह की वजह से?
अमरसिंह की वजह से.
अब आप राजनीति में रम चुकी हैं.
मैं खुश हूं जहा हूं.
आप सदन में समय पर आती हैं और आखिरी में जाती हैं?
कल किसी ने कहा कि आपको पहली बार आखिरी तक देखा तो मैंने कहा कि आपने इसका मतलब देखा नहीं. यह तो मेरा सेकेंड टर्म है इसलिए मुङो पता है कि कितना बैठना है. कितना जरूरी है. फस्र्ट टर्म में तो पूरे समय बैठती थी. यदि आपने सवाल किया है और जवाब आना है तो आपको रुकना चाहिए. कर्ट्सी जरूरी है.

मैंने सुना है कि मोबाइल से फोटो लेने पर चिढ़ती हैं.
मोबाइल से लोग फोटो लेते हैं, उससे मैं बहुत चिढ़ती हूं. मुङो समझ में नहीं आता कि एक खिलौना दे दिया और बात करने की तमीज है नहीं-मैडम कैन आई टेक ए क्लिक विथ यू.’ ये क्या अंग्रेजी हुई? बात करने की तमीज नहीं है. मेरी मेड सर्वेट दो शब्द तो हिंदी का बोलती है और कहती है वो शिट्! मैं पूछती हूं शीला ये क्या कह रही हो? मैं उससे मराठी में बात करती हूं. ओह सॉरी-सॉरी! मैं पूछती हूं कि सॉरी का मतलब मालूम है?

मराठी कहां सीखी?
अरे मैं पुणो रही हूं, भोपाल रही हूं. वहां सीखा.
भोपाल में मराठी कहां है?
अरे, वहां एक पूरा एरिया है जिसे टीटी नगर कहते हैं. वहां मराठी बोलने वाले बहुत हैं. मैं मराठी बोल सकती हूं, मैं गुजराती बोल सकती हूं. तमिल बोल सकती हूं. पंजाबी भी समझती हूं. बंगला तो बोलती ही हूं. मैं बहुत सारे लैंग्वेज समझ लेती हूं.

क्या आप कोशिश करती हैं कि आपकी पोती मराठी सीखे, बोले.
क्या है कि माता पिता को भी तो हिंदी बोलनी चाहिए ना!
आपकी इसमें बड़ी भूमिका रहने वाली है
कोई नहीं. बच्ची सारा दिन स्कूल में रहती है. अंग्रेजी बोलेगी. माता पिता अंग्रेजी बोलेंगे. तो वो भी अंग्रेजी ही बोलेगी. ये है कि लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि जब बच्चे बड़े होंगे तब वे महसूस करेंगे. हम लोग बहुत कोशिश करते हैं कि घर में हिंदी में ही बात करें. आराध्या को मैं स्ट्राबेरी बुलाती हूं. मैं कहती हूं कि स्ट्राबेरी यहां आओ. मैं उससे हिंदी में बात करती हूं. मैं पूछती हूं दादी क्या बोल रही है? वो जवाब नही देगी लेकिन समझती सब है.
हजार चौरासी की मां में आपकी भूमिका सराहनीय थी. नक्सलवाद पर क्या कहेंगी?
नक्सलवाद के उपर मुङो कोई कमेंटे नहीं करना है. हां, वो फिल्म करने में मुङो बहुत मजा आया. उस समय मेरी बेटी की शादी हो गई थी और मेरी लाइफ में एक कमी आ गई थी. उसके जाने का इफेक्ट बहुत बड़ा था मेरे ऊपर. बहुत मजा आया वह फिल्म करने में. देखिए, उस दौर की फिल्में बन नहीं रही हैं, देखने वाले नहीं हैं. लोगों की रुचि बदल गई है. रूचि क्यों बदल गई है कि वेस्टर्न चैनल्स इतना पैसा लेकर आ रहे हैं इंडिया में कि वो फिल्में प्रोड्यूस करते हैं. उन फिल्मों में वे अपना कल्चर दिखा रहे हैं और हमाररे यूथ सोचते हैं कि वही फैशन है. उसे एडोप्ट करते हैं. किसके पास वक्त है कि जो हिंदुस्तान की वास्तविकता को दिखाए 

मैं हूं आपका रुपया!


बस यूं समझ लीजिए कि जेब खाली है तो कोई हैसियत नहीं. जेब जितनी भरी है, हैसियत उतनी ही ऊंची है. सीधे-सादे शब्दों में कहें तो मौजूदा दौर की कहानी का सबसे बेहतरीन शीर्षक यही है- ‘सबसे बड़ा रुपय्या!’ जेब भरी हो तो प्रफुल्लित हैं आप. कुछ भी खरीद सकते हैं, चाहे जितने साधन जुटा सकते हैं और दुनिया भर की सैर कर सकते हैं. हां, इस रुपए की कमी केवल इतनी है कि इसकी बदौलत आप मौत को मात नहीं दे सकते!  लेकिन आपके पास रुपया है तो मौत को कुछ टाल जरूर सकते हैं. रुपया है तो अपनी सेहत तो सुधार ही सकते हैं. समस्या यह है कि इस रुपए की सेहत ही बिगड़ रही है. इसके सामने खड़ा है पहलवान (डॉलर) जो हर दिन और मजबूत हो रहा है. क्या आपने यह सच्चई जानने की कभी कोशिश की है कि रुपए की यह सेहत कैसे बिगड़ी और कैसे और बिगड़ रही है? कौन दोषी है? दरअसल सच्चई यही है कि हम रुपए को ही ठीक से नहीं जानते तो सेहत के बारे में क्या जानेंगे? आइए जानते हैं रुपए की कहानी रुपए की जुबानी..!

मैं हूं आपका प्यारा रुपया! बिल्कुल अजीज, आपके इतने करीब कि कोई दूसरा मेरी जगह ले ही नहीं सकता. आपकी जेब में हूं तो आप भौतिक पहलवानी दिखा सकते हैं. आपकी जेब में नहीं हूं तो खाने के भी लाले पड़ सकते हैं. मैं आपको जिंदगी की सारी सुख-सुविधाएं दिला सकता हूं, हवा में सैर करा सकता हूं, आपके बच्चे को देश और दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में पढ़ा सकता हूं. आपका बच्च सरकारी मेडिकल कॉलेज के लिए योग्यता भले ही न रखता हो लेकिन मैं अपनी हैसियत की बदौलत उसे निजी मेडिकल कॉलेज में दाखिला जरूर दिला सकता हूं. मैं हूं तो आपके पास सब कुछ है. मैं नहीं हूं तो आप कुछ नहीं हैं! मेरी हैसियत आपसे बेहतर कोई नहीं जान सकता. लेकिन हकीकत यह है कि आप में से बहुत से लोग मेरे बारे से ठीक से नहीं जानते. मुङो खयाल आया कि अपनी कहानी आपको खुद ही क्यों न सुनाऊं. आपको क्यों न बताऊं कि मेरी सेहत क्यों बिगड़ रही है. 
क्या कभी आपको यह खयाल आया कि मेरे जन्म के बारे में कुछ जानें? चलिए मैं ही बताता हूं आपको. मेरी इस कहानी से आपको पता चलेगा कि वक्त के साथ मेरा रंग-रूप कैसे बदला, नाम में बदलाव कैसे आया और कैसे सेहत में आया उतार-चढ़ाव! मेरा नाम दरअसल देवभाषा संस्कृत से लिया गया है जिसका मूल अर्थ होता है चांदी का सिक्का. मेरे उद्भव को लेकर इतिहास के पन्ने बहुत स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इतना तय है कि दुनिया के जिन हिस्सों में प्राचीन काल में मुद्रा का चलन शुरू हुआ, उनमें एक हिंदुस्तान भी है. खैर, मैं अपने नाम का जिक्र कर रहा था. आर्यो के लिए मैं रुपया रहा लेकिन द्रविड़ों ने मेरा नाम ‘रुपा‘ कर दिया. उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में अत्यंत कम पढ़े लिखे लोग आज भी मुङो रुपा ही बोलते हैं. चाणक्य के अर्थशास्त्र में मेरे तीन नामों का जिक्र आता है-1. स्वर्णरुपा (सोने का रुपया), रुप्यरुपा (चांदी का रुपया) तथा ताम्र रुपा (तांबे का रुपया). स्वर्णरुपा राजा और सेठों, रुप्यरुपा अमीरों और ताम्ररुपा आम आदमी की हैसियत में था. मेरा मुख्य काम तब भी विनिमय था, आज भी है. 
मुगल बादशाह शेर शाह सूरी ने पहली बार मेरा वजन अधिकृत तौर पर निर्धारित किया. सूरी के जमाने (1446-1545  ईस्वी) में 178 ग्रेन चांदी के वजन में मेरा रूप निर्धारित हुआ. आप में से बहुत से लोगों के लिए ग्रेन शब्द नया होगा. यह तौल का न्यूनतम पैमाना हुआ करता था. आज के गणित के अनुसार 1 ग्रेन का अर्थ है 0.06479891 ग्राम. यानी मेरा वजन था 11.53420598 ग्राम. इसे रुपिया कहा गया. पूरे मुगलकाल में रुपिया ही चलन में रहा. 
कागज का हो गया मैं
जापानियों ने की नकल!
अंग्रेजों के आने के बाद रुपिया बदलकर रुपया हो गया लेकिन 19वीं शताब्दी तक मैं ज्यादातर चांदी का ही बना रहा.  हालांकि तब कागज के नोट भी बाजार में आ गए. ब्रिटिश सरकार ने 1861 में एक रुपए का कागजी नोट जारी किया. 1864 में दस रुपए, 1872 में पांच रुपए, 1899 में दस हजार, 1900 में सौ रुपए, 1905 में पचास रुपए, 1907 में 500 रुपए, 1909 में एक हजार तथा 1917 में एक और ढाई रुपए के पेपर नोट जारी हुए. मेरे सीने पर अंग्रेजों के राजा का फोटो था. 1935 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का गठन हुआ था और बैंक ने सरकार की ओर से 1938 में दस, सौ, एक हजार और दस हजार के नोट जारी किए. 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ और जापानियों ने भारतीय रुपए की हूबहू नकल की और अर्थव्यवस्था पर चोट करने के लिए इसे बाजार में उतार दिया. नोटों की नकल से ब्रिटिश सरकार घबराई और आनन-फानन में वाटर मार्क और दूसरे बदलाव किए गए. भारत में नकली नोटों का वह पहला मामला था. जॉर्ज पंचम श्रृंखला के नोट 1950 तक जारी रहे. उसके बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत के नोट जारी किए. उसके एक साल पहले 1 रुपए का नोट जारी किया गया. 1978 में कालाबाजारी से निपटने के लिए दस हजार रुपए के नोट बंद कर दिए गए. 

तब हैसियत नहीं थी डॉलर की!
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ठीक सौ साल पहले आज के महारथी डॉलर की मेरे सामने कोई हैसियत नहीं थी. मैं अकेला ही 11.5 डॉलर खरीदने की हैसियत रखता था क्योंकि तब एक डॉलर की कीमत थी केवल साढ़े आठ पैसे. थोड़ा और आगे आइए.. 1925 तक भी मेरी हैसियत इतनी थी कि मैं अकेला ही 10 डॉलर खरीद लेता. हैरान हो गए ना आप? मैं भी हैरान हूं. लेकिन मुङो अपनी हैसियत के जमींदोज होने की कहानी याद है. आजादी के साल तक मेरी सेहत इतनी गिर गई कि मैं डॉलर की पायदान पर जा खड़ा हुआ..1 रुपया =1 डॉलर! ..लेकिन आजादी क्या मिली, मेरी तो हैसियत ही बेकार होती चली गई. आपके लिए मैं अपनी हैसियत के गिरने का चार्ट पेश कर रहा हूं. 

मेरा स्वास्थ्य ऐसे बिगड़ा
आप एक बात जरूर जानना चाह रहे होंगे कि  हैसियत बिगड़ी क्यों? दरअसल इसे समझने के लिए आपको काफी पीछे लौटना होगा. दुनिया में वस्तु विनिमय (एक्सचेंज) के बाद मुद्रा की जरूरत महसूस की गई. फिर मेरा जन्म हुआ और मेरे जैसे दूसरों (अन्य देशों के सिक्के/नोट) ने भी जन्म लिया. वक्त बदलने के साथ यह निर्धारित होने लगा कि मुद्रा व्यवस्था क्या होगी, अर्थात किस बहुमूल्य चीज को आधार बनाकर मुद्रा छापी जाएगी? दुनिया के जिन देशों को आप धनाढ्य और विकसित देख रहे हैं, उन्होंने स्वर्ण आधारित मुद्रा व्यवस्था अपनाई. सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत में चांदी आधारित व्यवस्था अपनाई गई. यहां तक कि हम पर राज करने वाले अंग्रेजों ने खुद की अपनी मुद्रा का आधार स्वर्ण रखा और भारतीय रुपए को चांदी के भरोसे छोड़ दिया. बाद में हुआ यह कि दुनिया में चांदी के ज्यादा भंडारों की खोज हो गई. स्वर्ण की तुलना में चांदी का मूल्य कम होने लगा और जो देश चांदी आधारित मुद्रा व्यवस्था पर चल रहे थे उनकी अर्थव्यवस्था गिरने लगी. दूसरी तरफ सोने की कीमत बनी रही और जिन देशों की मुद्रा स्वर्ण आधारित थी, वे दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की करते चले गए. आजादी के बाद बहुत कुछ बदला. हमारी अर्थव्यवस्था कमोडिटी आधारित ज्यादा हो गई और डॉलर की तुलना में मैं बहुत ही कमजोर हो गया. 

ऐसे गिरता-उठता हूं मैं
मेरे अवमूल्यन का एक बड़ा कारण देश का घरेलू बाजार है. जब भी घरेलू बाजार में महंगाई बढ़ती है तो खरीदने की मेरी क्षमता कम हो जाती है और मेरी औकात गिर जाती है. दुर्भाग्य से महंगाई पर रोक नहीं है इसलिए मुङो बार-बार गिरने को मजबूर होना पड़ता है. खरीदने की क्षमता का यह मामला विदेशों से  व्यापार पर भी लागू होता है. दुनिया में इस वक्त डॉलर की स्थिति सोने जैसी है. वह कहीं भी चलता है, खरीदने की उसकी क्षमता जगजाहिर है. इसलिए हमारा देश ऐसी चीजों का ज्यादा उत्पादन करे जिसे दुनिया भर में बेचा जा सके तो हमारे पास डॉलर आएगा. हमारे पास जितना ज्यादा डॉलर होगा, मैं उतना ही मजबूत रहूंगा. अभी हमारा देश निर्यात कम करता है और आयात ज्यादा कर रहा है. इसका मतलब है कि हमारे पास जो डॉलर आता है, उससे ज्यादा खर्च कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में मैं मजबूत कैसे रह सकता हूं? 
डॉलर आएगा कैसे?
फिलहाल हमें उन लोगों का शुक्रगुजार होना चाहिए जो विदेशों में काम कर रहे हैं और अपनी कमाई का डॉलर अपने परिवार को भारत भेज रहे हैं. वह डॉलर सरकार लेती है और उसके बदले में देशी रुपए देती है. हमारे भंडार में कुछ डॉलर आ जाते हैं. विदेशियों को यदि भरोसा हो कि हमारे शेयर मार्केट में पैसा लगाना उनके लिए लाभदायी होगा तो वे यहां डॉलर लगाएंगे. इसमें लगातार कमी आ रही है. हमें बिजनेस फ्रेंडली देश नहीं माना जाता और रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं कि भारत में पैसा लगाना सुरक्षित नहीं है. जरा आप ही सोचिए कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो मेरा क्या होगा? मैं जितना कमजोर रहूंगा, आप उतने ही कमजोर रहेंगे. 
कवि प्रदीप चौबे की एक कविता की दो पंक्तियां सुनाकर अपनी कहानी का यह संक्षिप्त अध्याय समाप्त करता हूं. चौबे जी ने कहा है..
जब पर्स में हो नोट भरा
रेगिस्तान भी लगे हरा-भरा..!
अपने पर्स को मजबूत नोटों से भरा रखना है तो अपनी सरकार से कहिए कि वह अर्थव्यवस्था के साथ राजनीति करना छोड़ दे. हालात को समङो..! हालात इस  वक्त बहुत बुरे हैं..!
आपका हाल ठीक रहे, इसलिए मेरा खयाल रखिएगा.

मैं हूं आपका रुपया!
 

फंसा तो फंसा..नहीं तो श्रप दे दिया!

सुबह करीब 11 बजकर 12 मिनट पर फोन क्रमांक 9044012551 से मेरे मोबाइल पर फोन आता है. एक महिला की सुरीली आवाज सुनाई देती है. वह कह रही हैं- ‘मैं काशी विश्वनाथ मंदिर से बोल रही हूं. यहां प्रत्येक 12 साल पर एक विशेष यज्ञ होता है. चुनिंदा भक्तों को एक मुखी रुद्राक्ष प्रसाद के रूप में दिया जाता है. महाराष्ट्र से जिन 11 भाग्यशाली लोगों का चयन इस साल हुआ है, उसमें आप भी एक हैं. इस रुद्राक्ष की इतनी महत्ता है कि यह न केवल आपके बल्कि आपके पूरे परिवार और आने वाली पीढ़ियों के सारे दुख हर लेगा. फिर पूरी जिंदगी किसी तरह के ज्योतिष रत्न खरीदने की जरूरत नहीं रहेगी. यह रुद्राक्ष प्राप्त करने के लिए आपको अपना नाम, पता और परिवार के सदस्यों का नाम लिखाना पड़ेगा. लिखा दीजिए.’
वे रुद्राक्ष का महिला गान कर रही हैं. मैं पूरी बात सुनता हूं और उनसे पूछता हूं कि इसके लिए धन कितना देना होगा. वे बताती हैं- ‘सामान्यतौर पर एक मुखी रुद्राक्ष की कीमत पांच से छह हजार रुपए होती है लेकिन आपका विशेष चयन हुआ है, इसलिए आपको केवल 1596 रुपए देने होंगे. यज्ञ के बाद रुद्राक्ष के साथ और भी चीजें भेजी जाएंगी.’ अब मैं उनसे पूछता हूं कि आप काशी विश्वनाथ मंदिर में क्या हैं? वे बात टाल रही हैं. मैं कहता हूं कि वहां के मुख्य पुजारी से बता करवाईए. किसी मंदिर का प्रबंधन इस तरह की मार्केटिंग कैसे कर सकता है? मैं उन्हें जैसे ही बताता हूं कि मैं पत्रकार हूं, वे बिफर जाती हैं और श्रप देने के अंदाज में फोन पर फरमान सुना देती हैं- ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि, तुम्हारा कभी कल्याण नहीं होगा!’ फोन बंद हो जाता है. मैं सोच रहा हूं धर्म के नाम पर इस तरह का धंधा कब तक चलता रहेगा. क्या इसके लिए कोई कानून बनेगा?

सावधान! मुर्दे कतार में हैं!


बनारस की तंग गलियों से गुजरते हुए मैं उस जगह जा रहा हूं जहां के बारे में दो बातें बहुत स्पष्ट और सत्य हैं. पहला यह कि बेवजह वहां कोई जाना नहीं चाहता और दूसरा यह कि हर किसी को एक न एक दिन वहां जाना जरूर है! हिंदु परंपरा में इसे श्मशान कहते हैं. ऐसे श्मशान पूरे देश में मौजूद हैं लेकिन मैं जहां जा रहा हूं वह बाकी सबसे अलग है. यहां मुर्दो की कतार लगती है. किसी मुर्दे की आग धीमी पड़ेगी और खोपड़ी फूटेगी तभी दूसरे का नंबर आएगा!  इसका नाम है मणिकर्णिका घाट. यहां चिता की ज्वाला कभी बुझती नहीं है.

शाम को नाव में सैर करते हुए मैंने इस घाट को देखा और अचानक खयाल आ गया  कि क्यों न एक पूरी रात मणिकर्णिका घाट पर गुजारी जाए. खयाल को आप चाहें तो बेतुका कह सकते हैं लेकिन ये बेतुका खयाल न आता तो श्मशान घाट पर एक रात की यह कहानी आप तक कैसे पहुंचाता?

इस वक्त रात के साढ़े दस बज रहे हैं. गोदौलिया चौराहे से मैं करीब एक किलो मीटर की यात्र कर चुका हूं और गली लगातार तंग होती जा रही है. अचानक बीच गली में एक गाय नजर आ जाती है और मैं उसे रास्ता देने के लिए एक ओटले पर चढ़ जाता हूं. ओटला ‘ब्लू लस्सी’ वाले का है. मेरे साथी क्रेजी ब्वाय (जनाब फोटोग्राफी की दुनिया में इसी नाम से जाने जाते हैं) कहते हैं कि यहां की लस्सी पीजिए! मैं उस छोटी सी दुकान में पहुंच जाता हूं. दीवार पर दुनिया की कई भाषाओं में लस्सी का गुणगाण लिखा है. इतनी रात को भी कई विदेशी नागरिक यहां लस्सी पी रहे हैं. गली के इतने भीतर इस दुकान मैं बैठने की जगह नहीं है. वाकई लस्सी लाजवाब है! वैसे लस्सी तो सफेद ही थी! पता नहीं ब्लू लस्सी नाम क्यों रख दिया?

इस बीच तीन शवयात्रएं वहां से गुजर चुकी हैं. मैं भी जल्दी से जल्दी श्मशान घाट पर पहुंचना चाहता हूं. गली के किनारे के मकानों की जगह अब मैं लकड़ी के टाल देख रहा हूं. बिल्कुल करीने से सजा कर रखी गई लकड़ियां! मौत का सत्य मेरे जेहन पर दस्तक देने लगा है. घाट के लिए मैं दाहिनी ओर मुड़ता हूं और अचानक एक दीवार पर चस्पा बोर्ड देख कर रूक जाता हूं. नरेंद्र मोदी का चित्र बना है और लिखा है-‘मोक्ष सबका अधिकार है’!

बस इसके ठीक आगे मैं जलती हुई ज्वालाओं की तपन महसूस करने लगा हूं. इतनी सारी चिताओं को एक साथ जलते हुए देख कर जैसे निर्विकार हो गया हूं. रात के इस घुप अंधेरे को चिताओं की ज्वाला खदेरने की कोशिश करती हुई महसूस होती है. मेरी रफ्तार धीमी पड़ चुकी है. अब इस पड़ाव के बाद किसी को रफ्तार की जरूरत ही कहां पड़ती है! आहिस्ते से मैं सीढ़ी के ओटले पर बैठ जाता हूं. अभी जो तीन शव मेरे सामने से गुजरे थे, वे यहां आकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. उनके पहले जो आए थे, अभी उनका ही नंबर नहीं आया है! क्रेजी ब्वाय बता रहे हैं कि यहां हर दिन औसतन 80 लोग पंचतत्व में विलिन होते हैं.

मेरी दाहिनी ओर सात-आठ लोग बैठ कर बीड़ी पी रहे हैं. शवों को लेकर आज वे तीसरी बार मणिकर्णिका घाट पर आए हैं. उनके लिए यह रोज का काम है. मोक्ष की आशा लगाए वृद्धों से यहां के आश्रम भरे पड़े हैं. सबको अपनी-अपनी बारी का इंतजार है! ये जो मेरे पास बैठे हैं, कल किसी और की लाश लेकर आएंगे!

मैंने यहां पहुंचते वक्त अपना मोबाइल बंद कर लिया था. इसलिए पता नहीं क्या वक्त हुआ है! वैसे भी जिंदगी के इस अंतिम पड़ाव पर वक्त मायने भी कहां रखता है? सबकुछ अंतिम सा लग रहा है! रात शायद आधी से ज्यादा हो चुकी है. मैं जिन तीन शवों की बात कर रहा था, उनमें से आगे वाले दो शवों का नंबर आ गया है. तीसरा अभी भी कतार में हैं. उसके पीछे की कतार में और कई आ जुड़े हैं. मैं खुद से बातें करना चाह रहा हूं लेकिन मौन ने गहरे तक जकड़ रखा है. बचपन में सुना था कि पाप करने वालों को यमराज खौलते तेल में तलते हैं. खुद से ही सवाल पूछ रहा हूं कि यह शरीर तो जल गया, तले जाने के लिए क्या आत्मा को दूसरा शरीर मिलेगा या सीधे-सीधे आत्मा ही तल दी जाएगी? बचपन से सुनता और देखता आया हूं कि हिंदू परंपरा में सूर्यास्त के बाद अंतिम संस्कार नहीं होता, फिर यहां आधी रात को भी मुर्दे क्यों जल रहे हैं? जवाब मेरे पास नहीं है. पूछूं भी किस से?

दो शव जलाए जाने के लिए आगे बढ़ चुके हैं. क्रेजी ब्वाय धीरे से फुसफुसाते हैं-‘महाकाल के मंदिर चलेंगे?’ मैं आहिस्ते से उठता हूं. हौले कदमों से श्मशान के ही किनारे पर तहखाने नुमा स्थान पर बने मंदिर के भीतर पहुच जाता हूं. एक अघोड़ी नुमा व्यक्ति मदहोशी की हालत में है. उसकी बाहर झांकती लाल सूर्ख आंखें डराना चाहती हैं लेकिन डरने के लिए मेरे भीतर कुछ बचा कहां है? ..और महाकाल के पास आकर डरना भी क्यों? मैं उसके ठीक बगल में बैठ जाता हूं. उसका नाम पूछता हूं. वह केवल घूरता रहता है. बोलता कुछ नहीं! थोड़ा नीचे मूर्ति के पास दो लोग साधना में तल्लीन हैं. सब चुप हैं. कोई कुछ नहीं बोल रहा है. मैं एक तस्वीर खींचने के लिए कैमरा उठता हूं लेकिन वह अघोड़ी सजग हो जाता है. आंखें तरेर कर चेतावनी देता है. मैं धीरे से सौ रुपए का नोट उसकी ओर खिसकाता हूं. वह नोट को अपनी आसनी के नीचे खिसका देता है. मैं कई तस्वीरें खींचता हूं. फिर उसकी बगल में आकर बैठ जाता हूं. सोच रहा हूं, जिंदगी के इस आखिरी मुकाम पर भी नोट ने अपनी ताकत आखिर दिखा ही दी! क्या कलयुग की सबसे बड़ी ताकत यह नोट ही है?
अचानक वह अघोड़ी अपने कमंडल में हाथ डालता है और मेरी ओर एक लड्डू बढ़ा देता है. मैं सोच में पड़ जाता हूं कि खाऊं या न खाऊं? मौत के इस माहौल में मिठाई? मिठाई तो जश्न का प्रतीक है! मैं लड्डू खा लेता हूं. सोच रहा हूं, इस धरती से विदाई किसी जश्न से कम है क्या?

रात ढ़ल चुकी है. मैं आहिस्से-आहिस्ते बोङिाल कदमों से दूर जा रहा हूं. फिर लौट आने के लिए!
एक बात और..
मणिकर्णिका घाट पर न मुङो कोई भूत मिला और न प्रेत! 

संकट कम चिंता ज्यादा..!

पिछले कई सालों से हिंदी को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं. चिंता का कारण पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित वह संस्कृति और सोच है जो हमारे जीवन को गंभीर तौर पर प्रभावित कर रही है. हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं. पश्चिम की भाषा अंग्रेजी है इसलिए हम अंग्रेजी के प्रभाव में हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य की बात यह है कि अंग्रेजी बोलते हुए हमारे भीतर एक बेवकुफाना गर्व पैदा हो जाता है. हमें लगता है कि अंग्रेजी बोलने से सामने वाला हमें ज्यादा स्मार्ट समङोगा! क्या वाकई ऐसा है? जी हां, यह भ्रम एक बड़ी आबादी को अपनी गिरफ्त में ले चुका है इसलिए जिस मां का बच्च अंग्रेजी बोलता है, वह फूली नहीं समाती और मोहल्ले भर की दूसरी औरतों पर अपना रुतबा भी जताती है. इसे आप भारतीय समाज की विडंबना कह सकते हैं. हालांकि जो वाकई अंग्रेज हैं, जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है वे हिंदुस्तानियों की अंग्रेजी को फिसड्डी मानते हैं. ऐसा इसलिए कि हम हिंदी में सोचते हैं, उसे मन ही मन ट्रांसलेट करते हैं और फिर अंग्रेजी में बाहर कर देते हैं. ट्रांसलेशन की जिसकी जैसी रफ्तार, वह अंग्रेजी में उतना माहिर! फिर भी हम अपने गुमान में हैं और शायद आगे भी गुमान में ही रहेंगे! बचपन में मैंने एक कहावत सुनी थी-‘टाई लगाकर कोई अंग्रेज नहीं बन जाता!’ कहावत मुङो सौ फिसदी सही लगती है.
तो क्या हिंदी को लेकर जो चिंताएं निरंतर जाहिर की जाती रही हैं, वो सही हैं? मुझ जैसे लोगों का मानना है कि संकट की तीव्रता उतनी है नहीं जितना हल्ला मचाया जा रहा है. पहली बात तो यह है कि हिंदी बोलने वालो की संख्या लगातार बढ़ रही है. अपने देश में ही देखें तो पहले दक्षिण भारत के राज्यों में हिंदी करीब-करीब गायब थी लेकिन पिछले दशकों में वहां भी हिंदी का प्रभाव बढ़ा है. यहां तक कि उन राज्यों से हिंदी के अखबार भी प्रकाशित हो रहे हैं. देश के स्तर पर देखें तो हिंदी के अखबारों की पाठक संख्या लगातार बढ़ रही है. यदि हिंदी समाप्त हो रही होती और हमारी चिंता के अनुसार अंग्रेजियत हावी ही हो गई होती तो सभी ओर अंग्ररेजी का बोलबाला हो जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा तो बिल्कुल नहीं है! हम कितनी भी भाषाएं सीख जाएं, हमारी मातृभाषा की जगह कोई दूसरी भाषा ले ही नहीं सकती है. बाजार में हम हिंदुस्तानी अंग्रेजी में कितनी भी गिटर-पिटर कर लें, घर में तो हिंदी ही जमी है ना! हिंदी के प्रति इसी प्रेम का इजहार तब होता है जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका या दूसरे देश पहुंचकर हिंदी में भाषण देते हैं. आपने देखा है ना! कितनी तालियां बजती हैं!
अब जरा इस बात पर गौर करिए कि हिंदी को लेकर चिंता उपजी कहां से है? दरअसल चिंता वो ज्यादा कर रहे हैं जो हिंदी के विद्वान हैं. उनकी चिंता विद्वतापूर्ण हिंदी को लेकर है. उन्हें लगता है कि हिंदी भाषा के संस्कृतनिष्ठ शब्द कहीं खो न जाएं क्योंकि उनका उपयोग लगातार कम होता जा रहा है. मुङो लगता है कि कठिन शब्दों के उपयोगकर्ता पहले भी कम रहे हैं और भविष्य में भी कम ही रहेंगे. मानव का स्वभाव है कि वह जिंदगी के हर पहलू को सरल बनाता चले इसलिए वह भाषा को भी सरल बना रहा है. शब्दों के निर्माण का इतिहास यदि ढूंढें तो साफ नजर आएगा कि पहले बोलियों ने जन्म लिया यानि पहले अत्यंत सरल शब्द ही आए. बोलियों का विकास क्षेत्रिय स्तर पर हुआ और बाद में उनकी एकजुटता से भाषा का जन्म हुआ. विद्वानों ने उन्हें सजाया संवारा. हिंदी का जो मौजूदा स्वरूप हम देख रहे हैं, वह अवधी, भोजपूरी, बज्जिका, अंगिका और न जाने कितनी क्षेत्रिय स्तर की बोलियों का सम्मलित रूप है! वस्तुत: भाषा का अपना प्रभाव होता है विद्वानों के बीच यदि वह कलात्मक हो जाती है तो आम जन के बीच उसका सहज स्वरूप कायम रहता है. इसलिए चिंता की बहुत जरूरत नहीं है.
हां, सतर्कता जरूरी है और हमें अपनी भाषा को लेकर सचेत जरूर रहना चाहिए. जिस तरह से हम अपने बच्चों को अच्छी अंग्रेजी सिखाने के लिए लालायित रहते हैं, उसी तरह से हिंदी के प्रति भी हों. यदि अंग्रेजी के किसी शब्द का अर्थ हमें पता नहीं है तो हम तत्काल डिक्सनरी खोल लेते हैं या गुगल महाराज की शरण लेते हैं. क्या हिंदी के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता? क्या हम हिंदी के शब्कोष अपने बच्चों के लिए नहीं खरीद सकते? यदि  हिंदी के एक सहज शब्द के लिए  कुछ और कलात्मक शब्द आपका बच्च सीख ले तो क्या वह ज्ञानवान नहीं होगा? दरअसल नजरिए में बदलाव की जरूरत है. हिंदी अत्यंत समृद्ध और सबसे ज्यादा भावों को प्रकट करने वाली भाषा है. एक उदाहरण दे रहा हूं. अंग्रेजी में स्माइल और लाफ शब्द हैं. हिंदी में मुस्कुराने, हंसने के अलावा और भी शब्द हैं- मुस्की मारना, खिलखिलाना, कहकहे लगाना!
अपनी भाषा को ठीक से जानिए तो सही!

बहुत कठिन है डगर पनघट की

देखिए, सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग या तो नरेंद्र मोदी के अंध समर्थक हैं या फिर कट्टर आलोचक! बॉर्डर लाइन पर खड़े होकर कोई उनका आकलन करने की कोशिश ही नहीं कर रहा है. सोशल मीडिया पर या तो आलोचनाओं का अंबार लगा है या फिर लोग नमो नमो कर रहे हैं. यह जानने-समझने की कोशिश ही नहीं हो रही है कि जिस राह पर नरेंद्र मोदी देश को ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, वह रास्ता किस मंजिल की ओर जाता है. सीधे शब्दों मे कहें तो टारगेट क्या है? कोई कह रहा है कि नरेंद्र मोदी आरएसएस के प्रचारक रहे हैं इसलिए भगवा रंग में पूरे देश को रंग देना चाहते हैं तो कोई कहता है कि उनके तेवर से आरएसएस प्रसन्न नहीं है और विकल्प के रूप में मोदी ने बाबा रामदेव की शक्ति को अपने पॉकेट में रखा हुआ है! चलिए, यह सब तो राजनीति है. हम तो यह जानने की कोशिश करें कि मोदी क्या वास्तव में उम्मीदों की छतरी हैं या फिर उम्मीदों की गठरी के वजन से दबे जा रहे हैं? 


अपने देश में एक कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. इस लिहाज से देखें तो मोदी ने देश को बहुत निराश नहीं किया है. जो निराशा हमें नजर आती है, वह उम्मीदों की भारी गठरी के कारण है. हम हिंदुस्तानी जितनी जल्दी किसी से खुश हो जाते हैं, उम्मीदें बांध लेते हैं, उतनी ही जल्दी खफा भी होते हैं और निराशा में भी डूब जाते हैं. चुनाव में नरेंद्र मोदी क्या जीते, हमने यह मान लिया कि वे जादू की छड़ी लेकर आए हैं. एक बार छड़ी घुमाएंगे और सब कुछ बिल्कुल ठीक ठाक हो जाएगा! हमारे ऐसा मान लेने में हमारी गलती भी नहीं है. नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने सुपरमैन की तरह प्रोजेक्ट किया था जो कुछ भी कर सकता है. हम यह भूल गए कि नरेंद्र मोदी सुपरमैन नहीं हैं. गुजरात ने भी कोई एक दिन में तरक्की नहीं कर ली. उसे भी कई साल लग गए! फिर हमने यह क्यों मान लिया कि नरेंद्र मोदी के हाथ में जादू की छड़ी है. नेताओं का तो काम ही है आश्वासन देना! दरअसल हमें कोई भी सब्जबाग दिखाता है और हम ख्वाबों की दुनिया में खो जाते हैं.  सरकारों के साथ हमारा हनीमून पीरियड बहुत जल्दी समाप्त हो जाता है और हम असंतुष्टों की कतार में जाकर खड़े हो जाते हैं. अब मोदी के एक साल के कार्यकाल की समीक्षा हो रही है. लेकिन ऐसी समीक्षा से पहले हमें यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि भारत जैसे देश में अचानक सबकुछ ठीक कर देना क्या वाकई संभव है? जी नहीं, एक मोदी तो क्या दस मोदी भी आ जाएं तो अचानक सबकुछ ठीक-ठाक नहीं हो सकता! यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि मोदी से उम्मीदें इतनी ज्यादा हैं कि कसौटियों पर खरा उतरने के लिए मोदी को वही रफ्तार दिखानी होगी जो रफ्तार वादे करने में वे दिखाते हैं. एक साल का वक्त बहुत बड़ा नहीं होता. जनता की ओर से दिए गए पांच साल के वक्त का यह केवल 20 फीसदी हिस्सा है. हमें एक साल और इंतजार करना होगा तब शायद बेहतर आकलन कर पाएंगे.

हकीकत का सामना कौन करे ?
मोदी से आम आदमी की सबसे बड़ी उम्मीद महंगाई को कम करने की थी. भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में इसे बड़ा मुद्दा भी बनाया था. इसीलिए लोग सबसे ज्यादा बातें महंगाई की ही कर रहे हैं! जी, बिल्कुल ठीक बात है कि कागजों पर भले ही मुद्रास्फीति ऊपर-नीचे होती रहे, जमीनी तौर पर महंगाई बढ़ती जा रही है. पिछले दो महीने में ही तुअर दाल के भाव करीब दो गुना हो गए हैं. ऐसे में यदि कोई मोदी की आलोचना कर रहा है तो क्या गलत कर रहा है? हरी सब्जी खाने के बारे में तो इस देश का कोई मजदूर सोच भी नहीं सकता!
..तो क्या मोदी इस मुद्दे पर फेल हो गए? आलोचक कहेंगे हां! समर्थक मौन साध लेंगे या फिर वही मुद्रास्फीति वाले रिकार्ड लेकर बैठ जाएंगे. महंगाई की हकीकत पर  बोलने की हिम्मत न समर्थकों में है, न ही आलोचकों में और न ही नरेंद्र मोदी में. क्योंकि हकीकत की बात करते ही लोग उन्हें खाने दौड़ेंगे. ..और ये हकीकत है हमारी आबादी. आबादी की हमारी रफ्तार थमने का नाम नहीं ले रही है. वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर दंपति औसतन 2.5 बच्चे पैदा करता है. यह आंकड़ा ईरान और चीन जैसे देशों से भी ज्यादा है. ईरान में औसतन 1.9 और चीन में 1.7 बच्चे प्रति दंपति होते हैं. सीधा सा अर्थ है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है. जो जमीन हमारे पास है वह बढ़ती आबादी का पेट कैसे भरेगी? सच्चई यही है कि महंगाई रोकनी है तो हमें आबादी को थामना होगा!
तो मोदी क्या करें?
वे खुद को शेरदिल की तरह पेश करते रहे हैं. 56 इंच का सीना दर्शाते रहे हैं तो उन्हें सच का सामना करने की हिम्मत दर्शानी चाहिए. आबादी कम करने की बात करनी चाहिए. लेकिन सच मानिए, वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि हिंदुवादी नेता लगातार कहते रहे हैं कि एक वर्ग की जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरे वर्ग को भी तेजी दिखानी चाहिए!
बहरहाल मोदी को उस बाजार पर रोक लगा देनी चाहिए जो कंप्यूटर पर कागजी खरीद-फरोख्त करता रहता है. उस सिंडिकेट पर भी लगाम लगानी चाहिए जो बाजार का भाव हमेशा बढ़ाए रखना चाहता है. मुश्किल काम है लेकिन मोदी से यह अपेक्षा तो देश कर ही रहा है! मोदी भी बाजार के सिंडिकेट का शिकार हो गए तो दूसरों में और मोदी में अंतर क्या रहेगा?

कुछ दिन तो गुजारिए..!
मोदी की विदेश यात्रओं पर उनके आलोचक प्रहार कर रहे हैं. कह रहे हैं कि कुछ दिन तो गुजारिए हिंदुस्तान में!  क्या यह प्रहार ठीक है? दरअसल इस तरह के प्रहार के पहले यह सोचना जरूरी है कि मोदी क्या विदेशों की यात्रएं केवल तफरीह के लिए नहीं कर रहे हैं? प्रारंभिक दृष्टि में ऐसा नहीं लगता है. हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि अपने पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध हाल के वर्षो में लगातार बिगड़ते गए हैं. उन संबंधों को जीवन देना वक्त की सबसे पहली जरूरत है. तटस्थता के साथ समीकरण भी बनाना जरूरी है. ऐसे में मोदी यदि बाहर जा रहे हैं तो इससे संबंधों को जीवन देने में फायदा ही होगा. विदेश नीति और संबंधों के मामले में मोदी ने निश्चय ही कदम आगे बढ़ाए हैं.
फेंकू कहना ठीक नहीं
मोदी के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें सोशल मीडिया पर फेंकू कहना शुरू कर दिया है. बड़ी अजीब बात है, कोई ज्यादा न बोले तो उसे मौनी बाबा की पदवी देने में देर नहीं लगती है और कोई निरंतर बातचीत करता रहे तो उसे फेंकू बना देते हैं. मोदी ने ‘मन की बात’ शुरू की और इसे आम आदमी ने सराहा ही. कुछ ऐसे मसलों पर वे बोले जो दिल के बिल्कुल करीब रहता है. हां, यह उम्मीद भी की जा रही है कि जिन-जिन मसलों पर वे बोले हैं, उन पर सख्ती से अमल भी हो. युवाओं के बीच ड्रग्स को लेकर वे बोले लेकिन ड्रग्स माफिया के खिलाफ कोई बड़ा अभियान अभी तक शुरू नहीं हुआ है.

सुस्ती तो दूर हुई है!
हां, मोदी ने एक बड़ा काम किया है और वह है राजनीतिक और प्रशासनिक सुस्ती दूर करने का. अब सरकार का कोई भी मंत्री अपनी मनमर्जी से दिल्ली से गायब नहीं रहता. यह बड़ा परिवर्तन है. एक मुखिया की जो पकड़ होनी चाहिए, वह पकड़ मोदी की है. मंत्रियों के पास अब एक एजेंडा है. वे जवाबदार बनाए गए हैं. इसका नतीजा है कि प्रशासनिक सुस्ती दूर हो रही है. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि जब प्रशासनिक और राजनीतिक सुस्ती दूर होगी तो सक्रियता बढ़ेगी.

आजाद भारत कई सवाल!

कनाडा में रहने वाले पाकिस्तानी मूल के पत्रकार तारेक फतह इन दिनों बहुत चर्चा में हैं. बेहद जज्बाती, अत्यधिक निडर और अपनी बेबाकी के लिए दुनिया भर में मशहूर हो रहे तारेक फतह एक किताब लिखने के सिलसिले में भारत आए थे. यहां से लौटने के बाद उन्होंने कनाडा के टैग टीवी को एक लंबा इंटरव्यू दिया. अपने इंटरव्यू में उन्होंने पाकिस्तान को बहुत खरी खोटी सुनाई है. उसके वजूद पर ही सवाल उठा दिए हैं इसलिए भारतीय दर्शकों को बहुत मजा आया है. इस इंटरव्यू के छोटे-छोटे टुकड़े व्हाट्सएप पर भी चल रहे हैं और सब मजे ले रहे हैं कि एक पाकिस्तानी मूल के पत्रकार ने अपने देश को क्या खरी खोटी सुनाई है!

इंटरव्यू के उस चेप्टर पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा है कि तारेक फतह ने भारत के बारे में क्या कहा है? दरअसल भारत के बारे में हम सुनना कहां चाहते हैं? हमने तो बस एक सुर  लगा रखी है-‘मेरा भारत महान!’ सुर लगाने में हर्ज नहीं है लेकिन जब हम सच्चई से बचने के लिए शुतुमरुर्ग की तरह रेत में अपनी गर्दन घुसा लेना चाहते हैं तब कोफ्त होती है और आजादी के अराजक होने का दर्द सालने लगता है. तारेक फतह का कहना है कि हिंदुस्तान में जितनी गैर-बराबरी है, उतनी दुनिया के किसी भी देश में नहीं है! बात वो बिल्कुल सही कह रहे हैं. हम खुद से ही पूछें कि क्या अपने समाज में बराबरी है? क्या हमारा समाज धर्म और जाति से ऊपर उठने की कोई कोशिश भी कर रहा है? शहरीकरण ने भारत के बड़े हिस्से को छुआछूत से मुक्त जरूर करा दिया है लेकिन गांवों में जाकर देखिए कि हालात क्या है? अभी भी जातियों के हिसाब से टोले यानि मोहल्ले बने हुए हैं. मोहल्ले भी पास-पास नहीं, दूर-दूर हैं! क्या एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति के मोहल्ले में बसने के बारे में सोच सकता है? बिल्कुल नहीं! फिर सवाल खड़ा होता है कि इस वर्ण व्यवस्था से हमें कैसे मुक्ति मिलेगी?

विकास के पहिए 
में जाति का जंग
भारत सरकार ने जनगणना में यह जानने की कोशिश की कि देश में किस जाति के कितने लोग रहते हैं. जनगणना हो गई तो उसके आंकड़े जारी नहीं किए. अब लालूप्रसाद यादव जैसे जाति की राजनीति करने वाले नेता आंकड़े मांग रहे हैं. सवाल यह है कि जाति के आधार पर जनगणना की जरूरत ही क्या थी? एषसी जनगणना और उसके बाद मचे हो हल्ले से जाति का जंग फैलता है और विकास के पहिए पर उसका असर भी होता है! देश को चाहिए जाति की जंग से आजादी!

धर्म का धंधा बना
देश का जंजाल
यह स्वीकार करने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि धर्म का धंधा देश में खूब फल-फूल रहा है और यह देश के लिए जंजाल साबित हो रहा है. कई टीवी चैनल तो बाबाओं को ही समर्पित हैं. दरअसल यह पूरा प्रसंग व्यापार का है. अंधभक्ति का जहर इस तरह से लोगों के भीतर उतारा जा रहा है कि वो व्यापार को समझ ही नहीं पा रहे हैं. पीके के शब्दों में कहें तो आदमी के डर को खूब भुना रहा धर्म का यह धंधा! देश को चाहिए धर्म के धंधे से आजादी!

अंधेरे में तीर जैसी
है हमारी पढ़ाई!
कुछ स्पेश्लाइज्ड कोर्स को छोड़ दें तो हमारी पूरी पढ़ाई व्यवस्था अंधेरे में तीर चलाने जैसी है. इस बात की कोई जानकारी आज के युवा को नहीं है कि अगले पांच या दस सालों में देश को किस तरह के कितने विशेषज्ञों, कारीगरों, अधिकारियों, तकनीशियनों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों की जरूरत होगी! देश की ओर से युवाओं को इस मामले में कभी संबोधित भी नहीं किया जाता. नतीजा है कि निजी संस्थानों की पूरी दुकान चल रही है. हमें ऐसी पढ़ाई चाहिए जो दुनिया में हमें अव्वल बनाए!

देश युवा तो है, लेकिन 
युवाओं की दशा कैसी?
इस वक्त भारत दुनिया का सबसे युवा देश माना जा रहा है यानि युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि हमारा युवा स्वास्थ्य की दृष्टि से दुनिया में अव्वल नहीं है. कुपोषण से लेकर मोटापे तक के बीच डायबिटीज अपनी जगह बना चुका है. दूसरी ओर वर्जिश तो जिंदगी से कम हो ही रही है. नशे के सौदागर हमारे युवाओं को अपनी चपेट में ले रहे हैं. हालात बिल्कुल ठीक नहीं हैं. देश को अव्वल बनाना है तो हमें नशे से आजादी चाहिए.

नंबरों की होड़ में
संस्कारों का टोटा
अब्दुल कलाम के प्रति सबके भीतर आदर का भाव रहा लेकिन कलाम की बात पर किसी ने भी भरोसा नहीं किया. वे कहते थे कि क्लास में पिछली बेंच पर भी ‘अच्छा दिमाग’ मिल सकता है. हमने दिमाग पर ताक पर रख दिया और बच्चों के बीच नंबरों की होड़ लगा दी. 97 प्रतिशत लाने वाला बच्च भी अफसोस करता है कि उसे 99.9 क्यों नहीं मिले. माता-पिता इस होड़ में इस कदर शामिल हैं कि उन्हें बच्चों के संस्कारों की समझ ही नहीं. इस होड़ से बच्चों को आजाद कीजिए.

पार्टियों से ऊपर 
क्यों नहीं है देश?
सभी पार्टियां दावा करती हैं कि वे भारत को बेहतरीन देश बनाना चाहती हैं. हम कभी इन पर तो कभी उन पर भरोसा करते हैं लेकिन वे एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते. दोनों ही देश को रसातल में पहुंचाने का आरोप लगाते हैं. देश का बच्च-बच्च यही सोचता है कि जब सभी पार्टियां देश को आगे ले जाना चाहती हैं तो समस्या क्या है? समस्या यह है कि सभी पार्टियों को सत्ता की भूख है. भूखी पार्टियां देश का क्या भला कर सकती हैं? सत्ता की भूख से देश को आजादी चाहिए.

लाख कोशिश की मगर
भ्रष्टाचार नहीं मिटा!
देश की सभी पार्टियां भ्रष्टाचार की खिलाफत करती हैं. हर आदमी इसके खिलाफ है लेकिन ये भ्रष्टाचार पता नहीं कैसी चीज है कि इसकी हस्ती मिटती ही नहीं है. इस देश का आम आदमी बड़े भ्रष्टाचार से कम, छोटे भ्रष्टाचार से ज्यादा परेशान है. सत्ता से हर आदमी की यही गुहार है कि कुछ ऐसा कीजिए कि राशन दुकान का भ्रष्टाचार मिट जाए, गैस कनेक्शन में भ्रष्टाचार मिट जाए. बाबुओं के चक्कर न काटना पड़े. यदि देश भ्रष्टाचार से आजाद हो गया, सच्ची आजादी मिल जाएगी.

मैदान मिटे, खेलने की
आजादी भी मिट गई
‘जब मैं बच्च था तब मेरे घर के पास खेल का एक मैदान हुआ करता था. हम सभी बच्चे शाम को धमाचौकड़ी करते और पसीने से लथपथ घर लौटते. अब वहां मैदान नहीं है. बिल्डिंग बन गई है. बच्चे अब पसीने से लथपथ नहीं होते. वे घर में बैठकर इंटनेट पर गेम खेलते हैं.’ यह कहानी हर व्यक्ति की है. वाकई अब खेल के मैदान कम ही दिखाई देते हैं. सीधे शब्दों में कहें तो बच्चों से खेलने की आजादी छिन गई है. बच्चों को खेलने की यह आजादी कौन वापस दिलाएगा?