Tuesday, October 7, 2014

फारुख शेख का संभवत: अंतिम साक्षात्कार


दावे से तो नहीं कह सकता लेकिन मेरा खयाल है कि प्रख्यात फिल्म अभिनेता फारूख शेख ने अपना अंतिम इंटरव्यू मुङो दिया. इंटरव्यू के करीब डेढ़ महीने बाद ही वे हमसे बिछड़ गए. इस दौरान मैंने उनका कोई दूसरा इंटरव्यू कहीं पढ़ा भी नहीं. उन्होंने चलते-चलते मुझसे कहा था कि बात अधूरी रह गई है. इस विषय पर फिर से बातचीत करेंगे. दरअसल मैंने उनसे कविता को लेकर बातचीत की थी. दुर्भाग्य देखिए कि फिर कभी मुलाकात नहीं हो सकी. मैंने उन्हें अदम गोंडवी की कुछ कविताएं भेजी थीं और बिछुड़ने से तीन दिन पहले उनका एसएमएस आया था कि मिल गई हैं. पढ़ लिया है. मुलाकात होने पर चर्चा होगी. चर्चा न हो सकी. उनका साक्षात्कार शेयर कर रहा हूं- विकास




सबसे पहले मेरा खयाल है, हमारे मुल्क में खासकर कविता से आपका नाता फिल्मी गीतों के माध्यम से जुड़ता है. जिस जमाने में हम लोग स्कूल से भी पहले घर में रेडियो बजता था तो आप गीत सुन ही लेते थे. आपको याद होगा, एक बड़ा पॉपुलर कार्यक्रम होता था बिनाका गीतमाला. वो तो एक विकली हाईलाइट की तरह होता था. उसमें आप गाने सुनते थे. इत्तेफाक से उस जमाने के गानों में भी अच्छा खासा हिस्सा कविता का होता था, शायरी का होता था. अब तो ढूंढना पड़ता है कि इसमें लफ्ज कौन से हैं और हैं तो क्या हैं? मेरा खयाल है कि जुबान का इस्तेमाल जो है वो आम आदमी की जिंदगी में भी कम हो गया है. अब एसएमएस की जुबान हो गई है. जब हम एसएमएस दूसरे को भेजते हैं तो यह नहीं देखते कि इसका उच्चरण ठीक है या नहीं. तलफ्फुज को तो खैर ताक पर रख दीजिए! स्पेलिंग भी ठीक से नहीं लिखते, संक्षिप्त रूप में भेज दिया. गरज यह है कि बात आपकी समझ में आ गई ना! फिजुल की बहस में पड़ने की क्या जरूरत है लेकिन बात तो तब भी समझ में आ जाएगी जब हम केवल चीखें चिल्लाएं, सिर घुमाएं, मुस्कुराएं. लेकिन जुबान एक ऐसी चीज है जिसे मानव जाति ने हजारों सालों में विकसित होते-होते प्राप्त किया है. हजारों सालों में जाकर एक ऐसी मयार पर पहुंची जिसे हम अच्छी जुबान कहते हैं. मेरा खयाल है कि मुल्तान में एक कहावत है कि सास बाजी राग पाया, जैसे ही आप मुंह खोलते हैं, पता चल जाता है कि आप हैं कितने पानी में. अच्छे कपड़े मैं भी पहन लेता हूं, अच्छे कपड़े आप भी पहन लेते हैं. आप जब बात करेंगे तो पता चलेगा कि पढ़ा लिखा इनसान बोल रहा है, शाइस्ता इनसान बोल रहा है जिसकी जानकारी का एक दिमाग में डाटा बैंक है. मैं कुछ बोलूं तो बोलते ही पता चल जाएगा कि है कितनी औकात इसकी. तो जबान एक अच्छी चीज थी, बहुत काम की चीज थी. और एक रिफाइंड मैन का सबूत थी. मानव जाति में जो रिफाइनमेंट आई है, उसका सबसे बड़ा सबूत जुबान और भाषा है, हम तो यह करते हैं कि पच्चीस रुपए की एक चप्पल खरीदें तो उसे दस जगह से घुमाकर देखते हैं. हालांकि उसे रहना मिट्टी में है लेकिन उसे घुमाकर देखते हैं कि यार ये ठीक है या वो ठीक है. उसका सोल के नीचे की भी डिजाइन देखते हैं. तो चप्पल की भी अहमियत जुबान से ज्यादा है. हर चीज हमें सजावट के साथ चाहिए, उसका नक्शो निगार उसके अच्छे होने चाहिए, उसकी उपयोगिता कितनी है वो अपनी जगह है. वो इस्तेमाल में क्या आ रहा है या कितने दिन तक आएगी यह बात अलग है. मैं अगर पच्चीस हजार रुपए की चप्पल पहनता हूं तो मैं आपको यह उठाकर तो दिखाउंगा नहीं सिवाय इसके कि मेरा दिमाग खराब हो गया हो! लेकिन उसमें भी मुङो यह चाहिए कि चप्पल तो अच्छी होनी चाहिए. फलां कंपनी की होनी चाहिए ताकि मेरी शान में कोई खलल न हो. आगे लेकर मैं हालांकि चलूंगा मैं कीचड़ में. आजकल सड़क कम और कीचड़ ही ज्यादा नजर आता है या फिर गाड़ियां नजर आती हैं. लेकिन उसमें भी चाहिए नक्शो निगार लेकिन जुबान में इसकी जरूरत ही नहीं है. जो दौलत और हैसियत हमने इनसानी हजारों सालों में जमा की है, उसे यदि दो-चार दशक में गंवां दें तो ये बहुत बड़ी हिमाकत होगी. लेकिन इसकी तरफ लोग ध्यान नहीं देते हैं. हालांकि मुंबई से ज्यादा
मुशायरे और कवि सम्मेलन होते हैं तो सुबह हो जाती है. लोग उठते नहीं हैं. पूरी रात चलती है, लोग ठिठुरते रहते हैं लेकिन बैठे रहते हैं तो जुबान का अना एक जादू है लेकिन अब तो मैं जोर से चिल्ला दूं तो भी भाषा हो गई, चीख दूं तो भी भाषा हो गई, सिर्फ मुंह बना दूं या जोर से हंस दूं तो भी भाषा हो गई. अल्फाज की अहमीयत ही खत्म होती जा रही है.

रंगमंच है दृष्य काव्य
रंग मंच में तो सबकुछ वोकल ही है. उसे दृष्य काव्य ही कहा जाएगा.  जहां तक पहले की फिल्मों में लावण्य का सवाल है जीवन की कविता का सवाल है तो मैं एक बिल्कुल सादा सा उदाहरण आपको देता हूं समाज के हर तबके का मैकडोनलाइजेशन हो रहा है. जब आप मैकडोनलाइजेशन की बात करते हैं तो आप दुनिया के किसी भी हिस्से में चले जाएं बर्गर एक ही जैसा मिलेगा. तो आप जाइए पैसा पटकिए, वह भी बर्गर पटकर दे देगा. और आप उसे चलते-चलते दौड़ते-दौड़ते खा लेंगे. अब  ये तो हो सकता है कि  ये जल्दी मिल गया, काम तो हो गया न! पेट भरने वाली बात है वह भी दौड़ते-दौड़ते
शायरी और फिल्मों का संबंध था पहले. उस दौर को मिस करते हैं. हर आदमी मिस करता है लेकिन रियलाइज नहीं करता है. जैसे रफी साहब गाएं या लताजी गाएं तो ऐसा लगता है कि कान में शहद कोई घोल रहा है. मैं गाऊं तो ऐसा लगेगा कि इसका गला दबा दूं. तो जिस तरह भोंदी आवाज, भोंदा सुर कान को चुभता है उसी तरह गलत उच्चरण कान को चुभता है. और आपको फौरन इसका एहसास हो न हो लेकिन जब ढ़ाई घंटे की पूरी फिल्म आ देख चुके होते हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन कछ एक्टर और एक्ट्रेस ऐसी होती हैं कि जिनकी आवाज ही आपको अच्छी नहीं लगती. आपको लगता है कि यह चुप हो जाए तो अच्छा है. नाक में से बोल रहे हैं, चीख कर बोल रहे हैं. या सिवाय चिल्लाएं, बात ही नहीं करते तब लगता है कि यार ये न बोले तो अच्छा है. ये इसलिए है क्योंकि अच्छी जुबान आपको अच्छी लगती है, भली लगती है. आपको लगता है कि ये बोले तो सुनूं. मुङो अब भी याद है कि रेडियो पर देवकीनंदन पांडे जी समाचार पढ़ते थे तो क्या उनके पढने का अंदाज था, क्या अल्फाज थे, पेश करने का क्या तरीका था! मतलब खबर तो आप तक पहुंचती ही थी, आपको ऐसा लगता था कि जुबान की एक क्लास भी चल रही है.
दाल तो सौ जगह बनती है लेकिन मां के हाथ की जो दाल होती है वह बच्चों को अच्छी लगती है क्योंकि उसमें एक खास बात होती है. अच्छी जुबान बोलने की हम पर पहले जबर्दस्ती की जाती थी. जब हम लोगों ने शुरु किया तो माहौल यह था कि यार तुम अच्छी जुबान नहीं बोल सकते तो एक्टर क्यों बन रहे हो, कुछ और बन जाओ. मदारी बन जाओ या सर्कस में काम करो वहां जुबान की जरूरत ही नहीं है. यदि फिल्मों मेंआ रहे हो या रेडियो में हो तो बगैर सही जुबान जाने अच्छा कर ही नहीं सकते. अब जो है, मैं किसी की शौक पर न किसी की आदत पर एतराज करना न चाहता हूं लेकिन अब तो एक्टर जिम्नेजियम में तैयार होते हैं. वो वहां से एक्टर बन कर निकलते हैं कि मेरे छह पैक हैं तो कोई कहेगा मेरे आठ पैक हैं. अब मैंने फॉरेन से एक ट्रेनर बुलाया है जो हर रोज मुङो तीन घंटे ट्रेनिंग  देगा. उस जमाने में तो यह था कि जब जुबान नहीं आती तो एक्टर क्या बनेगा? कुछ और काम कर लो या फिर जुबान सीख लो, तलफ्फुज सीखो, अच्छे लोगों में उठना बैठना सीखो. अब यदि पांच एक्टर काम कर रहे हैं और एक बेसुरा है तो चार एक्टर कहेंगे कि क्या इनके सिवा और कोई मिलता नहीं आपको?

पुराने दौर शायर तो अब बनता नहीं और जो बनता है उसे जगह नहीं देते हैं. कितनी अजीब बात है लेकिन अहम बात भी है कि पिछले साठ सालों में या कम से कम पिछले तीस सालों में हिंदुस्तान जैसे मुल्क में जहां हर तरह का फन और कला और संस्कृति पाई जाती है जितनी दुनिया में कहीं नहीं मिलती ल ेकिन कोई एक लता मंगेशकर आपने पैदा नहीं किया, कोई एक मोहम्मद रफी पैदा नहीं किया, कोई तलत महमूद नहीं बनाया, कोई मन्ना डे आपको नही मिला. कोई साहिर लुधियानवी नहीं मिलता. मैं गालिब और मीर की तो बात ही नहीं कर रहा हूं. मेरी अपनी बेटियां जेके राउलिंग को पढ़ती हैं. तमाम इज्जत के साथ कहना चाहूंगा कि जे.के. राउलिंग उस मोहल्ले में खड़ी नहीं हो सकतीं जहां मुंशी प्रेमचंद थे. प्रेमचंद मिट्टी से जुड़ी बात करते थे. एसा लगता था कि ये सारे किरदार इनकी अपनी आंखों देखे हुए हैं. जे.के. राउलिंग का किरदार दिलचस्प हो सकता है लेकिन उनमें सतहीपन है. उनसे हम वाकिफ नहीं हैं. फिर भी हम बच्चों को उसमें आगे बढ़ा रहे हैं. पचास रुपए में पूरा मजमून प्रेमचंदजी का मिलता हो तो बच्चा नहीं पढ़ता उसे लेकिन 700 रुपए की राउलिंग पढ़ता है. और जितना खराबा, मुङो माफ करें, टेलीवीजन कर रहा है उसकी तो कोई हद ही नहीं है. हर तरह की बेतुकी बातें टीवी पर आपको नजर आती हैं और ट्रेजडी यह है कि अभी मैं आपको खिड़की खोलकर दूसरी बिल्डिंगों का नजरा दिखाऊं तो ऐसा लगेगा कि सारी फैमिली सुन रही है और एक आदमी बोल रहा है. तो तीन सौ पैंसठ दिन यदि सारी फैमिली तीन चार घंटे सुनती है और एक ही व्यक्ति बोलता है तो चाहते न चाहते आपके दिमाग में कोई न कोई चीज प्रवेशकरेगी और आपाके यही सुनने को मिल रहा है तो आपके दिमाग में जा क्या रहा है और आप कर क्या रहे हैं. जिंदगी के मुल्य क्या हैं. आप किस तरह की जिंदगी चाह रहे हैं. ये कुछ अजीबो गरीब है. जैसे मैने पहले अर्ज किया कि ये मैक्डोनलाइजेशन है. उससे  आप पौष्टिक खुराक की उम्मीद मत कीजिए. आप उससे दो चार घड़ी का मजा जरूर लेते हैं. चाट गली में मैं शहद बनाने तो जाता नहीं हूं. चाट गली में तो चटाखा ही मिलेगा. रोज तो आप चटाखा नही खा सकते ना, वर्ना दो हफ्ते बाद अस्पताल के चक्कर काटने पड़ेंगे. 

प्रकृति से ही कविता शुरु होती है. देखिए दुनिया में कोई और मुल्क तो ऐसा है नहीं जहां इतनी जुबानें हैं. और इतनी जुबानें मौजूदा दौर में चल रही हैं. मतलब यदि सारी बोलियां आदि मिला लें तो करीब 2600 हैं. संस्कृति के इतने अलग-अलग रूप भी कहीं नहीं हैं. विचार में भी नही आ सकते. ये सारी चीजें हिंदुस्तान की मिट्टी से उपजी हैं. कुछ ऐसी चीजें हैं जो मैं समझता हूं हिंदुस्तान के अलावा और कहीं पैदा ही नहीं हो सकती हैं. मिसाल के तौर पर उर्दू जुबान! इतनी हिंदुस्तानी जुबानों का मिश्रण है कि वो किसी और मुल्क में पैदा ही नहीं हो सकती. वह शहद भी है , नमकीन भी है. मोहब्बत तो बिना उदरु जुबान के पूरी ही नहीं हो सकती है. उसी उर्दू में आप इश्क भी कर सकते हैं, उसी में जंग भी कर सकते हैं. वही फिल्मों की बात ले लें तो शाहजादा अनारकली से मोहब्बत की बात कर रहा है और अकबरे आजम जंग का एलान कर रहे हैं.
अमीर खुसरो को लीजिए, दुनिया के किस हिस्से में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा हुआ है?कितनी सदियां गुजर गई हैं लेकिन आज भी मौजूं हैं. 600 साल बाद भी संदर्भ में हैं आगे भी रहेंगी. ये इस मिट्टी का कमाल है.
इन दिनों अदम गोंडवी को पढ़ रहा हूं.

गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद!


लोकमत समाचार की रचना वार्षिकी के लिए पिछले साल मैंने प्रख्यात गीतकार समीर अनजान से बातचीत की थी. अब इसे शेयर कर रहा हूं. समीर  जी ने जो जैसा कहा, मैंने वैसे ही उन्हीं की भाषा में उतार दिया है- विकास


मुङो लगता है कि जब मैं छठी या सातवीं कक्षा में आया तब से मुङो कभी-कभी कुछ पंक्तियों की आमद हो जाती थी. कई बार मैं चमत्कृत भी होता था कि मेरे दिमाग में ये चीजें आती क्यों हैं? लेकिन मुङो अच्छा लगता था. कभी-कभी रास्ते में चलते हुए गिरा हुआ पैसा मिल जाए तो अच्छा लगता है ना! ठीक उसी तरह से कभी-कभी चलते फिरते कोई पंक्ति दिमाग में आ जाती थी तो मैं बहुत खुश होता था. तब एक ही लाइन आती थी और बात आई गई हो जाती थी. मगर धीरे धीरे मुङो शौक पैदा होने लगा कि ये जो पहली लाइन आई है, उसे आगे कैसे बढ़ाया जाए? ये क्यों आई, इसके पीछे सोच क्या है? तो धीरे-धीरे वो जो जर्म्स थे वो डेवलप होने लगे. 
पहली कविता जिस पर मुङो मेरे कॉलेज का पुरस्कार मिला था उसके पीछे की कहानी दिलचस्प है. मैं हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज बनारस में पढ़ रहा था और बारहवीं में था. उस जमाने में नई कविता का दौर चला हुआ था और हम लोग दुष्यंत कुमार की गजलों से बहुत प्रभावित थे और जहां गुलजार साहब को लाकर रखा जाता है, नई कविता के दौर में उनका नाम सबसे ऊपर रखा जाता था. उन्होंने बहुत से गाने लिखे ‘मेरा कुछ सामान खो गया है’ से लेकर पत्थर की हवेली में सीसे के घरौंदो से..’! एक ऐसा शब्द चयन जो लोगों को चमत्कृत करे. उसका मतलब उसे समझ में आए या न आए. शब्द चयन ऐसा था कि लोगों को लगता था कि ये कोई बड़ी बात कह रहा है. तो वो जो मेरी कविता थी उसकी शुरुआत ही थी ‘गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद! लोग चमत्कृत हुए कि ये अजीब बात है, गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद! आप ताज्जुब करेंगे कि मुङो उस पर पहला पुरस्कार भी मिला! उस वक्त मेरा ये शौक था लेकिन मेरा जो  इनर था  वह अलग था. मैंने लिखा ‘ले गई नथुनिया वाली’ तो वहां से शुरु हुए थे हम लोग. उसके बाद मेरी एक ऑर्केस्ट्रा पार्टी हुआ करती थी जिसकी मैं कंपेयरिंग किया करता था. मेरे लिखे हुए गाने मेरे साथी कंपोज करते थे और हम गाते बजाते थे. कहीं न कहीं शुरु से इस तरह के गाने लिखने का शौक रहा लेकिन इस तरह की कविताएं भी लिखीं जिनको हम नई कविता का नाम देते है.
साहित्य में फिल्मों का भी योगदान
जब मैंने लिखना शुरु किया तब ऐसा नहीं था कि फिल्मों में आना था इसलिए लिखना था. दरअसल कहीं न कहीं वह ब्लड में था, जेनेटिक था क्योंकि पिताजी गीतकार थे. तो मुङो विरासत में मिली कविता. पहले तो शौकिया लिखता रहा लेकिन जब भी फिल्मी गाने सुनता था तो मैंने एक चीज अनुभव किया कि चाहे आप शैलेंद्र को सुनो या साहिर को सुनो या राजेंद्र किशन  को, इन सारे लोगों ने जब भी लिखा बहुत आसान लिखा. इन्होंने साहित्य से फिल्म का एक अलग रिस्ता बना कर रखा था. अब देखिए साहिर ने भी जब लिखा कि ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो’ तो इससे आसान और क्या हो सकता है? शैलेंद्र लिखते हैं..‘तेरे मन की गंगा और मेरे मन की जमुना..अब बोल राधा संगम होगा कि नहीं’, राजेंद्र किशन जी लिखते हैं कि ‘पल पल दिल के पास रहती है’ तो मेरे जेहन में यह बात बस गई कि जब आप इस मीडियम के लिए काम करें तो आम पब्लिक की बोलचाल की भाषा होनी चाहिए क्योंकि फिल्म देखने के लिए एक ऑटो रिक्शेवाला भी जाता है और एक लिटरेचर का आदमी भी जाता है. तो आप ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें कि जो सबकी समझ में आए. इसीलिए हमको लोग लिटरेचर से अलग करते हैं उसके पीछे उनका तर्क होता कि लिटरेचर में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है वह थोड़ी मुश्किल भाषा होती है और फिल्मों में वो नहीं होती है. मगर मेरा मानना है कि भाषा की क्लिष्टता या भाषा की जो मुश्किलाहट है, वह कोई पैमाना नहीं होना चाहिए साहित्य और सिनेमा को अलग रखने का. कहीं न कहीं बहुत बड़ा योगदान रहा है फिल्मों का भी साहित्य के साथ. कई लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. हां, कहने का तरीका, उसकी जमीन अलग हो सकता है. वहां चूंकि बंदिशें नहीं हैं, यहां हम बंदिशों में काम करते हैं मगर जहां तक रचना का सवाल है तो उसमें कोई दुराव नहीं होना चाहिए. कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. फिल्म की रचना हो या साहित्य की रचना हो, यदि वो अच्छी है तो उसको  साहित्य में वह दर्जा मिलना चाहिए.
मैं गंगा तट का बंजारा
पिता जी को शुरु शुरू में बहुत तकलीफ हुई. उन्होंने किताब लिखी है ‘‘मैं गंगा तट का बंजारा’’, उसमें जब आप उनकी निजी कविताएं पढ़ेंगे और जिस तरह के शब्दों का चयन उन्होंने किया है तो वह बिल्कुल अलग है. उन्हें लगा कि फिल्मों में आकर उन्हें समझौता करना पड़ा. फिल्मों में यदि काम करना है तो भाषा सरल होनी चाहिए लेकिन मुङो कभी नहीं लगा. मैं जब आया तो इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार था कि मुङो सरल भाषा में ही लिखना है. इसलिए मैंने कभी भी अपनी भाषा को कठिन बनाने की कोशिश नहीं की.
फिल्मों में विवशता यह है कि जो किरदार हमें मिलता है उसे ध्यान में रखना पड़ता है. मैंने कुली फिल्म के लिए लिखा तो इस बात का ध्यान रखना था कि कुली जब गा रहा है तो उसकी भाषा क्या होनी चाहिए. यदि कुली गा रहा हो.. ‘चंदन सा बदन, चंचल चितवन’ तो लोग हसेंगे. ऑटो चलाने वाला जब बात करेगा तो अपनी ही भाषा में बात करेगा. आप यह एक्सपेक्ट मत कीजिए कि आप जिस भाषा में बात करते हैं, उस भाषा में ऑटोवाला भी बात करे. यदि आप नाटक कर रहे हैं तो किरदार को तो आपको निभाना ही पड़ेगा. वह बात कहने का कोई मतलब नहीं जो किसी की समझ में न आए.
जुल्फ है या सड़क का मोड
पिताजी से तो मैंने जिंदगी में सबकुछ सीखा. वो नही होते तो शायद मैं गीतकार होता ही नहीं. मगर मैं प्रभावित दो राइटरों से बहुत हुआ था. एक तो आनंद बख्शी से और दूसरा मजरूह सुल्तानपुरी से. बख्शी से इसलिए क्योंकि सरलता गजब की थी. मुङो लगता था कि यदि सही मायने में फिल्म में गीतकार की उपाधि किसी को दी जानी चाहिए तो वह है आनंद बख्शी.  कहानी को और किरदार को आईने की तरह इतना साफ कहने वाला आदमी दूसरा कोई नहीं. मैं उनका एक उदाहरण देता हूं आपको. उनका एक गाना था जिसका सीन था कि एक ट्रक ड्रायवर एक तवायफ के कोठे पर जाकर गाना गाता है. अब आप देखिए कि गीतकर ने उस कैरेक्टर को कितना जिया हुआ है. गाना है..‘‘तुम्हारी जुल्फ है या सड़क का मोड़ है, तुम्हारी आंख है या नशे का तोड़ है ये..’’ अब ट्रक ड्रायवर जो बात कहेगा तो उसे वही ट्रक, वही शराब नजर आएगी. ये होता है गीतकार! तो मैं हमेशा इस बात का पक्षधर रहा कि जब आप गीत लिखें तो कहीं न कहीं ये सरलता और उस किरदार को जीने की ताकत आप में होनी चाहिए.
मजरूह साहब को इसलिए पसंद करता था कि उनकी वर्सेटिलिटी गजब की थी, ‘गम दिए मुस्तकिल कितना नाजुक है दिल..’ से लेके ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा..’ तक लिखा. इतना लंबा एरा जीनेवाला आदमी! क्या हुआ तेरा वादा, अपुन को भी जरा देखो ना, नासिर हुसैन की कव्वालियां देखिए तो पता चलेगा कि मजरूह साहब ने जितने रंग बदले. संतोषानंद जी की लाइन है  ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिसमें मिला दो लगे उस जैसा’, अगर इस पंक्ति पर आप खड़े उतरते हैं तब तो आप गीतकार हैं. नहीं तो आप यहां सक्सेसफुल नहीं हो सकते क्योंकि यहां हर तरह की सिच्यूसन मिलती है, हर तरह की किरदार मिलते हैं, हर तरह की कहानी मिलती है. तो, वर्सेटाइलिटी मजरूह साहब से मैंने सीखी.
नीरज और बच्चन पे प्रभावित किया
गोपालदास नीरज और हरवंशराय बच्चन ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं मुङो बहुत प्रभावित करती थीं, बहुत अच्छी लगती थीं. उनकी कविताएं मैंने पढ़ी भी बहुत. जैसे महादेवी वर्मा थीं, उनकी कविताएं क्लास का विषय थीं इसलिए पढ़ना पड़ा. मगर इनसे मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ उसके पीछे वही भाषा की क्लिष्टता थी, मुश्किलाहट थी इसीलिए उन कविताओं से मैं बहुत प्रभावित नहीं होता था. गजलों में दुष्यंतकुमार का प्रभाव बहुत रहा.  मैं हमेशा उन लोगों को पसंद करता हूं चाहे वो बोलने वाला हो, लिखने वाला हो या परफार्म करने वाला हो, जो जीता है. जी कर जो कहता है, उसकी कला में सच्चई नजर आती है. एक आदमी सोच कर लिखता है, एक आदमी जी कर लिखता है. सोच कर लिखने वाले हैं जैसे गुलजार साहब हैं. गुलजार साहब और मेरे में यही विरोधाभाष है. वो लोग मुङो ज्यादा प्रभावित करते हैं जो कविताएं लिखते हैं और लोग समझ पाते हैं.
भाषा का श्रृंगार
अक्सर जब मैं पत्रकारों के बीच होता हूं या क्रिटिक के बीच होता हूं और यह सवाल किया जाता है कि क्या भाषा का श्रृंगार समाप्त हो रहा है तो मेरी राय होती है कि ये जो गिरावट है, यदि आपको लगता है कि गिरावट है तो, केवल फिल्मी गीतों में नहीं हैं. वो पूरी तरह से हमारे समाज में है, हमारे देश में है, हमारी सोच में है. फिल्म समाज का आईना है. समाज में जो घटित होता है, उसका एक रंग फिल्म की कहानी में या किरदार में या कविताओं में नजर आता है. जब भाषा अपना स्वरूप बदलने लगती है. जैसे अभी मुझसे सवाल किया गया कि आपने बहुत से हिंगलिस स्टाइल के गाने लिखे. मेरे पास जवाब यह है कि चूंकि यह जनरेशन हिंगलिश है. हमारे भीतर बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाने का चलन शुरु हुआ. वो बच्चे अंग्रेजी सीखते हैं, आधे से ज्यादा बोलते हैं. हिंदी का प्रचलन कम हुआ है तो वो जो सुनना चाहते हैं वही लिखाजाएगा. और सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा वह ग्लोबलाइजेशन का है. हमारा म्यूजिक अब पूरी दुनिया में जाने लगा तो कहीं न कहीं डिफरेंट भाषा के इस्तेमाल से उसका आइडेंटिफिकेशन बढ़ता है. वो ज्यादातर लोगों के रीच तक पहुंता है. मैं कहता हूं कि भाई आपको यदि ‘चंदन सा बदन..’ सुनना है तो सरस्वतीचंद्र बनानी पड़ेगी. यदि आप कुली नंबर वन में या टपोरी नंबर 1 में यदि एक्सपेक्ट करते हैं तो वैसी भाषा का इस्तेमाल नहीं हो सकता. हम परिवर्तन चाहते हैं तो उसे जमीन से परिवर्तित करना पड़ेगा, हमको बदलना पड़ेगा. हमारी सोच को बदलना पड़ेगा, हमारे परिवेश को बदलना पड़ेगा तब जा कर हम उस तरह की चीजों को एक्सपेक्ट कर सकते हैं. तो ये जो परिवर्तन का असर रहा है, उसकी वजह से भाषा में गिरावट आई है इसमें कोई दो राय नहीं है. इसे चंचलता नहीं कह सकते. इसे प्रवाह कह सकते हैं. लेकिन आती क्या खंडाला और चंचल चितवन का फर्क तो है! ये तो आप नहीं कह सकते कि दोनों भाषाओं में समानता है और दोनों अपनी जगह सही हैं. हां, इन टोटलिटी में वो गिरावट आई है. पहले के जमाने में जो टपोरी होते थे, वो भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे. आज के टपोरी करते हैं. इसलिए मैं इसे बदलाव मानता हूं और बदलाव को स्वीकार कर लेने में ही भलाई है. हां, कोशिश होनी चाहिए कि यह ठीक हो और ठीक होने के लिए जो प्रयास चाहिए, वह निचले स्तर से शुरु होना चाहिए.
कविता जैसी है बनारस की जिंदगी
बनारस अभी भी मेरे जेहन में है, मेरी रूह में है. बनारस की मिट्टी में, खुशबू में कहीं न कहीं एक कल्चर और क्रिएटिविटी पलती है. मैं जब-जब जाता हूं और लौटकर आता हूं तो मुङो लगता है कि मेरा पुनर्जनम हुआ है. वो एक शहर अभी भी ऐसा है जो अपनी अस्मिता को, अपने रंग को, अपनी संस्कृति को जिंदा रखे हुए है. अभी भी बनारसी आदमी आपसे मिलेगा, छन्नूलालजी से मिलेंगे तो बात करने का जो लहजा है वह बनारस वाला ही मिलेगा. बिसमिल्ला खां को भारत रत्न दे दिया गया लेकिन बिस्मिल्ला खां में कोई परिवर्तन नहीं आया. उनके बात करने का जो लहजा था, काम करने का जो तरीका था, वो वैसा ही था जैसा चालीस-पचास साल पहले रहा होगा. दशाश्वमेघ घाट की शाम हो, वहां की भांग हो या वहां की नैया पर घूमना हो, वहां का खाना हो, या नास्ता हो, शाम को दूध के साथ मलाई, लस्सी, सब अद्भुद है. कोई करोड़पति भी होगा गमछा पहनकर नदी के पार ही जाएगा. मेरे कई रिस्तेदारों ने नौकरियां छोड़ दीं क्योंकि बनारस से ट्रांस्फर नहीं लेना है. वो पान, वो संकटमोचन, वो विश्वनाथजी उनको चाहिए. वो गलियां, वो कल्चर, वो खुशबू अगल ही है. और किसी शहर में मुङो वो रंग मिला ही नहीं. अच्छा दूसरा क्या होता है जो मैने मुंबई में आने के बाद महसूस की कि आप जिस मिट्टी में पलते हैं वहां की खुशबू और वहां का रखरखाव आपके जेहन में इस तरह से बस जाता है कि आप उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाते हैं. आप मुङो पैडर रोड ले जाकर रख दीजिए, मैं नहीं रह पाऊंगा. तो समझ लीजिए कि बचपन और जवानी जहां गुजरती है, वो जगह आप भूल ही नहीं सकते, भले ही आप पचास साल बाहर रह लें. उसे मिस करते रहते हैं. अभी भी मैं बनारस जाता हूं तो रिक्शे में ही घूमने में मजा आता है. अभी भी मैं दशाश्वमेघ घाट तक पैदल चलकर ही जाता हूं. सर्दियों में जेब में भुना हुआ चिनियाबादाम (मूंगफली) रखकर उसे खाते हुए जाने का जो मजा है वो कहीं नहीं मिलेगा! वहां के कवियों को सुनता हूं तो लगता है वह भाव अभी भी कहीं न कहीं मेरे भीतर जी रहा है. बनारस में लोग जीवन को सही मायनों में जीना जानते हैं. बनारस की हवा और मुंबई की हवा में ही ऐसी जंजीर है कि जो एक बार आया, वो कभी लौटकर नहीं गया! बनारस की जिंदगी में कविता, संगीत और स्वाद भरा हुआ है. मेरे लेखन में भी वह उतरकर आता है. जब-जब मुङो मौका मिला मैंने उस जीवन को गीतों में उतारने की कोशिश की है. वो मैने गान लिखा था..‘जेठ की दुपहरी में पांव जले है रामा या फिर वो यूपी वाला ठुमका लगाऊं कि हीरो जैसे नाच के दिखाऊं.. कल भी मेरे बच्चन साहब के साथ मेरी मीटिंग चल रही थी. उनके लिए जो मैंने लिखा उनमें बनारस को पिरो दिया है. होरी खेले रघुवीरा में भी बनारस की खुशबू है.

मनोज वाजपेयी बोले-लोगों के कविता भी इंस्टैंट चाहिए!

पिछले साल मैंने प्रख्यात अभिनेता मनोज वाजपेयी से बातचीत की थी. अब इसे शेयर कर रहा हूं. मनोज जी ने जो जैसा कहा, मैंने वैसे ही उन्हीं की भाषा में उतार दिया है- विकास


यह सवाल वाकई बड़ा दिलचस्प है कि क्या रंगमंच एक काव्य की तरह है? मैं  काव्यभाषा में कहूं तो रंगंमच एक संघर्षमय और पूर्ण माध्यम है एक अभिनेता के लिए. इससे ज्यादा पूर्ण माध्यम कोई है नहीं दुनिया में. हमेशा यह कहा जाता है कि आप थियेटर के अभिनेता को लीजिए, वह अच्छा अभिनय करेगा. ऐसा नहीं कि थियेटर के कलाकार में कोई सुरखाब का पर लगा हुआ है. दरअसल थियेटर का एक्टर एक अभिनय के माध्यम से आता है. अभिनय का माध्यम का मतलब यह होता है, वह जो माध्यम है पूरी तरह निर्भर करता है अभिनेता पर. उस पूरे दौर में अभिनेता जो है वह टूटता है, बौद्धिक रूप से, शारीरिक रूप से, अभिनय की दृष्टि से टूटता है, फिर से खड़ा होता है. इसमें साहित्य का बहुत बड़ा योगदान होता है. उसमें हर चीज का समावेश किया जाता है, उसके पूर्ण विकास के लिए शायद कविता, शायद एक खालिस लेखन या फिर पाठन की दृष्टि से उसे पूरी तरह तैयार किया जाता है. इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि रंगमंच किसी को भी करना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि उसे अभिनेता बनना है या नहीं बनना है. रंगमंच हर बच्चे को करना चाहिए क्योंकि रंगमंच एक व्यक्ति का पूर्ण विकास करता है. मैं यह भी कह सकता हूं कि रंगमंच सें काव्यात्मकता और लयबद्धता सीखता हैआदमी. यदि पूरे अभियन में लय नहीं हो तो सम पर समाप्त नहीं होगा. अगर सही मोड पर शुरु नहीं होगा तो यही कहेंगे ना कि कि सुर सही नहीं मिला, सुर अच्छा नहीं लगा. उसको हम संगीत से भी बांधकर देखते हैं, उसे कविता से भी बांध कर देखते हैं कि जो उसने सुना वह कानों को लग रहा है या नहीं. इसके लिए अलग से हम लोगों की एक एक्सरसाईज होती है जिसमें हम अलग से सिर्फ काव्य पाठ करते हैं. उसके लिए अलग से हम कोरस में शामिल होते हैं. इससे अभियन को एक आयाम मिलता है.
सूफीयाना शास्त्रीय संगीत
मेरा मानना है कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया जारी रहती है. समाज जब बदलता है तो बहुत सारी चीजें टूटती बिखड़ती हैं. उसमें शास्त्रीय संगीत सबसे बड़ा शिकार हुआ है. कविता भी हुई है. साहित्य भी हुआ है क्योंकि जब हम पूरी तरह से फास्ट फुड कल्चर में जाते हैं तो हम प्रक्रिया को हम नजरंदआदाज कर देते हैं. पहले पकौड़ा बनाने के लिए बेसन बनाया जाता था, फिर तेल गरम किया जाता था, आपके समाने पकौड़े डाले जाते थे, तलते थे. एक पूरी प्रक्रिया होती थी खाने के पहले की. अभी खाना बना बनाया तैयार चाहिए, ये जो पूरी प्रक्रिया है, उससे लोग ऊब गए हैं. शास्त्रीय संगीत एक प्रक्रिया है. कोई भी जो क्लासिकल फॉर्म है, वह प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया कला को निखारती है. शास्त्रीय संगीत कंठ को निखारता है लेकिन आज बैठकर इतनी देर कोई सुनना नहीं चाहता! मुङो खाना चाहिए, मुङो अचानक खाना है. अचानक स्वाद चाहिए. अचानक खत्म करूं. पैसे दूं और अगले काम पर बढूं.
हालांकि एक दूसरे पहलू को देखिए तो हाल फिलहाल में भले ही सूफी संगीत के माध्यम से ही क्यों न सही शास्त्रीय संगीत वापस आना शुरु हुआ है. उसमें लय बदले हैं, सुर जो है वह शास्त्रीय संगीत के ही आ रहे हैं. लय इसलिए बदला है क्योंकि पुराने धाकर लोगों ने आज के दौर को सामने रखते हुए एक दिशा लेने की शुरुआत की है. आज सूफी संगीत जो है, मेरे हिसाब से शास्त्रीय संगीत की परंपरा को कायम रखे हुए है. भले ही पीछे ढोलक न सही ड्रम सुनाई दे रहा है. उससे कोई मतलब नहीं है. कम से कम वह जो आवाज है, लय है, निखार है, तैयारी है, वह दिखाई दे रही है.


मेरा अभिनय, मेरा पढ़ना..!
मेरा जो दर्शक है. वह गहराई में जाकर नहीं सोचता है. उसे लयबद्धता चाहिए, एक प्रवाह चाहिए बिल्कुल किसी कविता की तरह, जो किरदार को सजीव कर दे. मैं जो अभिनय करता हूं, वह एक्शन से कट तक न शुरु होता है न खत्म होता है. मेरी लाइब्रेरी में जाएं तो आपको हिंदी की बहुत सी कविताओं की पुस्तकें मिलेंगी. कहीं भी जाता हूं, उठा कर ले आता हूं. पढ़ता हूं. अंग्रेजी साहित्य मेरी पत्नी बढ़ती है. मेरे हिसाब से पढ़ाई लिखाई आपकी मदद करता है, एक तैयारी हमेशा चलती रहती है. एक्शन से पहले की जो तैयारी है, उसकी कोई सीमा नहीं है, वह चलती रहती है. जब आप कोई सीन करने जाते हैं तो अंतरआत्मा तक में इतनी तैयारी पहले से हो जाती है कि अलग से कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती.
मेरे सामने यह सवाल रखा जाता है कि फिल्मों से शायरी और संगीत गायब हो रहा है. मुङो ऐसा नहीं लगता. मुङो तो लगता है कि बहुत ही सहजता के साथ आ रहा है. गालिब का कोई शेर आज कोई सुनता है उसमें से एक शब्द नहीं जानता है तो उसकी रुचि हट जाती है. आज जो भी शायरी आ रही है, चाहे वह संगीत के माध्यम से या किसी सीन के माध्यम से तो उसमें काफी सहजता है. वह किसी अनपढ़ आदमी को भी समझ में आती है. दरअसल लोगों का धैर्य खत्म हो चुका है. वे डिक्शनरी खोलकर नहीं बैठेंगे किसी शब्द का अर्थ जानने के लिए. उनको तत्काल सब बात समझ में आनी चाहिए. इंस्टैट समझ में आनी चाहिए. यदि वो नहीं हो रहा है तो हम वहीं पर असफल हो जाते हैं. ये जो सहजता की मांग है, दर्शक करता है.
मैं खुद की बात करूं तो मैं गालिब को भी पढ़ता हूं और फिराक को भी क्योंकि उसके लिए हमने रुचि पैदा की थी, वो समय अलग था. यदि हम रुचि पैदा नहीं करते तो अलग कर दिए जाते. कुछ माहौल ऐसा था कि आपने आज कौन सी किताब पढ़ी? इस महीने में कौन सी किताब पढ़ी? यदि आप लोगों से बातचीत कर रहे हों और उनको यह पता चले कि यह पढ़ता लिखता नहीं है तो समाज से बहिष्कार कर दिया जाता था. रंगमंच के उस ग्रुप से बहिष्कार कर दिया जाता था. इस दबाव में हमें पढ़ना पड़ता था. इसलिए पढ़ने की जो आदत लगी मुङो वह रंगमंच की वजह से लगी. पढ़ा लिखा हमेशा काम ही आता है. पढ़ना हर युग में जरूरी रहा है. मैं सबको पढ़ता हूं. यदि किसी नए व्यक्ति ने भी कोई कविता लिखी है और मुङो कूरियर कर देता है तो मैं जरूर पढ़ता हूं. यदि अच्छा लगा और उस कविता के साथ फोन नंबर भी है तो उसे मैसेज जरूर करता हूं कि भैया अच्छा लगा. कहने का आशय यह है कि आप कुछ भी पढ़ें लेकिन पढ़ें जरूर. मेरा अपना मानना है कि जरूरी नहीं कि आप गालिब को पढ़िए. आप किसी को भी पढ़िए, नए शायर को पढ़िए लेकिन पढ़िए जरूर. लोगों के जो विचार हैं, नजरिया है उसे देखने जानने की बहुत जरूरत है नहीं तो हम अपना नजरिया भी नहीं जान पाएंगे क्योंकि हम तो हर दूसरे सेकेंड में विरोधाभास में रहते हैं. अपने विरोधाभाष को  समझने के लिए दूसरे की कृति को पढ़ना बहुत जरूरी है.
कविता से मिली वो तालियों की गड़गड़ाहट
अपने काव्यानुराग की एक शुरुआती कहानी सुनाता हूं आपको. वास्तव में मेरे नैसर्गिक अभिनय की शुरुआत ही कविता से हुई है. मैं चौथी क्लास में था लेकिन मन के किसी कोने में यह भाव समाहित था कि एक्टिंग करुंगा लेकिन कोई जरिया नहीं था. मैं शर्मिला सा बच्च था. उसी दौरान एजुकेशनल कांटेस्ट होने वाला था और पता नही कि क्या सोचकर मेरे टीचर ने मुङो चुन लिया, उन्होंने कहा- मनोज प्रतिनिधित्व करेगा!  बेतिया (बिहार) के संत सतानलेस स्कूल का वो दिन मुङो आज भी याद है. मुङो जब चुन लिया गया तो मेरी जिम्मेदारी हो गई कि कुछ अच्छा करूं. मेरे सब्जेक्ट में हरिवंश राय बच्चन की कविता थी ‘‘जो बीत गई सो बात गई..’’ टीचर ने कहा कि इसे करो! इस तरह मेरा पहला परफॉर्मेस हरिवंशराय बच्चन जी से शुरु हुआ. अमित जी का फैन तो मैं बाद में बना हूं. हरिवंश राय बच्चन का फैन पहले बना. उस चक्कर में उनकी कुछ और कविताएं पढ़ीं, मधुशाला की पंक्तियां पढ़ लीं. समझ में आती नहीं थी, उतनी छोटी सी उम्र में मधुशाला आपको समझ में नहीं आएगी, केवल शराबी समझ में आएगा, उसके बाद कुछ समझ में नहीं आएगा. ..तो जो बीत गई सो बात गई के लिए मुङो पुरस्कार भी मिला और तालियों की गड़गड़ाहट मुङो आज भी याद है. उसके कारण यह हुआ कि अब एक्टर ही बनना है, कुछ और नहीं बनना है जीवन में, यह तय हो गया. उसके बाद एजुकेशनल कांटेस्ट और छोटी-मोटी नाटिकाओं के जरिए सफर जारी रहा.

..तब लोगों ने कहा था भांड हो गया है!
स्कूली जीवन में पहले नाटक खूब होते थे. सालाना उत्सव ज्यादा होते थे. अब कम हो रहे हैं लेकिन इसका मतलब यह नही कि इससे जीवन श्रृंगारकमी आई है. आज हर व्यक्ति चाहे वह मां-बाप हो या बच्च हो, अभिनय को केवल एक शौक की तरह से नहीं देखता है. अब उसे जिंदगी में जो भी पाना है उसका एक जरिया मानता है. जैसे आईपीएस, आईएएस को हम मानते थे, वैसे ही अब हमने अभियन को मानना शुरु कर दिया है. अभी नोयडा से किसी पिता ने मुङो फोन किया कि ‘‘मेरा बच्च दस साल का है और मुङो लगता है कि वह अभिनेता ही है. मुङो इसके लिए क्या करना चाहिए?’’. मैंने उन्हें सलाह दी कि पहले पढ़ने तो दीजिए उसे. मेरा यह कहना है कि ये जो एप्रूवल है वह समाज में था ही नहीं. कभी कोई पिता किसी को फोन नहीं करता बल्कि उल्टा बेटे को दो चांटे देता और कहता कि पढ़ाई कर. मैंने तो जब तक ग्रेज्यूशन नहीं किया था तब तक अपने पिता को बोला भी नहीं था कि मैं अभिनेता बनना चाहता हूं. डर इतना था. समाज का जो नजरिया था इस क्षेत्र को लेकर वो बिल्कुल अलग था. अभी वो बदल गया है. मैंने जब पिताजी को कहा कि अभिनय में जाना है तब तक मैं बहुत दूर दिल्ली पहुंच चुका था. उनका हांथ वहां तक नहीं पहुंचते. हालांकि मैंने जब बताया तो उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. समाज ने जरूर बहुत बुरा भला कहा था मेरे परिवार को- नाटक कर रहा है, भांड हो गया है, इतना पैसा लगाया इन लोगों ने पढ़ाने लिखाने पर. यूपीएससी करना चाहिए था! बहुत सी बातें थीं लेकिन मैं उसके लिए तैयार था.
नौस्टालजिक नहीं हूं मैं
पहले हिंदी फिल्मों में प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को कविताएं लिखकर भेजते थे. अब सवाल उठता है कि उस दौर को क्यों मिस किया जाए? सच कहूं तो मैं उस दौर को मिस नहीं करता हूं. मैं नौस्टाल्जिक (अतीत के लिए लालायित) आदमी नहीं हूं. मैं पीछे के समय से बंधकर नहीं रहता हूं. मेरा मानना है कि समाज बदलता है. मोतीलालजी या दिलीप साहब के समय जो समाज था वही आपको रिफ्लेक्ट होता था उनके सिनेमा में. वह समाज बदलकर जिस तरह से शम्मी कपूर जी के समय में परिलक्षित हुआ, उसी तरीके से रोमांश का समय राजकपूर जी के समय अलग था और राजेश खन्ना के समय अलग था. राजेश खन्ना के समय वह अपने मरने की बात करता  है, कुर्बानी की बात करता है. जब उस रोमांस से  व्यक्ति थक गया क्योंकि रोमांश खा नहीं सकता था, रोमांस नौकरी दे नहीं सकता था तो अमिताभ बच्चन के जरिए उस वक्त का गुस्सा और वो नाराजगी नजर आई. फिर शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान के जरिए एक अलग ढंग से आई लव यू कहने का नजरिया भी बदला क्योंकि समाज बदल रहा है. समाज अपने अपने ढंग  से बदलता रहा है, अपने ढंग से नायक भी सामने लेकर आता रहा है.
लड़कियों से डर लगता था
मैं प्रेम के लिए बोल नहीं पाता था, लड़कियों से डर लगता था, शायरी तो बहुत दूर की बात थी. मैं आया बहुत छोटी सी जगह से था जहां पर आप उस तरह की बात सोच भी नहीं सकते थे. किसी की तरफ दूर से देखते रहिए और समझते रहिए कि आपको प्यार हो गया है..! तब तक उसकी शादी भी हो जाती थी और उसके बच्चे भी हो जाते थे. रंगमंच में जब मैं पापुलर हुआ तो संपर्क में शहर लड़कियां थीं, वो खीज जाती थीं कि इतने सारे इशारे कर रही हूं और ये आदमी समझ नहीं रहा है. बाद में आकर बोल देती थीं कि बात समझ में नहीं आ रही है? एक लड़की ने तो मुङो डांट दिया था कि तुङो समझ क्यों नहीं आ रही है कि मैं तुझसे प्यार करती हूं. दिल्ली की बात है वो. हम लोग छोटी जगह से थे. लड़कियां यदि सीधे आकर प्यार का इजहार नहीं करती तो हम समझते ही नहीं. हम तो शादी के समय ही लड़की को जान पाते. ये तो बड़े शहर में आने के कारण हमारा कल्याण हो गया.
प्रकृति सबसे सुंदर कविता
मेरे खयाल से हिंदुस्तान से प्रकृति नष्ट हो रही है. जितनी बेहतर और काव्यात्मक थी वो खत्म हो रही है. नष्ट कर दिया लोगों ने. पश्चिमी देशों में बहुत सहेज कर रखा है प्रकृति को. आप जहां भी जाएं योरप या अमेरिका जाएं, बहुत काम किया है उन लोगों ने. नाव्रे मुङो बहुत कमाल लगा है. मेरे ख्याल से प्रकृति अपने पूर्ण रूप में नव्रे, स्वीडन, डेनमार्क और आईसलैंड जैसी जगहों पर दिखती है. अपने देश में शुटिंग करने जाता हूं और देखता हूं कि बेतरतीब तरीके से प्रकृति को विकास के नाम पर नष्ट किया जाता है तो दर्द होता है. मेरे इलाके (बेतिया, बिहार) में इतना घना जंगल था और इतना खूबसूरत था कि मैं प्रकृति के सानिध्य में हमेशा बाहर ही रहता था. मैं घर के भीतर बैठता ही नहीं था. विकास के नाम पर इस देश को जिस तरह से बर्बाद किया गया है, उससे पीड़ा तो होती है. मैं कहना चाहूं गा कि जिस प्रकृति को आप नष्ट कर रहे हो, वही आपके नष्ट होने का कारण बनेगा. केदार नाथ उसका बहुत बड़ा उदाहरण है. ये कभी भी हम लोगों के साथ होने वाला है. प्रकृति की प्रतिक्रिया शुरु हुई है, वह कहीं भी हो सकती है.

डब्बे तो लगा दिए लेकिन किसी काम के नहीं!

राष्ट्रीय राजमार्ग अर्थात नेशनल हाई वे से गुजरते हुए इन डब्बों को आपने निश्चय ही देखा होगा. कहीं ये दो किलो मीटर पर लगे हैं तो कहीं डेढ़ किलो मीटर पर! दर्जनों वाहन चालकों से लोकमत समाचार ने जानना चाहा कि ये डब्बे सड़क किनारे क्यों लगाए गए हैं? ज्यादातर लोगों ने माना कि डब्बे वे देखते हैं और उनके मन में भी यही सवाल उठता है कि ये क्यों लगाए गए हैं? लोगों ने यह भी माना कि कभी उन्होंने रुककर यह जानने की कोशिश नहीं की कि ये हैं क्या? ऐसे लोगों की संख्या नगण्य थी जिन्हें डब्बों के बारे में कुछ जानकारी थी! दरअसल इन डब्बों को स्थापित करने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने इस बात की जरूरत ही नहीं समझी कि इनके बारे में आम आदमी को जानकारी कैसे दी जाए. विदेश की तर्ज पर इन्हें बना तो दिया गया लेकिन प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था नहीं की गई.
अब चलिए हम आपको बताते हैं कि ये हैं क्या और इन्हें स्थापित करने का कारण क्या है! इन डब्बों को कहा जाता है ‘एसओएस’ बूथ. एसओएस एक अंतरराष्ट्रीय एब्रीविएशन अर्थात एक स्थापित वाक्य का संक्षिप्त स्वरूप है. इस एब्रिविएशन के सामान्यत: तीन पूर्ण वाक्य बनते हैं. 1. सेव आवर शिप यानि हमारे जहाज को बचाईए. 2. सेव ऑवर सोल यानि मेरी आत्मा को बचाईए. 3. सेंड आउट सकर यानि राहत भेजिए. राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगे डब्बे राहत ेभेजने या आत्मा बचाने यानि जान बचाने से संबंधित है.
कांग्रेस की पिछली सरकार के जमाने में मंत्री कमलनाथ ने इस बात के लिए पहल की कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर दुनिया के  िवकसित देशों की तरह हर डेढ या दो किलो मीटर पर सड़क के दोनों ओर एसओएस बूथ होने चाहिए ताकि दुर्घटना की जानकारी तत्काल कंट्रोल रूम को मिल सके. योजना यह थी कि कंट्रोल रूम तत्काल निकटतम टोल प्लाजा को जानकारी पहुंचाएगा ताकि वहां से अत्यंत कम समय में एंबुलेंस घटनास्थल पर पहुंच जाए. इससे दुर्घटना में घायल  व्यक्ति को तत्काल मेडिकल सहायता मिले और उसकी जान बचाई जा सके. इसे नियमों में शामिल किया गया और  वर्ष 2011 के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऐसे बुथ बनने शुरु हो गए. यह भी प्रावधान किया गया कि लोग सड़क की हालत के बारे में भी जानकारी दे सकते हैं और ऐसी शिकायतों को संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाया जाएगा ताकि सड़क जल्द दुरूस्त हो. इसे राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की वेबसाइट पर भी अपलोड करने की योजना बनी.
एक भी बूथ काम का नहीं
लोकमत समाचार ने यह जानने की कोशिश की कि नागपुर के पास बने एसओएस बूथ वाकई काम कर रहे हैं या नहीं! नागपुर से हैदराबाद जाने वाले मार्ग पर बहुत से एसओएस बूथ के भीतर के कलपुर्जे गायब थे. कुछ सही सलामत दिख रहे थे लेकिन उनका बटन दबाने पर कोई जवाब नहीं मिला. दरअसल बूथ के बाहर एक बटन होता है जिसे आप दबाएंगे तो वह कंट्रोल रूम के संपर्क में आ जाता है. वहां से सीधी बात होनी चाहिए. इस बाबद जब लोकमत समाचार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के एक वरिष्ठ अधिकारी से बात की तो उन्होंने माना कि बूथ काम नहीं कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि आम आदमी में इनके प्रति जागरूकता नहीं है और कुछ मनचले इसे तोड़ देते हैं. अधिकारी ने यह भी बताया कि चूंकि सड़क निर्माण के साथ इसका निर्माण भी शामिल था इसलिए ये बन गए हैं लेकिन हकीकत तो यही है कि अभी ये काम नहीं आ रहे. इनके काम करने की पद्धति भी बहुत पुरानी है. अधिकारी का कहना था कि अब मोबाइल का जमाना है, लोग उसी का उपयोग करते हैं. हां, नागपुर-बैतूल मार्ग पर एक निजी कंपनी के साथ मिलकर इस तरह के बूथ चलाने का प्रस्ताव प्राधिकरण को भेजा गया है लेकिन अभी तक कोई जवाब नही आया है.
टोल प्लजा पर एंबुलेंस नहीं
सामान्यतौर पर टोल प्लाजा से गुजरते हुए एंबुलेंस शायद ही किसी टोल प्लाजा पर दिखाई देता हो. यदि एसओएस बूथ स्थापित करने की योजना को आधार माना जाए तो हर टोल प्लाजा पर एक एंबुलेंस जरूर होना चाहिए जो दुर्घटना की स्थिति में तत्काल पहुंच सके. जाहिर सी बात है कि जब एसओएस बूथ ही काम नहीं कर रहा है तो एंबुलेंस की जरूरत ही क्या है? लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने कुछ जगह इमरजेंसी नंबर वाले बोर्ड लगा रखे हैं. यदि हर टोल प्लाजा पर एंबुलेंस हो तो इन नंबरों के माध्यम से भी जल्दी मेडिकल राहत पहुंच सकती है.
अब जरा वहां का हाल..!
दिल्ली में एक आरटीआई कार्यकर्ता को इन एसओएस बूथ का खयाल आ गया. उसने जानकारी मांग ली कि दिल्ली-गुड़गांव हाईवे पर कितने लोगों ने एसओएस बूथ का इस्तेमाल किया? जवाब मिला कि दो साल में दुर्घटनाएं तो हुईं लेकिन हर दो किलो मीटर पर एक बूथ होने के बावजूद किसी ने उनका उपयोग ही नहीं किया!

Monday, September 29, 2014

तेल के कुओं में छिपी है जंग की वजह

इराक में इस वक्त जो कुछ भी चल रहा है, सतही तौर पर आप उसे शिया-सुन्नी विवाद कह सकते हैं. सत्ता का संगर्ष कह सकते हैं लेकिन हकीकत तो तेल के कुओं में छिपी है! सच्चई यह है कि इस सारे संघर्ष के पीछे तेल का खेल है. इस वक्त इस खेल का प्रमुख किरदार है अमेरिका! खेल को समझने के लिए सबसे पहले इन आंकड़ों को जानिए!
अमेरिका की आबादी :
विश्व की आबादी का केवल 5 प्रतिशत
अमेरिका में तेल भंडार :
विश्व के कुल ज्ञात तेल मंडार का केवल 3 प्रतिशत
अमेरिका में तेल खपत :
विश्व के कुल उत्पादन का करीब 25 प्रतिशत

जरा गौर कीजिए कि दुनिया में अनाज की कमी के लिए हम भारतीयों को पेटू बताने वाले अमेरिका में दुनिया की केवल 5 प्रतिशत आबादी रहती है और वह 25 प्रतिशत तेल हजम कर जाता है. तेल की भूख ने उसे इतना चालाक और क्रूर बना दिया है कि दुनिया में शांति का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है. उसे तो केवल तेल चाहिए, चाहे दूसरों को जला कर ही क्यों न मिले! यही हाल पश्चिमी देशों का है. उन्हें भी तेल चाहिए इसलिए वे अमेरिका के पिछलग्गू बने बैठे हैं. ब्रिटेन तो खासकर इस तेल के खेल में शुरु से ही शामिल रहा है. इस कहानी को समझने के लिए बीसवीं सदी के प्रारंभ में जाना होगा.
हालांकि दुनिया के कई देशों में पेट्रोलियम पदार्थो के छुटपुटस्तरोंे पर निकालने की कवायदें चल रही थीं. कई सफलताएं भी मिली थीं लेकिन 1908 में ईरान मे तेल का बड़ा भंडाल मिला. ईरान के पास तब ऐसी तकनीक थी नहीं कि वह इस भंडार का दोहन कर सके. जाहिर है उसने उन्हीं पश्चिमी देशों की ओर आशा भरी नजर से देखा जिन्होंने इस खोज में मदद की थी. अगले ही साल 1909 में एंग्लो-इरानियन आयल कंपनी (एआईओसी) स्थापित हुई ताकि तेल को निकाला जा सके. तेल की खुदाई शुरु हुई लेकिन वक्त बीतने के साथ ईरान को महसूस हुआ कि मोटा माल तो ब्रिटेन निगल रहा है. 1951 में उसने अपने तेल भंडार का राष्ट्रीयकरण करने के साथ ही एआईओसी की इरान में मौजूद संपत्तियों को जब्त कर लिया और तेल खुदाई में लगी सभी पश्चिमी कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया. ब्रिटेन के लिए यह बहुत बड़ा झटका था क्योंकि एआईओसी विदेश में स्थापित उसकी सबसे बड़ी संपत्ति थी.
ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर ईरान को सबक सिखाने का रास्ता अख्तियार किया. अमेरिकी खुखिया एजेंसी सीआईए और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एमआई-6 ने मिलकर ऐसा कुचक्र रचा कि ईरान में सत्ता के खिलाफ विद्रोह हो गया और 1953 में प्रधानमंत्री मोहम्मद माोसादेघ की निर्वाचित सत्ता को उखाड़कर पुराने शाह के बेटे मोहम्मद रजा पहलवी को गद्दी पर बिठा दिया. इसके साथ ही एंग्लो-इरानियन आयल कंपनी (एआईओसी) फिर वजूद में आ गई और इसके संचालन का जिम्मादारी आनन फानन में गठित एक अंतरराष्ट्रीय संघ को सौंप दिया गया. इस संगठन के माध्यम से एआईओसी के शेयर का बंदरबांट हुआ. अमेरिका की पांच कंपनियों को कुल 40 प्रतिशत हिस्सा, ब्रिटेन को 40 फीसदी, रॉयल डच को 14 प्रतिशत तथा एक फ्रेंच कंपनी को 6 प्रतिशत हिस्सा मिला. ईरान को केवल मुनाफे का 25 प्रतिशत मिलना तय हुआ. एआईओसी पहले ईरान को 20 प्रतिशत मुनाफा देती थी. इस तरह यह प्रचारित किया गया कि ईरान को अब 5 प्रतिशत ज्यादा मुनाफा मिल रहा है. उसी समय अमेरिकी कंपनियां तेल निकालने के एवज में सऊदी अरब और दूसरे देशों को 50 प्रतिशत तक मुनाफा दे रहे थे.
इधर अमेरिका यह बखूबी समझ रहा था कि वैश्विक शक्ति के रूप में उभरते हुए उसे ज्यादा से ज्यादा तेल की जरूरत होगी. विकास के साथ तेल की मांग अमेरिका में बढ़ रही थी इसके लिए वह रास्ता तलाश रहा था. अमेरिका ने अपने विकास को नई दिशा देने के लिए तत्पर था. उसने 1971 में अपनी स्वर्ण आधारित आर्थिक प्रणाली को बिदा कहा लेकिन इसका असर एकदम विपरीत हुआ और डॉलर की कीमत में भारी गिरावट आ गई. सोची समझी रणनीति के तहत अमेरिका ने सऊदी अरब से डील किया कि हथियारों के साथ वह सुरक्षा भी देगा और इसके बदले सऊदी अरब जिन देशों को भी तेल बेचता है उनसे भुगतान अमेरिकी डॉलर में लेगा. वक्त के साथ दूसरे ऑर्गेनाइजेशन आफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिग कंट्रीज (अेपेक देश) भी इस समझौते में शामिल हो गए. इस तरह अमेरिकी डॉलर की मांग फिर आसमान छूने लगी. अब देखिए, अमेरिका ने यहां एक बड़ा खेल किया. जो डॉलर वह दुनिया को दे रहा था वह अमेरिकी बाजार में नहीं चल रहा था. तेल के खेल में लगे इस डॉलर को जॉर्ज  टाउन यूनिवसि;टी के प्रोफेसर और जानेमाने इकॉनोमिस्ट इब्राहिम ओवेसिस ने नाम दिया ‘पेट्रो डॉलर’.
अमेरिका समझ रहा था कि अब सब ठीक है लेकिन अक्टूबर 1973 में सीरिया और इजिप्ट की अगुवाई में अरब देशों ने इजराइल पर हमला बोल दिया. अमेरिका और पश्चिमी देशें ने तत्काल इजराइल की सहायता की और इससे नाराज होकर आपेक देशों ने अमेरिका को तेल बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया. अमेरिका को लगा कि ओपेक देशों की बढ़ती ताकत तेल बाजार में ‘पेट्रो डॉलर’ को समाप्त न कर दे. अब अमेरिका ने खुलकर अपनी चाल चलनी शुरु की. उसने अरब देशों को लालच भी दिया, धमकाया भी और जहां जरूरत पड़ी वहां अपने खुफिया साधनों को भरपूर इस्तेमाल किया. सद्दाम हुसैन जैसे लोगों ने अमेरिका को आंख दिखाई तो अमेरिका आंख निकाल लेने की हद तक चला गया और सद्दाम को फांसी पर लटका दिया. दरअसल अरब देशों को उसने बांट कर रख दिया. अभी जो कुछ भी चल रहा है, वह इसी का परिणाम है. उसे पता था कि इराकी फौज आतंकियों का सामना नहीं कर सकती, इसके बावजूद वह इराक को अपने हाल पर छोड़कर चला गया. मजहब के रंग में रंगे अरब देश हालांकि अमेरिका की चाल को समझते रहे हैं लेकिन उनके पास भी इसका कोई इलाज नहीं है. अमेरिका अब चाहता है कि ईरान भी जंग में फंसे. ईरान बचने की कोशिश कर रहा है लेकिन लगता यही है कि बहुत ज्यादा दिनों तक वह बच नहीं पाएगा. इराक के शिया धर्मस्थलों को बचाने का आंतरिक दबाव उस पर है. इधर आतंकी संगठन भी पीछे हटने वाले नहीं हैं क्योंकि तेल से उपजने वाला धन उन्हें ताकत दे रहा है.


क्या इस दुष्चक्र से उबर पाएगा इराक?

इराक का नाम जेहन में आते ही अब केवल खून खराबा ध्यान में आता है. यह सत्य कहीं इतिहास में दफन हो गया कि दुनिया के जिन हिस्सों में सभ्यता ने जन्म लिया उनमें से एक इराक भी है. इतिहास के पन्नों पर इस इलाके को हम मेसोपोटामिया के रूप में भी जानते हैं. इतिहासकार इराक को सभ्यता का पालना भी कहते हैं. जिस तरह से पालने में झूलते हुए बच्च बड़ा होता है, ठीक उसी तरह से इराक में सुमेरियन सभ्यता ने जन्म लिया और करीब 3 हजार साल तक उसका वजूद कायम रहा. इराक अर्थात पुराने मेसोपोटामिया की दूसरी खासियत भी इतिहास में कही दफन है. कम ही लोगों को पता होगा कि करीब 6 हजार साल पहले विश्व में पहली बार ‘राइटिंग सिस्टम’ अर्थात व्यवस्थित लेखन की परंपरा यहीं से शुरु हुई थी क्योंकि वहां सभ्यता के विकास के साथ व्यापार व्यवसाय का विकास हो चुका था और व्यवस्थित लेखन की जरूरत महसूस की जा रही थी.
जिस देश का इतिहास इतना स्वर्णिम हो, उसे किसकी नजर लग गई? इसके लिए इतिहास में थोड़ा पीछे लौटना होगा. वक्त बदला और यहां तेल की प्रचूरता ने सबका ध्यान आकृष्य किया. प्रथम विश्वयुद्ध में युनाइटेड किंग्डम यानि ब्रिटेन की सेना ने इस इलाके के शासक को पराजित कर दिया. इसके बाद से यह इलाका ‘स्टेट ऑफ इराक’ नाम से ब्रिटेन का हिस्सा बन गया. ब्रिटेन ने सीरिया से भगाए गए फैसल को यहां का शासक नियुक्त किया. शासन व्यवस्था में सुन्नियों को प्रमुखता दी गई. 1932 में ब्रिटेन ने इराक को आजादी तो दे दी लेकिन अपना सैन्य अड्डा वहां बनाए रखा. अगले ही साल किंग फैसल की मृत्यु हो गई. फिर गाजी और उसके बाद उसके नाबालिग बेटे फैसल द्वितीय की ओर से अब्दुल्ला ने रीजेंट के रूप में गद्दी संभाली लेकिन 1941 में एक सैन्य विद्रोह में राशिद अली ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. इसी दौरान ब्रिटेन को यह भय सताने लगा कि कहीं इराक से पश्चिमी देशों को तेल की आपूर्ति न रुक जाए. तेल की खातिर ब्रिटेन ने इराक पर फिर से कब्जा कर लिया. ब्रिटेन वहां से फिर 1947 में  हटा. इराक हशमित राजघराने के पास आ गया. 1958 में फिर सैन्य विद्रोह हुआ आौर ब्रिगेडियर जनरल अब्दुल करीम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. उसके बाद से कई सैन्य विद्रोह हुए और शासक बदलते रहे. सत्ता के लिए खून बहना इराक में आम बात हो गई. 1968 में बाथ पार्टी के अहमद हसन अल बकर ने सत्ता पर कब्जा किया लेकिन धीरे-धीरे सत्ता उनके हाथ से भी फिसली और जनरल सद्दाम हुसैन के हाथों में आ गई.
सद्दाम ऊंचे ख्वाब वाले व्यक्ति थे. उन्होंने 1980 में ईरान पर हमला बोल दिया. करीब आठ साल चले इस युद्ध में दोनों ओर के करीब पंद्रह लाख लोग मारे गए. इस युद्ध के समाप्त होने से ठीक पहले इराक की बाथ पार्टी ने कुर्द लोगों के खिलाफ एक अभियान चलाया और माना जाता है कि करीब एक लाख कुर्द लोगों को मौत के घाट उतार दिया. मरने वालों में शिया भी थे. शिया और कुर्दो के खिलाफ जब यह अभियान चल रहा था तभी इराक ने एक और मोर्चा खोला और कुवैत पर कब्जा कर लिया. अमेरिका और पश्चिमी देशों को फिर तेल की चिंता सताने लगी कि कहीं सद्दाम रोड़ा न बन जाए. अंतत: अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने हमला बोला और इराक को वापस जाने पर मजबूर कर दिया. अमेरिकी हितों के लिए सद्दाम पूरी तरह से दुश्मन की तरह थे और अंतत: मार्च 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया. हमले का बहाना था इराक का न्यूक्लियर और केमिकल हथियार लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ वहां मिला ही नहीं. अमेरिका ने कई सालों तक वहां कब्जा जमाए रखा और एक कठपुतली सरकार की स्थापना की जिसमें सुन्नियों का कोई रोल नहीं था क्योंकि सद्दाम सुन्नी थे. अब सुन्नियों ने विद्रोह किया और लड़ाकों के कई समूह बन गए. जाहिर है कि शिया-सुन्नी के झगड़े को बढ़ाने में अमेरिका ने भी रोल निभाया लेकिन हमले उस पर भी हो रहे थे. इसी दौरान सद्दाम पकड़ में आ गए औार 2006 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया. देश गृह युद्ध की स्थिति में पहुंच गया. अमेरिका का काम पूरा हो चुका था. वह अपना हित साधना चाहता था. वास्तव में इराक की जनता से उसका कोई लेना देना नहीं था. उसने जून 2009 में इराकी सेना को कानून-व्यवस्था का काम सौंपना शुरु किया और 2011 तक ज्यादातर सैनिक वापस हो चुके थे. राजनीतिक रूप से भी इराक बदहाल हो चुका था. बगदाद में सुन्नियों की संख्या कभी 35 प्रतिशत हुआ करती थी जो अब घटकर 12 प्रतिशत रह गई है. खैर सुन्नियों ने शियाओं के नेतृत्व वाली सरकार की खिलाफत की सभी हदें पार कर दी हैं. सुन्नियों के चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आईएसआईएस) ने इराक के कई प्रमुख शहरों पर कब्जा कर लिया है. आश्चर्य नहीं कि बगदाद भी उनके कब्जे में आ जाए. दरअसल इराक के ये हालात पूरे अरब जगत के लिए चिंता का विषय है.
तो अब सवाल पैदा होता है कि ऐसी स्थिति में अमेरिका क्या करेगा? क्या अमेरिका फिर से इराक पर हमला करेगा? अभी कुछ कहना मुश्किल है. वह कुछ भी कर सकता है. इतना तो स्पष्य्ट लग रहा है कि वह हस्तक्षेप जरूर करेगा. अमेरिका की नीतियों पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका अपनी बुद्धिमानियों में खुद ही फंस जाता है. इस बार भी हालात ऐसे ही हैं. इराक में अमेरिका ने दोहरा खेल खेला. एक तरफ सुन्नियों को सत्ता में जगह नहीं दी तो दूसरी ओर सुन्नियों के कई संगठनों की मदद की ताकि अल कायदा को पछाड़ा जा सके. यहां याद करना मुनासिब होगा कि अलकायदा को भी पैदा तो अमेरिका ने ही किया था ताकि अफगानिस्तान से रूस को खदेड़ा जा सके. बहरहाल अब अमेरिका उसी ईरान से बातचीत कर रहा है जिसे वह अब तक दुश्मन मानता रहा है. ईरान की आबादी में 90 से 95 प्रतिशत लोग शिया हैं और अमेरिका इसी का फायदा उठाना चाहता है. उसकी चाहत शायद यही है कि इराकी सुन्नियों के खिलाफ ईरान उसकी मदद करे. ईरान फिलहाल फूंक-फूूंक कर कदम रख रहा है है क्योंकि वह अमेरिका की चाल समझ रहा है लेकिन उसका उलझना भी तय लग रहा है. बगल में आग लगी है तो वह चुप कैसे बैठ सकता है. इराक में शियाओं को बचाने का आंतरिक दबाव भी उस पर होगा ही. बहरहाल इराक बदहाल है. सत्ता किसी के भी पास रहे. मरना आम आदमी को ही है!

हिंदी में बात हिंदी की बात

एक अखबारनवीस के रूप में मेरे सामने यह सवाल हमेशा ही मुंह बाए खड़ा रहता है कि भाषा कैसी होनी चाहिए? अक्सर कुछ लोग यह कहने से नहीं चूकते कि आपके आलेख का अमुक शब्द जरा कठिन था. मैं सोचने लगता हूं कि क्या वह शब्द वाकई कठिन था? फिर मुङो भारत सरकार के गजट की याद आ जाती है. गजट का हिंदी स्वरूप जब भी मेरे सामने आता है तो मैं उसे कई बार पढ़ता हूं और हर बार लगता है कि समझने में कुछ चूक हो रही है. अंतत: मैं गजट के अंग्रेजी स्वरूप की शरण लेता हूं और सबकुछ स्पष्ट हो जाता है. अब इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मैं अंग्रेजी का बड़ा ज्ञाता हूं और यह भी नहीं कि हिंदी मुङो ठीक से नहीं आती! दोनों भाषाएं ठीक-ठाक जानता हूं. दरअसल, गजट मूलत: अंग्रेजी में तैयार होता है और उसके रूपांतरण में भाई लोग शब्दकोष से ऐसे-ऐसे शब्द चुन कर लाते हैं कि आदमी घबरा जाए! जब ऐसी हिंदी लिखी जाएगी तो उसे पढ़ेगा कौन? तब खयाल आता है कि हिंदी ऐसी होनी चाहिए जिसे आम आदमी पढ़ सके और समझ सके. दरअसल, भाषा का यही तो उद्देश्य होता है!
..तो सवाल खड़ा होता है कि क्या मैं अपने आलेख में कुछ कठिन शब्दों का उपयोग करता हूं? मुङो लगता है- नहीं! किसी भाव को स्पष्ट करने के लिए जिन शब्दों की जरूरत हो, उनका उपयोग किया जाना चाहिए. अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए यदि कोई व्यक्ति पांच बार डिक्शनरी देख सकता है या गूगल पर शब्द के अर्थ जानने की जहमत उठा सकता है तो हिंदी का पाठक ऐसा क्यों नहीं कर सकता? क्या सरलता के नाम पर हिंदी को तंगदिल बना दिया जाए? मेरी राय है कि भाषा का अपना स्तर कायम रहना चाहिए. हां, बेवजह का अलंकरण नहीं होना चाहिए. यदि सरल शब्द मौजूद हैं तो बेवजह उसे क्लिष्ट बनाना ठीक नहीं है. वाक्य रचना भी ऐसी होनी चाहिए जो मगज तक सीधे उतर जाए. आप कुछ लिखें और पढ़ने वाला समझ ही न पाए तो उस लेखन का क्या अर्थ? आप कुछ कहें और सामने वाले के दिमाग में कुछ बैठे ही नहीं तो ऐसी बोलचाल का औचित्य क्या है? मजा तो तब है जब आप अपनी बात सामने वाले के दिमाग में बिठा दें, भाषा की सरलता के माध्यम से उसके दिल में उतर जाएं.
लेकिन इस  वक्त सवाल केवल हिंदी और हिंदी के शब्दों का नहीं है. सवाल हिंदी की अस्मिता का है. बाजारवाद की हवा में घुली अंग्रेजी हिंदी संसार को प्रदूषित कर देने की भरसक कोशिश कर रही है और इस कोशिश को और हवा दे रही है हमारी गुलाम मानसिकता जहां अंग्रेजी जानना और बोलना श्रेष्ठता का प्रतीक बन बैठा है. मां के मॉम और पिता के डैड बन जाने तक तो ठीक है लेकिन कोफ्त तब होती है जब मॉम अपने बेटे को बड़े नाज-ओ-अदा के साथ बताती है, ‘बेटा, लुक,  इट्स बटरफ्लाई. हाऊ कलरफुल ना!’ अपने बेटे को अंग्रेजी सिखाने की  ऐसी लत लगी है हमें कि हिंदी को ताक पर रख देने में कोई परहेज नहीं! कोई बच्च कितनी शुद्ध हिंदी बोलता है या लिखता है, उससे ज्यादा पूछ-परख इस बात की है कि किसका बेटा अंग्रेजी में अच्छी गिटर-पिटर कर लेता है. अंग्रेजी जानना अच्छी बात है लेकिन क्या अपनी भाषा के प्रति तिरस्कार की कीमत पर? याद रखिए जो समाज अपनी भाषा के प्रति लापरवाह होने लगे, उसकी संस्कृति का क्षरण होने लगता है. दुर्भाग्य यह है कि हमारा समाज इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं है. उसे लगता है कि अंग्रेजी में सारा जहां समाया हुआ है.
अरे अपनी भाषा को जरा जानने की कोशिश तो कीजिए. बहुत फा होगा आपको. अंग्रेजी की औकात का अंदाजा भी हो जाएगा. अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लॉफ’ अर्थात हंसना. हमारी हिंदी में हंसने के साथ और भी शब्द हैं जैसे खिलखिलाना, कहकहे लगाना. बहुत अंतर है हंसने, खिलखिलाने और कहकहे लगाने में. तीव्रता का अंतर है, भाव का अंतर है. इसी से मिलते-जुलते शब्द ‘स्माइल’ यानी मुस्कुराने की बात कीजिए. हमारे हिंदी में मुस्कुराने के साथ ‘मुस्की मारना’ भी है. क्या अंग्रेजी में मुस्की मारने के लिए कोई शब्द है? मुस्कुराने और मुस्की मारने में न केवल अंदाज का फर्क होता है बल्कि नजरिए का फर्क भी होता है. ऐसे सैकड़ों शब्दों की चर्चा की जा सकती है. आशय यह है कि हिंदी की व्यापकता को यदि आप समझ पाएं तो सहज ही अंदाजा हो जाएगा कि यह किसी भी भाषा से श्रेष्ठता में कहीं कम नहीं बैठती. कम से कम अंग्रेजी से तो बिल्कुल नहीं. अंग्रेजी से ज्यादा श्रेष्ठ है हमारी भाषा. तो सवाल उठना लाजिमी है कि हम अंग्रेजी को अपनी भाषा में घुसेड़ने को क्यों लालायित रहते हैं? हम हिंदी की जगह हिंग्लिश क्यों सींचने में लगे हैं?
अंग्रेजी के पक्ष में कई लोग तर्क देते हैं कि वह अत्यंत सहज भाषा है. मेरा सवाल यह है कि हिंदी की सहजता में कहां कमी है? हम भाव की अभिव्यक्ति में अंग्रेजी से दस कदम आगे हैं. यदि कोई हिंदी को जानने की कोशिश ही न करे तो उसमें हिंदी का कहां दोष है? दोष तो मानसिकता में है! मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि वैश्विक तरक्की के लिए अंग्रेजी को जीवनशैली में शामिल कर लेना बहुत जरूरी है. यदि ऐसा होता तो दुनिया में तेज रफ्तार तरक्की करने वाला चीन कब का अंग्रेजीमय हो गया होता. दरअसल, मामला मानसिक गुलामी का है. अंग्रेज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अंग्रेजी की गुलामी हमने ओढ़ रखी है. अंग्रेज बन जाने को आतुर कुछ लोग एक और भी तर्क देते हैं कि अंग्रेजी जब दुनिया भर की भाषाओं से शब्दों को अपने में शामिल कर रही है तो हिंदी को अंग्रेजी के शब्द ग्रहण करने में क्या परेशानी है? ऐसे लोगों को मैं बताना चाहता हूं कि किसी भी भाषा के विकास में दूसरी भाषा के शब्दों का योगदान निश्चय ही मायने रखता है लेकिन इतना भी नहीं कि मूल भाषा ही परिवर्तित होने लगे. हिंदी की विकास गाथा यदि आप पढ़ें तो उसमें फारसी के करीब साढ़े तीन हजार और अरबी के ढाई हजार शब्द शामिल हैं. इतना ही नहीं पश्तो के भी कई शब्द हिंदी में समाहित हैं.
शब्दों को शामिल करने का तर्क देने वालों को मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हिंदी से जुड़ी क्षेत्रीय बोलियों में शामिल किए जाने वाले शब्दों को भी यदि हम हिंदी के शब्दकोष का हिस्सा मान लें तो दुनिया की कोई दूसरी भाषा हमारे पासंग में भी नहीं बैठती! जब इतनी श्रेष्ठ भाषा है हमारी तो हम क्यों इसे बर्बाद करने में लगे हैं. याद रखिए कि किसी भी भाषा के विकास में सैकड़ों-हजारों वर्षो का वक्त लगता है. अंग्रेजी के प्रति थोड़ी सी सनक में इसे बर्बाद मत कीजिए. हिंदी बोलिए, हिंदी में काम करिए और हिंदी जानने पर अभिमान भी करना सीखिए!

मां तुझे सलाम


ग्रीस से सबक सीखने की जरूरत

ग्रीस बहुत बड़ा देश नहीं है. भारत की तुलना में तो शायद कुछ भी नहीं लेकिन वहां आर्थिक मोर्चे पर पिछले तीन-चार साल में जो भी उतार-चढ़ाव आया है वह किसी सुनामी से कम नहीं है. ग्रीस की घटना ने पूरी दुनिया को चौंकाया है और लगे हाथ सतर्क-सावधान भी किया है. पूरे यूरोझोन में ग्रीस की अर्थव्यवस्था को 2007 तक काफी सुदृढ़ माना जाता रहा. उसकी आर्थिक विकास दर काफी तेज थी और विदेशी पूंजी का प्रवाह की तो पूछिए ही मत!  लेकिन 2009 के अंत में ग्रीस की अर्थव्यवस्था को जैसे ग्रहण लगना शुरु हो गया. ग्रहण इतनी तेजी से लगा कि दुनिया स्तब्ध रह गई. ग्रीस की हालत ऐसी हो गई कि वह कर्ज में डूबने लगा, कर्ज के चुकारे के लिए कर्ज लेने लगा. अंतत: हालात ऐसे हो गए कि ग्रीस दिवालिया होने की कगारा पर आ गया. यदि यूरो झोन के दूसरे देश आगे न आए होते तो ग्रीस डूब ही गया होता.
खैर, महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रीस की यह हालत हुई कैसे? कोई देश खुशहाली की डगर छोड़कर कर्ज के दलदल में कैसे फंसने लगा और भारत को इससे क्या सीखने की जरूरत है? हम एक दशक पीछे लौटें और ग्रीस पर नजर डालें तो वहां की सरकार जनता के बीच लोकप्रिय होने के लिए कुछ भी करने पर उतारू थी. चूंकि आर्थिक विकास दर काफी तेज थी इसलिए ग्रीस की सरकार को किसी संकट की आशंका भी नहीं थी. लिहाजा कई ऐसे प्रकल्प शुरु किए गए जो जनता की वाहवाही तो लूट रहे थे लेकिन उससे ज्यादा राजकीय कोष को क्षति पहुंचा रहे थे. आश्चर्यजनक रूप से सकल घरेलू उत्पाद कम होता जा रहा था और राजकीय घाटा बढ़ता जा रहा था. तीन साल पहले सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में ग्रीस का घाटा 13.6 प्रतिशत तक जा पहुंंचा. ग्रीस की सरकार सांसत में थी. करें तो क्या करें? रास्ता केवल एक था, राजकीय कोष का घाटा कम करना. इसके लिए जरूरी थे कठोर कदम. सरकार ने कोशिश की लेकिन जनता ने नकार दिया. सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे. बेहतरीन जीवनशैली की अभ्यस्त हो चुकी जनता को सरकार के कठोर कदम स्वीकार नहीं थे. सरकार ने हाथ फिर पीछे खींच लिए. स्थिति और खराब हो गई. अंतत: कठोर कदम अवश्यंभावी हो गया. ग्रीस का आथा कर्ज माफ हो गया है लेकिनअभी कहना मुश्किल है कि  इस संकट से वह कब उबरेगा. आयरलैंड, इटली, स्पेन और पुर्तगाल के हालात भी ठीक नहीं हैं.
अब जरा इस बात पर गौर करें कि भारत को इस घटना से क्या सीखने की जरूरत है. दरअसल हमारे यहां भी लोकप्रिय कदम उठाने की होड़ सी लगी रहती है. खासतौर पर चुनाव के ठीक पहले ऐसी घोषणाएं की जाती हैं और ऐसी योजनाएं शुरु की जाती हैं जो लोकप्रिय तो होती हैं लेकिन उसका असर सीधे देश के राजकीय कोष पर पड़ता है. घोषणा करने वाले नेता कभी इस बात की जरूरत भी नहीं समझते कि एक बार अर्थशास्त्रियों से यह पूछ लें कि इसका असर क्या होगा? ऐसी योजनाएं राजकीय कोष को क्षति पहुंचाती हैं. हम हालांकि आज ठीक ठाक स्थिति में हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्वकाल में हमें अपनी माली हालत ठीक रखने के लिए देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था. हमारा देश बड़ा है इसलिए घाटा भी बड़ा हो सकता है और उत्पन्न होने वाली परिस्थितियां ज्यादा विकराल हो सकती हैं. जिस तरह से भारत को दुनिया ने बाजार मान लिया है और बैंकों ने अपनी थैली के मुंह खोल रखे हैं, उससे कई बार गहरे संकट का एहसास होता है. जिस तरह से देश में महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी संकट से जूझ रहा है, वह खतरनाक संकेत दे रहा है.
हमें इस बात पर सख्त नजर रखनी होगी कि उपभोक्तावाद को इतना बढ़ावा न मिल जाए कि बाजार ही सरकार को प्रभावित करने लगे. चाणक्य ने कहा था कि प्रशासन के लिए लोकप्रियता तो जरूरी है ही, कठोर अनुशासन भी अत्यावश्यक है. दुर्भाग्य से शासकीय तौर पर वह आर्थिक अनुशासन दिखाई नहीं दे रहा है. कई बार लगता है कि हम बाजार के हाथों में खेल रहे हैं. बाजार केवल पूंजी की बात करता है, मुनाफे की बात करता है. बाजार का मुख्य ध्येय ही होता है लोगों की जेब से पैसा निकालना, ऐसे हालात पैदा कर देना कि लोग कर्ज लेकर खरीददारी करें. इस समय हिंदुस्तान का हर आदमी कर्ज में डूबा हुआ है. जो कर्ज में सीधे नहीं डूबा है, इसका मतलब है कि बाजार उसे कर्ज देने लायक नहीं समझता. जरा सोचिए कि जिस देश का हर आदमी किसी न किसी तरह के कर्ज में डूबा हो, उस देश की मंगलकामना किन शब्दों में की जाए? हमारी सरकार को इस विषय पर सोचना चाहिए. आम आदमी की सुविधा के लिए कर्ज जरूरी हो सकता है लेकिन इतना भी नहीं कि वह बेजरूरत खर्च करने लगे. दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का मध्यमवर्ग इसी कुचक्र में फंस गया है. इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा है. एक मात्र रास्ता यही है कि सरकारें कठोर कदम उठाएं. बाजार के लाभ का खयाल किए बगैर ऐसे कदम उठाएं जो जनता के हित में हो. हो सकता है कि ऐसे निर्णय लोकप्रिय न हों और विरोधी पक्ष सवाल भी ऊठाए लेकिन सरकार की नजर में केवल देश होना चाहिए.
मैं जिक्र करना चाहूंगा आइसलैंड का जिसने वर्ष 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में गंभीर झटके ङोले. उस वक्त आइसलैंड का पूरा अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग सिस्टम चौपट हो गया था. लेकिन इस बार वह बचा रहा क्योंकि विदेशी बैंकों से वहां के नागरिकों ने किनारा करने का निर्णय ले लिया था. आइसलैंड अत्यंत छोटा देश है इसलिए वहां जागरुकता पैदा करना आसान था लेकिन भारत में यह जरा कठिन काम है. जनता को जागृत किया जाना चाहिए कि कर्ज के कुचक्र में फंसना संकट को न्यौता देना है.
एक बात और! ग्रीस के इस संकट को कुछ लोग पूंजीवाद की असफलता के रूप में भी देख रहे हैं. क्या वाकई ऐसा है? फिलहाल ऐसे किसी निश्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. ग्रीस का संकट वहां की सरकार की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिए. वैश्विक आर्थिक संकट के दौर से आखिर पूरी दुनिया के पूंजीवादी देश बाहर निकले ही हैं, अपनी स्थिति को भी उन्होंने सुधारा ही है. जिस तरह से सोवियत रूस के विघटन और चीन की बदलती चाल को साम्यवाद के खात्मे के रूप में नहीं देखा जा सकता, उसी तरह ग्रीस की विफलता को लेकर पूंजीवाद के खात्मे पर मोहर नहीं लगाई जा सकती. महत्वपूर्ण मसला बाजार पर शासकीय और प्रशासकीय नीतियों के नियंत्रण का है. और बहुत कुछ अपनी लोभवादी प्रवृति पर अंकुश का भी!

आलू खाते हैं लेकिन पौधा पहचानते नहीं


मेरे एक युवा मित्र अभी-अभी हैदराबाद से लौटे हैं. अपनी एक पुरानी मित्र से मिलने गए थे जो बचपन में उनके साथ पढ़ती थी, कस्बे के उसी स्कूल में जहां वे खुद पढ़े हैं. बहुत ही अभिभूत हैं उससे. उसकी तारीफ के कसीदे काढ़ रहे थे- ‘क्या अंग्रेजी बोलती है बॉस! तीन दिनों में हिंदी का तो एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं सुना. मेरे मुंह से ‘अभिप्राय’ शब्द सुनकर तो वो बिल्कुल चौंक गई. कहने लगी योर हिंदी वोकेबलरी इज टू गुड! बॉस, मैं तो उसकी अंग्रेजी पर लोटपोट हो रहा था. उसका बच्च भी अंग्रेजी में ही बात करता है. ऐसी अंग्रेजी बोलता है जैसे अंग्रेज का बच्च बोल रहा हो. अपन लोग तो वैसी अंग्रेजी बोल ही नहीं पाते! बच्चे के पास भी लैपटॉप है. खाना नौकरानी बनाती है, वही बच्चे की देखभाल भी करती है. बहुत ही व्यस्त है मेरी दोस्त. एक मल्टीनेशनल कंपनी की अधिकारी है और कई बार ड्यूटी से रात को दो बजे घर लौटती है. क्या शानदार जिंदगी है बॉस! बिल्कुल लज्जतदार जिंदगी! बहुत आगे निकल गई वो, अपन तो बहुत ही पीछे रह गए!’
मैं युवा मित्र की आंखों की चमक देख रहा था. यह महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि आधुनिक जिंदगी की लालसा किस तरह युवाओं को अपनी चपेट में लेती है. यह सोच कर भयभीत हो रहा था कि अंग्रेजी क्या इस तरह वाकई निगल रही है हमारी मातृभाषा को? क्या अंग्रेजी बोलना इतना महत्वपूर्ण है कि हिंदी या क्षेत्रीय बोली बोलने वाला व्यक्ति ग्लानि का अनुभव करने लगे? युवा मित्र तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे और मेरे जेहन में कई सवाल खड़े हो रहे थे. मैं अपने आप से पूछ रहा था कि रूस, चीन और जापान के लोग अंग्रेजी की दासता के बगैर तेजी से तरक्की कर रहे हैं तो हम  हिंदी वालों को अंग्रेजी के इस भूत ने इस कदर क्यों भयभीत कर दिया है? हिंदुस्तान में यह सोच क्यों विकसित हो गई कि बगैर अंग्रेजी जाने आप इज्जत नहीं पा सकते! यह वही देश है जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी के हिंदी में भषण देने पर इस कदर तालियां बजाई थीं कि गूंज पूरी दुनिया ने सुनी थी, फिर ऐसा क्या हो गया कि हिंदी पर खुद का सीना फुलाने के बजाए अंग्रेजी के नशे में डूबने लगा यह देश!
बेशक अंग्रेजी मौजूदा दौर की एक महत्वपूर्ण भाषा है और किसी भी भाषा की जानकारी व्यक्ति को वैचारिक तौर पर समृद्ध ही बनाती है लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं होना चाहिए कि हम दूसरी भाषा को इतना महान मान बैठें कि खुद की भाषा का ही तिरस्कार करने लगें. सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा कह कर यदि हम खुशी से झूम उठते हैं तो यही भाव अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय बोली को लेकर क्यों महसूस नहीं करते? ..और जो लोग अंग्रेजी बोलते हैं, क्या वे सोचते भी अंग्रेजी नजरिए से ही हैं? बिल्कुल नहीं. हिंदुस्तान में अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादातर लोग सोचते हिंदी में हैं और उसे ट्रांसलेट करके बोलते हैं. अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले ऐसे ज्यादातर ‘महापुरुष’ न अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और न अच्छी हिंदी. भाषायी तौर पर आप उन्हें कंगाल कह सकते हैं. ..तो सवाल यह पैदा होता है कि हम इन भाषायी कांगालों को इतना महान क्यों मान रहे हैं? दरअसल यह हमारी दासता वाली सोच का नतीजा है. दो सौ साल तक अंग्रेजों ने हमें बताया कि तुम हिंदी वाले छोटे लोग हो, इसलिए हम तुम पर राज कर रहे हैं. अंग्रेज चले गए लेकिन हम अंग्रेज बनने की चाहत में पागल हुए जा रहे हैं. हर कोई अपने बच्चे को ऐसे स्कूल में पढ़ाना चाहता है जहां बच्च अंग्रेजी बोलने लगे! यह दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐसी पौध तैयार कर रहे हैं जिसे अपनी भाषा और अपनी मिट्टी की जानकारी नहीं है.
अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले नमूनों के बच्चों को कुछ पौधे दिखाइए और पूछिए कि यह कौन सा पौधा है तो आंखें बाहर आ जाएंगी लेकिन जवाब नहीं सूङोगा! वे आलू खाते हैं लेकिन आलू का पौधा नहीं पहचान सकते. आखिर ये कौन सी ब्रीड और कैसा ब्रांड तैयार कर रहे हैं हम देश के लिए?
एक और बात..!
अंग्रेजियत की यह सुनामी रिस्तों की हर मिठास को ऐसे समंदर में बहा ले जा रही है जहां का पानी बिल्कुल खारा है. उसमें रिस्तों की मिठास के प्रवाह को ढूंढना नामुमकिन सा है. जिस दोस्त के पारिवारिक स्टेटस और लज्जतदार जिंदगी को देखकर हमारे युवा मित्र अभिभूत हुए जा रहे हैं, उसी परिवार का छोटा बच्च उनसे कह रहा था-‘लेट्स प्ले विद मी, मम्मा नेवर प्ले बिकॉज शी इज टू बिजी.’
उस बच्चे के दर्द को समङिाए..जब मां ही उसके साथ वक्त नहीं बिताती है तो वह जिंदगी के राग और अनुराग क्या सीखेगा..?

मां की हर बात निराली..!

तपती दोपहरी में जैसे शीतल छाया
मां तेरा वो गोद सलोना..!
ममता के आंचल में सुरभित जीवन
मां तेरा वो गोद खिलौना..!

पल्लवित हुए हम तेरी छाया में
मां तू अमृत का प्याला..!
जीवन शक्ति का आधार बना
ममता का हर वो एक निवाला..!

जिस उपवन को सींचा तुमने
वहां छायी हरियाली..!
बगिया का हर पुष्प स्मरण करे तुम्हारा
हाथों में है पूजा की थाली..!

मां जैसा दूजा कोई नहीं दुनिया में
मां की हर बात निराली..!

सब भगवान ही करें! और हम कुछ नहीं?


इन दिनों हम सब शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा की आराधना का महापर्व मना रहे हैं. पूजा अर्चना कर रहे हैं. भक्ति के गीत गा रहे हैं. खुशियां मना रहे हैं. स्वयं की शुद्धि के लिए बहुत से लोग उपवास भी कर रहे हैं. हर ओर हर्षोल्लास है. पूरा वातावरण भक्तिभाव में डूबा है. मां अंबे की गूंज हैं. आकांक्षा सबकी यही है कि मां सबका भला करें. जीवन सुखमय हो जाए! ऐसी आकांक्षा हमें करनी चाहिए. सबका भला भी होना चाहिए लेकिन इस वक्त बड़ा सवाल यह है कि क्या सबकुछ भगवान ही करें? हम कुछ न करें? हम अपनी सांस्कृतिक सीख का पालन तक न करें? यह कितना बड़ा विरोधाभाष है कि जो संस्कृति हमें मां को ईश्वर के समकक्ष रखना सिखाती है. जो संस्कृति नारी को सर्वदा पूजयेत कहती है, उसी संस्कृति में पलने-बढ़ने वाले समाज का एक बड़ा हिस्सा नारी का असम्मान करता है. हर धर्म सदाशयता, सद्भाव और समर्पण सिखाती है लेकिन हम इसका कितना पालन करते हैं. हम स्वच्छता की बात करते हैं लेकिन हम अपने अंतर्मन को कितना स्वच्छ और निर्मल बनाते हैं? मां की आराधना के इस पावन पर्व पर कुछ ऐसा संकल्प लीजिए कि अपना भला भी हो और समाज/देश का भी भला हो! पूजा तभी सार्थक होगी!

कवि सुरेंद्र शर्मा मौजूदा हालात पर बड़ी तीखा व्यंग करते हैं. वे कहते हैं-‘माता को हम चौका पर बिठाकर पूजते हैं और अपनी मां चौके में बर्तन मांजने पर मजबूर होती है.’ बात कड़वी है लेकिन है सोलह आने सच! क्या कभी हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि विधवाश्रम में ऐसी कितनी महिलाएं हैं जिनके बेटे और बहू ने उन्हें वहां पहुंचा दिया है? यह जानने में हमारी कोई रुचि नहीं होती. हम अपने आप में मगन रहते हैं. मां का दिल देखिए कि कभी ऐसो बेंटों की पहचना भी उजागर नहीं करती!  ध्यान रखिए कि आप जो व्यवहार अपने माता-पिता से कर रहे हैं, आपका बच्च वही व्यवहार आपसे करेगा!

नारी पूजने वाले इस देश में महिलाओं के साथ क्या व्यवहार होता है इसकी थोड़ी बहुत कहानी तो सरकारी आंकड़े कह ही देते हैं. हालांकि स्थिति इससे ज्यादा विकराल है. फिर भी आईए नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2012 के उपलब्ध कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं. महिलाओं के खिलाफ 2 लाख 44 हजार 270 अपराध हुए. इनमें से 1 लाख 6 हजार 527 मामले घरेलू हिंसा के थे. आकड़े बताते हैं कि प्रत्येक 9 मिनट में कोई न कोई महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है. महिलाओं के खिलाफ हर 3 मिनट में एक अपराध होता है. वर्ष 2012 में देश में बलात्कार के  24923 मामले दर्ज किए गए. इनमें से 24470 बलात्कार के मामलों में कोई न कोई परिचित शामिल था. क्या यही है हमारी संस्कृति कि एक तरफ तो नारी को पूजें और दूसरी तरफ उसे प्रताड़ित करें! चलिए, ज्यादातर लोग यह कहेंगे कि वे तो नारी को प्रताड़ित नहीं करते! ऐसे लोगों से एक सवाल पूछा जा सकता है कि अपने पड़ोस में घरेलू हिंसा का शिकार हो रही महिला के पक्ष में कभी उठे हैं वे? ज्यादातर लोग जवाब नहीं देंगे. मौन साध लेंगे. क्या अपराध घटित होते देखना किसी अपराध से कम है?

नारी को पूजने वाले इस देश में दहेज का दाग जितना गहरा है, उतना किसी और देश में नहीं है. कितना शर्मनाक  है यह सब! कन्या भ्रुण हत्या का बड़ा कारण संभत: यह दहेज ही है. जिन समाजों में दहेज का बोलबाला है, वहां लड़की का जन्म होते ही परिवार को भय सताने लगता है कि दहेज कहां से जुटाएंगे. इससे बचने के लिए वह परिवार कन्या भ्रुण हत्या पर उतर आता है. कम ही ऐसे परिवार हैं जिन्होंने दहेज को अपने से दूर किया है और बहू को बेटी का सम्मान दिया है. आश्चर्यजनक यह है कि लोग अपनी बेटी के लिए तो सुखी ससुराल की कल्पना करते हैं लेकिन अपनी बहु को सुख देने में कोताही बरत जाते हैं. दहेज के ज्यादातर मामले तो सामने भी नहीं आते! जो मामले सामने आते हैं, वे वही होते हैं जहां सहन की सीमा समाप्त हो जाती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2012 में दहेज हत्या के 8233 मामले दर्ज हुए. जरा कल्पना कीजिए कि दहेज प्रताड़ना के कितने मामले हुए होंगे. क्या कभी हमने यह जानने समझने की कोशिश की है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हमारी पूजा सार्थक है? माता की पूजा वास्तव में तभी सार्थक होगी जब हम नारी का सम्मान करना सीखेंगे.


हम संकल्प लें
माता-पिता का असम्मान करने वालों का सामाजिक बहिष्कार करेंगे.
गुंडागर्दी से नहीं डरेंगे. गुंडों को प्रश्रय देने वाले राजनेताओं का नकार देंगे.
्रअपराध न करेंगे और न करने देंगे
अराजकता न फैलाएंगे, न बर्दाश्त करेंगे.
रिश्वत न देंगे और न लेंगे.
बेईमानी न करेंगे, न करने देंगे.
मिलावट के खिलाफ लड़ेंगे.
गंदगी न फैलाएंगे, न फैलाने देंगे.
भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए एक जुट होंगे.
बलात्कार करने वालों का सामाजिक बहिष्कार करेंगे.
दहेज मांगने वाले परिवार में शादी नहीं करेंगे.
घोटाले की भनक लगते ही पुलिस को खबर देंगे
कन्यभ्रुण हत्या वाले परिवार का बहिष्कार करेंगे.
बाल मजदूरी को रोकेंगे. यदि सक्षम हैं तो ऐसे बालकों को पढ़ाने की कोशिश करेंगे.
झगडा-फसाद से दूर रहेंगे.




इनका सम्मान करेंगे
सच्चई
ईमानदारी
अनुशासन
नारी सम्मान
एकता
उदारता
सहिष्णुता
सद्भाव
देशभक्ति

अमिताभ से मिलने के बाद
क्या लिखा था डॉ. हेन ने?
प्रसंग बहुत पुराना है लेकिन है बहुत मौंजू! शादी के बाद अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी हनीमून के लिए ब्रिटेन जा रहे थे तो डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने उनसे कहा कि कैंब्रिज जाकर मेरे गुरु और गाइड डॉ. हेन से जरूर मिलना, उनका आशीष लेना. डॉ. हरिवंश राय बच्चन जब पीएचडी के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय में महान कवि डब्ल्यू बी. इट्स पर शोध कर रहे थे तो डॉ. हेन उनके गाइड थे. खैर, अमिताभ और जया उनसे मिले. डॉ. हेन बहुत खुश हुए. इस मिलन के बाद डॉ. हेन ने हरिवंश राय बच्चन को पत्र लिखा कि यह भारत में ही संभव है कि बेटा और बहू माता-पिता के साथ रहे. मेरा बेटा अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन क्या वह होता तो हमारे साथ होता? नहीं होता! क्योंकि हमारे यहां तो बेटा अपनी शादी के साथ ही अलग घर बसा लेता है. बहुत सहृदयता हुई तो छठे चौमासे कभी मिलने आ गया या कभी अपने घर बुला लिया. साथ रहने का तो सवाल ही नहीं है.
जरा सोचिए! क्या हम अपनी संस्कृति छोड़कर कहीं फिरंगियों की संस्कृति तो नहीं अपना रहे हैं?