Tuesday, October 7, 2014

फारुख शेख का संभवत: अंतिम साक्षात्कार


दावे से तो नहीं कह सकता लेकिन मेरा खयाल है कि प्रख्यात फिल्म अभिनेता फारूख शेख ने अपना अंतिम इंटरव्यू मुङो दिया. इंटरव्यू के करीब डेढ़ महीने बाद ही वे हमसे बिछड़ गए. इस दौरान मैंने उनका कोई दूसरा इंटरव्यू कहीं पढ़ा भी नहीं. उन्होंने चलते-चलते मुझसे कहा था कि बात अधूरी रह गई है. इस विषय पर फिर से बातचीत करेंगे. दरअसल मैंने उनसे कविता को लेकर बातचीत की थी. दुर्भाग्य देखिए कि फिर कभी मुलाकात नहीं हो सकी. मैंने उन्हें अदम गोंडवी की कुछ कविताएं भेजी थीं और बिछुड़ने से तीन दिन पहले उनका एसएमएस आया था कि मिल गई हैं. पढ़ लिया है. मुलाकात होने पर चर्चा होगी. चर्चा न हो सकी. उनका साक्षात्कार शेयर कर रहा हूं- विकास




सबसे पहले मेरा खयाल है, हमारे मुल्क में खासकर कविता से आपका नाता फिल्मी गीतों के माध्यम से जुड़ता है. जिस जमाने में हम लोग स्कूल से भी पहले घर में रेडियो बजता था तो आप गीत सुन ही लेते थे. आपको याद होगा, एक बड़ा पॉपुलर कार्यक्रम होता था बिनाका गीतमाला. वो तो एक विकली हाईलाइट की तरह होता था. उसमें आप गाने सुनते थे. इत्तेफाक से उस जमाने के गानों में भी अच्छा खासा हिस्सा कविता का होता था, शायरी का होता था. अब तो ढूंढना पड़ता है कि इसमें लफ्ज कौन से हैं और हैं तो क्या हैं? मेरा खयाल है कि जुबान का इस्तेमाल जो है वो आम आदमी की जिंदगी में भी कम हो गया है. अब एसएमएस की जुबान हो गई है. जब हम एसएमएस दूसरे को भेजते हैं तो यह नहीं देखते कि इसका उच्चरण ठीक है या नहीं. तलफ्फुज को तो खैर ताक पर रख दीजिए! स्पेलिंग भी ठीक से नहीं लिखते, संक्षिप्त रूप में भेज दिया. गरज यह है कि बात आपकी समझ में आ गई ना! फिजुल की बहस में पड़ने की क्या जरूरत है लेकिन बात तो तब भी समझ में आ जाएगी जब हम केवल चीखें चिल्लाएं, सिर घुमाएं, मुस्कुराएं. लेकिन जुबान एक ऐसी चीज है जिसे मानव जाति ने हजारों सालों में विकसित होते-होते प्राप्त किया है. हजारों सालों में जाकर एक ऐसी मयार पर पहुंची जिसे हम अच्छी जुबान कहते हैं. मेरा खयाल है कि मुल्तान में एक कहावत है कि सास बाजी राग पाया, जैसे ही आप मुंह खोलते हैं, पता चल जाता है कि आप हैं कितने पानी में. अच्छे कपड़े मैं भी पहन लेता हूं, अच्छे कपड़े आप भी पहन लेते हैं. आप जब बात करेंगे तो पता चलेगा कि पढ़ा लिखा इनसान बोल रहा है, शाइस्ता इनसान बोल रहा है जिसकी जानकारी का एक दिमाग में डाटा बैंक है. मैं कुछ बोलूं तो बोलते ही पता चल जाएगा कि है कितनी औकात इसकी. तो जबान एक अच्छी चीज थी, बहुत काम की चीज थी. और एक रिफाइंड मैन का सबूत थी. मानव जाति में जो रिफाइनमेंट आई है, उसका सबसे बड़ा सबूत जुबान और भाषा है, हम तो यह करते हैं कि पच्चीस रुपए की एक चप्पल खरीदें तो उसे दस जगह से घुमाकर देखते हैं. हालांकि उसे रहना मिट्टी में है लेकिन उसे घुमाकर देखते हैं कि यार ये ठीक है या वो ठीक है. उसका सोल के नीचे की भी डिजाइन देखते हैं. तो चप्पल की भी अहमियत जुबान से ज्यादा है. हर चीज हमें सजावट के साथ चाहिए, उसका नक्शो निगार उसके अच्छे होने चाहिए, उसकी उपयोगिता कितनी है वो अपनी जगह है. वो इस्तेमाल में क्या आ रहा है या कितने दिन तक आएगी यह बात अलग है. मैं अगर पच्चीस हजार रुपए की चप्पल पहनता हूं तो मैं आपको यह उठाकर तो दिखाउंगा नहीं सिवाय इसके कि मेरा दिमाग खराब हो गया हो! लेकिन उसमें भी मुङो यह चाहिए कि चप्पल तो अच्छी होनी चाहिए. फलां कंपनी की होनी चाहिए ताकि मेरी शान में कोई खलल न हो. आगे लेकर मैं हालांकि चलूंगा मैं कीचड़ में. आजकल सड़क कम और कीचड़ ही ज्यादा नजर आता है या फिर गाड़ियां नजर आती हैं. लेकिन उसमें भी चाहिए नक्शो निगार लेकिन जुबान में इसकी जरूरत ही नहीं है. जो दौलत और हैसियत हमने इनसानी हजारों सालों में जमा की है, उसे यदि दो-चार दशक में गंवां दें तो ये बहुत बड़ी हिमाकत होगी. लेकिन इसकी तरफ लोग ध्यान नहीं देते हैं. हालांकि मुंबई से ज्यादा
मुशायरे और कवि सम्मेलन होते हैं तो सुबह हो जाती है. लोग उठते नहीं हैं. पूरी रात चलती है, लोग ठिठुरते रहते हैं लेकिन बैठे रहते हैं तो जुबान का अना एक जादू है लेकिन अब तो मैं जोर से चिल्ला दूं तो भी भाषा हो गई, चीख दूं तो भी भाषा हो गई, सिर्फ मुंह बना दूं या जोर से हंस दूं तो भी भाषा हो गई. अल्फाज की अहमीयत ही खत्म होती जा रही है.

रंगमंच है दृष्य काव्य
रंग मंच में तो सबकुछ वोकल ही है. उसे दृष्य काव्य ही कहा जाएगा.  जहां तक पहले की फिल्मों में लावण्य का सवाल है जीवन की कविता का सवाल है तो मैं एक बिल्कुल सादा सा उदाहरण आपको देता हूं समाज के हर तबके का मैकडोनलाइजेशन हो रहा है. जब आप मैकडोनलाइजेशन की बात करते हैं तो आप दुनिया के किसी भी हिस्से में चले जाएं बर्गर एक ही जैसा मिलेगा. तो आप जाइए पैसा पटकिए, वह भी बर्गर पटकर दे देगा. और आप उसे चलते-चलते दौड़ते-दौड़ते खा लेंगे. अब  ये तो हो सकता है कि  ये जल्दी मिल गया, काम तो हो गया न! पेट भरने वाली बात है वह भी दौड़ते-दौड़ते
शायरी और फिल्मों का संबंध था पहले. उस दौर को मिस करते हैं. हर आदमी मिस करता है लेकिन रियलाइज नहीं करता है. जैसे रफी साहब गाएं या लताजी गाएं तो ऐसा लगता है कि कान में शहद कोई घोल रहा है. मैं गाऊं तो ऐसा लगेगा कि इसका गला दबा दूं. तो जिस तरह भोंदी आवाज, भोंदा सुर कान को चुभता है उसी तरह गलत उच्चरण कान को चुभता है. और आपको फौरन इसका एहसास हो न हो लेकिन जब ढ़ाई घंटे की पूरी फिल्म आ देख चुके होते हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन कछ एक्टर और एक्ट्रेस ऐसी होती हैं कि जिनकी आवाज ही आपको अच्छी नहीं लगती. आपको लगता है कि यह चुप हो जाए तो अच्छा है. नाक में से बोल रहे हैं, चीख कर बोल रहे हैं. या सिवाय चिल्लाएं, बात ही नहीं करते तब लगता है कि यार ये न बोले तो अच्छा है. ये इसलिए है क्योंकि अच्छी जुबान आपको अच्छी लगती है, भली लगती है. आपको लगता है कि ये बोले तो सुनूं. मुङो अब भी याद है कि रेडियो पर देवकीनंदन पांडे जी समाचार पढ़ते थे तो क्या उनके पढने का अंदाज था, क्या अल्फाज थे, पेश करने का क्या तरीका था! मतलब खबर तो आप तक पहुंचती ही थी, आपको ऐसा लगता था कि जुबान की एक क्लास भी चल रही है.
दाल तो सौ जगह बनती है लेकिन मां के हाथ की जो दाल होती है वह बच्चों को अच्छी लगती है क्योंकि उसमें एक खास बात होती है. अच्छी जुबान बोलने की हम पर पहले जबर्दस्ती की जाती थी. जब हम लोगों ने शुरु किया तो माहौल यह था कि यार तुम अच्छी जुबान नहीं बोल सकते तो एक्टर क्यों बन रहे हो, कुछ और बन जाओ. मदारी बन जाओ या सर्कस में काम करो वहां जुबान की जरूरत ही नहीं है. यदि फिल्मों मेंआ रहे हो या रेडियो में हो तो बगैर सही जुबान जाने अच्छा कर ही नहीं सकते. अब जो है, मैं किसी की शौक पर न किसी की आदत पर एतराज करना न चाहता हूं लेकिन अब तो एक्टर जिम्नेजियम में तैयार होते हैं. वो वहां से एक्टर बन कर निकलते हैं कि मेरे छह पैक हैं तो कोई कहेगा मेरे आठ पैक हैं. अब मैंने फॉरेन से एक ट्रेनर बुलाया है जो हर रोज मुङो तीन घंटे ट्रेनिंग  देगा. उस जमाने में तो यह था कि जब जुबान नहीं आती तो एक्टर क्या बनेगा? कुछ और काम कर लो या फिर जुबान सीख लो, तलफ्फुज सीखो, अच्छे लोगों में उठना बैठना सीखो. अब यदि पांच एक्टर काम कर रहे हैं और एक बेसुरा है तो चार एक्टर कहेंगे कि क्या इनके सिवा और कोई मिलता नहीं आपको?

पुराने दौर शायर तो अब बनता नहीं और जो बनता है उसे जगह नहीं देते हैं. कितनी अजीब बात है लेकिन अहम बात भी है कि पिछले साठ सालों में या कम से कम पिछले तीस सालों में हिंदुस्तान जैसे मुल्क में जहां हर तरह का फन और कला और संस्कृति पाई जाती है जितनी दुनिया में कहीं नहीं मिलती ल ेकिन कोई एक लता मंगेशकर आपने पैदा नहीं किया, कोई एक मोहम्मद रफी पैदा नहीं किया, कोई तलत महमूद नहीं बनाया, कोई मन्ना डे आपको नही मिला. कोई साहिर लुधियानवी नहीं मिलता. मैं गालिब और मीर की तो बात ही नहीं कर रहा हूं. मेरी अपनी बेटियां जेके राउलिंग को पढ़ती हैं. तमाम इज्जत के साथ कहना चाहूंगा कि जे.के. राउलिंग उस मोहल्ले में खड़ी नहीं हो सकतीं जहां मुंशी प्रेमचंद थे. प्रेमचंद मिट्टी से जुड़ी बात करते थे. एसा लगता था कि ये सारे किरदार इनकी अपनी आंखों देखे हुए हैं. जे.के. राउलिंग का किरदार दिलचस्प हो सकता है लेकिन उनमें सतहीपन है. उनसे हम वाकिफ नहीं हैं. फिर भी हम बच्चों को उसमें आगे बढ़ा रहे हैं. पचास रुपए में पूरा मजमून प्रेमचंदजी का मिलता हो तो बच्चा नहीं पढ़ता उसे लेकिन 700 रुपए की राउलिंग पढ़ता है. और जितना खराबा, मुङो माफ करें, टेलीवीजन कर रहा है उसकी तो कोई हद ही नहीं है. हर तरह की बेतुकी बातें टीवी पर आपको नजर आती हैं और ट्रेजडी यह है कि अभी मैं आपको खिड़की खोलकर दूसरी बिल्डिंगों का नजरा दिखाऊं तो ऐसा लगेगा कि सारी फैमिली सुन रही है और एक आदमी बोल रहा है. तो तीन सौ पैंसठ दिन यदि सारी फैमिली तीन चार घंटे सुनती है और एक ही व्यक्ति बोलता है तो चाहते न चाहते आपके दिमाग में कोई न कोई चीज प्रवेशकरेगी और आपाके यही सुनने को मिल रहा है तो आपके दिमाग में जा क्या रहा है और आप कर क्या रहे हैं. जिंदगी के मुल्य क्या हैं. आप किस तरह की जिंदगी चाह रहे हैं. ये कुछ अजीबो गरीब है. जैसे मैने पहले अर्ज किया कि ये मैक्डोनलाइजेशन है. उससे  आप पौष्टिक खुराक की उम्मीद मत कीजिए. आप उससे दो चार घड़ी का मजा जरूर लेते हैं. चाट गली में मैं शहद बनाने तो जाता नहीं हूं. चाट गली में तो चटाखा ही मिलेगा. रोज तो आप चटाखा नही खा सकते ना, वर्ना दो हफ्ते बाद अस्पताल के चक्कर काटने पड़ेंगे. 

प्रकृति से ही कविता शुरु होती है. देखिए दुनिया में कोई और मुल्क तो ऐसा है नहीं जहां इतनी जुबानें हैं. और इतनी जुबानें मौजूदा दौर में चल रही हैं. मतलब यदि सारी बोलियां आदि मिला लें तो करीब 2600 हैं. संस्कृति के इतने अलग-अलग रूप भी कहीं नहीं हैं. विचार में भी नही आ सकते. ये सारी चीजें हिंदुस्तान की मिट्टी से उपजी हैं. कुछ ऐसी चीजें हैं जो मैं समझता हूं हिंदुस्तान के अलावा और कहीं पैदा ही नहीं हो सकती हैं. मिसाल के तौर पर उर्दू जुबान! इतनी हिंदुस्तानी जुबानों का मिश्रण है कि वो किसी और मुल्क में पैदा ही नहीं हो सकती. वह शहद भी है , नमकीन भी है. मोहब्बत तो बिना उदरु जुबान के पूरी ही नहीं हो सकती है. उसी उर्दू में आप इश्क भी कर सकते हैं, उसी में जंग भी कर सकते हैं. वही फिल्मों की बात ले लें तो शाहजादा अनारकली से मोहब्बत की बात कर रहा है और अकबरे आजम जंग का एलान कर रहे हैं.
अमीर खुसरो को लीजिए, दुनिया के किस हिस्से में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा हुआ है?कितनी सदियां गुजर गई हैं लेकिन आज भी मौजूं हैं. 600 साल बाद भी संदर्भ में हैं आगे भी रहेंगी. ये इस मिट्टी का कमाल है.
इन दिनों अदम गोंडवी को पढ़ रहा हूं.

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