Monday, September 29, 2014

तेल के कुओं में छिपी है जंग की वजह

इराक में इस वक्त जो कुछ भी चल रहा है, सतही तौर पर आप उसे शिया-सुन्नी विवाद कह सकते हैं. सत्ता का संगर्ष कह सकते हैं लेकिन हकीकत तो तेल के कुओं में छिपी है! सच्चई यह है कि इस सारे संघर्ष के पीछे तेल का खेल है. इस वक्त इस खेल का प्रमुख किरदार है अमेरिका! खेल को समझने के लिए सबसे पहले इन आंकड़ों को जानिए!
अमेरिका की आबादी :
विश्व की आबादी का केवल 5 प्रतिशत
अमेरिका में तेल भंडार :
विश्व के कुल ज्ञात तेल मंडार का केवल 3 प्रतिशत
अमेरिका में तेल खपत :
विश्व के कुल उत्पादन का करीब 25 प्रतिशत

जरा गौर कीजिए कि दुनिया में अनाज की कमी के लिए हम भारतीयों को पेटू बताने वाले अमेरिका में दुनिया की केवल 5 प्रतिशत आबादी रहती है और वह 25 प्रतिशत तेल हजम कर जाता है. तेल की भूख ने उसे इतना चालाक और क्रूर बना दिया है कि दुनिया में शांति का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है. उसे तो केवल तेल चाहिए, चाहे दूसरों को जला कर ही क्यों न मिले! यही हाल पश्चिमी देशों का है. उन्हें भी तेल चाहिए इसलिए वे अमेरिका के पिछलग्गू बने बैठे हैं. ब्रिटेन तो खासकर इस तेल के खेल में शुरु से ही शामिल रहा है. इस कहानी को समझने के लिए बीसवीं सदी के प्रारंभ में जाना होगा.
हालांकि दुनिया के कई देशों में पेट्रोलियम पदार्थो के छुटपुटस्तरोंे पर निकालने की कवायदें चल रही थीं. कई सफलताएं भी मिली थीं लेकिन 1908 में ईरान मे तेल का बड़ा भंडाल मिला. ईरान के पास तब ऐसी तकनीक थी नहीं कि वह इस भंडार का दोहन कर सके. जाहिर है उसने उन्हीं पश्चिमी देशों की ओर आशा भरी नजर से देखा जिन्होंने इस खोज में मदद की थी. अगले ही साल 1909 में एंग्लो-इरानियन आयल कंपनी (एआईओसी) स्थापित हुई ताकि तेल को निकाला जा सके. तेल की खुदाई शुरु हुई लेकिन वक्त बीतने के साथ ईरान को महसूस हुआ कि मोटा माल तो ब्रिटेन निगल रहा है. 1951 में उसने अपने तेल भंडार का राष्ट्रीयकरण करने के साथ ही एआईओसी की इरान में मौजूद संपत्तियों को जब्त कर लिया और तेल खुदाई में लगी सभी पश्चिमी कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया. ब्रिटेन के लिए यह बहुत बड़ा झटका था क्योंकि एआईओसी विदेश में स्थापित उसकी सबसे बड़ी संपत्ति थी.
ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर ईरान को सबक सिखाने का रास्ता अख्तियार किया. अमेरिकी खुखिया एजेंसी सीआईए और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एमआई-6 ने मिलकर ऐसा कुचक्र रचा कि ईरान में सत्ता के खिलाफ विद्रोह हो गया और 1953 में प्रधानमंत्री मोहम्मद माोसादेघ की निर्वाचित सत्ता को उखाड़कर पुराने शाह के बेटे मोहम्मद रजा पहलवी को गद्दी पर बिठा दिया. इसके साथ ही एंग्लो-इरानियन आयल कंपनी (एआईओसी) फिर वजूद में आ गई और इसके संचालन का जिम्मादारी आनन फानन में गठित एक अंतरराष्ट्रीय संघ को सौंप दिया गया. इस संगठन के माध्यम से एआईओसी के शेयर का बंदरबांट हुआ. अमेरिका की पांच कंपनियों को कुल 40 प्रतिशत हिस्सा, ब्रिटेन को 40 फीसदी, रॉयल डच को 14 प्रतिशत तथा एक फ्रेंच कंपनी को 6 प्रतिशत हिस्सा मिला. ईरान को केवल मुनाफे का 25 प्रतिशत मिलना तय हुआ. एआईओसी पहले ईरान को 20 प्रतिशत मुनाफा देती थी. इस तरह यह प्रचारित किया गया कि ईरान को अब 5 प्रतिशत ज्यादा मुनाफा मिल रहा है. उसी समय अमेरिकी कंपनियां तेल निकालने के एवज में सऊदी अरब और दूसरे देशों को 50 प्रतिशत तक मुनाफा दे रहे थे.
इधर अमेरिका यह बखूबी समझ रहा था कि वैश्विक शक्ति के रूप में उभरते हुए उसे ज्यादा से ज्यादा तेल की जरूरत होगी. विकास के साथ तेल की मांग अमेरिका में बढ़ रही थी इसके लिए वह रास्ता तलाश रहा था. अमेरिका ने अपने विकास को नई दिशा देने के लिए तत्पर था. उसने 1971 में अपनी स्वर्ण आधारित आर्थिक प्रणाली को बिदा कहा लेकिन इसका असर एकदम विपरीत हुआ और डॉलर की कीमत में भारी गिरावट आ गई. सोची समझी रणनीति के तहत अमेरिका ने सऊदी अरब से डील किया कि हथियारों के साथ वह सुरक्षा भी देगा और इसके बदले सऊदी अरब जिन देशों को भी तेल बेचता है उनसे भुगतान अमेरिकी डॉलर में लेगा. वक्त के साथ दूसरे ऑर्गेनाइजेशन आफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिग कंट्रीज (अेपेक देश) भी इस समझौते में शामिल हो गए. इस तरह अमेरिकी डॉलर की मांग फिर आसमान छूने लगी. अब देखिए, अमेरिका ने यहां एक बड़ा खेल किया. जो डॉलर वह दुनिया को दे रहा था वह अमेरिकी बाजार में नहीं चल रहा था. तेल के खेल में लगे इस डॉलर को जॉर्ज  टाउन यूनिवसि;टी के प्रोफेसर और जानेमाने इकॉनोमिस्ट इब्राहिम ओवेसिस ने नाम दिया ‘पेट्रो डॉलर’.
अमेरिका समझ रहा था कि अब सब ठीक है लेकिन अक्टूबर 1973 में सीरिया और इजिप्ट की अगुवाई में अरब देशों ने इजराइल पर हमला बोल दिया. अमेरिका और पश्चिमी देशें ने तत्काल इजराइल की सहायता की और इससे नाराज होकर आपेक देशों ने अमेरिका को तेल बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया. अमेरिका को लगा कि ओपेक देशों की बढ़ती ताकत तेल बाजार में ‘पेट्रो डॉलर’ को समाप्त न कर दे. अब अमेरिका ने खुलकर अपनी चाल चलनी शुरु की. उसने अरब देशों को लालच भी दिया, धमकाया भी और जहां जरूरत पड़ी वहां अपने खुफिया साधनों को भरपूर इस्तेमाल किया. सद्दाम हुसैन जैसे लोगों ने अमेरिका को आंख दिखाई तो अमेरिका आंख निकाल लेने की हद तक चला गया और सद्दाम को फांसी पर लटका दिया. दरअसल अरब देशों को उसने बांट कर रख दिया. अभी जो कुछ भी चल रहा है, वह इसी का परिणाम है. उसे पता था कि इराकी फौज आतंकियों का सामना नहीं कर सकती, इसके बावजूद वह इराक को अपने हाल पर छोड़कर चला गया. मजहब के रंग में रंगे अरब देश हालांकि अमेरिका की चाल को समझते रहे हैं लेकिन उनके पास भी इसका कोई इलाज नहीं है. अमेरिका अब चाहता है कि ईरान भी जंग में फंसे. ईरान बचने की कोशिश कर रहा है लेकिन लगता यही है कि बहुत ज्यादा दिनों तक वह बच नहीं पाएगा. इराक के शिया धर्मस्थलों को बचाने का आंतरिक दबाव उस पर है. इधर आतंकी संगठन भी पीछे हटने वाले नहीं हैं क्योंकि तेल से उपजने वाला धन उन्हें ताकत दे रहा है.


क्या इस दुष्चक्र से उबर पाएगा इराक?

इराक का नाम जेहन में आते ही अब केवल खून खराबा ध्यान में आता है. यह सत्य कहीं इतिहास में दफन हो गया कि दुनिया के जिन हिस्सों में सभ्यता ने जन्म लिया उनमें से एक इराक भी है. इतिहास के पन्नों पर इस इलाके को हम मेसोपोटामिया के रूप में भी जानते हैं. इतिहासकार इराक को सभ्यता का पालना भी कहते हैं. जिस तरह से पालने में झूलते हुए बच्च बड़ा होता है, ठीक उसी तरह से इराक में सुमेरियन सभ्यता ने जन्म लिया और करीब 3 हजार साल तक उसका वजूद कायम रहा. इराक अर्थात पुराने मेसोपोटामिया की दूसरी खासियत भी इतिहास में कही दफन है. कम ही लोगों को पता होगा कि करीब 6 हजार साल पहले विश्व में पहली बार ‘राइटिंग सिस्टम’ अर्थात व्यवस्थित लेखन की परंपरा यहीं से शुरु हुई थी क्योंकि वहां सभ्यता के विकास के साथ व्यापार व्यवसाय का विकास हो चुका था और व्यवस्थित लेखन की जरूरत महसूस की जा रही थी.
जिस देश का इतिहास इतना स्वर्णिम हो, उसे किसकी नजर लग गई? इसके लिए इतिहास में थोड़ा पीछे लौटना होगा. वक्त बदला और यहां तेल की प्रचूरता ने सबका ध्यान आकृष्य किया. प्रथम विश्वयुद्ध में युनाइटेड किंग्डम यानि ब्रिटेन की सेना ने इस इलाके के शासक को पराजित कर दिया. इसके बाद से यह इलाका ‘स्टेट ऑफ इराक’ नाम से ब्रिटेन का हिस्सा बन गया. ब्रिटेन ने सीरिया से भगाए गए फैसल को यहां का शासक नियुक्त किया. शासन व्यवस्था में सुन्नियों को प्रमुखता दी गई. 1932 में ब्रिटेन ने इराक को आजादी तो दे दी लेकिन अपना सैन्य अड्डा वहां बनाए रखा. अगले ही साल किंग फैसल की मृत्यु हो गई. फिर गाजी और उसके बाद उसके नाबालिग बेटे फैसल द्वितीय की ओर से अब्दुल्ला ने रीजेंट के रूप में गद्दी संभाली लेकिन 1941 में एक सैन्य विद्रोह में राशिद अली ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. इसी दौरान ब्रिटेन को यह भय सताने लगा कि कहीं इराक से पश्चिमी देशों को तेल की आपूर्ति न रुक जाए. तेल की खातिर ब्रिटेन ने इराक पर फिर से कब्जा कर लिया. ब्रिटेन वहां से फिर 1947 में  हटा. इराक हशमित राजघराने के पास आ गया. 1958 में फिर सैन्य विद्रोह हुआ आौर ब्रिगेडियर जनरल अब्दुल करीम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. उसके बाद से कई सैन्य विद्रोह हुए और शासक बदलते रहे. सत्ता के लिए खून बहना इराक में आम बात हो गई. 1968 में बाथ पार्टी के अहमद हसन अल बकर ने सत्ता पर कब्जा किया लेकिन धीरे-धीरे सत्ता उनके हाथ से भी फिसली और जनरल सद्दाम हुसैन के हाथों में आ गई.
सद्दाम ऊंचे ख्वाब वाले व्यक्ति थे. उन्होंने 1980 में ईरान पर हमला बोल दिया. करीब आठ साल चले इस युद्ध में दोनों ओर के करीब पंद्रह लाख लोग मारे गए. इस युद्ध के समाप्त होने से ठीक पहले इराक की बाथ पार्टी ने कुर्द लोगों के खिलाफ एक अभियान चलाया और माना जाता है कि करीब एक लाख कुर्द लोगों को मौत के घाट उतार दिया. मरने वालों में शिया भी थे. शिया और कुर्दो के खिलाफ जब यह अभियान चल रहा था तभी इराक ने एक और मोर्चा खोला और कुवैत पर कब्जा कर लिया. अमेरिका और पश्चिमी देशों को फिर तेल की चिंता सताने लगी कि कहीं सद्दाम रोड़ा न बन जाए. अंतत: अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने हमला बोला और इराक को वापस जाने पर मजबूर कर दिया. अमेरिकी हितों के लिए सद्दाम पूरी तरह से दुश्मन की तरह थे और अंतत: मार्च 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया. हमले का बहाना था इराक का न्यूक्लियर और केमिकल हथियार लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ वहां मिला ही नहीं. अमेरिका ने कई सालों तक वहां कब्जा जमाए रखा और एक कठपुतली सरकार की स्थापना की जिसमें सुन्नियों का कोई रोल नहीं था क्योंकि सद्दाम सुन्नी थे. अब सुन्नियों ने विद्रोह किया और लड़ाकों के कई समूह बन गए. जाहिर है कि शिया-सुन्नी के झगड़े को बढ़ाने में अमेरिका ने भी रोल निभाया लेकिन हमले उस पर भी हो रहे थे. इसी दौरान सद्दाम पकड़ में आ गए औार 2006 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया. देश गृह युद्ध की स्थिति में पहुंच गया. अमेरिका का काम पूरा हो चुका था. वह अपना हित साधना चाहता था. वास्तव में इराक की जनता से उसका कोई लेना देना नहीं था. उसने जून 2009 में इराकी सेना को कानून-व्यवस्था का काम सौंपना शुरु किया और 2011 तक ज्यादातर सैनिक वापस हो चुके थे. राजनीतिक रूप से भी इराक बदहाल हो चुका था. बगदाद में सुन्नियों की संख्या कभी 35 प्रतिशत हुआ करती थी जो अब घटकर 12 प्रतिशत रह गई है. खैर सुन्नियों ने शियाओं के नेतृत्व वाली सरकार की खिलाफत की सभी हदें पार कर दी हैं. सुन्नियों के चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आईएसआईएस) ने इराक के कई प्रमुख शहरों पर कब्जा कर लिया है. आश्चर्य नहीं कि बगदाद भी उनके कब्जे में आ जाए. दरअसल इराक के ये हालात पूरे अरब जगत के लिए चिंता का विषय है.
तो अब सवाल पैदा होता है कि ऐसी स्थिति में अमेरिका क्या करेगा? क्या अमेरिका फिर से इराक पर हमला करेगा? अभी कुछ कहना मुश्किल है. वह कुछ भी कर सकता है. इतना तो स्पष्य्ट लग रहा है कि वह हस्तक्षेप जरूर करेगा. अमेरिका की नीतियों पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका अपनी बुद्धिमानियों में खुद ही फंस जाता है. इस बार भी हालात ऐसे ही हैं. इराक में अमेरिका ने दोहरा खेल खेला. एक तरफ सुन्नियों को सत्ता में जगह नहीं दी तो दूसरी ओर सुन्नियों के कई संगठनों की मदद की ताकि अल कायदा को पछाड़ा जा सके. यहां याद करना मुनासिब होगा कि अलकायदा को भी पैदा तो अमेरिका ने ही किया था ताकि अफगानिस्तान से रूस को खदेड़ा जा सके. बहरहाल अब अमेरिका उसी ईरान से बातचीत कर रहा है जिसे वह अब तक दुश्मन मानता रहा है. ईरान की आबादी में 90 से 95 प्रतिशत लोग शिया हैं और अमेरिका इसी का फायदा उठाना चाहता है. उसकी चाहत शायद यही है कि इराकी सुन्नियों के खिलाफ ईरान उसकी मदद करे. ईरान फिलहाल फूंक-फूूंक कर कदम रख रहा है है क्योंकि वह अमेरिका की चाल समझ रहा है लेकिन उसका उलझना भी तय लग रहा है. बगल में आग लगी है तो वह चुप कैसे बैठ सकता है. इराक में शियाओं को बचाने का आंतरिक दबाव भी उस पर होगा ही. बहरहाल इराक बदहाल है. सत्ता किसी के भी पास रहे. मरना आम आदमी को ही है!

हिंदी में बात हिंदी की बात

एक अखबारनवीस के रूप में मेरे सामने यह सवाल हमेशा ही मुंह बाए खड़ा रहता है कि भाषा कैसी होनी चाहिए? अक्सर कुछ लोग यह कहने से नहीं चूकते कि आपके आलेख का अमुक शब्द जरा कठिन था. मैं सोचने लगता हूं कि क्या वह शब्द वाकई कठिन था? फिर मुङो भारत सरकार के गजट की याद आ जाती है. गजट का हिंदी स्वरूप जब भी मेरे सामने आता है तो मैं उसे कई बार पढ़ता हूं और हर बार लगता है कि समझने में कुछ चूक हो रही है. अंतत: मैं गजट के अंग्रेजी स्वरूप की शरण लेता हूं और सबकुछ स्पष्ट हो जाता है. अब इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मैं अंग्रेजी का बड़ा ज्ञाता हूं और यह भी नहीं कि हिंदी मुङो ठीक से नहीं आती! दोनों भाषाएं ठीक-ठाक जानता हूं. दरअसल, गजट मूलत: अंग्रेजी में तैयार होता है और उसके रूपांतरण में भाई लोग शब्दकोष से ऐसे-ऐसे शब्द चुन कर लाते हैं कि आदमी घबरा जाए! जब ऐसी हिंदी लिखी जाएगी तो उसे पढ़ेगा कौन? तब खयाल आता है कि हिंदी ऐसी होनी चाहिए जिसे आम आदमी पढ़ सके और समझ सके. दरअसल, भाषा का यही तो उद्देश्य होता है!
..तो सवाल खड़ा होता है कि क्या मैं अपने आलेख में कुछ कठिन शब्दों का उपयोग करता हूं? मुङो लगता है- नहीं! किसी भाव को स्पष्ट करने के लिए जिन शब्दों की जरूरत हो, उनका उपयोग किया जाना चाहिए. अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए यदि कोई व्यक्ति पांच बार डिक्शनरी देख सकता है या गूगल पर शब्द के अर्थ जानने की जहमत उठा सकता है तो हिंदी का पाठक ऐसा क्यों नहीं कर सकता? क्या सरलता के नाम पर हिंदी को तंगदिल बना दिया जाए? मेरी राय है कि भाषा का अपना स्तर कायम रहना चाहिए. हां, बेवजह का अलंकरण नहीं होना चाहिए. यदि सरल शब्द मौजूद हैं तो बेवजह उसे क्लिष्ट बनाना ठीक नहीं है. वाक्य रचना भी ऐसी होनी चाहिए जो मगज तक सीधे उतर जाए. आप कुछ लिखें और पढ़ने वाला समझ ही न पाए तो उस लेखन का क्या अर्थ? आप कुछ कहें और सामने वाले के दिमाग में कुछ बैठे ही नहीं तो ऐसी बोलचाल का औचित्य क्या है? मजा तो तब है जब आप अपनी बात सामने वाले के दिमाग में बिठा दें, भाषा की सरलता के माध्यम से उसके दिल में उतर जाएं.
लेकिन इस  वक्त सवाल केवल हिंदी और हिंदी के शब्दों का नहीं है. सवाल हिंदी की अस्मिता का है. बाजारवाद की हवा में घुली अंग्रेजी हिंदी संसार को प्रदूषित कर देने की भरसक कोशिश कर रही है और इस कोशिश को और हवा दे रही है हमारी गुलाम मानसिकता जहां अंग्रेजी जानना और बोलना श्रेष्ठता का प्रतीक बन बैठा है. मां के मॉम और पिता के डैड बन जाने तक तो ठीक है लेकिन कोफ्त तब होती है जब मॉम अपने बेटे को बड़े नाज-ओ-अदा के साथ बताती है, ‘बेटा, लुक,  इट्स बटरफ्लाई. हाऊ कलरफुल ना!’ अपने बेटे को अंग्रेजी सिखाने की  ऐसी लत लगी है हमें कि हिंदी को ताक पर रख देने में कोई परहेज नहीं! कोई बच्च कितनी शुद्ध हिंदी बोलता है या लिखता है, उससे ज्यादा पूछ-परख इस बात की है कि किसका बेटा अंग्रेजी में अच्छी गिटर-पिटर कर लेता है. अंग्रेजी जानना अच्छी बात है लेकिन क्या अपनी भाषा के प्रति तिरस्कार की कीमत पर? याद रखिए जो समाज अपनी भाषा के प्रति लापरवाह होने लगे, उसकी संस्कृति का क्षरण होने लगता है. दुर्भाग्य यह है कि हमारा समाज इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं है. उसे लगता है कि अंग्रेजी में सारा जहां समाया हुआ है.
अरे अपनी भाषा को जरा जानने की कोशिश तो कीजिए. बहुत फा होगा आपको. अंग्रेजी की औकात का अंदाजा भी हो जाएगा. अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लॉफ’ अर्थात हंसना. हमारी हिंदी में हंसने के साथ और भी शब्द हैं जैसे खिलखिलाना, कहकहे लगाना. बहुत अंतर है हंसने, खिलखिलाने और कहकहे लगाने में. तीव्रता का अंतर है, भाव का अंतर है. इसी से मिलते-जुलते शब्द ‘स्माइल’ यानी मुस्कुराने की बात कीजिए. हमारे हिंदी में मुस्कुराने के साथ ‘मुस्की मारना’ भी है. क्या अंग्रेजी में मुस्की मारने के लिए कोई शब्द है? मुस्कुराने और मुस्की मारने में न केवल अंदाज का फर्क होता है बल्कि नजरिए का फर्क भी होता है. ऐसे सैकड़ों शब्दों की चर्चा की जा सकती है. आशय यह है कि हिंदी की व्यापकता को यदि आप समझ पाएं तो सहज ही अंदाजा हो जाएगा कि यह किसी भी भाषा से श्रेष्ठता में कहीं कम नहीं बैठती. कम से कम अंग्रेजी से तो बिल्कुल नहीं. अंग्रेजी से ज्यादा श्रेष्ठ है हमारी भाषा. तो सवाल उठना लाजिमी है कि हम अंग्रेजी को अपनी भाषा में घुसेड़ने को क्यों लालायित रहते हैं? हम हिंदी की जगह हिंग्लिश क्यों सींचने में लगे हैं?
अंग्रेजी के पक्ष में कई लोग तर्क देते हैं कि वह अत्यंत सहज भाषा है. मेरा सवाल यह है कि हिंदी की सहजता में कहां कमी है? हम भाव की अभिव्यक्ति में अंग्रेजी से दस कदम आगे हैं. यदि कोई हिंदी को जानने की कोशिश ही न करे तो उसमें हिंदी का कहां दोष है? दोष तो मानसिकता में है! मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि वैश्विक तरक्की के लिए अंग्रेजी को जीवनशैली में शामिल कर लेना बहुत जरूरी है. यदि ऐसा होता तो दुनिया में तेज रफ्तार तरक्की करने वाला चीन कब का अंग्रेजीमय हो गया होता. दरअसल, मामला मानसिक गुलामी का है. अंग्रेज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अंग्रेजी की गुलामी हमने ओढ़ रखी है. अंग्रेज बन जाने को आतुर कुछ लोग एक और भी तर्क देते हैं कि अंग्रेजी जब दुनिया भर की भाषाओं से शब्दों को अपने में शामिल कर रही है तो हिंदी को अंग्रेजी के शब्द ग्रहण करने में क्या परेशानी है? ऐसे लोगों को मैं बताना चाहता हूं कि किसी भी भाषा के विकास में दूसरी भाषा के शब्दों का योगदान निश्चय ही मायने रखता है लेकिन इतना भी नहीं कि मूल भाषा ही परिवर्तित होने लगे. हिंदी की विकास गाथा यदि आप पढ़ें तो उसमें फारसी के करीब साढ़े तीन हजार और अरबी के ढाई हजार शब्द शामिल हैं. इतना ही नहीं पश्तो के भी कई शब्द हिंदी में समाहित हैं.
शब्दों को शामिल करने का तर्क देने वालों को मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हिंदी से जुड़ी क्षेत्रीय बोलियों में शामिल किए जाने वाले शब्दों को भी यदि हम हिंदी के शब्दकोष का हिस्सा मान लें तो दुनिया की कोई दूसरी भाषा हमारे पासंग में भी नहीं बैठती! जब इतनी श्रेष्ठ भाषा है हमारी तो हम क्यों इसे बर्बाद करने में लगे हैं. याद रखिए कि किसी भी भाषा के विकास में सैकड़ों-हजारों वर्षो का वक्त लगता है. अंग्रेजी के प्रति थोड़ी सी सनक में इसे बर्बाद मत कीजिए. हिंदी बोलिए, हिंदी में काम करिए और हिंदी जानने पर अभिमान भी करना सीखिए!

मां तुझे सलाम


ग्रीस से सबक सीखने की जरूरत

ग्रीस बहुत बड़ा देश नहीं है. भारत की तुलना में तो शायद कुछ भी नहीं लेकिन वहां आर्थिक मोर्चे पर पिछले तीन-चार साल में जो भी उतार-चढ़ाव आया है वह किसी सुनामी से कम नहीं है. ग्रीस की घटना ने पूरी दुनिया को चौंकाया है और लगे हाथ सतर्क-सावधान भी किया है. पूरे यूरोझोन में ग्रीस की अर्थव्यवस्था को 2007 तक काफी सुदृढ़ माना जाता रहा. उसकी आर्थिक विकास दर काफी तेज थी और विदेशी पूंजी का प्रवाह की तो पूछिए ही मत!  लेकिन 2009 के अंत में ग्रीस की अर्थव्यवस्था को जैसे ग्रहण लगना शुरु हो गया. ग्रहण इतनी तेजी से लगा कि दुनिया स्तब्ध रह गई. ग्रीस की हालत ऐसी हो गई कि वह कर्ज में डूबने लगा, कर्ज के चुकारे के लिए कर्ज लेने लगा. अंतत: हालात ऐसे हो गए कि ग्रीस दिवालिया होने की कगारा पर आ गया. यदि यूरो झोन के दूसरे देश आगे न आए होते तो ग्रीस डूब ही गया होता.
खैर, महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रीस की यह हालत हुई कैसे? कोई देश खुशहाली की डगर छोड़कर कर्ज के दलदल में कैसे फंसने लगा और भारत को इससे क्या सीखने की जरूरत है? हम एक दशक पीछे लौटें और ग्रीस पर नजर डालें तो वहां की सरकार जनता के बीच लोकप्रिय होने के लिए कुछ भी करने पर उतारू थी. चूंकि आर्थिक विकास दर काफी तेज थी इसलिए ग्रीस की सरकार को किसी संकट की आशंका भी नहीं थी. लिहाजा कई ऐसे प्रकल्प शुरु किए गए जो जनता की वाहवाही तो लूट रहे थे लेकिन उससे ज्यादा राजकीय कोष को क्षति पहुंचा रहे थे. आश्चर्यजनक रूप से सकल घरेलू उत्पाद कम होता जा रहा था और राजकीय घाटा बढ़ता जा रहा था. तीन साल पहले सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में ग्रीस का घाटा 13.6 प्रतिशत तक जा पहुंंचा. ग्रीस की सरकार सांसत में थी. करें तो क्या करें? रास्ता केवल एक था, राजकीय कोष का घाटा कम करना. इसके लिए जरूरी थे कठोर कदम. सरकार ने कोशिश की लेकिन जनता ने नकार दिया. सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे. बेहतरीन जीवनशैली की अभ्यस्त हो चुकी जनता को सरकार के कठोर कदम स्वीकार नहीं थे. सरकार ने हाथ फिर पीछे खींच लिए. स्थिति और खराब हो गई. अंतत: कठोर कदम अवश्यंभावी हो गया. ग्रीस का आथा कर्ज माफ हो गया है लेकिनअभी कहना मुश्किल है कि  इस संकट से वह कब उबरेगा. आयरलैंड, इटली, स्पेन और पुर्तगाल के हालात भी ठीक नहीं हैं.
अब जरा इस बात पर गौर करें कि भारत को इस घटना से क्या सीखने की जरूरत है. दरअसल हमारे यहां भी लोकप्रिय कदम उठाने की होड़ सी लगी रहती है. खासतौर पर चुनाव के ठीक पहले ऐसी घोषणाएं की जाती हैं और ऐसी योजनाएं शुरु की जाती हैं जो लोकप्रिय तो होती हैं लेकिन उसका असर सीधे देश के राजकीय कोष पर पड़ता है. घोषणा करने वाले नेता कभी इस बात की जरूरत भी नहीं समझते कि एक बार अर्थशास्त्रियों से यह पूछ लें कि इसका असर क्या होगा? ऐसी योजनाएं राजकीय कोष को क्षति पहुंचाती हैं. हम हालांकि आज ठीक ठाक स्थिति में हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्वकाल में हमें अपनी माली हालत ठीक रखने के लिए देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था. हमारा देश बड़ा है इसलिए घाटा भी बड़ा हो सकता है और उत्पन्न होने वाली परिस्थितियां ज्यादा विकराल हो सकती हैं. जिस तरह से भारत को दुनिया ने बाजार मान लिया है और बैंकों ने अपनी थैली के मुंह खोल रखे हैं, उससे कई बार गहरे संकट का एहसास होता है. जिस तरह से देश में महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी संकट से जूझ रहा है, वह खतरनाक संकेत दे रहा है.
हमें इस बात पर सख्त नजर रखनी होगी कि उपभोक्तावाद को इतना बढ़ावा न मिल जाए कि बाजार ही सरकार को प्रभावित करने लगे. चाणक्य ने कहा था कि प्रशासन के लिए लोकप्रियता तो जरूरी है ही, कठोर अनुशासन भी अत्यावश्यक है. दुर्भाग्य से शासकीय तौर पर वह आर्थिक अनुशासन दिखाई नहीं दे रहा है. कई बार लगता है कि हम बाजार के हाथों में खेल रहे हैं. बाजार केवल पूंजी की बात करता है, मुनाफे की बात करता है. बाजार का मुख्य ध्येय ही होता है लोगों की जेब से पैसा निकालना, ऐसे हालात पैदा कर देना कि लोग कर्ज लेकर खरीददारी करें. इस समय हिंदुस्तान का हर आदमी कर्ज में डूबा हुआ है. जो कर्ज में सीधे नहीं डूबा है, इसका मतलब है कि बाजार उसे कर्ज देने लायक नहीं समझता. जरा सोचिए कि जिस देश का हर आदमी किसी न किसी तरह के कर्ज में डूबा हो, उस देश की मंगलकामना किन शब्दों में की जाए? हमारी सरकार को इस विषय पर सोचना चाहिए. आम आदमी की सुविधा के लिए कर्ज जरूरी हो सकता है लेकिन इतना भी नहीं कि वह बेजरूरत खर्च करने लगे. दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का मध्यमवर्ग इसी कुचक्र में फंस गया है. इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा है. एक मात्र रास्ता यही है कि सरकारें कठोर कदम उठाएं. बाजार के लाभ का खयाल किए बगैर ऐसे कदम उठाएं जो जनता के हित में हो. हो सकता है कि ऐसे निर्णय लोकप्रिय न हों और विरोधी पक्ष सवाल भी ऊठाए लेकिन सरकार की नजर में केवल देश होना चाहिए.
मैं जिक्र करना चाहूंगा आइसलैंड का जिसने वर्ष 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में गंभीर झटके ङोले. उस वक्त आइसलैंड का पूरा अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग सिस्टम चौपट हो गया था. लेकिन इस बार वह बचा रहा क्योंकि विदेशी बैंकों से वहां के नागरिकों ने किनारा करने का निर्णय ले लिया था. आइसलैंड अत्यंत छोटा देश है इसलिए वहां जागरुकता पैदा करना आसान था लेकिन भारत में यह जरा कठिन काम है. जनता को जागृत किया जाना चाहिए कि कर्ज के कुचक्र में फंसना संकट को न्यौता देना है.
एक बात और! ग्रीस के इस संकट को कुछ लोग पूंजीवाद की असफलता के रूप में भी देख रहे हैं. क्या वाकई ऐसा है? फिलहाल ऐसे किसी निश्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. ग्रीस का संकट वहां की सरकार की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिए. वैश्विक आर्थिक संकट के दौर से आखिर पूरी दुनिया के पूंजीवादी देश बाहर निकले ही हैं, अपनी स्थिति को भी उन्होंने सुधारा ही है. जिस तरह से सोवियत रूस के विघटन और चीन की बदलती चाल को साम्यवाद के खात्मे के रूप में नहीं देखा जा सकता, उसी तरह ग्रीस की विफलता को लेकर पूंजीवाद के खात्मे पर मोहर नहीं लगाई जा सकती. महत्वपूर्ण मसला बाजार पर शासकीय और प्रशासकीय नीतियों के नियंत्रण का है. और बहुत कुछ अपनी लोभवादी प्रवृति पर अंकुश का भी!

आलू खाते हैं लेकिन पौधा पहचानते नहीं


मेरे एक युवा मित्र अभी-अभी हैदराबाद से लौटे हैं. अपनी एक पुरानी मित्र से मिलने गए थे जो बचपन में उनके साथ पढ़ती थी, कस्बे के उसी स्कूल में जहां वे खुद पढ़े हैं. बहुत ही अभिभूत हैं उससे. उसकी तारीफ के कसीदे काढ़ रहे थे- ‘क्या अंग्रेजी बोलती है बॉस! तीन दिनों में हिंदी का तो एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं सुना. मेरे मुंह से ‘अभिप्राय’ शब्द सुनकर तो वो बिल्कुल चौंक गई. कहने लगी योर हिंदी वोकेबलरी इज टू गुड! बॉस, मैं तो उसकी अंग्रेजी पर लोटपोट हो रहा था. उसका बच्च भी अंग्रेजी में ही बात करता है. ऐसी अंग्रेजी बोलता है जैसे अंग्रेज का बच्च बोल रहा हो. अपन लोग तो वैसी अंग्रेजी बोल ही नहीं पाते! बच्चे के पास भी लैपटॉप है. खाना नौकरानी बनाती है, वही बच्चे की देखभाल भी करती है. बहुत ही व्यस्त है मेरी दोस्त. एक मल्टीनेशनल कंपनी की अधिकारी है और कई बार ड्यूटी से रात को दो बजे घर लौटती है. क्या शानदार जिंदगी है बॉस! बिल्कुल लज्जतदार जिंदगी! बहुत आगे निकल गई वो, अपन तो बहुत ही पीछे रह गए!’
मैं युवा मित्र की आंखों की चमक देख रहा था. यह महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि आधुनिक जिंदगी की लालसा किस तरह युवाओं को अपनी चपेट में लेती है. यह सोच कर भयभीत हो रहा था कि अंग्रेजी क्या इस तरह वाकई निगल रही है हमारी मातृभाषा को? क्या अंग्रेजी बोलना इतना महत्वपूर्ण है कि हिंदी या क्षेत्रीय बोली बोलने वाला व्यक्ति ग्लानि का अनुभव करने लगे? युवा मित्र तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे और मेरे जेहन में कई सवाल खड़े हो रहे थे. मैं अपने आप से पूछ रहा था कि रूस, चीन और जापान के लोग अंग्रेजी की दासता के बगैर तेजी से तरक्की कर रहे हैं तो हम  हिंदी वालों को अंग्रेजी के इस भूत ने इस कदर क्यों भयभीत कर दिया है? हिंदुस्तान में यह सोच क्यों विकसित हो गई कि बगैर अंग्रेजी जाने आप इज्जत नहीं पा सकते! यह वही देश है जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी के हिंदी में भषण देने पर इस कदर तालियां बजाई थीं कि गूंज पूरी दुनिया ने सुनी थी, फिर ऐसा क्या हो गया कि हिंदी पर खुद का सीना फुलाने के बजाए अंग्रेजी के नशे में डूबने लगा यह देश!
बेशक अंग्रेजी मौजूदा दौर की एक महत्वपूर्ण भाषा है और किसी भी भाषा की जानकारी व्यक्ति को वैचारिक तौर पर समृद्ध ही बनाती है लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं होना चाहिए कि हम दूसरी भाषा को इतना महान मान बैठें कि खुद की भाषा का ही तिरस्कार करने लगें. सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा कह कर यदि हम खुशी से झूम उठते हैं तो यही भाव अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय बोली को लेकर क्यों महसूस नहीं करते? ..और जो लोग अंग्रेजी बोलते हैं, क्या वे सोचते भी अंग्रेजी नजरिए से ही हैं? बिल्कुल नहीं. हिंदुस्तान में अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादातर लोग सोचते हिंदी में हैं और उसे ट्रांसलेट करके बोलते हैं. अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले ऐसे ज्यादातर ‘महापुरुष’ न अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और न अच्छी हिंदी. भाषायी तौर पर आप उन्हें कंगाल कह सकते हैं. ..तो सवाल यह पैदा होता है कि हम इन भाषायी कांगालों को इतना महान क्यों मान रहे हैं? दरअसल यह हमारी दासता वाली सोच का नतीजा है. दो सौ साल तक अंग्रेजों ने हमें बताया कि तुम हिंदी वाले छोटे लोग हो, इसलिए हम तुम पर राज कर रहे हैं. अंग्रेज चले गए लेकिन हम अंग्रेज बनने की चाहत में पागल हुए जा रहे हैं. हर कोई अपने बच्चे को ऐसे स्कूल में पढ़ाना चाहता है जहां बच्च अंग्रेजी बोलने लगे! यह दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐसी पौध तैयार कर रहे हैं जिसे अपनी भाषा और अपनी मिट्टी की जानकारी नहीं है.
अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले नमूनों के बच्चों को कुछ पौधे दिखाइए और पूछिए कि यह कौन सा पौधा है तो आंखें बाहर आ जाएंगी लेकिन जवाब नहीं सूङोगा! वे आलू खाते हैं लेकिन आलू का पौधा नहीं पहचान सकते. आखिर ये कौन सी ब्रीड और कैसा ब्रांड तैयार कर रहे हैं हम देश के लिए?
एक और बात..!
अंग्रेजियत की यह सुनामी रिस्तों की हर मिठास को ऐसे समंदर में बहा ले जा रही है जहां का पानी बिल्कुल खारा है. उसमें रिस्तों की मिठास के प्रवाह को ढूंढना नामुमकिन सा है. जिस दोस्त के पारिवारिक स्टेटस और लज्जतदार जिंदगी को देखकर हमारे युवा मित्र अभिभूत हुए जा रहे हैं, उसी परिवार का छोटा बच्च उनसे कह रहा था-‘लेट्स प्ले विद मी, मम्मा नेवर प्ले बिकॉज शी इज टू बिजी.’
उस बच्चे के दर्द को समङिाए..जब मां ही उसके साथ वक्त नहीं बिताती है तो वह जिंदगी के राग और अनुराग क्या सीखेगा..?

मां की हर बात निराली..!

तपती दोपहरी में जैसे शीतल छाया
मां तेरा वो गोद सलोना..!
ममता के आंचल में सुरभित जीवन
मां तेरा वो गोद खिलौना..!

पल्लवित हुए हम तेरी छाया में
मां तू अमृत का प्याला..!
जीवन शक्ति का आधार बना
ममता का हर वो एक निवाला..!

जिस उपवन को सींचा तुमने
वहां छायी हरियाली..!
बगिया का हर पुष्प स्मरण करे तुम्हारा
हाथों में है पूजा की थाली..!

मां जैसा दूजा कोई नहीं दुनिया में
मां की हर बात निराली..!

सब भगवान ही करें! और हम कुछ नहीं?


इन दिनों हम सब शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा की आराधना का महापर्व मना रहे हैं. पूजा अर्चना कर रहे हैं. भक्ति के गीत गा रहे हैं. खुशियां मना रहे हैं. स्वयं की शुद्धि के लिए बहुत से लोग उपवास भी कर रहे हैं. हर ओर हर्षोल्लास है. पूरा वातावरण भक्तिभाव में डूबा है. मां अंबे की गूंज हैं. आकांक्षा सबकी यही है कि मां सबका भला करें. जीवन सुखमय हो जाए! ऐसी आकांक्षा हमें करनी चाहिए. सबका भला भी होना चाहिए लेकिन इस वक्त बड़ा सवाल यह है कि क्या सबकुछ भगवान ही करें? हम कुछ न करें? हम अपनी सांस्कृतिक सीख का पालन तक न करें? यह कितना बड़ा विरोधाभाष है कि जो संस्कृति हमें मां को ईश्वर के समकक्ष रखना सिखाती है. जो संस्कृति नारी को सर्वदा पूजयेत कहती है, उसी संस्कृति में पलने-बढ़ने वाले समाज का एक बड़ा हिस्सा नारी का असम्मान करता है. हर धर्म सदाशयता, सद्भाव और समर्पण सिखाती है लेकिन हम इसका कितना पालन करते हैं. हम स्वच्छता की बात करते हैं लेकिन हम अपने अंतर्मन को कितना स्वच्छ और निर्मल बनाते हैं? मां की आराधना के इस पावन पर्व पर कुछ ऐसा संकल्प लीजिए कि अपना भला भी हो और समाज/देश का भी भला हो! पूजा तभी सार्थक होगी!

कवि सुरेंद्र शर्मा मौजूदा हालात पर बड़ी तीखा व्यंग करते हैं. वे कहते हैं-‘माता को हम चौका पर बिठाकर पूजते हैं और अपनी मां चौके में बर्तन मांजने पर मजबूर होती है.’ बात कड़वी है लेकिन है सोलह आने सच! क्या कभी हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि विधवाश्रम में ऐसी कितनी महिलाएं हैं जिनके बेटे और बहू ने उन्हें वहां पहुंचा दिया है? यह जानने में हमारी कोई रुचि नहीं होती. हम अपने आप में मगन रहते हैं. मां का दिल देखिए कि कभी ऐसो बेंटों की पहचना भी उजागर नहीं करती!  ध्यान रखिए कि आप जो व्यवहार अपने माता-पिता से कर रहे हैं, आपका बच्च वही व्यवहार आपसे करेगा!

नारी पूजने वाले इस देश में महिलाओं के साथ क्या व्यवहार होता है इसकी थोड़ी बहुत कहानी तो सरकारी आंकड़े कह ही देते हैं. हालांकि स्थिति इससे ज्यादा विकराल है. फिर भी आईए नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2012 के उपलब्ध कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं. महिलाओं के खिलाफ 2 लाख 44 हजार 270 अपराध हुए. इनमें से 1 लाख 6 हजार 527 मामले घरेलू हिंसा के थे. आकड़े बताते हैं कि प्रत्येक 9 मिनट में कोई न कोई महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है. महिलाओं के खिलाफ हर 3 मिनट में एक अपराध होता है. वर्ष 2012 में देश में बलात्कार के  24923 मामले दर्ज किए गए. इनमें से 24470 बलात्कार के मामलों में कोई न कोई परिचित शामिल था. क्या यही है हमारी संस्कृति कि एक तरफ तो नारी को पूजें और दूसरी तरफ उसे प्रताड़ित करें! चलिए, ज्यादातर लोग यह कहेंगे कि वे तो नारी को प्रताड़ित नहीं करते! ऐसे लोगों से एक सवाल पूछा जा सकता है कि अपने पड़ोस में घरेलू हिंसा का शिकार हो रही महिला के पक्ष में कभी उठे हैं वे? ज्यादातर लोग जवाब नहीं देंगे. मौन साध लेंगे. क्या अपराध घटित होते देखना किसी अपराध से कम है?

नारी को पूजने वाले इस देश में दहेज का दाग जितना गहरा है, उतना किसी और देश में नहीं है. कितना शर्मनाक  है यह सब! कन्या भ्रुण हत्या का बड़ा कारण संभत: यह दहेज ही है. जिन समाजों में दहेज का बोलबाला है, वहां लड़की का जन्म होते ही परिवार को भय सताने लगता है कि दहेज कहां से जुटाएंगे. इससे बचने के लिए वह परिवार कन्या भ्रुण हत्या पर उतर आता है. कम ही ऐसे परिवार हैं जिन्होंने दहेज को अपने से दूर किया है और बहू को बेटी का सम्मान दिया है. आश्चर्यजनक यह है कि लोग अपनी बेटी के लिए तो सुखी ससुराल की कल्पना करते हैं लेकिन अपनी बहु को सुख देने में कोताही बरत जाते हैं. दहेज के ज्यादातर मामले तो सामने भी नहीं आते! जो मामले सामने आते हैं, वे वही होते हैं जहां सहन की सीमा समाप्त हो जाती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2012 में दहेज हत्या के 8233 मामले दर्ज हुए. जरा कल्पना कीजिए कि दहेज प्रताड़ना के कितने मामले हुए होंगे. क्या कभी हमने यह जानने समझने की कोशिश की है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हमारी पूजा सार्थक है? माता की पूजा वास्तव में तभी सार्थक होगी जब हम नारी का सम्मान करना सीखेंगे.


हम संकल्प लें
माता-पिता का असम्मान करने वालों का सामाजिक बहिष्कार करेंगे.
गुंडागर्दी से नहीं डरेंगे. गुंडों को प्रश्रय देने वाले राजनेताओं का नकार देंगे.
्रअपराध न करेंगे और न करने देंगे
अराजकता न फैलाएंगे, न बर्दाश्त करेंगे.
रिश्वत न देंगे और न लेंगे.
बेईमानी न करेंगे, न करने देंगे.
मिलावट के खिलाफ लड़ेंगे.
गंदगी न फैलाएंगे, न फैलाने देंगे.
भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए एक जुट होंगे.
बलात्कार करने वालों का सामाजिक बहिष्कार करेंगे.
दहेज मांगने वाले परिवार में शादी नहीं करेंगे.
घोटाले की भनक लगते ही पुलिस को खबर देंगे
कन्यभ्रुण हत्या वाले परिवार का बहिष्कार करेंगे.
बाल मजदूरी को रोकेंगे. यदि सक्षम हैं तो ऐसे बालकों को पढ़ाने की कोशिश करेंगे.
झगडा-फसाद से दूर रहेंगे.




इनका सम्मान करेंगे
सच्चई
ईमानदारी
अनुशासन
नारी सम्मान
एकता
उदारता
सहिष्णुता
सद्भाव
देशभक्ति

अमिताभ से मिलने के बाद
क्या लिखा था डॉ. हेन ने?
प्रसंग बहुत पुराना है लेकिन है बहुत मौंजू! शादी के बाद अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी हनीमून के लिए ब्रिटेन जा रहे थे तो डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने उनसे कहा कि कैंब्रिज जाकर मेरे गुरु और गाइड डॉ. हेन से जरूर मिलना, उनका आशीष लेना. डॉ. हरिवंश राय बच्चन जब पीएचडी के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय में महान कवि डब्ल्यू बी. इट्स पर शोध कर रहे थे तो डॉ. हेन उनके गाइड थे. खैर, अमिताभ और जया उनसे मिले. डॉ. हेन बहुत खुश हुए. इस मिलन के बाद डॉ. हेन ने हरिवंश राय बच्चन को पत्र लिखा कि यह भारत में ही संभव है कि बेटा और बहू माता-पिता के साथ रहे. मेरा बेटा अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन क्या वह होता तो हमारे साथ होता? नहीं होता! क्योंकि हमारे यहां तो बेटा अपनी शादी के साथ ही अलग घर बसा लेता है. बहुत सहृदयता हुई तो छठे चौमासे कभी मिलने आ गया या कभी अपने घर बुला लिया. साथ रहने का तो सवाल ही नहीं है.
जरा सोचिए! क्या हम अपनी संस्कृति छोड़कर कहीं फिरंगियों की संस्कृति तो नहीं अपना रहे हैं?