Tuesday, October 7, 2014

गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद!


लोकमत समाचार की रचना वार्षिकी के लिए पिछले साल मैंने प्रख्यात गीतकार समीर अनजान से बातचीत की थी. अब इसे शेयर कर रहा हूं. समीर  जी ने जो जैसा कहा, मैंने वैसे ही उन्हीं की भाषा में उतार दिया है- विकास


मुङो लगता है कि जब मैं छठी या सातवीं कक्षा में आया तब से मुङो कभी-कभी कुछ पंक्तियों की आमद हो जाती थी. कई बार मैं चमत्कृत भी होता था कि मेरे दिमाग में ये चीजें आती क्यों हैं? लेकिन मुङो अच्छा लगता था. कभी-कभी रास्ते में चलते हुए गिरा हुआ पैसा मिल जाए तो अच्छा लगता है ना! ठीक उसी तरह से कभी-कभी चलते फिरते कोई पंक्ति दिमाग में आ जाती थी तो मैं बहुत खुश होता था. तब एक ही लाइन आती थी और बात आई गई हो जाती थी. मगर धीरे धीरे मुङो शौक पैदा होने लगा कि ये जो पहली लाइन आई है, उसे आगे कैसे बढ़ाया जाए? ये क्यों आई, इसके पीछे सोच क्या है? तो धीरे-धीरे वो जो जर्म्स थे वो डेवलप होने लगे. 
पहली कविता जिस पर मुङो मेरे कॉलेज का पुरस्कार मिला था उसके पीछे की कहानी दिलचस्प है. मैं हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज बनारस में पढ़ रहा था और बारहवीं में था. उस जमाने में नई कविता का दौर चला हुआ था और हम लोग दुष्यंत कुमार की गजलों से बहुत प्रभावित थे और जहां गुलजार साहब को लाकर रखा जाता है, नई कविता के दौर में उनका नाम सबसे ऊपर रखा जाता था. उन्होंने बहुत से गाने लिखे ‘मेरा कुछ सामान खो गया है’ से लेकर पत्थर की हवेली में सीसे के घरौंदो से..’! एक ऐसा शब्द चयन जो लोगों को चमत्कृत करे. उसका मतलब उसे समझ में आए या न आए. शब्द चयन ऐसा था कि लोगों को लगता था कि ये कोई बड़ी बात कह रहा है. तो वो जो मेरी कविता थी उसकी शुरुआत ही थी ‘गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद! लोग चमत्कृत हुए कि ये अजीब बात है, गर्भवती सड़क पर रेंगता हुआ चांद! आप ताज्जुब करेंगे कि मुङो उस पर पहला पुरस्कार भी मिला! उस वक्त मेरा ये शौक था लेकिन मेरा जो  इनर था  वह अलग था. मैंने लिखा ‘ले गई नथुनिया वाली’ तो वहां से शुरु हुए थे हम लोग. उसके बाद मेरी एक ऑर्केस्ट्रा पार्टी हुआ करती थी जिसकी मैं कंपेयरिंग किया करता था. मेरे लिखे हुए गाने मेरे साथी कंपोज करते थे और हम गाते बजाते थे. कहीं न कहीं शुरु से इस तरह के गाने लिखने का शौक रहा लेकिन इस तरह की कविताएं भी लिखीं जिनको हम नई कविता का नाम देते है.
साहित्य में फिल्मों का भी योगदान
जब मैंने लिखना शुरु किया तब ऐसा नहीं था कि फिल्मों में आना था इसलिए लिखना था. दरअसल कहीं न कहीं वह ब्लड में था, जेनेटिक था क्योंकि पिताजी गीतकार थे. तो मुङो विरासत में मिली कविता. पहले तो शौकिया लिखता रहा लेकिन जब भी फिल्मी गाने सुनता था तो मैंने एक चीज अनुभव किया कि चाहे आप शैलेंद्र को सुनो या साहिर को सुनो या राजेंद्र किशन  को, इन सारे लोगों ने जब भी लिखा बहुत आसान लिखा. इन्होंने साहित्य से फिल्म का एक अलग रिस्ता बना कर रखा था. अब देखिए साहिर ने भी जब लिखा कि ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो’ तो इससे आसान और क्या हो सकता है? शैलेंद्र लिखते हैं..‘तेरे मन की गंगा और मेरे मन की जमुना..अब बोल राधा संगम होगा कि नहीं’, राजेंद्र किशन जी लिखते हैं कि ‘पल पल दिल के पास रहती है’ तो मेरे जेहन में यह बात बस गई कि जब आप इस मीडियम के लिए काम करें तो आम पब्लिक की बोलचाल की भाषा होनी चाहिए क्योंकि फिल्म देखने के लिए एक ऑटो रिक्शेवाला भी जाता है और एक लिटरेचर का आदमी भी जाता है. तो आप ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें कि जो सबकी समझ में आए. इसीलिए हमको लोग लिटरेचर से अलग करते हैं उसके पीछे उनका तर्क होता कि लिटरेचर में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है वह थोड़ी मुश्किल भाषा होती है और फिल्मों में वो नहीं होती है. मगर मेरा मानना है कि भाषा की क्लिष्टता या भाषा की जो मुश्किलाहट है, वह कोई पैमाना नहीं होना चाहिए साहित्य और सिनेमा को अलग रखने का. कहीं न कहीं बहुत बड़ा योगदान रहा है फिल्मों का भी साहित्य के साथ. कई लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. हां, कहने का तरीका, उसकी जमीन अलग हो सकता है. वहां चूंकि बंदिशें नहीं हैं, यहां हम बंदिशों में काम करते हैं मगर जहां तक रचना का सवाल है तो उसमें कोई दुराव नहीं होना चाहिए. कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. फिल्म की रचना हो या साहित्य की रचना हो, यदि वो अच्छी है तो उसको  साहित्य में वह दर्जा मिलना चाहिए.
मैं गंगा तट का बंजारा
पिता जी को शुरु शुरू में बहुत तकलीफ हुई. उन्होंने किताब लिखी है ‘‘मैं गंगा तट का बंजारा’’, उसमें जब आप उनकी निजी कविताएं पढ़ेंगे और जिस तरह के शब्दों का चयन उन्होंने किया है तो वह बिल्कुल अलग है. उन्हें लगा कि फिल्मों में आकर उन्हें समझौता करना पड़ा. फिल्मों में यदि काम करना है तो भाषा सरल होनी चाहिए लेकिन मुङो कभी नहीं लगा. मैं जब आया तो इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार था कि मुङो सरल भाषा में ही लिखना है. इसलिए मैंने कभी भी अपनी भाषा को कठिन बनाने की कोशिश नहीं की.
फिल्मों में विवशता यह है कि जो किरदार हमें मिलता है उसे ध्यान में रखना पड़ता है. मैंने कुली फिल्म के लिए लिखा तो इस बात का ध्यान रखना था कि कुली जब गा रहा है तो उसकी भाषा क्या होनी चाहिए. यदि कुली गा रहा हो.. ‘चंदन सा बदन, चंचल चितवन’ तो लोग हसेंगे. ऑटो चलाने वाला जब बात करेगा तो अपनी ही भाषा में बात करेगा. आप यह एक्सपेक्ट मत कीजिए कि आप जिस भाषा में बात करते हैं, उस भाषा में ऑटोवाला भी बात करे. यदि आप नाटक कर रहे हैं तो किरदार को तो आपको निभाना ही पड़ेगा. वह बात कहने का कोई मतलब नहीं जो किसी की समझ में न आए.
जुल्फ है या सड़क का मोड
पिताजी से तो मैंने जिंदगी में सबकुछ सीखा. वो नही होते तो शायद मैं गीतकार होता ही नहीं. मगर मैं प्रभावित दो राइटरों से बहुत हुआ था. एक तो आनंद बख्शी से और दूसरा मजरूह सुल्तानपुरी से. बख्शी से इसलिए क्योंकि सरलता गजब की थी. मुङो लगता था कि यदि सही मायने में फिल्म में गीतकार की उपाधि किसी को दी जानी चाहिए तो वह है आनंद बख्शी.  कहानी को और किरदार को आईने की तरह इतना साफ कहने वाला आदमी दूसरा कोई नहीं. मैं उनका एक उदाहरण देता हूं आपको. उनका एक गाना था जिसका सीन था कि एक ट्रक ड्रायवर एक तवायफ के कोठे पर जाकर गाना गाता है. अब आप देखिए कि गीतकर ने उस कैरेक्टर को कितना जिया हुआ है. गाना है..‘‘तुम्हारी जुल्फ है या सड़क का मोड़ है, तुम्हारी आंख है या नशे का तोड़ है ये..’’ अब ट्रक ड्रायवर जो बात कहेगा तो उसे वही ट्रक, वही शराब नजर आएगी. ये होता है गीतकार! तो मैं हमेशा इस बात का पक्षधर रहा कि जब आप गीत लिखें तो कहीं न कहीं ये सरलता और उस किरदार को जीने की ताकत आप में होनी चाहिए.
मजरूह साहब को इसलिए पसंद करता था कि उनकी वर्सेटिलिटी गजब की थी, ‘गम दिए मुस्तकिल कितना नाजुक है दिल..’ से लेके ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा..’ तक लिखा. इतना लंबा एरा जीनेवाला आदमी! क्या हुआ तेरा वादा, अपुन को भी जरा देखो ना, नासिर हुसैन की कव्वालियां देखिए तो पता चलेगा कि मजरूह साहब ने जितने रंग बदले. संतोषानंद जी की लाइन है  ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिसमें मिला दो लगे उस जैसा’, अगर इस पंक्ति पर आप खड़े उतरते हैं तब तो आप गीतकार हैं. नहीं तो आप यहां सक्सेसफुल नहीं हो सकते क्योंकि यहां हर तरह की सिच्यूसन मिलती है, हर तरह की किरदार मिलते हैं, हर तरह की कहानी मिलती है. तो, वर्सेटाइलिटी मजरूह साहब से मैंने सीखी.
नीरज और बच्चन पे प्रभावित किया
गोपालदास नीरज और हरवंशराय बच्चन ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं मुङो बहुत प्रभावित करती थीं, बहुत अच्छी लगती थीं. उनकी कविताएं मैंने पढ़ी भी बहुत. जैसे महादेवी वर्मा थीं, उनकी कविताएं क्लास का विषय थीं इसलिए पढ़ना पड़ा. मगर इनसे मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ उसके पीछे वही भाषा की क्लिष्टता थी, मुश्किलाहट थी इसीलिए उन कविताओं से मैं बहुत प्रभावित नहीं होता था. गजलों में दुष्यंतकुमार का प्रभाव बहुत रहा.  मैं हमेशा उन लोगों को पसंद करता हूं चाहे वो बोलने वाला हो, लिखने वाला हो या परफार्म करने वाला हो, जो जीता है. जी कर जो कहता है, उसकी कला में सच्चई नजर आती है. एक आदमी सोच कर लिखता है, एक आदमी जी कर लिखता है. सोच कर लिखने वाले हैं जैसे गुलजार साहब हैं. गुलजार साहब और मेरे में यही विरोधाभाष है. वो लोग मुङो ज्यादा प्रभावित करते हैं जो कविताएं लिखते हैं और लोग समझ पाते हैं.
भाषा का श्रृंगार
अक्सर जब मैं पत्रकारों के बीच होता हूं या क्रिटिक के बीच होता हूं और यह सवाल किया जाता है कि क्या भाषा का श्रृंगार समाप्त हो रहा है तो मेरी राय होती है कि ये जो गिरावट है, यदि आपको लगता है कि गिरावट है तो, केवल फिल्मी गीतों में नहीं हैं. वो पूरी तरह से हमारे समाज में है, हमारे देश में है, हमारी सोच में है. फिल्म समाज का आईना है. समाज में जो घटित होता है, उसका एक रंग फिल्म की कहानी में या किरदार में या कविताओं में नजर आता है. जब भाषा अपना स्वरूप बदलने लगती है. जैसे अभी मुझसे सवाल किया गया कि आपने बहुत से हिंगलिस स्टाइल के गाने लिखे. मेरे पास जवाब यह है कि चूंकि यह जनरेशन हिंगलिश है. हमारे भीतर बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाने का चलन शुरु हुआ. वो बच्चे अंग्रेजी सीखते हैं, आधे से ज्यादा बोलते हैं. हिंदी का प्रचलन कम हुआ है तो वो जो सुनना चाहते हैं वही लिखाजाएगा. और सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा वह ग्लोबलाइजेशन का है. हमारा म्यूजिक अब पूरी दुनिया में जाने लगा तो कहीं न कहीं डिफरेंट भाषा के इस्तेमाल से उसका आइडेंटिफिकेशन बढ़ता है. वो ज्यादातर लोगों के रीच तक पहुंता है. मैं कहता हूं कि भाई आपको यदि ‘चंदन सा बदन..’ सुनना है तो सरस्वतीचंद्र बनानी पड़ेगी. यदि आप कुली नंबर वन में या टपोरी नंबर 1 में यदि एक्सपेक्ट करते हैं तो वैसी भाषा का इस्तेमाल नहीं हो सकता. हम परिवर्तन चाहते हैं तो उसे जमीन से परिवर्तित करना पड़ेगा, हमको बदलना पड़ेगा. हमारी सोच को बदलना पड़ेगा, हमारे परिवेश को बदलना पड़ेगा तब जा कर हम उस तरह की चीजों को एक्सपेक्ट कर सकते हैं. तो ये जो परिवर्तन का असर रहा है, उसकी वजह से भाषा में गिरावट आई है इसमें कोई दो राय नहीं है. इसे चंचलता नहीं कह सकते. इसे प्रवाह कह सकते हैं. लेकिन आती क्या खंडाला और चंचल चितवन का फर्क तो है! ये तो आप नहीं कह सकते कि दोनों भाषाओं में समानता है और दोनों अपनी जगह सही हैं. हां, इन टोटलिटी में वो गिरावट आई है. पहले के जमाने में जो टपोरी होते थे, वो भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे. आज के टपोरी करते हैं. इसलिए मैं इसे बदलाव मानता हूं और बदलाव को स्वीकार कर लेने में ही भलाई है. हां, कोशिश होनी चाहिए कि यह ठीक हो और ठीक होने के लिए जो प्रयास चाहिए, वह निचले स्तर से शुरु होना चाहिए.
कविता जैसी है बनारस की जिंदगी
बनारस अभी भी मेरे जेहन में है, मेरी रूह में है. बनारस की मिट्टी में, खुशबू में कहीं न कहीं एक कल्चर और क्रिएटिविटी पलती है. मैं जब-जब जाता हूं और लौटकर आता हूं तो मुङो लगता है कि मेरा पुनर्जनम हुआ है. वो एक शहर अभी भी ऐसा है जो अपनी अस्मिता को, अपने रंग को, अपनी संस्कृति को जिंदा रखे हुए है. अभी भी बनारसी आदमी आपसे मिलेगा, छन्नूलालजी से मिलेंगे तो बात करने का जो लहजा है वह बनारस वाला ही मिलेगा. बिसमिल्ला खां को भारत रत्न दे दिया गया लेकिन बिस्मिल्ला खां में कोई परिवर्तन नहीं आया. उनके बात करने का जो लहजा था, काम करने का जो तरीका था, वो वैसा ही था जैसा चालीस-पचास साल पहले रहा होगा. दशाश्वमेघ घाट की शाम हो, वहां की भांग हो या वहां की नैया पर घूमना हो, वहां का खाना हो, या नास्ता हो, शाम को दूध के साथ मलाई, लस्सी, सब अद्भुद है. कोई करोड़पति भी होगा गमछा पहनकर नदी के पार ही जाएगा. मेरे कई रिस्तेदारों ने नौकरियां छोड़ दीं क्योंकि बनारस से ट्रांस्फर नहीं लेना है. वो पान, वो संकटमोचन, वो विश्वनाथजी उनको चाहिए. वो गलियां, वो कल्चर, वो खुशबू अगल ही है. और किसी शहर में मुङो वो रंग मिला ही नहीं. अच्छा दूसरा क्या होता है जो मैने मुंबई में आने के बाद महसूस की कि आप जिस मिट्टी में पलते हैं वहां की खुशबू और वहां का रखरखाव आपके जेहन में इस तरह से बस जाता है कि आप उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाते हैं. आप मुङो पैडर रोड ले जाकर रख दीजिए, मैं नहीं रह पाऊंगा. तो समझ लीजिए कि बचपन और जवानी जहां गुजरती है, वो जगह आप भूल ही नहीं सकते, भले ही आप पचास साल बाहर रह लें. उसे मिस करते रहते हैं. अभी भी मैं बनारस जाता हूं तो रिक्शे में ही घूमने में मजा आता है. अभी भी मैं दशाश्वमेघ घाट तक पैदल चलकर ही जाता हूं. सर्दियों में जेब में भुना हुआ चिनियाबादाम (मूंगफली) रखकर उसे खाते हुए जाने का जो मजा है वो कहीं नहीं मिलेगा! वहां के कवियों को सुनता हूं तो लगता है वह भाव अभी भी कहीं न कहीं मेरे भीतर जी रहा है. बनारस में लोग जीवन को सही मायनों में जीना जानते हैं. बनारस की हवा और मुंबई की हवा में ही ऐसी जंजीर है कि जो एक बार आया, वो कभी लौटकर नहीं गया! बनारस की जिंदगी में कविता, संगीत और स्वाद भरा हुआ है. मेरे लेखन में भी वह उतरकर आता है. जब-जब मुङो मौका मिला मैंने उस जीवन को गीतों में उतारने की कोशिश की है. वो मैने गान लिखा था..‘जेठ की दुपहरी में पांव जले है रामा या फिर वो यूपी वाला ठुमका लगाऊं कि हीरो जैसे नाच के दिखाऊं.. कल भी मेरे बच्चन साहब के साथ मेरी मीटिंग चल रही थी. उनके लिए जो मैंने लिखा उनमें बनारस को पिरो दिया है. होरी खेले रघुवीरा में भी बनारस की खुशबू है.

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