Wednesday, August 10, 2016

क्योटो नहीं बनना चाहता वाराणसी



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब घोषणा की कि वाराणसी को क्योटो बना देंगे तो पहली नजर में किसी को समझ ही नहीं आया कि वे करेंगे क्या? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला कि ये क्योटो है क्या! इस यात्र के दौरान मैंने दर्जनों लोगों से जानना चाहा कि वे इस मामले में क्या राय रखते हैं. सब यही कहते हैं कि वाराणसी को वाराणसी ही रहने दीजिए इसे क्योटो बनाने की कोई जरूरत नहीं है.
गोदौलिया चौराहे के पास बेहतरीन बनारसी पान लोगों को पेश करने वाले रामश्रवण कहते हैं कि क्योटो हमारे सामने लगता कहां है. वाराणसी तो दुनिया को राह दिखाता रहा है. यहां बाबा विश्वनाथ हैं जो जगत के मालिक हैं. क्योटो के पास क्या है? मैं उन्हें बताता हूं कि जापान का क्योटो शहर सांस्कृतिक शहर है. वहां प्रति वर्ग किलो मीटर 5200 लोग रहते हैं फिर भी बहुत साफ सुधरा है. वाराणसी में आबदी केवल 2400 लोग प्रति वर्ग किलो मीटर है फिर भी हालात बुरे हैं. रामश्रवण मुङो समझाते हैं कि वाराणसी अपनी धुन में बसने वाला शहर है. इसे क्योटो बनाने की कोशिश करेंगे तो सबकुछ बिगड़ जाएगा. वे मोदी की इस बात से बिल्कुल ही प्रभावित नहीं हैं कि जापान का क्योटा शहर हेरिटेज सिटी है. जहां 2000 मठ और मंदिर हैं. जिस तरह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद लंदन का नवनिर्माण हुआ या 2001 के भूकंप के बाद गुजरात के भुज का नवनिर्माण हुआ, उसी तरह का नवनिर्माण बनारस का भी होगा.
जहां तक सरकारी स्तर पर वाराणसी को क्योटो बनाने की पहल का सवाल है तो एक दल वाराणसी से वहां गया है और एक दल वहां से यहां आया है. जापान ने यह आश्वासन जरूर दिया है कि वाराणसी के 1400 हेरिटेज बिल्डिंग को सहेजने में तकनीकी सहयोग वह करेगा.
वाराणसी का मिजाज अलग है
बीएचयू के एक छात्र राधेरमण सिंह मुङो अस्सी घाट पर मिल गए हैं और मैंने क्योटो वाला सवाल उनसे भी पूछा है. वे कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाए यह जरूरी है कि पहले वाराणसी की तासीर को समझा जाए. वे बताते हैं कि वाराणसी शहर का मिजाज क्योटो से कहां मेल खाता है कि इसे क्योटो बना दिया जाए. क्योटो की संस्कृति अलग है, वाराणसी को आप कैसे क्योटो बना देंगे? यहां लाखों लोग घाट पर आते हैं. घाट किनारे जाने वाली सड़क पर करोड़ों का व्यापार फुयपाथ पर होता है. क्या आप फुटपाथ की दुकानें हटा देंगे? क्या आप 70 हजार से अधिक रिक्शा हटा देंगे? वाराणसी काक्योटो बनना संभव ही नहीं है.

आंकड़ बड़े बड़े
राजेंद्र घाट पर बैठे संत हरवंश तो बह़े बड़े आंकड़ों पर ही सवाल खड़ाकरते हैं. वे कहते हैं कि नमामी गंगा प्रोजेक्ट के लिए 6300 करोड़ रुपए की घोषणा हुई थी. इसमें से करीब 2000 करोड़ रुपए गंगा की साफ सफाई पर खर्च होना है. 4200 करोड़ नेविगेशन कॉरिडोर पर और करीब 100 करोड़ रुपए घाटों पर खर्च होना है. बहुत अच्छी बात है लेकिन काम कहीं दिखाई भी तो देना चाहिए. मोदी जी पर भरोसा किया है वाराणसी ने. उन्हें तेजी दिखानी चाहिए. वे भी क्योटो के विरोधी हैं. कह रहे हैं कि क्योटो और वाराणसी के बीच सिस्टर सिटी का समझौता हुआ है लेकिन दोनों शहर बहनें हो ही नहीं सकतीं. एक दूसरे को दोनों शहर जानते समझते ही नहीं हैं.

कहां काशी कहां क्योटो
यहां वाराणसी में कोई भी क्योटो के महत्व को मानने को तैयार नहीं है. जरा उनके तर्क सुनिए..!
1. काशी यानि वाराणसी पांच हजार साल से ज्यादा पुराना शहर है. क्योटो के पास क्या इतनी पुरानी सांस्कृतिक समृद्धि है?
2. वाराणसी के पास गंगा है, क्या क्योटो के पास है?
3. यहां गऊ माता सड़कों पर हमारे साथ घूमती हैं. क्योटो वाले घूमने देंगे क्या?
4. हमारे पास बनारसी पान है, हम कहीं भी पिच कर देते हैं. क्योटो में यह सुविधा नहीं होगी.
5. हमारे यहां 110 तरह की लस्सी बनती है. ब्लू लस्सी पीने क्योटो वाले भी यहीं आते हैं.
6. भांग के साथ मलाई पुष्टि लाजवाब पेय है, क्योटो में नहीं ही मिलता होगा.
7. हमरे यहां मणिकर्णिका घाट है जहां सैकड़ों साल से चिता की आग ठंडी नहीं हुई. क्योटो में ऐसा है क्या?
8. हमारी गलियां हमारी पहचान है. गलियों में जीवन बसता है. क्योटो के पास क्या ऐसी गलियां हैं.
9. काशी में मरने से मोक्ष मिलता है, क्योटो में मरने से क्या मिलेगा.
10. क्योटो बनाने के लिए वाराणसी की गलियों को चौड़ा कर देंगे तो बनारसी संस्कृति बचेगी कहां?

वरुणा और अस्सी को
जीवन मिलना मुश्किल
वाराणसी नाम के पीछे दो नदियों का नाम शामिल है. एक है वरुणा और दूसरी है अस्सी. वरुणा का स्वरप बड़े नाले जैसा बचा है तो अस्सी का स्वरूप इतना बिगड़ चुका है कि उसे ढूंढना भी मुश्कि होता है. बीएचयू जाते हुए मुङो एक नाला दिखाई दिया. मैंने रुक कर इस नाले के बारे में पूछा तो पता चला कि यह तो अस्सी है. इस नाले पर पूरी तरह अतिक्रमण है. मोदी विजन में अभी तक ये दोनों नदियां शामिल नहीं हुई हैं. दोनों ही नाले जाकर गंगा में मिल रहे हैं.

चाय अैर पप्पू दोनों ही निराले!
लीजिए आज की शाम हम आ पहुंचे हैं वराणसी के फेमस पप्पू की चाय दुकान पर. पहुंचते ही ऐसा लग रहा है कि जैसे बगल में कुछ विवाद हो रहा है. एक सज्जन पूरे ताव में हैं और करीब-करीब चिल्लाने की हालत में हैं. ध्यान देते ही पता चल जाता है कि वे मोदी, अखिलेश और वाराणसी के मसले पर दूसरे व्यक्ति के विचारों से गरम हो गए हैं. मैं पप्पू को तलाश रहा हूं. एक पप्पू दुकान पर बैठा है. मैं उससे पूछता हूं कि आप ही पप्पू हैं तो वह हां में सिर हिला देता है और साथ ही यह भी कहता है कि मेरे पिताजी से मिलिए. उसके पिताजी का नाम है विश्वनाथ सिंह. आप उन्हें सिनियर पप्पू कह सकते हैं. मोदी के चुनाव के पहले तक दुकान पर बैठते थे लेकिन अब नेताजी टाइप हाो गए हैं. मोदी की माला जपना शुरु करते हैं. बताते हैं कि मोदी से अभी तक आमने सामने मुलाकात नहीं हुई है लेकिन चाय पर वीहियो चर्चा इसी दुकान से हुई थी.  साथ में चाय की खासियत भी बताते जा रहे हैं कि बिल्कुल ताजा चाय बनाते हैं. कहानी भी सुना रहे हैं कि उनके पिताजी बलदेव सिंह ने कैसे इस चाय की दुकान को संस्कृति का केंद्र बनाया. इस बीच बगल में आवाज तेज हो गई है. बिल्कुल झगड़े जैसी! मैं उधर देखता हूं तो विश्वनाथ सिंह कहते हैं कि पढ़े लिखे लोग हैं, इनका काम ही है बहस करना. अब तो पुराने लोग रहे नहीं. पहले जैसी बहस भी कहां होती है. वे इतिहास के पन्नों में उलझ जाते हैं. बहुत सारे नाम ले रहे हैं. मैं चाय की चुस्की लेता हूं. वाकई बेमिसाल चाय है. पप्पू को नमस्कार करता हूं और अस्सी घाट की ओर बढ़ जाता हूं.



घाटों की तो मानों तकदीर बदल गई है!

वाराणसी, 23 मई।
कोई वारणसी आए और घाटों पर न जाए यह हो ही नहीं सकता! इन घाटों से मेरी पुरानी पहचान है लेकिन इस बार मैं यह देखने और आप तक यह जानकारी पहुंचाने आया हूं कि यहां की तस्वीर कितनी बदली है? यह प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है और उन्होंने घाटों की सफाई का संकल्प लिया हुआ है. बनारस लाइव का पहला सफर शुरु करते हैं इन घाटों के किनारे..!
मैं इस  वक्त दशाश्वमेघ घाट पर हूं. यह घाट वाराणसी के सबसे प्रमुख घाटों में से एक है और सबसे ज्यादा भीड़ भाड़ यहीं रहती है. पर्व त्यौहार के दिनों में यहां 2 लाख से ज्यादा लोग हर रोज स्नान करते हैं. इसलिए इसकी साफ-सफाई सबसे कठिन काम है. करीब दो साल पहले जब मैं यहां आया था तो इस घाट पर नहाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई थी. तब घाट के ठीक नीचे कचरा तैर रहा था. स्नान के लिए मुङो नाव लेकर गंगा के दूसरे किनारे पर जाना पड़ा था लेकिन इस साल मैंने अभी-अभी इसी घाट पर स्नान किया है. यह है बनारस के इस घाट की बदलती हुई तस्वीर! इसे हम चमत्कार भले ही न कहें लेकिन उम्मीद की किरण तो दिखाई जरूर देने लगी है. दशाश्वमेघ घाट पर पहुंचने वाले रास्ते भी बिल्कुल साफ सुथरे नजर आने लगे हैं. गोदौलिया चौक पर ठंडाई की दुकान चलाने वाले राजू केसरी ने मुझसे कहा है कि मोदी ने घाट किनारे सफाई का कमा तो दिखा दिया है.

वाराणसी में प्रमुख रूप से अस्सी घाट हैं. पहला है आदिनाथ घाट और अंतिम है अस्सी घाट. चलिए अब अस्सी घाट की ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफाई की शुरुआत की थी. नाव से यह सफर करीब एक घंटे का है. दरभंगा घाट, राना महल घाट, राजा घाट और भी बहुत सारे घाट. सारे घाटों के किनारे लोग नहाते हुए नजर आ रहे हैं. पिछली बार जब मैं आया था तब इन घाटों पर गंदगी इतनी थी कि नहाने की कोई हिम्मत ही नहीं कर सकता था. अब पानी मे गंदगी दिखाई नहीं दे रही है. मेरा नाव वाला रमेश शंकर कह रहा है कि पानी साफ है तो कोई अब गंदगी फेंकता भी नहीं है. यहां आने वालो का रवैया बदला हुआ है. हर कोई वारणसी के घाटों को स्वच्छ देखना चाहता है. गंगा को साफ देखना चाहता है. साफ सफाई देखकर वाकई दिल खुश हो रहा है और दिल चाह रहा है कि गंगा का पानी भी निर्मल हो जाए. तभी मेरी नजर जाती है राजा घाट के पास ड्रेनेज की एक मोटी पाइप पर जिसमें से थोड़ा ही सही लेकिन ड्रेनेज का पानी आ रहा है. वहीं एक व्यक्ति शौच भी कर रहा था. मेरे नाव वाले ने कहा कि इनका समझावें मोदी अईहें का?



काशी का अस्सी!
अब हम आ पहुंचे हैं अस्सी घाट . यह लेखकों, कवियों, कलाकारों और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के विद्वानों का पसंदीदा घाट है. कला और संस्कृति का यहां जमघट होता है इसीलिए नरेंद्र मोदी ने सफाई की शुरुआत यहीं से की. दशश्वमेघ घाट की तुलना में यहां भीड़ कम है. सफेद दुधिया रोशनी से पूरा घाट नहाया हुआ है. अस्सी घाट पर औसतन 300 लोग प्रति घंटे आते हैं. पर्व त्यौहारों के अवसर पर यह संख्या 2500 प्रति घंटे तक पहुंच जाती है. यहां एक साथ 22500 लोग जमा हो सकते हैं. मैं  यहां विदेशी पर्यटकों की भीड़ देख रहा हूं. तभी मेरी नजर जाती है वहं पास मे खुदाई कर रही मशीनों पर. मशीन दूसरे घाट पर है लेकिन वह भी अस्सी का ही हिस्सा है. पता चलता है कि यहां दिन और रात काम चल रहा है. यहां 26 मई को मोदी सरकार की सालगिरह पर कार्यक्रम होने वाला है.
मैं अभी उस पप्पू चायवाले की दुकान पर जाना चाहता हूं जो नरेंद्र मोदी के चुनाव में उनके नामांकन का एक प्रस्तावक था. पप्पू की दुकान खानदानी है और दुकान की उम्र 100 साल से उपर हो चुकी है. इसी घाट के नाम पर प्रसिद्ध लेखक काशिनाथ सिंह ने ‘काशी का अस्सी’ नॉवेल भी लिखा है. फिलहाल वक्त इजाजत नहीं दे रहा है. रिपोर्ट  फाइल करनी है. चलिए लौटते हैं. पप्पू की चाय इसी यात्र में किसी दिन पीएंगे.
लौटते हुए मुङो हिंदी साहित्यकार केदारनाथ सिंह की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं. वाराणसी के बारे में बहुत सटीक लिखा है..
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है.
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है

इस धीमी चाल वाले शहर में कम से कम घाटाों पर तो विकास की रफ्तार धीरे नहीं है. शहर भी घूमेंगे और देखेंगे कि वहां तस्वीार कितनी बदली है?


अब मोटरबोट पर लाशें
वाराणसी के घाट वाले इलाके की बड़ी समस्या रही है शव यात्रएं. हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि जिसकी मौत काशी में होती है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है. यही कारण है कि बड़े बुजूर्ग मोक्ष की चाहत में यहां खिंचे चले आते हैं. वे घाट किनारे की धर्मशालाओं में जिंदगी की अंतिम घड़ी का इंतजार करते हैं. जाहिर है कि वाराणसी में दिवंगत होने वालों की संख्या ज्यादा होगी ही. पहले मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट की ओर जाने वाली सड़क पर दिन भर शव यात्रएं निकलती रहती थीं. दुकानदार से लेकर सड़क पर चलने वाले तक परेशान होते थे. ट्रेफिक जाम होता रहता था. अब हालात बदल गए हैं. अब शव या तो मोटरबोट से ले जाए जाते हैं या फिर शव वाहन से. 5 शव वाहनों की व्यवस्था की गई है.  इसके लिए नव गठित संस्था‘मुक्ति मित्र’ काम कर रही है. गुजरात के उद्योगपति सुधांशु मेहता ने यह संस्था खड़ी की है.

नहाने से तलाक!
नारद घाट से गुजरते हुए मुङो इस घाट के बारे में फैेले एक वहम की याद आ गई पर अमूमन पति पत्नी कभी स्नान नहीं करते. इसका कारण एक बहुत बड़ा वहम है. वहम यह है कि यदि पति पत्नी नारद घाट पर स्नान कर लें तो उनका तलाक हो जाता है! गजब का वहम है यह! हां, कुंवारे लोग यहां स्नान जरूर करते हैं. 

थोड़ा सा काम हुआ है, अभी बहुत है बाकी!


वाराणसी, 25 मई।
वाराणसी इस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आश्वासनों की लंबी फेहरिस्त देखकर चकराया हुआ है. लोग मोदी से चमत्कार की उम्मीद किए बैठे थे लेकिन वाराणसी शहर में कोई चमत्कार दिखाई नहीं दे रहा है. परिवर्तन है केवल सफाई की. रात ढ़लते ही सफाई शुरु हो जाती है लेकिन सड़कों का वही पुराना हाल है. सड़कों को चौड़ा करना मुश्किल काम है. ऐसे में क्या वाकई परिवर्तन हो पाएगा?
इसी शहर में जन्में और पले बढ़े राजेश कुमार बता रहे हैं कि आंकड़े तो बहुत बड़े बड़े हैं लेकिन सवाल है कि ठीक से काम भी तो प्रारंभ होना चाहिए. एक साल बीत गए हैं. इस बीच ड्रेनेज की समस्या का निदान निकाला जा सकता था लेकिन अभी इस मामले में कुछ खास नहीं हुआ है.बुनकरों के लिए ट्रेड फैसिलिटेशन सेंटर की नींव पिछले साल प्रधानमंत्री ने रखी थी लेकिन काम अभी तक शुरु नहीं हुआ है.  उस पर एक ईंट नहीं रखी जा सकी है. शहर का गंदा पानी अभी भी गंगा में मिल रहा है. मेयर रामगोपाल मोहले कहते हैं कि करधना का वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट इस साल शुरु हो जाएगा लेकिन हकीकत यह है कि यह प्लांट 2012 से बनकर तैयार है लेकिन अभी तक इसे प्रारंभ नहीं किया जा सका है.
चेतगंज की अनुप्रिया मोदी की फैन हैं लेकिन अब उन्हें भी यह डर सताने लगा है कि सभी वादें शायद ही पूरे हो पाएं क्योंकि वाराणसी में जो रफ्तार दिखाई देनी चाहिए वह दिखाई नहीं दे रहा है. वे कहती हैं कि बहुत सी जगह पर सड़कें खाद दी गई हैं, अब बारिश आने वाली है, जरा सोचिए कि हमारी हालत क्या होगी. उनकी सहेली रश्मि को भी मोदी के सभी वादे पूरे होने में शंका है. वे तो मोदी की फेहरिस्त ही गिना देती हैं. वे मुझसे ही सवाल पूछती हैं कि मेट्रो, मोनो रेल, 6 लेन वाला हाईवे, फ्लाई ओवर्स, रिंग रोड, सैटेलाइट टाउन जैसे प्रोजेक्ट यदि इस शहर में आने हैं तो कहीं कोई सुगबुगाहट तो होनी चाहिए कि नहीं?  हां, वे भी शहर की सफाई की तारीफ करती हैं.
अस्सी रोड पर नरेंद्र मोदी का संसदीय कार्यालय है. रविवार को कार्याय बंद रहता है. सोमवार को भी इसके प्रमुख शिवशरण पाठक यहां मुलाकात नहीं हो पाई लेकिन उनके कार्यालय में हर रोज 50 से 60 शिकायतें आती हैं. ज्यादातर शिकायतें सड़कों को लेकर है कि खुदाई हो गई है लेकिन गड्ढे नहीं भरे जा रहे हैं.

गाय से पूछते हैं
रस्ता देबू?
टिपिकल बनारसी आदमी गाय को सड़क से भगाएग नहीं. यदि कहीं गऊ माता इस तरह खड़ी हों कि गली में जाना मुश्किल हो जाए तो वह आदमी गाय से कहेगा- रस्ता देब? कमाल की बात है कि गाय रास्ता भी दे देती है. मैंने कई बार इस तरह के दृष्य देखे. गाय सड़कों को घेर कर बैठी रहती हैं. ये शहर के लिए सबसे बड़ा संकट हैं. इन्हें हटाने पर यहां के लोग ही राजी नहीं हैं. गल्ले की दुकान चलाने वाले किसुन लाल कहते हैं कि गऊ माता शहर की संस्कृति का हिस्सा हैं. इन्हें परेशान नहीं करना चाहिए.

न अस्सी बची है और न वरुणा
वाराणसी नाम के पीछे दो नदियों के नाम हैं. वरुणा और अस्सी. शहर मे वरुणा का तो मुङो कहीं वजूद नहीं मिला. अस्सी एक जगह नाले के रूप में मिल गई. लोगों ने वरुणा और अस्सी नदी को अतिक्रमित कर लिया है. इसे हटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है. ये नदियां  अब नाले के रूप में गंगा में जाकर मिल जाती हैं.

डीएम साहब को धन्यवाद
एयर पोर्ट की तरफ जाने वाले मार्ग पर मैं अपने कार चालक अमित से पूछता हूं कि यह शड़क तो बहुत अच्छी है? मोदी के आने के बाद बनी है क्या? अमित बताते हैं कि चुनाव के समय डीएम प्रांजल यादव को बार-बार इस सड़क पर आना-जाना पड़ता था. उन्होंने सड़क बनवा दी. धन्यवाद डीम को देना चाहिए, मोदी को नहीं!

उफ् इतनी भीड़ भाड़!
वाराणसी शहर में घूमते हुए यहां की भीड़ भाड़ आदमी को चकरा देती है. आंकड़ों के लिहाज से देखें तो यहां प्रतिवर्ग किलो मीटर में 2400 लोग रहते हैं. पर्यटकों की संख्या इसमें शामिल नहीं है. तुलना के लिए आपको दो आंकड़ें और बताता हूं ताकि आपको पता चल सके कि कितनी सघन आबादी है. नागपुर में प्रति वर्ग किलो मीटर 470, औरंगाबाद में 286 और पुणो में 603 लोग रहते हैं. वाराणसी की यह सघन आबादी समस्याओं को और बढ़ाती है. शहर अब भी गंदगी के आगोश में है. इससे निपटना आसान नहीं है.

आंख मिचौनी कम हुई है
पिछले चुनाव से पहले या चुनाव के दौरान भी वाराणसी में बिजली की स्थिति ठीक नहीं थी. बमुश्किल 7 से 8 घंटे ही बिजली रहती थी. अब हालात बदले हैं. चौबीस घंटे में से 18 से 20 घंटे बिजली मौजूद रहती है. हालांकि वाराणसी संसदीय क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्रों मेंअभी भी दस घंटे से ज्यादा बिजली नहीं मिल रही है.

कचरा जाता कहां हैं?
बनारस में प्रतिदिन 400 मिलियन लीटर कचरा प्रतिदिन जेनरेट करता है.  शहर में केवल 3 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं जहां केवल 102 मिलियन लीटर कचरे का ट्रीटमेंट हो पाता है. तो सवाल है कि बाकी कचरा जाता कहां है?

तो क्या गंगा भी मोक्ष की ओर?


वाराणसी की इस यात्र की यह आखिरी शाम है. जाने से पहले गंगा को एक बार भरपूर नजरों से देखने आ पहुंचा हूं. हर रोज की तरह गंगा आरती का वक्त हो रहा है. घाट दुल्हन की तरह सजने लगी है. दुधिया और पीली रौशनी के बीच घुले मिले मंत्रों का उच्चरण पवित्रता प्रवहित कर रही है. इस  प्रवह के बीच मैं गंगा के प्रवाह को टटेलने की कोशिश कर रहा हूं. मैंने कोई 35साल पहले गंगा को उस रूप में देखा है जब दूसरा छोड़ नजर नहीं आता था. अब तो वो देखिए, उस पर के घाट पर लोग स्नना कर रहे हैं. आप थाड़े से भी सफल तैराक हैं तो गंगा के उस पर जाना कोई कठिन काम नहीं रह गया है. मैं उस घंगा को तलाश रहा हूं जिसके भीतर प्रवाह नहीं, गर्मी के दिनों में भी ऊफान हुआ करता था. अब तो किनारे से तीस फीट तक आप फर्राटे से जा सकते हैं. पानी चार फुट भी नहीं मिलेगा!
पहले दिन हम दशाश्वमेघ घाट से अस्सी की ओर गए थे. आज आदिनाथ घाट की ओर चलते हैं. इसी रास्ते में मणिकर्णिका घाट है जहां हर वक्त कोई न कोई मुर्दा जलता रहता है. इसी ओर सिंधिया घाट है, भोंसले घाट है लेकिन हर घाट एक जैसा नहीं है. कोई मेंटेन्ड है तो कोई थोड़ी सी सफाई वाला. मणिकर्णिक घाट से ठीक पहले नेपाल के राजाओं का घाट है. उसी परंपरा में अभी तक देखरेख हो रही है. पास में चूंकि मणिकर्णिका घाट है इसलिए बड़ेअक्षरों में लिखा है कि शवयात्र वाले मंदिर में न आएं.
मणिकर्णिका घाट किनारे से भी उतना ही सत्य स्थल नजर आता है जितना गलियों की ओर से वहां पहुंचने पर मुङो लगा था. वहां टंगा मोदी का एक श्लोगन मुङो याद आने लगा है-‘मोक्ष सबका अधिकार है’. पता नहीं मोदी ने ऐसा कहा भी होगा या नहीं लेकिन यहां एक बोर्ड तो टंगा है. मैं जीवन की अंतिम ज्वाला को देखते हुए आगे बढ़ रहा हूं. आगे आदिनाथ घाट देखने की इच्छा इसलिए प्रबंल हो रही है क्योंकि पर्चा भरने के पहले केजरीवाल ने यहां स्नानाकिया था. कितना अजीब है ना! पहले घाट को केजरीवाल ने पकड़ रखा है तो अंतिम घाट अस्सी को मोदी ने! बीच मे पूरी काशी है.
आदिनाथ घाट पर नहाने वलों की भीड़ नहीं है.
मैं लौट आता हूं फिर दशाश्वमेघ घाट. आरती खत्म होने को है. घाट पर पैर रखने की जगह नहीं है. मैं सोच रहा हूं कि घाट पर नाव टिकने में काफी वक्त लग जाएगा. मैं नाव नालक रामजी से कहता हूं कि किसी और घाट पर लगा लो, पैदल आ जाएंगे. वह मेरी बिल्कुल नहीं सुनता. एक नाव को ठेलता, दूसरे को पीछे घसीटता जगह बनाता जाता है. कुछ मिनटोंमें हम घाट पर उतरचुके होते हैं. नाव चालक रामजी कहता है बाबा विश्वनथ पर भरोसा रखिए, सबको रास्ता दिखाते हैं. मैं मुस्कुरा देता हूं.
एक चबूतरे पर बैठ गया हूं मैं. घाट की रौशनी दूसरे किानारे तक पहुंच रही है. गंगा जगमग हो रही हैं. मुङो लग रहा है कि यह तो ऐसा ही है जैसे किसी बीमार महिला को ब्यूटीफिकेशन कर दें और कहें कि बहुत स्वस्थ है ये! मंत्रोच्चर और आरती के मधुर स्वरों के बीच भी एक गाना मेरी जुबान पर चढ़ आता है..राम तेरी गंगा मैली हो गई! मैं खुद को दिलासा देने की कोशिश करता हूं. नमामी गंगे प्रोजेक्ट को याद करता हूं. गंगा को लेकर किए जा रहे प्रयासों को एक एक कर याद करता हूं ताकि गंगा को लेकर मेरा भय कुछ कम हो सके. फिर मुङो मणिकर्णिका घाट वाला वो बोर्ड याद आ जाता है..मोक्ष सबका अधिकार है!
..तो क्या गंगा का भी?
सरस्वती की तरह क्या गंगा भी लुप्त हो जाएंगी?
गंगा के बिना भारत मां का आंचल कैसा होगा?
देश के विशाल क्षेत्र को उपजाऊ मिट्टी कौन लाकर देगा? सवाल उमड़ घुमड़ रहे हैं.

लीजिए, आरती समाप्त हो गई है. घाट अब वीराना होना चाह रहा है.
मैं गंगा को प्रणाम करता हूं. थोड़ा जल अपने सिर पर डाल लेता हूं. बचपन में मैंने गंगा का साफ पानी पीया है. अब जो पानी है, उसे पीने की हिम्मत मुझमें नहीं है. काश! वो दिन लौट आए जब मैं गंगा का पानी फिर से पी सकूं.

भारत के मुहांने पर खड़ा आईएस

हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि जब संकट बिल्कुल हमारे सिर पर सवार हो जाता है तभी हम सक्रिय होते हैं. आईएस यानि इस्लामिक स्टेट को लेकर भी यही स्थिति है. भले ही हमारे नेतृत्वकर्ता यह कहते रहें कि इस्लामिक स्टेट से भारत को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, हकीकत यही है कि वह हमारे मुहाने तक आ पहुंचा है. बांगललादेश में जो कुछ भी हो रहा है, वह वहां के स्थानीय चरमपंथियों का नहीं बल्कि इस्लामिक स्टेट की हरकते हैं. कई पुजारियों की हत्या वहां हो चुकी है, दूसरे अन्य संप्रदायों के  साथ विदेशी नागरिक भी मारे जा चुके हैं. सवाल यह है कि यह सब क्यों हो रहा है जबकि बांगलादेशी समाज ज्यादा सहिष्णु और भाईचारे से लबरेज समाज माना जाता है. वहां धर्म और संप्रदाय को लेकर एक दूसरे के प्रति ठीक-ठाक समझ है.
दरअसल इन हत्यों के पीछे की वजह जानने के लिए इस्लामिक स्टेट की ऑनलाइन मैग्जिन ‘दबिक’ पर नजर डालना जरूरी है. ‘दबिक’ में उसने घोषणा की है कि उसका एक हिस्सा बांगलादेश में सक्रिय है. और भारत तथा बांगलादेश तक वह शरिया शासन लागू करना चाहता है. शेख अबु इब्राहिम अल हनाफी को बंगाल का अमीर यानि मुख्य नेतृत्वकर्ता घोषित किया गया है. इस शेख के बारे में अभी तक कुछ खास पता नहीं चल सका है.  हालांकि खुफिया सूत्र कह रहे हैं कि शेख अबु इब्राहिम अल हनीफ वास्तव में चौधरी नाम का व्यक्ति है जो कनाडा के ओंटोरियो में पहले रहा करता था और वहीं का नागरिक है लेकिन इससे ज्यादा उसके बारे में कुछ और जानकारी खुफिया संस्थाओं को भी नहीं है.
‘दबिक’ पत्रिका में अबु इब्राहिम का एक इंटरव्यू छपा है जिसमें उसने कहा है कि शेख हसीना की सरकार भारत की पिट्ठु है और रॉ की मदद कर रही है ताकि उसके लोग मारे जाएं. हसीना को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए आईएस हर कदम उठाएगा.  इंटरव्यू में उसने कहा है कि जब तक स्थानीय हिंदुओं का सफाया नहीं किया जाता तब तक ध्रुवीकरण नहीं होगा.
जाहिर है कि बांगलादेश में इस्लामिक स्टेट ध्रुवीकरण चाहता है ताकि उसे घुसपैठ करने में आसानी हो. अभी स्थिति यह है कि बांगलादेश का मुस्लिम समाज आईएस के बिल्कुल खिलाफ है और आतंकवाद की कोई भी घटना होने पर आतंकवादियों का पीछा किया जाता है. पुलिस को उसकी सूचना दी जाती है. इससे आईएस बहुत परेशान है. यही कारण है कि उसके गुर्गे मोटरसाइकिल पर आते हैं, हत्या करते हैं और भाग खड़े होते हैं. एक तरह से वे गुरिल्ला हमले कर रहे हैं. संस्थानों पर हमला करने की उनकी ताकत नहीं है. अबु इब्राहिम ने यह भी कहा है कि स्थानीय मुजाहिदिनों की मदद से भारत में गुरिल्ला हमले किए जाएंगे. उसने बर्मा को भी चेतावनी दी है.
इस्लामिक स्टेट की चेतावनी को भारत हल्के में नहीं ले सकता क्योंकि बांगलादेश के साथ 4096 किलोमीटर लंबी सीमा है. यह विश्व का पांचवा सबसे लंबा बोर्डर है. बांगलादेश के 6 डिवीजन ढ़ाका, खुलना, राजशाही, रंगपुर, शिल्हेट चित्तागॉंग भारतीय सीमा से मिलते हैं और हमले इन्ही इलाकों में हो रहे हैं. सबसे ज्यादा 2217 किलोमीटर सीमा बांगलादेश और पश्चिम बंगाल के बीच है. इस इलाके में बांगलादेशी घुसपैठियों की समस्या से भारत पहले ही जूझ रहा है. वास्तव में इस्लामिक स्टेट चाहता भी यही है कि बांगलादेश में रहने वाले हिंदुओं में खौफ का वातावरण पैदा हो और वे भारत की ओर पालायन करें. इससे दोनों देशों के बीच तनाव पैदा होगा और अभी मौजूद सामंजस्य का ताना बाना टूट जाएगा. ऐसे में आईएस को अपनी जड़ें जमाने में मदद मिलेगी.
भारत और बांगलादेश के बीच जो सीमा है उसमें 856 किलोमीटर सीमा त्रिपुरा, 443 किलोमीटर मेघालय, 262 किलोमीटर असम, 180 कि.मी. सीमा मिजोरम से मिलती है. बहुत बड़े हिस्से में फेंसिंग भी हो चुकी है लेकिन बहुत सा हिस्सा ऐसा है जहां से घुसपैठ होती रहती है. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पूवरेत्तर भारत का यह इलाका जनजातीय समूहों के संघर्ष और बाहरी तत्वों की मदद से उपजे आतंकवाद का शिकार पहले से ही है. यहां यदि इस्लामिक स्टेट ने भी अपनी पैठ बना ली तो भारत के लिए संघर्ष कठिन हो जाएगा.
दरअसल जरूरत अभी इस बात की है कि इस्लामिक स्टेट की रणनीति को समझा जाए और उसके पांव जमने से पहले ही उसे उखाड़ फेंका जाए.   इस्लामिक स्टेट की कार्यशैली से दुनिया परिचित है. कुछ साल पहले ही महाबलि अमेरिका ने कहा था कि इस्लामिक स््टेट का वजूद स्थानीय संगठन से बड़ा नहीं है. कुछ साल के भीतर ही वह दुनिया के लिए राक्षस बन बैठा. इसलिए बांगलादेश में आतंक की हर घटना से हमारा सरोकार है क्योंकि छोटा सा बांग्लादेश यदि इस्लामिक स्टेट की गिरफ्त में आ गया तो सबसे बुरा असर हम पर ही पड़ने वाला है. हमारे लिए यह सचेत होने का समय है.   आईएस हथियारों की आपूर्ति के लिए बंगाल की खाड़ी का इस्तेमाल न कर पाए इसलिए जरूरी है कि कुटनीतिक स्तर पर भी कोशिश होनी चाहिए ताकि इस इलाके के सभी देश आपसी मतभेद भूलकर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ एकजुट हो जाएं. बांगलादेश में यदि आईएस सफल हो गया तो वह मयंमार, थाईलैंड, वियतनाम, मलेशिया तक को गिरफ्त में ले सकता है. यमन और सोमालिया से अरब सागर होते हुए बंगाल की खाड़ी का रास्ता हथियारों की तस्करी का मार्ग बन सकता है.