Monday, July 5, 2010

मिलावट कहां नहीं है श्रीमान्

चूंकि भोजन प्रधानमंत्री का था इसलिए मूंग का ज्यादा हरा होना गुनाह हो गया। लगे हाथ यह भी पता चल गया कि खरबूजे का बीज भी फंगस का शिकार है। जाहिर है, मामला प्रधामंत्री का था इसलिए खबर नेशनल बन गई। यहां हम और आप हर रोज मिलावटी भोजन कर रहे हैं। हमारी आपकी सेहत पर इसका असर भले ही पड़ रहा हो लेकिन सरकार की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।
इस देश के हर जिला मुख्यालय में खाद्य नियंत्रक का दफ्तर होता है। उसमें बहुत से फुड इंस्पेक्टर होते हैं। नगर निगमों और नगर पालिकाओं के पास भी स्वास्थ्य की निगरानी के लिए बड़ा अमला होता है फिर भी धनिया, हल्दी और मिर्ची से लेकर सभी तरह के मसालों में भरपूर मिलावट की जाती है। चावल में कंकड़ तो अब कोई मुद्दा ही नहीं है।
जहां तक मूंग के हरे होने का सवाल है तो यह जगजाहिर है कि अनाज को आकर्षक बनाने के लिए पॉलिसिंग के दौरान रंगों का बड़ी चालाकी से उपयोग किया जाता है। इससे घटिया स्तर का अनाज भी खूबसूरत दिखने लगता है। सामान्य व्यक्ति समझता है कि मूंग ज्यादा हरा है तो बेहतर होगा लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत होती है। यही स्थिति तुअर दाल के साथ भी है। मिलावट और रंगरोगन का यह कारोबार इतना बड़ा और इतना प्रभावशाली है कि इस पर अंकुश लगाने की कोशिश होती भी नहीं है और स्थानीय स्तर पर यदि थोड़ी बहुत कार्रवाई हो भी जाए तो मिलावटखोरों का कुछ बिगड़ता नहीं है।
छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक पकी हुई खाद्य सामग्री को खुले में बिकते हुए हम सभी बिकते देखते हैं। नगर निगम और नगर पालिकाओं के खाद्य विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी इसे देखते हैं लेकिन शायद ही कभी कोई कार्रवाई होती हो! यहां तक कि मंदिरों के बाहर बिकने वाला लड्डू भी अस्वस्थ्यक हालात में बेचे जाते हैं। साल-दो साल में कभी कभार छापा भी पड़ता है और खाद्य सामग्री नष्ट कर दी जाती है लेकिन इससे ज्यादा कार्रवाई नहीं होती है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि मिलावटखोरों के प्रति हमारा प्रशासन इतना सहज क्यों रहता है? उसे लोगों के स्वास्थ्य की चिंता क्यों नहीं सताती है? इसका जवाब सीधा सा है कि इलाके का फुड इस्पेक्टर वसूली पर ज्यादा ध्यान देता है, कार्रवाई पर कम! मिलावटी दूध खूब बिक रहा है लेकिन नगर निगमों को फिक्र कहां है?
केवल मिलावट की ही बात नहीं है, अब तो नकली माल स्वास्थ्य के लिए ज्यादा बड़े खतरे के रूप में बाजार में मौजूद है। लोग मजाक में कहते भी हैं कि यदि नकली अनाज तैयार करने की कोई विधि होती तो इस देश में वह भी हो जाता।
बहरहाल नकली माल हर कहीं बिक रहा है और यह तय कर पाना कठिन होता है कि जो आप खरीद रहे हैं, वह असली है या नकली! दूरदराज गांव और कस्बों की बात तो छोड़ दीजिए, देश की राजधानी दिल्ली में पिछले सप्ताह ही नकली ‘कोल्ड ड्रिंक’ बनाने का कारखाना पकड़ा गया। जरा कल्पना कीजिए कि जब दिल्ली में यह सब हो सकता है तो दूसरे शहरों का क्या हाल होगा। न जाने कब से यह सब चल रहा था और जितने लोगों ने यह नकली कोल्ड ड्रिंक पिया होगा, उनके स्वास्थ्य पर इसका क्या असर हुआ होगा? ...लेकिन यहां आम आदमी के स्वास्थ्य को लेकर सरकार चिंतित कहां है?
बात केवल खाद्यान, कोल्ड ड्रिंक या मसालों की ही नहीं है, नकली दवाईयों का बड़ा कारोबार इस देश में फैला हुआ है। पिछले साल एक टीवी चैनल ने बड़े पैमाने पर स्टिंग आॅपरेशन किया और देश को बताया कि किस तरह बड़ी कंपनियों के हूबहू नकली रैपर में नकली दवाईयां पैक की जाती हैं। यह सच्चाई भी सामने आई कि एक स्ट्रीप में यदि दस गोलियां हैं तो उसमें से पांच नकली होंगी और पांच असली ताकि रोग पर कुछ असर हो जाए और मिलावट पकड़ में नहीं आए।
यह सारी सच्चाई कैमरे के सामने थी लेकिन कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इक्का-दुक्का लोग पकड़े गए और अधिकारियों ने खूब शाबासी बटोरी लेकिन परिणाम कुछ भी सामने नहीं आया। बाजार में नकली दवाईयां अब भी मौजूद हैं।
और अब कानून की बात करें! मिलावटखोरों पर नकेल कसने के मामले में हमारा कानून अत्यंत ही लचर है। मिलावट को साबित करना टेढ़ी खीर है और साबित भी हो जाए तो महज कुछ महीने या कुछ साल की सजा होती है। कानून इतना कमजोर नहीं होना चाहिए।

Sunday, July 4, 2010

गुरु से गॉड फादर तक

अतीत की खिड़कियों में झांकना हमेशा सुखद नहीं होता। उन खिड़कियों के भीतर बस बीते जमाने के कुछ सुखद पन्ने फड़फड़ाते नजर आते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कैद में फंसी बुलबुल आजादी की फरियाद कर रही हो। पिछले बीस वर्षों में पत्रकारिता की बुलबुल को मैंने कभी चहचहाते तो कभी फुदकते देखा है। ...और वह दिन भी देख रहा हूं जिसके बारे में पता नहीं कब किसी शायर ने लिख मारा था-‘कैद में है बुलबुल, सैय्याद मुस्कुराए’। ...तो क्या सबकुछ बदल गया है? क्या पत्रकारिता के मायने दिग्भ्रमित हो रहे हैं या फिर कहीं किसी नए मुकाम की ओर हमने कदम बढ़ा लिए हैं जहां बुलबुल ने लवबर्ड का रूप धारण कर लिया है और पिंजरे में कैद होकर ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने के लिए अभिशप्त हो गई है? ऐसे बहुत से सवाल पत्रकारों की उस पीढ़ी के सामने खड़े हैं जो मेरी पीढ़ी है। यह सवाल और गंभीर रूप धारण कर रही है और उस पीढ़ी के सामने खड़ी हो गई है जिसे हम पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी कहते हैं।
इतिहास के पन्नों में लौटना शायद इसलिए जरूरी है कि कुछ प्रतिमान, कुछ आदर्श हमारे सामने फिर से आ जाएं और शायद प्रेरणा पत्र पर हम कुछ डग भरने की कोशिश करें।
मैंने चूंकि कभी पत्रकारिता की कोई पढ़ाई नहीं की इसलिए इस विधा में कदम रखने से पहले माखनलाल चतुर्वेदी या महात्मा गांधी की पत्रकारिता की बस उतनी ही जानकारी थी जितनी किसी अनाड़ी के पास होनी चाहिए। लेकिन उस दौर में पत्रकारों की एक ऐसी पीढी मौजूद थी जो नई पीढ़ी का स्वागत करती थी, ठीक वैसे ही जैसे कोई पौधा अपनी कलम खुद लगा रहा हो। पत्रकारिता में कदम रख रही या कदम रखने का इंतजार कर रही मौजूदा पीढ़ी के सामने सबसे यक्ष सवाल यही है कि गॉड फादर के इस दौर में वह गुरु कहां से ढूंढकर लाए जो उसे बता सके कि शब्दों के मायने क्या होते हैं, शब्दों का श्रृंगार क्या होता है और भावनाओं की प्रत्यंचा पर शब्द कैसे तीर की तरह कसे जाते हैं। अब तो केवल इतना बचा है कि कोई गॉड फादर ढूंढो, नौकरी पर जम जाओ, गॉड फादर के इशारे पर कभी इस डाल पर फुदको तो कभी उस डाल पर! ...और मौका मिलते ही मीडिया माफिज्म का हिस्सा बन जाओ। पत्रकारिता की नई कहानी कुछ इसी दिशा में बढ़ रही है।
अपवाद हमेशा से रहे हैं और आज भी हैं। गुरु परंपरा समाप्त नहीं हुई है। कुछ लोग आज भी हैं जो पत्रकारिता के सामाजिक सरोकारों को बाजारवाद के जद्दोजहद में भी जिंदा रखने की पूरजोर कोशिश कर रहे हैं। यदि एक तरफ अखबार के पन्नों पर सुडौल वक्षस्थल और लिंग वर्धक यंत्र से लेकर आनंददायी मसाज ठिकानों के फोन नंबर तक दर्ज हो रहे हैं तब प्रथम प्रवक्ता सामाजिक सरोकारों के स्वर भी बुलंद कर रहा है। अर्थात सबकुछ समाप्त नहीं हुआ है। शेष अभी बचा है। सूरज इतना भी नहीं डूब गया कि कुछ दिखाई ही न पड़े और फिर यह कैसे भूल जाएं कि सवेरा तो फिर होना है!
मेरी पत्रकारिता का बाल्यकाल उस गौरवशाली बिहार में प्रारंभ हुआ जहां पत्रकारिता में हमेशा ही पैनापन रहा है। आर्थिक विपन्नता वाला यह राज्य हमेशा ही बौद्धिकता सें संपन्न रहा है। मैं शौभाग्यशाली हूं जिसने बिहार से पत्रकारिता शुरु की। गुरु के रूप में हमने अपनाया रमेश पोद्दार को। वे एक साथ कई अखबारों के लिए काम करते थे। जनसत्ता के संवाददाता थे और उस समय के प्रभावशाली अंग्रेजी साप्ताहिक करंट के बिहार ब्यूरोचीफ भी। भाषा पर गजब का एकाधिकार! नए पत्रकारों के लिए जैसे बड़े भाई की भूमिका में। प्रशिक्षण ऐसा जैसे पत्रकारिता का मानव बम तैयार कर रहे हों! इस दौर में मुझे कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा है जिसके बारे में मैं कह सकूं कि इस व्यक्ति की तुलना रमेश पोद्दार से की जा सकती है। हम जैसे जेबफटे को खाना खिलाना और लिखना सिखाना उनके लिए एक जैसा सद्कर्म था। शहर के सबसे बड़े माफिया के खिलाफ आग उगलना उनकी दुबली पतली काया से कभी मेल नहीं खाया लेकिन वे एक बहादुर पत्रकार के रूप में हमारे जेहन में जगह बना चुके थे। आज कोई ऐसा नहीं जिसे मैं वह जगह दे सकूं। बीस वर्षों में पत्रकारिता में सबसे बड़ा परिवर्तन तो यही आया है कि रमेश पोद्दार जैसे लोग विलुप्ती के कगार पर पहुंच गए हैं।
उनसे जुड़ी एक जबर्दस्त कहानी सुनिए। बात 1986 की है। केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार थी और अयोद्धया के विवादास्पद धर्मस्थल के ताले खुल गए थे। उस समय अंग्रेजी में एक साप्ताहिक हुआ करता था करंट। उसके मालिक थे अय्युब सैयद। उत्तरप्रदेश में करंट के संवाददाता भी मुस्लिम थे। अय्यूब सैयद ने रमेश पोद्दार को फोन किया और अयोद्धया पहुंचकर स्टोरी फाइल करने को कहा। पोद्दारजी के घर में किसी का निधन हुआ था लेकिन उन्होंने अय्युब सैयद को कुछ नहीं बताया और मुझे अयोद्धया भेज दिया। खबरें लिखना शुरु किए हुए मुझे 6 महीने भी नहीं हुए थे। मैं अयोद्धया गया, संबंधित वकील से मिला और पूरे कागजात लाकर पोद्दारजी को दे दिए। करंट के अगले अंक में बड़ी सी स्टोरी थी ‘ हू विल विन : ईश्वर और अल्ला’? नए साथी पर उनका भरोसा देखकर मैं दंग था! और दंग था मैं अय्युब सैयद की धर्मनिरपेक्षता पर कि उन्होंने विवाद से बचने के लिए एक हिंदू धर्मावलंबी को रिपोर्ट करने के लिए कहा! आज के दौर में ऐसी पत्रकारिता कहां दिखाई देती है? ...और रमेश पोद्दार ने भी बेलाग लिखा!
पत्रकारिता के इन्हीं प्रारंभिक दिनों में मेरे पास एक ऐसी खबर आई जो तहलका मचा सकती थी। वह कहानी थी एक बस कंडक्टर के परिवहन माफिया बन जाने से लेकर विधायक का चुनाव जीत जाने तक की। पोद्दारजी चाहते तो वह खबर खुद लिख सकते थे लेकिन उन्होंने न केवल लिखने में मेरी मदद की बल्कि इन्वेस्टिगेशन में भी पूरा साथ दिया। खबर छपी तो जैसे आग लग गई। पोद्दारजी ने धीरे से सलाह दी कि कुछ दिनों के लिए यह शहर छोड़ दो क्योंकि तुम्हारी हत्या हो सकती है। खुफिया जानकारियां उन तक चलकर आती थीं। इसके बाद उन्होंने प्रशासन पर ऐसा दबाव बनाया कि वह नेता चाहकर भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाया। पोद्दारजी की यह ताकत दरअसल उनकी इमानदारी से उपजी थी।
सही मायनों में कहूं तो पोद्दारजी विपन्नता की स्थिति में थे लेकिन उनहेंने कभी किसी नेता और अधिकारी के सामने हाथ नहीं फैलाया और न किसी को ब्लैकमेल किया। ...और न कभी ट्रांसफर पोस्टिंग के चक्कर में पड़े। खबरों में जीना उनकी फितरत रही और आज भी वो खबरों में ही जीते हैं। उन्होंने गुरु की भूमिका चुनी इसलिए पिछड़ गए। किसी गॉड फादर का हाथ थाम लिया होता तो आज खुद गॉड फादर हो गए होते। ...लेकिन तब मैं इस आलेख में उनका नाम शामिल नहीं करता। आदर हमेशा गुरु के प्रति होता है, किसी गॉड फादर के प्रति नहीं।
पटना के प्रखर पत्रकार सुरेंद्र किशोर मेरे गुरु शायद कभी नहीं रहे क्योंकि भौतिक निकटता ज्यादा नहीं रही, लेकिन मैं उनका स्वयंभू शिष्य हमेशा ही बना रहा। शायद आज भी हूं। एक ऐसा पत्रकार जो जूनियर के लिए सदैव हाजिर। अच्छा लिखो तो तत्काल तारीफ के शब्द और कुछ समझाईश भी। दबंगता इतनी कि कुख्यात माफिया के खिलाफ लिखने से कभी नहीं चूके। सामाज और राजनीति में इतनी प्रतिष्ठा कि लोग चेहरे से भले ही नहीं जानते हों, नाम से वाकिफ होते थे। सुरेंद्र किशोर ने मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र नईदुनिया के लिए चूंकि काफी अरसे तक लिखा इसलिए राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के चहेते हो गए। राजेंद्र माथुर उन्हें नवभारत टाइम्स से जोड़ना चाहते थे और प्रभाषजी जनसत्ता से। सुरेंद्रजी को जनसत्ता का तेवर भाया और लंबे अरसे तक उसी से जुड़े रहे। अब एक अखबार के पॉलिटीकल एडिटर हैं।
सुरेंद्रजी को कोई 18 साल पहले एक राष्टÑीय समाचार पत्र ने संपादक बनने का अवसर दिया था लेकिन उन्होंने विनम्रता से इनकार कर दिया था। आज ऐसे पत्रकार कहां हैं जो कुर्सी से नहीं खबरों से प्रेम करते हों! पटना में जनशक्ति अखबार के रिपोर्टर के रूप में जब मैंने सरकारी आफ्टर केयर होम की लड़कियों से वेश्यावृति कराए जाने की खबर छापी तब बड़ा तूफान मचा था और मेरी जान पर बन आई थी। उस दौर में सुरेंद्रजी मेरे लिए मानसिक संबल थे। किसी जूनियर के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि इतना कद्दावर पत्रकार उसके समर्थन में आगे आ जाए! पटना के सभी पत्रकार उन्हें सम्मान देते थे लेकिन सुरेंद्रजी कभी भी गॉड फादर नहीं बने। वे हमेशा गुरु की भूमिका में ही रहे। आज भी उनकी भूमिका बदली नहीं है। पटना के ही एक और पत्रकार अंजनी कुमार विशाल को मैं याद जरूर करना चाहूंगा क्योंकि खबरों की कैचिंग हेडिंग का गुर मैंने उन्हीं से सीखा।
अरे हां, मैं उपेंद्रनाथ मिश्र और अली अनवर को कैसे भूल सकता हूं। उपेंद्रजी जनशक्ति अखबार में हमारे संपादक थे और अली अनवर मुख्य संवाददाता। एक दिन मैं किसी कॉलगर्ल का इंटरव्यू टेप करके लाया। कॉलगर्ल का कहना था कि सरकारी आफ्टर केयर होम की लड़कियां दबंग और पैसे वाले लोगों के बिस्तरों की शोभा बढ़ाती हैं। मैंने खबर अनवर भाई को बताई और उन्होंने उपेंद्रजी को। मिनट भर में संदेश आ गया कि खबर छापो! मैं मानकर चल रहा था कि खबर नहीं छपेगी। उपेंद्रजी ने इतना जरूर कहा कि खबर तो आज छाप दो लेकिन इसे और इन्वेस्टीगेट करो। मैंने काफी कुछ इन्वेस्टीगेशन कर लिया था और प्रमाण भी थे मेरे पास। खबर छपी और जैसा कि अंदेशा था, खबर का खंडन भी आ गया। उपेंद्रजी ने सवाल किया-कैसे जस्टीफाई करोगे अपनी खबर को? मैंने बड़े ताव में कहा कि चार लाइनों के इस खंडन का जवाब मैं पूरे पेज में दे सकता हूं। वे उछल पड़े। उन्होंने कहा-छाप दो! पूरा एक पेज छापो!
अगले दिन के अखबार में आठ पंक्तियों का खंडन और पूरे पेज पर दस्तावेजों के साथ उस खंडन का जवाब छपा। उसके बाद मेरी पत्रकारिता के करीब 23 और साल गुजर गए हैं लेकिन मैंने किसी अखबार में खंडन के खिलाफ पूरा एक पेज छपते नहीं देखा। संपादक की दबंगता का मेरा यह पहला अनुभव था क्योंकि इसके पहले मेरा साबका जिस संपादक से पड़ा था उन्होंने मुझे पाटलीपुत्र टाइम्स की नौकरी से केवल इसलिए निकाल दिया था क्योंकि मेरी नियुक्ति उनकी अनुपस्थिति में न्यूज एडिटर ने कर दी थी। उसके बाद मैंने कई आदरणीय और कई अजीब संपादकों के साथ काम किया लेकिन उपेंद्रजी जैसा कोई नहीं मिला। ...और न कोई अली अनवर जैसा!
मैं उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र चौथी दुनिया के लिए भी लिखा करता था। तब भी चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ही थे। उत्तर भारत की रिपोर्टिंग का संपादन अरविंद कुमार सिंह के पास था। उन्हें जब पता चला कि आफ्टर केयर होम वाली खबर से खफा बिहार सरकार मुझे परेशान करने की कोशिश कर रही है तो उन्होंने आगे आकर आधे पेज की एक स्टोरी छापी और बताया कि एक पत्रकार को सच्चाई का क्या खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। खैर, माहौल ऐसा बन गया कि सरकार झुकी और दबंग भी झुके। मेरी जान बची! इस प्रसंग का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूं ताकि पत्रकारिता के नए साथियों को यह जानकारी मिल सके कि उस दौर में नवागत पत्रकारों के कुछ सुरक्षा कवच हुआ करते थे। अब तो हालत यह है कि इंदौर के एक पत्रकार रोहित तिवारी ने खबर लिख दी कि देश की एक बड़ी कंपनी की सिटी बस र्इंजन पीछे होने के कारण खतरनाक साबित हो सकती है तो कंपनी नाराज हो गई और विज्ञापन से इनकार कर दिया। अखबार ने रोहित को निकाल बाहर किया। विज्ञापन फिर से छपने लगा है! नौकरी बचानी है तो हर खबर छापने के पहले यह सुनिश्चित करना जरूरी हो जाता है कि इससे कोई विज्ञापनदाता नाराज तो नहीं हो जाएगा? वक्त के साथ बदला यह स्वरूप पत्रकारिता के लिए घातक साबित हो रहा है।
पटना से वाया दिल्ली होते हुए मैं आ पहुंचा मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल। यहां मिले मदन मोहन जोशी और आनन फानन में नईदुनिया में नौकरी भी मिल गई क्योंकि नईदुनिया में मेरे कई आलेख पहले छप चुके थे और मेरे नाम से जोशीजी वाकिफ थे। पूरे तीन साल उनके साथ रहा। दफ्तर पर अजीब सा उनका खौफ आज भी अच्छी तरह याद है। बहुत से साथी तो दफ्तर के मुहाने तक पहुंचते-पहुंचते पसीने से लथपथ हो जाते। छिपकर घुसते दफ्तर में कि कहीं जोशीजी की नजर न पड़ जाए! आज सोचता हूं तो हंसी आती है कि जोशीजी से क्यों डरते थे हम लोग? उन्होंने तो कभी किसी को नौकरी से भी नहीं निकाला! खैर, मैं उन लोगों में से था जो तमाम भय के बावजूद उनकी कुर्सी तक पहुंचने की चाहत रखता था। बड़ी नाजनीन भाषा है उनके पास। अनुप्रास में भींगे शब्द इतनी सहजता से प्रावाहित होते हैं उनके लेखन में कि बार-बार पढ़ने को दिल चाहे। मैंने भाषा का श्रृंगार उन्हीं से अंगीकार किया। शब्दों की समालोचना को उनसे समझा। भाषा की जो थोड़ी बहुत समझ मेरे भीतर आई उसकी गंगोत्री कहीं जोशीजी के पास ही बसती है। एक बार दक्षिण भारत की एक खबर आई कि विधायक सायकिल से विधानसभा जाता है...जोशीजी ने तत्काल हेडिंग बताया-सत्ता का सुदामा! ऐसा रहा है उनका शब्द संसार।
अपनी लाजवंती मुस्कुराहट के बावजूद जोशीजी का सामान्य व्यवहार इतना रूखा होता था कि लोग उन्हें कठोर समझ लिया करते थे। दरअसल वह कठोरता हमारे जैसे पत्रकार/रचनाकार के सृजन की आधारशिला थी। इस कठोरता के पीछे छिपा था तत्काल पसीजने वाला उनका दिल! गलतियों पर बरस पड़ना और बेहतर करने पर तारीफ करने में वे कभी नहीं चूकते थे। बात 1989 की है। एक सुबह मैं अचानक गंभीर रूप से बीमार पड़ा। इतना गंभीर कि जान खतरे में थी। घर से इतनी दूर और इतना पैसा भी नहीं कि उपचार करा सकें। नईदुनिया ने प्रारंभिक सहायता दी। थोड़ा स्वस्थ हुआ लेकिन उपचार लंबा चलने वाला था। मैं बिहार लौट जाने की सोच ही रहा था कि एक दिन जोशीजी का संदेश मिला-अमुक अधिकारी के पास जनसंपर्क संचालनालय चले जाओ। वहां पहुंचा तो बड़ी सहायता राशि मेरे सामने थी। पता चला कि जोशीजी ने सरकार से स्वीकृत कराई है। जरा सोचिए, आज कितने संपादक ऐसे हैं जो अपनी नैसर्गिक कठोरता के बावजूद इतने सहज सहयोगी भी हैं? मैं कई महीनों तक दफ्तर नहीं गया लेकिन मुझे तनख्वाह मिलती रही। तत्काल टीएल (टर्मिनेशन लेटर) के इस खौफनाक युग में क्या कोई उस दौर की कल्पना कर सकता है? दरअसल वह नईदुनिया की परिवार संस्कृति थी और जोशीजी का गुरुभाव था कि अपना बंदा यदि संकट में है तो उसकी सहायता की जाए।
...और जोशीजी की दबंगता की बात ही निराली थी। पत्रकारिता के क्षेत्र में जो भी थोड़ी बहुत दबंगता मेरे भीतर आई है, उसका पूरा श्रेय मैं जोशीजी को देना चाहूंगा। अधिकारियों और राजनेतओं से बातचीत करते वक्त वे अपनी सामान्य स्टाइल कभी नहीं छोड़ते थे, ऐसा लगता था जैसे वे दफ्तर के साथियों से बातचीत कर रहे हों। तेल लगाने की संस्कृति के वे पक्षधर कभी नहीं रहे। आज ऐसे दबंग पत्रकार सहज रूप से नजर नहीं आते हैं। 1990 की एक घटना मुझे याद है। भोपाल में नईदुनिया के एक प्रशिक्षु पत्रकार को पुलिस ने बगैर किसी वाजिब कारण के थाने में बंद कर दिया था। कारण कुछ ऐसा था कि जोशीजी ने आधी रात को मुझे आदेश दिया कि मैं एसपी से बात करूं। मैं जूनियर था, पहचान नहीं थी, एसपी ने मेरी बात नहीं सुनी। इसे जोशीजी ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और डीजीपी तक को जगा दिया। स्थिति यह पैदा हुई कि सुबह 4 बजे दोषी थानेदार को लेकर वरिष्ठ अधिकारियों का अमला जोशीजी के घर पहुंचा और माफी मांगी। ऐसा था जोशीजी का दबदबा और अपने साथियों के प्रति स्नेहभाव! सच्चे अर्थों में गुरु।
इन वरिष्ठ पत्रकारों के साथ गुजारे अनुभवों को मैंने इस आलेख में जगह इसलिए दी है ताकि नई पीढ़ी को बता सकूं कि गुरुओं का जो सानिध्य मेरे जैसे पत्रकारों को मिला है, मौजूदा पीढ़ी के लिए उस स्नेह के अवसर कम होते जा रहे हैं। अब गॉड फादर का जमाना है। लेकिन मुद्दे की बात यह है कि नई पीढ़ी यदि यह ठान ले कि उसे तो गॉड फादर नहीं, गुरु चाहिए तो शायद परिस्थितियां कुछ बदल सकें। पत्रकारिता में गुरु की भूमिक निभाने वाले कुछ लोग तो आज भी हैं। मैंने देवप्रिय अवस्थी के साथ कभी काम नहीं किया है लेकिन जिन लोगों ने काम किया है, वे बताते हैं कि वे पूरी तरह गुरु की भूमिका में हैं। इन दिनों में वे अमर उजाला में हैं। अमर उजाला चंडीगढ़ के संपादक उदयकुमार के बारे में मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वे नए पत्रकारों के लिए गुरु और अपने समकालीन पत्रकारों के लिए बेहतरीन मित्र की भूमिका में हमेशा रहते हैं। यह दावा मैं इसलिए कर सकता हूं क्योंकि मैंने उनके साथ काम किया है। दैनिक भास्कर के कल्पेश याग्निक भी उन पत्रकारों में शुमार हैं जो नई पीढ़ी के लिए न केवल मार्गदर्शक की भूमिका में रहे हैं बल्कि आदर्श भी कहे जा सकते हैं। श्रवण गर्ग को उनके गुस्से के लिए आप कोस सकते हैं लेकिन इसमें कहीं कोई दो राय नहीं कि युवा पीढ़ी पर भरोसा करने और दायित्व सौंपने में उनका कोई सानी नहीं है। वे वाकई गुरु की भूमिका में रहे हैं। प्रभातखबर के संपादक हरवंशजी के साथ मैंने काम नहीं किया है लेकिन उनके बारे में भी सबकी राय यही है कि वे बेहतरीन गुरु हैं।
जिन वरिष्ठ पत्रकारों की मैंने चर्चा की है, उन सबमें यह क्षमता भी थी कि वे चाहते तो गॉड फादर हो जाते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे गुरु की भूमिका में रहे और वह प्रतिष्ठा अर्जित की जो उनके उन समकालीन पत्रकारों के नसीब में नहीं हैं जिन्होंने गॉड फादर की अंगुली थामी या खुद गॉड फादर बनना पसंद किया। उम्मीद यही करें कि गुरु विलुप्त न हों। विलुप्त होना ही है तो गॉड फादर विलुप्त हो जाएं, इससे पत्रकारिता का कुछ भला ही होगा। गुरु और गॉड फादर में बुनियादी अंतर यह है कि गॉड फादर दरबार सजाने और महलों में निवास करने का अभिलाषी होता है जबकि गुरु को शिष्य की उन्नति उल्लासित कर देती है।
पिछले बीस वर्षों के दौरान पत्रकारिता में बदलाव को रेखांकित करते हुए मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि पहले खबरों के स्वरूप को लेकर चर्चा होती थी और इस बात पर विचार किया जाता था कि यह खबर छपी तो इसके परिणाम क्या हो सकते हैं। एक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। केंद्र में भाजपा की सरकार थी और करगिल में अघोषित युद्ध प्रारंभ हो चुका था। दिल्ली से एक नेताजी पधारे और कुछ ऐसी राय व्यक्त कर गए जो देशहित में नहीं था। इंदौर के हम पत्रकारों ने तय किया कि यह खबर नहीं छापनी है। किसी ने भी खबर नहीं छापी। यहां तक कि समाचार एजेंसी और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी कोई खबर ब्रेक नहीं की। आज शायद ऐसा संभव नहीं हो क्योंकि खबर ब्रेक करने की ऐसी होड़ लगी है कि देशहित हासिए पर चला गया है। मुंबई में हमले के दौरान जबी मीडिया ने कमांडो आॅपरेशन की पहले ही घोषणा कर दी और कमांडो आॅपरेशन के दौरान लाइव कवरेज शुरु किया तो मेरा दिल दहल गया था। मैं सोच रहा था कि ऐसी मुर्खता कैसे की जा सकती है? मुझ जैसे एक सामान्य पत्रकार को यह बात समझ में आ रही थी कि इस लाइव कवरेज का फायदा आतंकवादियों को मिल रहा होगा, वे देख रहे होंगे या उनके आका टीवी देखकर उन्हें सट्रेटेजी बता रहे होंगे। समझ तो उन्हें भी आ रही होगी जो न्यूज रूम में निर्देशक बने बैठे होंगे लेकिन खबर में आगे होने के चक्कर में देश को पीछे कर दिया।
खबरों और आलेख के विषयों को लेकर पहले आपस में चर्चाएं होती थीं। मुझे याद है कि किसी विषय पर मुझे लिखना हो या फिर विजय मनोहर तिवारी को, हम दोनों आपस में चर्चा करते, लिखकर एक-दूसरे को दिखाते और तब वह आलेख प्रकाशन के लिए फीचर एडिटर को भेंट किया जाता। तब हम दोनों नईदुनिया में हुआ करते थे। विषय की इस चर्चा में कई बार अभय छजलानी भी शामिल होते और कई बार प्रवीण शर्मा भी जिन्हें हम बड़े प्यार से तब भी चीफ कहा करते थे और आज भी कहते हैं। कहने का मतलब यह है कि एक साथ काम करते हुए भी कहीं कोई ऐसी भावना नहीं कि दूसरे को पछाड़ दें। एक-दूसरे के लिए बौद्धिक सहारा बनने की ऐसी प्रवृति का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है। इससे पत्रकारिता को नुकसान पहुंच रहा है। मुझे लगता है कि नई पीढ़ी में ऐसा बीजारोपण प्रशिक्षण के दौरान ही होना चाहिए जो सहायता और सम्मान का वट वृक्ष बन सके।
बीते वर्षों में हिंदी पत्रकारिता का सबसे बड़ा नुकसान भाषा के प्रति पत्रकारों के ही दुराग्रह ने किया है। मुझे याद है कि नईदुनिया के किसी पन्ने पर यदि एक भी भाषाई त्रुटि चली जाती थी तो अगले दिन तूफान मच जाता था। पूरी खोजबीन होती थी कि यह गलती हुई कैसे? गलती होने की संभवाना अत्यंत कम ही रहती थी क्योंकि भाषा के स्तर पर सब इतने सक्षम तो थे ही कि कम से कम मात्राओं की गलतियां न करें। वरिष्ठ रचनाकार सरोजकुमार हमें हर सप्ताह भाषा पर एक व्याख्यान देते थे। प्रूफरीडरों की पूरी फौज खबर छपने से पहले ही हमें बताने में जुटी रहती थी कि यहां गलती हो गई।
केवल पिछले पांच वर्षों के दौरान मैंने कम से कम 100 नवोदित पत्रकारों के साथ काम किया है और यह लिखते हुए पीड़ा हो रही है कि 80 से ज्यादा पत्रकारों को मैंने मात्राओं की गलतियां करते देखा है...भाषा पर पकड़ और वाक्यों का अभिविन्यास तो बहुत दूर की बात है। यह भाषाई कंगाली की स्थिति है जिससे हिंदी पत्रकारिता को जूझना पड़ रहा है। न केवल अखबार बल्कि टीवी पर भी भाषा के साथ व्यभिचार हो रहा है। हिंदी पत्रकारिता के साथ छलात्कार हो रहा है। भाषाई छलात्कार को रोकने का एक ही तरीका है कि नए पत्रकारों को भाषा के प्रति सजग किया जाए और उन्हें यह बताया जाए कि सरल भाषा का मतलब यह कतई नहीं है कि वे बेवजह अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करें।
बीस सालों में पत्रकारिता में एक बड़ा परिवर्तन यह भी आया है कि अधकचरे जानकारों की संख्या तेजी से बढ़ी और विशेषज्ञों की संख्या कम होती चली गई है। विश्लेषण की क्षमता तो आश्चर्यजनक ढंग से घटी है। पहले डेस्क इंचार्ज वह व्यक्ति हुआ करता था जिसके ज्ञानवान होने की सर्वसम्मत राय हो लेकिन अब हाल किसी से छिपा नहीं है। ज्यादातर डेस्क इंचार्ज विषयों को लेकर माथा नहीं खपाते और इसका नतीजा यह है कि अखबार के पन्नों पर, यहां तक कि संपादकीय पेजों पर भी, कुछ भी तो छपा दिख जाता है। आश्चर्य होता है कि पत्रकारिता के मू्लयों में इस गिरावट को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है। जिसकी जो इच्छा हुई लिख मारा और फीचर एडिटर की जैसी इच्छा हुई छाप दिया। पाठक के लिए क्या जरूरी है या हमारा पाठक क्या पढ़ना चाहता है, इससे कोई सरोकार नहीं। समाज को किस दिशा में ले जाने की कोशिश करनी है, इससे कोई मतलब नहीं। पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टीवी के रुपहले पर्दे तक मिर्च-मसाले का भंडार पड़ा है। चाट बनाईए और चटखारे लीजिए।
खासकर हिंदी अखबारो में कंटेंट की कंगाली का ही नतीजा है कि अखबार बेचने के लिए गिफ्ट का सहारा लेना पड़ रहा है। देश के बहुत से अखबार अपने ग्राहकों को हर महीने चाय पत्ती से लेकर चीनी तक भेंट कर रहे हैं। माफ कीजिएगा, मैंने ग्राहकों शब्द का इस्तेमाल किया है। कारण यह है कि कोई भी अखबार अब केवल लिखने के लिए पाठक शब्द का इस्तेमाल करता है। उसके लिए वास्तव में पाठक कोई नही है, सब ग्राहक हैैं और ग्राहक को लुभाने की कला बाजार को खूब आती है। आज से पंद्रह साल पहले कोई अखबार किसी तरह का गिफ्ट नहीं दिया करता था। तुलनात्मक रूप से अखबारों की कीमत भी ज्यादा हुआ करती थी फिर भी लोग खरीदकर पढ़ते थे। तब एक पत्रिका का स्लोगन हुआ करता था-‘मांग कर नहीं, खरीद कर पढिए’। अब वह जज्बा नहीं है। वास्तव में अखबार फ्री में बंट रहे हैं। एक अखबार की लागत करीब 7 से 8 रुपए होती है लेकिन वह बिकता है एक या दो रुपए में। अखबार की उस कीमत का भी करीब 70 से 90 प्रतिशत हॉकरों को कमीशन देने में चला जाता है। अखबार इतनी कम कीमत में इसलिए बिकता है क्योंकि उसे बाजार से विज्ञापन के रूप में सहायता मिलती है। जो सहायता देता है, वह अंकुश भी रखता है। जाहिर हैअखबार पर बाजार का अंकुश है। इस अंकुश से निकलना शायद अब मुमकिन नहीं! अखबार अब समाज के मार्गदर्शक की भूमिका में है कहां?
बदलते दौर में एक बड़ा खतरा मुझे नजर आ रहा है। जिस तरह कानून अपने पास होने का बेजा सहारा लेकर इस देश की पुलिस बेलगाम हो गई, अमानवीय हो गई, भ्रष्टाचार में डूब गई और थानों की हालत ऐसी हो गई कि भले लोग वहां पहुंचने से डरने लगे, ठीक वही हालत हमारी मीडिया की न हो जाए? आज के दौर में मीडिया बड़ी शक्ति के रूप में मौजूद है क्योंकि उसके पास हल्ला मचाने की ताकत है। इसी शक्ति से आकर्षित होकर वह तबका अखबार मालिकों की जमात में लगातार शामिल हो रहा है जो पहले अखबारों से डरा करता था। ...डर लगता है कहीं हम मीडिया माफिज्म की दिशा में तो नहीं बढ़ रहे हैं? माफ कीजिएगा, माफिज्म बुरा शब्द है लेकिन जब मन आशंकित होता है तो ऐसे शब्द स्वत: ही सामने आ जाते हैं। मीडिया जब किसी मामले का ट्रायल करने लगता है तब उसका खौफनाक चेहरा दिखाई देता है। ...और फिलहाल ऐसा कोई फेयर एंड लवली क्रीम नहीं है जो इस चेहरे को मृदुल बना सके।
लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि पत्रकारिता की मौत हो गई है। बहुत से पत्रकार और संपादक अभी मौजूद हैं जो बाजारवाद के इस दौर में भी पाठकों का खयाल रखते हैं। अखबार के पन्नों पर पत्रकारिता की भेलपूरी बन रही है तो कहीं कोने में सात्विकता बनाए रखने की हर संभव कोशिश करते हैं। मुझे लगता है कि पत्रकारों की नई पीढ़ी सकारात्मक परिवर्तन का वाहक बन सकती है लेकिन उसके लिए जरूरी यह है कि पढ़ाई के प्रति आग्रह को बनाए रखे। अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी रखे। इसमें कठिनाई जरूर है लेकिन विजय पाना है तो संघर्ष करना होगा।
मैं जब पत्रकारिता में आया था तब देश भर में इक्कादुक्का पत्रकारिता महाविद्यालय ही हुआ करते थे। अब हजारों की संख्या मे हैं। इन संस्थानों को आत्मावलोकन करना चाहिए कि जो कुछ भी वे पढ़ा रहे हैं, क्या वह मौजूदा दौर की पत्रकारिता में शामिल है? केवल सिद्धांतों की बतोलेबाजी अलग चीज है और हकीकत से रुबरू होना बिल्कुल अलग बात! फिर भी नई पीढ़ी में वह जज्बा है जो संघर्ष का न्यौता स्वीकार करती है। हमें नई पीढ़ी के ऐसे युवाओं पर भरोसा करना चाहिए!