Saturday, November 18, 2017

सफर चीन बोर्डर तक..!

सफर चीन बोर्डर तक..!

सरकारी तौर पर डोकलाम में 73 दिनों का तनाव समाप्त हो गया है. सरकार मानती है कि युद्ध के बादल फिलहाल छंट गए हैं लेकिन देश के सेना अध्यक्ष  ने साफ तौर पर कहा है कि भारत को सावधान रहने की जरूरत है. उत्तर में चीन ने आंखें दिखाना शुरु किया है तो युद्ध की स्थिति बनने में देर नहीं लगेगी! यह युद्ध पूरी सीमा पर हो सकता है, अक्साई चीन से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक. दरअसल सेना अध्यक्ष विपिन रावत को पता है कि चीन दिखाता कुछ है और करता कुछ और है. 1962 के युद्ध में उसने ऐसी ही चालाकी दिखाई थी. वह संकेत देता रहा कि भारत पर हमला नही करेगा लेकिन अचानक 10 अक्टूबर 1962 को अपनी सीमा के भीतर पेट्रोलिंग कर रहे 10 भारतीय सैनिकों को उसने मौत के घाट उतार दिया था. इसघटना के केवल 10 दिन बाद उसने पूरी शक्ति से हमला किया और केवल एक महीने में हमारे हजारों सैनिकों को मारते हुए उसने पूरे अरुणाचल प्रदेश को अपने कब्जे में कर लिया था. वह तो भला हो अमेरिका का जिसने हस्तक्षेप के लिए कदम बढ़ाए और चीन को चेतावनी मिली तो वह वापस लौटा लेकिन पूरी तरह नहीं. आज भी थगला और तगला नाम के दो सबसे ऊंचे पहाड़ों पर उसी का कब्जा है जिसे उसने 1962 के युद्ध में सबसे पहले जीता था. चीन बोर्डर पर तनाव की स्थिति को देखते हुए लोकमत समाचार ने यह तय किया कि हम उन इलाकों में जाएं जिस पर कभी चीन ने कब्जा किया हुआ था. आकलन करें मौजूदा हालात का और वैसे बुजुर्ग लोगों से मिलकर यह जानने की कोशिश करें कि 1962 में जब चीनी अरुणाचल में पहुंचे थे तब क्या-क्या हुआ था? हमें पता है कि यह यात्रा काफी कठिन है लेकिन हमारे भीतर एक रोमांच भी है..! हमारे साथ आप भी चलिए इस यात्रा पर..!

डिप्टी कमिश्नर ने कैदियों को भगा दिया, नोटों के बंडल जलवा दिए..!

असम के सबसे बड़े शहर गुवाहाटी से हमें निकले हुए करीब पांच घंटे हो चुके हैं और हम तेजपुर से गुजर रहे हैं. सड़क बहुत ठीक-ठाक नहीं है और हमारे वाहन चालक फूलचंद अली कह रहे हैं कि हम भोलुकपोंग में रुकेंगे. भोलुकपोंग मैं इससे पहले कभी नहीं आया हूं लेकिन यह नाम नया नहीं है. 1962 के युद्ध की कहानियों में इस छोटे से शहर का नाम कई बार आया है. चीन सीमा बुमला पास से भोलुकपोंग करीब 300 किलो मीटर दूर है लेकिन चीनी यहां तक पहुंच आए थे. हम बुमला पास तक की यात्र करेंगे लेकिन अभी हम जहां से गुजर रहे हैं, वहां की कहानी आपका सुनाता चलूं..

जब चीनी सैनिक भोलुकपोंग तक पहुंच गए तो ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाकों में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया. तेजपुर से भोलुकपोंग की दूरी केवल 56 किलो मीटर है. तेजपुर के तत्कालीन प्रशासनिक अधिकारियों को यही लगा कि जब चीनी सैनिक एक महीने से भी कम समय में भोलुकपोंग तक 300 किलो मीटर की अत्यंत दुर्गम यात्र कर सकते हैं तो 56 किलो मीटर की आसान दूरी तय करने में उन्हें कितना वक्त लगेगा? इस बीच तवांग, जांग और बोमडीला से लोकर भोलुकपोंग के शरणार्थी आसाम पहुंच चुके थे. चीनियों ने पहाड़ों में भारतीय सैनिकों की कब्रगाह बना दी थी. चीनी सैनिकों के तेजपुर शहर में घुसने की दहशत इतनी थी कि लोग तेजपुर से भी भागने लगे थे. कहा तो यह भी जाता है कि तेजपुर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ने जेल के दरबाजे खोल दिए थे ताकि कैदी जान बचाकर भाग सकें और कोषागार में रखे भारतीय नोटों को जला दिया गया था ताकि नोट चीनी सैनिकों के हाथ में न आ पाएं. इतना ही नहीं लाउडस्पीकर से घोषणा कर दी गई थी कि लोग अपनी जान की सुरक्षा खुद करें. यह कहानी केवल कल्पना नहीं है बल्कि ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी ने अपनी किताब हिमालयन ब्लंडर में इसकी चर्चा भी की है.

मैं तेजपुर रुकना चाहता था, कुछ पुराने लोगों को ढूंढ कर उनसे बात करना चाहता था लेकिन फिलहाल इतना वक्त नहीं है. मुङो फिलहाल अरुणाचल के पहले शहर भोलुकपोंग और फिर तवांग और उससे भी आगे चीन बोर्डर पर पहुंचने की जल्दी है. तेजपुर के आगे सड़क और खराब मिल रही है. ड्रायवर ने बता दिया है कि 56 किलो मीटर की यात्र में दो घंटे तो लग ही जाएंगे. गड्ढों भरी सड़क पर हिचकोले खाते हुए और रास्ते में हरियाली की चादर ओढ़े धान के खेतों का लुत्फ लेते हुए अंतत: शाम करीब 5 बजे हम भोलुकपोंग पहुंच गए. रास्ते में नामेरी नेशनल पार्क भी था. छोटे से भालुकपोंग शहर का थोड़ा सा हिस्सा आसाम और ज्यादातर हिस्सा अरुणचल प्रदेश के वेस्ट कामेंग जिले में पड़ता है. अरुणचाल का चेकपोस्ट शहर को दो हिस्सों में बांटता है. ड्रायवर ने गाड़ी रोक दी है और मुझसे कहा है कि मैं अपना परमिट चेकपोस्ट पर दिखाऊं. यहां मैं आपको बताना चाहूंगा कि अपने ही देश के इस अरुणाचल प्रदेश में घुसने के लिए हर भारतीय को ‘इनर लाइन परमिट’ की जरूरत होती है. अरुणाचल सरकार यह परमिट जारी करती है. मैंने इसके लिए ऑन लाइन आवेदन किया था. पहली बार अनुमति नहीं मिली थी लेकिन जब एक स्थानीय रिफरेंस के साथ दोबारा आवेदन किया तो इनर लाइन परमिट मिल गया था. चेकपोस्ट पर तैनात सशत्र सीमा बल (एसएसबी) के जवानों को मैंने अपना परमिट दिखाया. मेरे प्रोफेशन की कैटेगेरी में ‘जनर्लिस्ट’ लिखा है. दोनों जवान मुस्कुराए और कहा..चीन आ रहा है इसलिए आप लोग आए हैं? मैं भी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गया. आज की रात हम भोलुकपोंग में रुकेंगे. 

जाहिर है, आपके मन में यह सवाल पैदा हो रहा होगा कि एसएसबी के जिन जवानों ने हमारा इनर लाइन परमिट चेक किया था वे आखिर हैं कौन? दरअसल 1962 में जब हम चीन से बुरी तरह हार गए थे तब हमने कुछ ऐसी तैयारी करने की सोची कि जो चीन के लिए चुनौतीपूर्ण हो. पहली बात तो इस पूरे इलाके में भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एजेंटों का जाल बिछाने की थी ताकि चीन की हर हरकत की हमें जानकारी मिल सके. दूसरी जरूरत स्थानीय लोगों में सुरक्षा का भाव पैदा करने की थी. यह भी सोचा गया कि यदि चीन ने फिर हमला किया तो उसे जवाब कैसे दिया जाएगा? इन सारी बातों को ध्यान में रखकर 20 दिसंबर 1963 को अलग से एक फोर्स का गठन किया गया जिसे नाम मिला- स्पेशल सर्विस ब्यूरो (एसएसबी). इस नए बल में स्थानीय लोगों को प्रमुखता दी गई जिन्हें अरुणाचल के पहाड़ों की जानकारी थी. 2001 में इस संगठन का नाम सशस्त्र सीमा बल कर दिया गया क्योंकि इसकी भूमिका अब पूवरेत्तर राज्यों से अलावा दूसरे राज्यों में भी है. आज की तारीख में एसएसबी की 67 बटालियन हैं जिनमें 76 हजार से ज्यादा जवान हैं. एसएसबी ने बांग्लादेश युद्ध से लेकर करगिल वार तक में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. (कल भालुकपोंग से आगे बढ़ेंगे अरुणाचल की दुर्गम पहाड़ियों में)