Tuesday, October 7, 2014

मनोज वाजपेयी बोले-लोगों के कविता भी इंस्टैंट चाहिए!

पिछले साल मैंने प्रख्यात अभिनेता मनोज वाजपेयी से बातचीत की थी. अब इसे शेयर कर रहा हूं. मनोज जी ने जो जैसा कहा, मैंने वैसे ही उन्हीं की भाषा में उतार दिया है- विकास


यह सवाल वाकई बड़ा दिलचस्प है कि क्या रंगमंच एक काव्य की तरह है? मैं  काव्यभाषा में कहूं तो रंगंमच एक संघर्षमय और पूर्ण माध्यम है एक अभिनेता के लिए. इससे ज्यादा पूर्ण माध्यम कोई है नहीं दुनिया में. हमेशा यह कहा जाता है कि आप थियेटर के अभिनेता को लीजिए, वह अच्छा अभिनय करेगा. ऐसा नहीं कि थियेटर के कलाकार में कोई सुरखाब का पर लगा हुआ है. दरअसल थियेटर का एक्टर एक अभिनय के माध्यम से आता है. अभिनय का माध्यम का मतलब यह होता है, वह जो माध्यम है पूरी तरह निर्भर करता है अभिनेता पर. उस पूरे दौर में अभिनेता जो है वह टूटता है, बौद्धिक रूप से, शारीरिक रूप से, अभिनय की दृष्टि से टूटता है, फिर से खड़ा होता है. इसमें साहित्य का बहुत बड़ा योगदान होता है. उसमें हर चीज का समावेश किया जाता है, उसके पूर्ण विकास के लिए शायद कविता, शायद एक खालिस लेखन या फिर पाठन की दृष्टि से उसे पूरी तरह तैयार किया जाता है. इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि रंगमंच किसी को भी करना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि उसे अभिनेता बनना है या नहीं बनना है. रंगमंच हर बच्चे को करना चाहिए क्योंकि रंगमंच एक व्यक्ति का पूर्ण विकास करता है. मैं यह भी कह सकता हूं कि रंगमंच सें काव्यात्मकता और लयबद्धता सीखता हैआदमी. यदि पूरे अभियन में लय नहीं हो तो सम पर समाप्त नहीं होगा. अगर सही मोड पर शुरु नहीं होगा तो यही कहेंगे ना कि कि सुर सही नहीं मिला, सुर अच्छा नहीं लगा. उसको हम संगीत से भी बांधकर देखते हैं, उसे कविता से भी बांध कर देखते हैं कि जो उसने सुना वह कानों को लग रहा है या नहीं. इसके लिए अलग से हम लोगों की एक एक्सरसाईज होती है जिसमें हम अलग से सिर्फ काव्य पाठ करते हैं. उसके लिए अलग से हम कोरस में शामिल होते हैं. इससे अभियन को एक आयाम मिलता है.
सूफीयाना शास्त्रीय संगीत
मेरा मानना है कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया जारी रहती है. समाज जब बदलता है तो बहुत सारी चीजें टूटती बिखड़ती हैं. उसमें शास्त्रीय संगीत सबसे बड़ा शिकार हुआ है. कविता भी हुई है. साहित्य भी हुआ है क्योंकि जब हम पूरी तरह से फास्ट फुड कल्चर में जाते हैं तो हम प्रक्रिया को हम नजरंदआदाज कर देते हैं. पहले पकौड़ा बनाने के लिए बेसन बनाया जाता था, फिर तेल गरम किया जाता था, आपके समाने पकौड़े डाले जाते थे, तलते थे. एक पूरी प्रक्रिया होती थी खाने के पहले की. अभी खाना बना बनाया तैयार चाहिए, ये जो पूरी प्रक्रिया है, उससे लोग ऊब गए हैं. शास्त्रीय संगीत एक प्रक्रिया है. कोई भी जो क्लासिकल फॉर्म है, वह प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया कला को निखारती है. शास्त्रीय संगीत कंठ को निखारता है लेकिन आज बैठकर इतनी देर कोई सुनना नहीं चाहता! मुङो खाना चाहिए, मुङो अचानक खाना है. अचानक स्वाद चाहिए. अचानक खत्म करूं. पैसे दूं और अगले काम पर बढूं.
हालांकि एक दूसरे पहलू को देखिए तो हाल फिलहाल में भले ही सूफी संगीत के माध्यम से ही क्यों न सही शास्त्रीय संगीत वापस आना शुरु हुआ है. उसमें लय बदले हैं, सुर जो है वह शास्त्रीय संगीत के ही आ रहे हैं. लय इसलिए बदला है क्योंकि पुराने धाकर लोगों ने आज के दौर को सामने रखते हुए एक दिशा लेने की शुरुआत की है. आज सूफी संगीत जो है, मेरे हिसाब से शास्त्रीय संगीत की परंपरा को कायम रखे हुए है. भले ही पीछे ढोलक न सही ड्रम सुनाई दे रहा है. उससे कोई मतलब नहीं है. कम से कम वह जो आवाज है, लय है, निखार है, तैयारी है, वह दिखाई दे रही है.


मेरा अभिनय, मेरा पढ़ना..!
मेरा जो दर्शक है. वह गहराई में जाकर नहीं सोचता है. उसे लयबद्धता चाहिए, एक प्रवाह चाहिए बिल्कुल किसी कविता की तरह, जो किरदार को सजीव कर दे. मैं जो अभिनय करता हूं, वह एक्शन से कट तक न शुरु होता है न खत्म होता है. मेरी लाइब्रेरी में जाएं तो आपको हिंदी की बहुत सी कविताओं की पुस्तकें मिलेंगी. कहीं भी जाता हूं, उठा कर ले आता हूं. पढ़ता हूं. अंग्रेजी साहित्य मेरी पत्नी बढ़ती है. मेरे हिसाब से पढ़ाई लिखाई आपकी मदद करता है, एक तैयारी हमेशा चलती रहती है. एक्शन से पहले की जो तैयारी है, उसकी कोई सीमा नहीं है, वह चलती रहती है. जब आप कोई सीन करने जाते हैं तो अंतरआत्मा तक में इतनी तैयारी पहले से हो जाती है कि अलग से कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती.
मेरे सामने यह सवाल रखा जाता है कि फिल्मों से शायरी और संगीत गायब हो रहा है. मुङो ऐसा नहीं लगता. मुङो तो लगता है कि बहुत ही सहजता के साथ आ रहा है. गालिब का कोई शेर आज कोई सुनता है उसमें से एक शब्द नहीं जानता है तो उसकी रुचि हट जाती है. आज जो भी शायरी आ रही है, चाहे वह संगीत के माध्यम से या किसी सीन के माध्यम से तो उसमें काफी सहजता है. वह किसी अनपढ़ आदमी को भी समझ में आती है. दरअसल लोगों का धैर्य खत्म हो चुका है. वे डिक्शनरी खोलकर नहीं बैठेंगे किसी शब्द का अर्थ जानने के लिए. उनको तत्काल सब बात समझ में आनी चाहिए. इंस्टैट समझ में आनी चाहिए. यदि वो नहीं हो रहा है तो हम वहीं पर असफल हो जाते हैं. ये जो सहजता की मांग है, दर्शक करता है.
मैं खुद की बात करूं तो मैं गालिब को भी पढ़ता हूं और फिराक को भी क्योंकि उसके लिए हमने रुचि पैदा की थी, वो समय अलग था. यदि हम रुचि पैदा नहीं करते तो अलग कर दिए जाते. कुछ माहौल ऐसा था कि आपने आज कौन सी किताब पढ़ी? इस महीने में कौन सी किताब पढ़ी? यदि आप लोगों से बातचीत कर रहे हों और उनको यह पता चले कि यह पढ़ता लिखता नहीं है तो समाज से बहिष्कार कर दिया जाता था. रंगमंच के उस ग्रुप से बहिष्कार कर दिया जाता था. इस दबाव में हमें पढ़ना पड़ता था. इसलिए पढ़ने की जो आदत लगी मुङो वह रंगमंच की वजह से लगी. पढ़ा लिखा हमेशा काम ही आता है. पढ़ना हर युग में जरूरी रहा है. मैं सबको पढ़ता हूं. यदि किसी नए व्यक्ति ने भी कोई कविता लिखी है और मुङो कूरियर कर देता है तो मैं जरूर पढ़ता हूं. यदि अच्छा लगा और उस कविता के साथ फोन नंबर भी है तो उसे मैसेज जरूर करता हूं कि भैया अच्छा लगा. कहने का आशय यह है कि आप कुछ भी पढ़ें लेकिन पढ़ें जरूर. मेरा अपना मानना है कि जरूरी नहीं कि आप गालिब को पढ़िए. आप किसी को भी पढ़िए, नए शायर को पढ़िए लेकिन पढ़िए जरूर. लोगों के जो विचार हैं, नजरिया है उसे देखने जानने की बहुत जरूरत है नहीं तो हम अपना नजरिया भी नहीं जान पाएंगे क्योंकि हम तो हर दूसरे सेकेंड में विरोधाभास में रहते हैं. अपने विरोधाभाष को  समझने के लिए दूसरे की कृति को पढ़ना बहुत जरूरी है.
कविता से मिली वो तालियों की गड़गड़ाहट
अपने काव्यानुराग की एक शुरुआती कहानी सुनाता हूं आपको. वास्तव में मेरे नैसर्गिक अभिनय की शुरुआत ही कविता से हुई है. मैं चौथी क्लास में था लेकिन मन के किसी कोने में यह भाव समाहित था कि एक्टिंग करुंगा लेकिन कोई जरिया नहीं था. मैं शर्मिला सा बच्च था. उसी दौरान एजुकेशनल कांटेस्ट होने वाला था और पता नही कि क्या सोचकर मेरे टीचर ने मुङो चुन लिया, उन्होंने कहा- मनोज प्रतिनिधित्व करेगा!  बेतिया (बिहार) के संत सतानलेस स्कूल का वो दिन मुङो आज भी याद है. मुङो जब चुन लिया गया तो मेरी जिम्मेदारी हो गई कि कुछ अच्छा करूं. मेरे सब्जेक्ट में हरिवंश राय बच्चन की कविता थी ‘‘जो बीत गई सो बात गई..’’ टीचर ने कहा कि इसे करो! इस तरह मेरा पहला परफॉर्मेस हरिवंशराय बच्चन जी से शुरु हुआ. अमित जी का फैन तो मैं बाद में बना हूं. हरिवंश राय बच्चन का फैन पहले बना. उस चक्कर में उनकी कुछ और कविताएं पढ़ीं, मधुशाला की पंक्तियां पढ़ लीं. समझ में आती नहीं थी, उतनी छोटी सी उम्र में मधुशाला आपको समझ में नहीं आएगी, केवल शराबी समझ में आएगा, उसके बाद कुछ समझ में नहीं आएगा. ..तो जो बीत गई सो बात गई के लिए मुङो पुरस्कार भी मिला और तालियों की गड़गड़ाहट मुङो आज भी याद है. उसके कारण यह हुआ कि अब एक्टर ही बनना है, कुछ और नहीं बनना है जीवन में, यह तय हो गया. उसके बाद एजुकेशनल कांटेस्ट और छोटी-मोटी नाटिकाओं के जरिए सफर जारी रहा.

..तब लोगों ने कहा था भांड हो गया है!
स्कूली जीवन में पहले नाटक खूब होते थे. सालाना उत्सव ज्यादा होते थे. अब कम हो रहे हैं लेकिन इसका मतलब यह नही कि इससे जीवन श्रृंगारकमी आई है. आज हर व्यक्ति चाहे वह मां-बाप हो या बच्च हो, अभिनय को केवल एक शौक की तरह से नहीं देखता है. अब उसे जिंदगी में जो भी पाना है उसका एक जरिया मानता है. जैसे आईपीएस, आईएएस को हम मानते थे, वैसे ही अब हमने अभियन को मानना शुरु कर दिया है. अभी नोयडा से किसी पिता ने मुङो फोन किया कि ‘‘मेरा बच्च दस साल का है और मुङो लगता है कि वह अभिनेता ही है. मुङो इसके लिए क्या करना चाहिए?’’. मैंने उन्हें सलाह दी कि पहले पढ़ने तो दीजिए उसे. मेरा यह कहना है कि ये जो एप्रूवल है वह समाज में था ही नहीं. कभी कोई पिता किसी को फोन नहीं करता बल्कि उल्टा बेटे को दो चांटे देता और कहता कि पढ़ाई कर. मैंने तो जब तक ग्रेज्यूशन नहीं किया था तब तक अपने पिता को बोला भी नहीं था कि मैं अभिनेता बनना चाहता हूं. डर इतना था. समाज का जो नजरिया था इस क्षेत्र को लेकर वो बिल्कुल अलग था. अभी वो बदल गया है. मैंने जब पिताजी को कहा कि अभिनय में जाना है तब तक मैं बहुत दूर दिल्ली पहुंच चुका था. उनका हांथ वहां तक नहीं पहुंचते. हालांकि मैंने जब बताया तो उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. समाज ने जरूर बहुत बुरा भला कहा था मेरे परिवार को- नाटक कर रहा है, भांड हो गया है, इतना पैसा लगाया इन लोगों ने पढ़ाने लिखाने पर. यूपीएससी करना चाहिए था! बहुत सी बातें थीं लेकिन मैं उसके लिए तैयार था.
नौस्टालजिक नहीं हूं मैं
पहले हिंदी फिल्मों में प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को कविताएं लिखकर भेजते थे. अब सवाल उठता है कि उस दौर को क्यों मिस किया जाए? सच कहूं तो मैं उस दौर को मिस नहीं करता हूं. मैं नौस्टाल्जिक (अतीत के लिए लालायित) आदमी नहीं हूं. मैं पीछे के समय से बंधकर नहीं रहता हूं. मेरा मानना है कि समाज बदलता है. मोतीलालजी या दिलीप साहब के समय जो समाज था वही आपको रिफ्लेक्ट होता था उनके सिनेमा में. वह समाज बदलकर जिस तरह से शम्मी कपूर जी के समय में परिलक्षित हुआ, उसी तरीके से रोमांश का समय राजकपूर जी के समय अलग था और राजेश खन्ना के समय अलग था. राजेश खन्ना के समय वह अपने मरने की बात करता  है, कुर्बानी की बात करता है. जब उस रोमांस से  व्यक्ति थक गया क्योंकि रोमांश खा नहीं सकता था, रोमांस नौकरी दे नहीं सकता था तो अमिताभ बच्चन के जरिए उस वक्त का गुस्सा और वो नाराजगी नजर आई. फिर शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान के जरिए एक अलग ढंग से आई लव यू कहने का नजरिया भी बदला क्योंकि समाज बदल रहा है. समाज अपने अपने ढंग  से बदलता रहा है, अपने ढंग से नायक भी सामने लेकर आता रहा है.
लड़कियों से डर लगता था
मैं प्रेम के लिए बोल नहीं पाता था, लड़कियों से डर लगता था, शायरी तो बहुत दूर की बात थी. मैं आया बहुत छोटी सी जगह से था जहां पर आप उस तरह की बात सोच भी नहीं सकते थे. किसी की तरफ दूर से देखते रहिए और समझते रहिए कि आपको प्यार हो गया है..! तब तक उसकी शादी भी हो जाती थी और उसके बच्चे भी हो जाते थे. रंगमंच में जब मैं पापुलर हुआ तो संपर्क में शहर लड़कियां थीं, वो खीज जाती थीं कि इतने सारे इशारे कर रही हूं और ये आदमी समझ नहीं रहा है. बाद में आकर बोल देती थीं कि बात समझ में नहीं आ रही है? एक लड़की ने तो मुङो डांट दिया था कि तुङो समझ क्यों नहीं आ रही है कि मैं तुझसे प्यार करती हूं. दिल्ली की बात है वो. हम लोग छोटी जगह से थे. लड़कियां यदि सीधे आकर प्यार का इजहार नहीं करती तो हम समझते ही नहीं. हम तो शादी के समय ही लड़की को जान पाते. ये तो बड़े शहर में आने के कारण हमारा कल्याण हो गया.
प्रकृति सबसे सुंदर कविता
मेरे खयाल से हिंदुस्तान से प्रकृति नष्ट हो रही है. जितनी बेहतर और काव्यात्मक थी वो खत्म हो रही है. नष्ट कर दिया लोगों ने. पश्चिमी देशों में बहुत सहेज कर रखा है प्रकृति को. आप जहां भी जाएं योरप या अमेरिका जाएं, बहुत काम किया है उन लोगों ने. नाव्रे मुङो बहुत कमाल लगा है. मेरे ख्याल से प्रकृति अपने पूर्ण रूप में नव्रे, स्वीडन, डेनमार्क और आईसलैंड जैसी जगहों पर दिखती है. अपने देश में शुटिंग करने जाता हूं और देखता हूं कि बेतरतीब तरीके से प्रकृति को विकास के नाम पर नष्ट किया जाता है तो दर्द होता है. मेरे इलाके (बेतिया, बिहार) में इतना घना जंगल था और इतना खूबसूरत था कि मैं प्रकृति के सानिध्य में हमेशा बाहर ही रहता था. मैं घर के भीतर बैठता ही नहीं था. विकास के नाम पर इस देश को जिस तरह से बर्बाद किया गया है, उससे पीड़ा तो होती है. मैं कहना चाहूं गा कि जिस प्रकृति को आप नष्ट कर रहे हो, वही आपके नष्ट होने का कारण बनेगा. केदार नाथ उसका बहुत बड़ा उदाहरण है. ये कभी भी हम लोगों के साथ होने वाला है. प्रकृति की प्रतिक्रिया शुरु हुई है, वह कहीं भी हो सकती है.

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