Sunday, October 10, 2010

काश...! मैं इमरोज होता

काश...!
मैं इमरोज होता
इमरोज की तरह होता
या फिर इमरोज हो जाता
...वो लिखती मेरी पीठ पर साहिर
और मैं सचमुच इमरोज हो जाता!
लेकिन...
वो तो कभी मिली ही नहीं
मेरी पीठ कोरी की कोरी रह गई
शायद साहिर के साथ चली गई वो!

और हां...!
इमरोज होने के लिए
जरूरी है
अमृता हो जाना...!

साहिर...अमृता...इमरोज...!
एक जैसे तीन पन्ने
तीनों पर एक ही कहानी
इश्क की...मोहब्बत की...!
...तीन नहीं...
एक पन्ने की पूरी किताब!

पूरी किताब कोरी
जो चाहो लिख लो
लेकिन
कुछ लिखना मत...!
...ये मोहब्बत की गीता है!

इस किताब को खोलना भी मत
इसके पन्नों में
बसते हैं वो...
इमरोज अमृता साहिर!


1 comment:

  1. बेहद खुबसूरत अभिव्यक्ति.....साहिर...अमृता...इमरोज जी को हमेशा हो पढना अपने आप में रोमांचक होता है..

    regards

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