Friday, February 10, 2012

गूंगे की जुबान मत खींचिए

आप क्या समझ बैठे हैं कि मैं गूंगा हूं? आप हमारी जुबान खींचते चले जाएंगे और हम कुछ नहीं बोलेंगे? गलतफहमी में हैं आप! हम केवल बोलना ही नहीं चिल्लाना भी खूब जानते हैं. जब चिल्लाते हैं तो छज्जियां उड़ा देते हैं, सलतनत हिला देते हैं, आसमान का भी सीना चीर कर रख देते हैं. लेकिन हमारे खून में सभ्यता, संस्कृति, सहजता, सहनशीलता, सदाशयता और शिष्ठता इस कदर भरी है कि हमारी सोच मजबूरियों में तब्दील हो जाती है और हम चुप्पी साध लेते हैं. हर यातना, हर जुल्म, हर कसक को स्वीकार कर लेते हैं. सलतनत को गलतफहमी हो जाती है कि उसके हर कोड़े पर केवल हमारी चीख निकलेगी. कोड़ा महफूज रहेगा. लेकिन वहम है ये आपका! अपनी चुप्पी और आपकी गलतफहमी पर मुन्नवर राना का एक शेर पेश कर रहा हूं -
कुछ बात थी कि लब नहीं खुलते थे हमारे!
तुम समङो थे गूंगों की जुबाने नहीं होतीं!!
सच तो यह है जनाब कि गूंगा बोलता है लेकिन उसकी आवाज वर्णमाला की कसौटी पर विभाजित नहीं हो पाती इसलिए कुछ समझ में नहीं आता कि वह बोल क्या रहा है. विज्ञान की भाषा में इसे वोकल कॉर्ड की समस्या कहते हैं. कोई सर्जन आता है, एक छोटी सी सर्जरी (इसे आप क्रांति भी कह सकते हैं) करता है और गूंगा बेतहाशा बोलने लगता है. और ऐसी बोली बोलता है कि दुनिया चकरा जाती है. उसके भीतर का तूफान जलजला लेकर आता है. आप उस जलजले से डरिए! आज मैं बोल रहा हूं, कल दूसरे भी बोलेंगे और सच मानिए कि जिस दिन गांधी की तरह का कोई और सामाजिक सर्जन हमारे साथ आ गया..गूंगों की आवाज गगन भेद कर रख देगी.
आज गूंगे को कहीं भी, कभी भी, बिना किसी कारण के भी पुलिस पकड़ लेती है. रिमांड पर ले लेती है. बेतरह धोती है. चमड़ियां उधेड़ देती है. सड़ने के लिए जेल पहुंचा देती है, फिर पता चलता है कि वह तो बेकसूर था! सच सामने आ भी जाए तो भी कुछ नहीं बिगड़ता उस पुलिस वाले का! लेकिन यह सब कब तक? इस सवाल पर क्या कभी गौर किया है आपने? जनाब! सिर्फ उसी दिन तक, जिस दिन तक गूंगों की चुप्पी का सन्नाटा छाया रहेगा. जिस दिन सन्नाटा टूटा, हवा की रफ्तार इतनी तेज होगी कि कई महल धराशायी हे जाएंगे. मैं टीवी पर एक दिन सुन रहा था, एंकर कह रहा था- ‘जनता की शक्ति एक पडाड़ी दरिया की तरह है जो बड़े से बड़े पत्थर को भी चकनाचूर कर सकती है. जिस तरह दरिया पर नियंत्रण के लिए बांध बनाया जाता है, उसी तरह जन शक्ति को नियंत्रित करने के लिए व्यवस्था का निर्माण होता है.’ बात सोलह आने सही है लेकिन मेरे मन का सवाल अनुत्तरित रह गया कि बांध अगर बस्तियों को डूबाने लगे तो फिर दरिया क्या करे? जिस कानून का निर्माण हमारे लिए हुआ है, वही कानून डंडाऔर फंदा बन कर टूट पड़े तो गूंगा क्या करे? इलाज के बहाने हकीम यदि जुबान खींचने लगे तो गूंगा क्या करे? आपको पता होना चाहिए कि गूंगा क्या करेगा?
मैं अब तक गूंगा बना हुआ हूं लेकिन आपको यह जानकारी होनी चाहिए कि मैं अंधा नहीं हूं, सबकुछ देख सकता हूं. मैं बहरा नहीं हूं, सबकुछ सुन सकता हूं. इस लिए यह सवाल आज आपसे पूछ रहा हूं कि जिस व्यवस्था और सर्वोच्चता की आप बात करते हैं, उसी व्यवस्था की सर्वोच्च और शिखर संस्था पर कोई दुश्मन हमला कर देता है और आप गूंगे बन जाते हैं? क्यों? आतंकवादियों की एक खूंखार खेप को आप जेल से निकाल कर सरहद पार सम्मान से पहुंचाने जाते हैं? क्यों? दहशतगर्दो को आप हिंदू और मुसलमान के नजरिए से देखते हैं? क्यों? ऐसे बहुत सारे ‘क्यों़ कतार में हैं. लंबी फेहरिस्त है!
और हां, गूंगा आज बोलने बैठा है तो सवाल उनसे भी कर रहा है जो भ्रष्टाचार को मिटाकर रामराज लाने का खूबसूरत दिवास्वप्न दिखाते हैं और फिर चांडाल चौकड़ी में तब्दील होकर रह जाते हैं. आपकी हकीकत भी यही थी तो ‘रामलीला’ करने की जरूरत क्या थी श्रीमान्? गूंगे के मन में आस जगा दी आपने. हसीन सपने देखने लगा गूंगा. सपना कुछ ऐसा जैसे जिंदगी जश्न में तब्दील होने वाली है. लेकिन तभी उम्मीदों का मर्तबान टूट गया. पता चला कि जिस मर्तबान में उम्मीदें सजाई गई थीं, उसमें पहले से ही दरार थी! गलती गूंगे की भी थी, ऐसे मर्तबान में उम्ीदें सजाने की जरूरत ही क्या थी? लेकिन गूंगे की मजबूरी भी समङिाए. उम्मीदों को वह कहीं न कहीं तो सजाएगा ही, इस उम्मीद के साथ कि ये मर्तबान मजबूत होगा! उसे क्या पता कि मर्तबान का एक टूकड़ा उसकी नसें भी काट सकता है!
तो क्या गूंगा चुप्पी साधे रहे, डरपोक बना रहे? बिल्कुल नहीं! दुनिया को एहसास होना चाहिए कि गूंगा बोलता है और पूरी ताकत से बोलता है. आज एक गूंगा बोल रहा है, कल दूसरा बोलेगा..तीसरा बोलेगा..कारवां बनता जाएगा. फिर एक गगनभेदी गूंज उठेगी और आसमान पर छाया कोहरा छंट जाएगा. गूंगे की शक्ति को कम करके मत आंकिए..एक मजदूर के रूप में वह आलीशान इमारत की सृजनशीलता की क्षमता रखता है तो आलीशान महलों को जमींदोज कर देने की कूवत भी रखता है. चलते-चलते मुन्नवर राना का ही एक और शेर सुन लीजिए-
कई चेहरे अभी तक मुहजबानी याद हैं उसे!
कहीं तुम पूछ मत लेना, ये गूंगा बोल सकता है!!
जनाब! बर्दाश्त की एक सीमा होती है! गूंगे की जुबान इतनी भी मत खींचिए कि वह चिल्लाने लगे!
-विकास मिश्र