Wednesday, March 3, 2010

व्यंग

लैला की उंगलियां
मजनू की पसलियां
मुझे पता नहीं, मध्यप्रदेश के शहरों और कस्बों में कभी लैला की उंगलियां बिकी या नहीं। यह भी पता नहीं कि मजनू की पसलियां कभी तराजू पर तौली गर्इं या नहीं! बचपन यहां बीता नहीं इसलिए कुछ पता नहीं। हां, इतना पता है कि लखनऊ, बनारस और पटना में लैला की उंगलियां और मजनू की पसलियां खूब बिका करती थीं। गर्मी के दिन आते और ठेले वाले की आवाज आने लगती...आईए खाईए लैला की स्वादिष्ट उंगलियां...मजनू की स्वादिष्ट पसलियां! हम दौड़े चले जाते...हथेली में इकन्नी दबाए। दोनों चीजें अलग-अलग लाने जैसी कोई बात थी नहीं क्योंकि थीं तो दोनो एक ही...पतली-पतली ककड़ियां।
तब न हमें लैला की उंगलियों का कोई खास इल्म था और न मजनू की पसलियों से कोई लेना-देना था। हम तो दुबली पतली ककड़ियों के मुरीद थे, हैं और तय मानिए कि दांतों की सलामती और हाजमा दुरुस्त रहने तक मुरीद रहेंगे भी। किसी में दम हो तो हमें पतली ककड़ियों से डिगाकर देख ले!
खैर, चर्चा के लिहाज से ककड़ी नीरस विषय है। हम सरस विषय, लैला की उंगलियों की ओर लौटें। लैला-अल-अमीरिया कहां और कब पैदा हुई इस बहस में भी पड़ने की जरूरत नहीं है। बात लैला की अंगुलियों की हो रही है तो केवल दस उंगलियों की ही होगी। अपने यहां अंगुली पकड़ने से जो बात शुरु होती है वह काफी दूर तलक जाती है। हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है।
अब यहां प्रमुख मुद्दा यह है कि ठेले वाला ककड़ियों की तुलना लैला की उंगलियों से क्यों करता था? सामान्य बुद्धि के लोग यही कहेंगे कि लैला की उंगलियां पतली थीं इसलिए ककड़ी की तुलना उससे कर दी। यह बात जरा हजम नहीं होती क्योंकि पतली से पतली ककड़ी भी इतनी पतली तो नहीं होती कि किसी लड़की की उंगलियों जैसी हो जाए। ...और लैला कोई छोटी सी बच्ची तो थी नहीं। भरपूर जवानी वाली रही होगी, तभी तो मजनू की मति मारी गई! रसीली भी रही होगी अन्यथा किसी ऐरी-गेरी के लिए मति थोड़े ही मारी जाती है।
अब विचार का मुद्दा यह है कि पतली उंगलियां रसीली होती हैं क्या? अपन का अनुभव जरा इस मामले में टाइट है। व्यापक अनुभव वाले लोग बेहतर बता सकते हैं लेकिन ऐसे लोग अनुभव बांटते नहीं, इंज्वॉय करते हैं। वे बताएंगे नहीं। आपके सामने दो ही विकल्प हैं, या तो खुद अपना अनुभव पैदा कीजिए या फिर अंदाजा लगाते रहिए! अंदाजा यही है कि पतली उंगलियां भी थोड़ी बहुत तो रसीली होती ही होंगी। इस अंदाजे का आधार है मरियल होने के प्रति लड़कियों की दीवानगी! जितना कम खून, जितना कम गोश्त, जमाने में उतनी ही ज्यादा हिट! ...और लोग कहें-कितनी फिट! तो जनाब हिट होने के लिए फिट होना जरूरी है और फिट वही कहलाएगी जो कमर को खींचखांचकर अंगुठी से निकालने के नाप पर ले आएगी। ...लेकिन भौतिक रूप से ऐसा संभव नहीं है क्योंकि कमर है, कोई ढ़ाका का मलमल नहीं।
लैला फिट रही होगी तभी तो आज तक हिट है!
लेकिन दिल की बात बताऊं? लैला के ककड़ी हो जाने की कहानी है बड़ी दुखदायी। लैला है, उसे रसभरी कहते, हापुस कहते, चीकू संतरा भी कहते तो चल जाती! ये ककड़ी वाली बात लैला के प्रति नाइंसाफी है। तब तो मैं बच्चा था, आज कोई ककड़ी वाला लैला की उंगलियों का ऐसा भद्दा मजाक उड़ाए तो शायद मैं उसका मुंह नोंच लूं। ...रब्बा खैर करे!
अब बात जरा मजनूं के पसलियों की। मैं हर रोज ऐसे मजनूं देखता हूं जो एक नहीं कई-कई लैलाओं को अपनी पसलियां दिखाते फिरते हैं। ककड़ी वाले की बात यहां मुझे ज्यादा माकूल लगती हैं क्योंकि आधुनिक मजनुओं की पसलियां लगभग उतनी ही कमजोर होती हैं जितनी कि एक सामान्य ककड़ी। सलमान खान से लेकर आमिर खान और ऋतिक रौशन तक बाहें मरोड़-मरोड़ कर कई एब्स दिखा चुके हैं लेकिन छोकरे आकर्षित होने का नाम ही नहीं ले रहे। दो दंड बैठक मारने को कह दो तो अगले ही घंटे आयोडेक्स और झंडू बाम की मांग करने लगें।
...लेकिन उन्हें भी दोष क्यों दें? लैला की उंगलियां जब तक एनेमिया की शिकार रहेंगी तब तक मजनू की पसलियों में दम कहां से आएगा?

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