Wednesday, May 30, 2018

सफर चीन बोर्डर तक (अंतिम भाग)

सफर चीन बोर्डर तक
(अंतिम भाग)
चीनियों से बचने के लिए भागती रही 15 साल की वो लड़की
तवांग में सारी आधुनिकता आपको मिलेगी. शहर बहुत महंगा है क्योंकि यहां हर चीज करीब पौने तीन सौ किलो मीटर दूर तेजपुर से आता है. आने-जाने का साधन महंगा है तो स्वाभाविक तौर पर शहर में महंगाई होगी ही! शाम को यूं ही टहलते हुए हम एक रेस्टोरेंट के पास से गुजर रहे थे. रेस्टोरेंट के बाहर एक सज्जन बैठे थे. बहुत बुजुर्ग नजर आ रहे थे और मुङो लगा कि 1962 की लड़ाई के बारे में शायद कुछ जानकारी दे पाएं. हमने बातचीत शुरु की. उनका नाम था ताशी! वे बिल्कुल स्थानीय भाषा बोल रहे थे जो थोड़ा-थोड़ा ही समझ में आ रहा था. बस इतना समझ में आया कि उन्होंने 20 साल फौज के साथ काम किया था लेकिन पेंशन नहीं मिल रहा है. रेस्टोरेंट के बाहर बोर्ड पर लिखा था-ड्रेगन रेस्टोरेंट! आमतौर पर हम ड्रेगन का संबोधन चीन के लिए करते हैं इसलिए जिज्ञासावश उस रेस्टोरेंट में चला गया. रेस्टोरेंट करीब-करीब खाली था. खाने के लिए हमने ‘मोमो’ ऑर्डर किया और रेस्टोरेंट के युवा मालिक से गुफ्तगू करने लगे. उसने दुकान का नाम ड्रेगन रखा था लेकिन था वह चीन का भयंकर विरोधी. कहने लगा कि तिब्बत तो क्या चीन को लोग ही चीन से खुश नहीं है. वह धोखेबाज है. वास्तव में तवांग में हर कोई चीन को धोखेबाज मानता है. हर कोई यही कहते मिला कि चीन ने तिब्बत को धोखे से हड़प लिया. तवांग का भाग्य अच्छा है कि वह भारत का हिस्सा बना.
यदि चीन फिर आ जाए तो? इस सवाल पर हर कोई यही कहता है कि हमारी फौज इतनी ताकतवर है कि 1962 की तरह तवांग पर चीन कब्जा नहीं कर सकता है.
हम किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो 1962 की लड़ाई का चश्मदीद हो. अंतत: पहाड़ के उतार पर हम एक ऐसी महिला से जा ही मिले. उनका नाम है वांगमू. ऐसी हिंदी बोल लेती हैं कि आप समझ जाएं. उम्र यही कोई 70 साल है. चीनी हमले के वक्त वे केवल 15 साल की थीं. उन्हीं के शब्दों में सुनिए उस वक्त की कहानी-‘हमारे चाचा तोका भारतीय सेना की मदद के लिए बोर्डर पर गए थे. एक दिन वे दौड़ते हुए और पूरे परिवार से कहा कि भागो. मैं तो छोटी थी, केवल इतना ही समझ पाई कि चीन की सेना हमें मारने आ रही है. घर का सामान लेकर तो भाग नहीं सकते थे, इसलिए जो कुछ भी कंधे पर लाद सकते थे, वह लेकर भागे. हम भागते रहे, सड़क तो कहीं थी नहीं, कभी नदी के किनारे तो कभी पहाड़ों को पार करते हुए हम जांग पहुंचे. कहने में आसान लगता है लेकिन जांग की दूरी यहां से करीब 40 किलो मीटर है. हम किसी तरह वहां पहुंचे. वहां से सेना हमें बोमडीला ले गई. एक दिन वहां रखने के बाद हमें फुटलिंग ले जाया गया. खाना पीना भारत सरकार की तरफ से मिल रहा था. वहां से सेना हमें आसाम के रीलिफ कैंप मासामारी ले गई. बाद में गुवाहाटी ले गए ट्रेन से. एक स्कूल में रखा. विवेकानंद वाले स्वामी जी आए थे मदद देने. वहां से मिर्जाबागी ले गए और पंद्रह दिन रखा. फिर ट्रेन से कहीं ले गए. उसके बाद पता चला कि चीन ने तवांग खाली कर दिया है तब हम तवांग लौटे. ज्यादातर यात्र पैदल ही पूरी की. रास्ते में हमने अपने सैनिकों की लाशें दिखीं. बहुत से सैनिक मरे थे. सेला के पास एक जगह हमने देखा कि फौजियों की जो लाशें थीं, उन्हें कुत्ताें ने खा लिया था. हमने बड़ा विभत्स दृष्य देखा. मोनकी नाम की जगह में बहुत से सैनिकों का क्रियाकर्म किया था. दिरांग से तवांग के बीच में है यह स्थान. परिवार में मां थी जो दिरांग तक पहुंची लेकिन तवांग नहीं पहुंच पाईं. यहां आए तो घर लुटा हुआ था. घर नहीं तोड़ा था लेकिन जो सामान घर में था वह ले गए. खेती नष्ट हो गई थी. बोमडीला में जब थे तब फायरिंग की आवाज सुनाई देती थी. दार्जिलिंग का एक अफसर था जॉन उसे गोली मार दी गई थी. बहुत से लोग जो भाग कर बोमडीला गए वे वहीं बस गए. खासकर बौद्ध भिक्षु वापस नहीं आए. हम लोग वापस आ गए. गनीमत थी कि यहां खाने के लिए सरकार की तरफ से सामान हवाई जहाज से गिराया जा रहा था. हायर सेकेंडरी स्कूल के पास राशन गिराया जाता था. राशन के बड़े बड़े बक्से गिराए जा रहे थे. उसमें भी दबकर कई लोग मरे. राशन के बक्से गिराने वाले नए फौजी थे जिन्हें इस इलाके की जानकारी नहीं थी.’
वांगमू से मिलने के बाद हम ऐसे ही कुछ और लोगों की तलाश में तवांग मोनेस्ट्री जा पहुंचे. बड़ा ही खूबसूरत स्थान है यह. मोनेस्ट्री के संग्राहालय में एक बौद्ध भिक्षुक ने हमारा स्वागत किया. हमने उनसे तत्काल पूछ लिया कि क्या 1962 के युद्ध की कुछ यादें हैं उनके पास? उन्होंने अपना नाम कोंबू बताया और गहने लगे-‘हम लोगों को बताया गया कि चीन ने हमला किया है. भाग जाओ. हम भाग गए. हम पहाड़ पार कर रोंगचा चले गए. चीन की सैनिकों को हमने नहीं देखा. हम तीन महीने बाहर रहे. दो तीन भिक्षुक यहां रुक गए थे. वो लोग अब नहीं रहे. उन लोगों ने बताया कि चीन ने लोकल लोगों को कुछ नहीं किया. केवल दो लोगों को मारा जो फौजी को राशन देने गया था. केवल भारतीय सैनिकों को मारा. बोमडीला के पीछे चकोला तक कब्जा किया. जब बोमडीला में गोली चलने लगी तो हम वहां से भी भाग गए. मैं भाग कर रोंगटा चला गया. फिर रूपा के पास रहा. जब चीन के सैनिक लौट गए तब हम तवांग वापस आए.’ मोनेस्ट्री के पास बने एक घर में मुङो एक अत्यंत बुजूर्ग सज्जन मिले. उम्र होगी कोई 86 के पार लेकिन वे अब बोलने की स्थिति में नहीं हैं. वे बोल बाते तो शायद कुछ और कहानी मिलती!
परमवीर की प्रतीमा के पास चार मटकों में रखी है शहीदों के खून से सनी मिट्टी
एक पूरी दोपहर और शाम हमने तवांग के वार मेमोरियल में गुजारी. ये मेमोरियल उन 2420 सैनिकों की याद में बना है जो इस इलाके में शहीद हुए. यहां परमवीर चक्र से नवाजे गए सुबेदार जोगिंदरसिंह की प्रतीमा बनी हुई है. वे तवांग के पास तोंगपेंग ला पर तैनात थे. बुमला पास की ओर से जब चीनियों ने पहला हमला किया तो जोगिंदर सिंह के कई साथी सैनिक शहीद हो गए लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और चीनियों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. कुछ ही देर में चीनियों ने फिर हमला किया. इस बार हमला ज्यादा खतरनाक था. जोगिंदरसिंह के आधे से ज्यादा साथी सैनिक शहीद हो गए. खुद जोगिंदरसिंह भी बुरी तरह घायल हो गए थे लेकिन उन्होंने हाईकमान के आदेश के बावजूद पीछे हटने से इनकार कर दिया. चीनियों ने इसी बीच तीसरा हमला किया. घायल होते हुए भी जो¨गंदरसिंह ने अपनी मशीन गन से 52 चीनियों को मार गिराया. जब गोलियां समाप्त हो गईं तो जोगिंदरसिंह और उनके बचे हुए साथी अपने बंकरों से निकल आए और बंदूक पर लगे बैनट से बहुत से चीनियों को मौत के घाट उतार दिया. घायल अवस्था में चीनियों ने उन्हें बंदी बना लिया. उपचार के दौरान चीन में ही वे शहीद हो गए! उनके प्राक्रम का सम्मान करते हुए उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया. उनकी प्रतीमा के पास ही चार मटकों में शहीदों के खून से सनी मिट्टी रखी हुई है. इसी वार मेमोरियल के प्रांगन में हर शाम लाइट एंड साउंड प्रोग्राम होता है. शहीदों की वीर गाथा हमने भी सुनी..!
दो खूबसूरत लड़कियों का जासूसी ढ़ाबा..!
अरुणाचल की इन वादियों में शहीद हुए अपने वीर सैनिकों की यादें संजोए हम तवांग से वापस लौट रहे हैं गुवाहाटी की ओर. मुङो एक ऐसे रास्ते का पता चला है जिससे केवल दो दिन में हम गुवाहाटी पहुंच जाएंगे क्योंकि बोमडीला के आगे रूपा से एक रास्ता ओरांग की ओर जाता है जो अपेक्षाकृत ठीक है. रास्ते से हमें 1962 की एक यह कहानी भी याद आ गई कि हमले से पूर्व चीन ने इस इलाके में किस तरह की तैयारी की थी..!
चीन ने यहां चप्पे-चप्पे पर अपने जासूस फैला दिए थे. उस जमाने में भारत सरकार की चूंकि इस इलाके में अच्छी पैठ नहीं थी इसका फायदा चीनियों ने उठाया था. चीन के जासूस चप्पे-चप्पे पर थे. भारत के हर मूवमेंट का उन्हें पता चल रहा था. 20 अक्टूबर के पहले उन्होंने नामका चू वैली में बहुत से कैमरामैन को तैनात कर दिया था जहां से चीनियों को भारत पर हमला शुरु करना था. उन्होंने हजारों तिब्बतियों को पोर्टर के रूप में नौकरी पर रख लिया था. खाद्य सामग्री और हथियार बड़े पैमाने पर जमा कर लिए थे. यहां तक कि भारतीय सैनिकों के लिए 3000 क्षमता वाला जेल भी तैयार कर लिया था. ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि उनके साथ पोर्टर के रूप में चलने वाला एक व्यक्ति बोर्डर के पास जाकर गायब हो गया. जब उन्होंने पूछा कि वह कहा गया तो पता चला कि वो उस पार चला गया है. दलवी को जब चीन में बंधक बना कर रखा गया था तब उन्हें चीनियों ने बताया कि उनकी हर हरकत की खबर चीनियों को मिल रही थी.
एक दिलचस्प कहानी यह है कि तेजपुर से तवांग के बीच में बोमडीला के पास दो खूबसूरत लड़कियां ढ़ाबा चलाती थीं. वहां हमारे सैनिक चाय के लिए रुकते और जाहिर सी बात है कि लड़किययां सैनिकों की बातचीत सुनती रहती थीं. बाद में पता चला कि वे चीन के लिए जासूसी कर रही थीं. यह तो एक कहानी सामने आई थी, लेकिन ऐसे और भी कई तरीके चीनियों ने निश्चय ही अपनाए होंगे.
चीनियों ने जिन भारतीय सैनिकों को बंदी बनाया था, उनमें से बहुत से सैनिकों ने अपने संस्मणों में इस बात का जिक्र किया है कि जो लोग भारतीय सीमा में दिखे थे और स्थानीय तौर पर सेना के लिए काम कर रहे थे, वे बाद में युद्ध बंदी शिविर में दुभाषिए का काम कर रहे थे. मेजर दलवी ने अपनी किताब में इस बात का भी जिक्र किया है कि युद्ध के पहले से ही चीनी रेडियो सेट भारतीय सीमा के भीतर काम कर रहे थे.
सुकून की बात है कि आज स्थितियां बदल चुकी हैं. तिब्बत में जिस तरह से चीनियों ने कहर ढ़ाया है, उसने यहां के लोगों को भी चीनियों से भयभीत कर दिया है. दूसरी बात यह है कि भारतीय सेना अब यहां के लोगों के दिल में बसती है. उनकी रोजी रोटी से लेकर उनकी हर सुविधा का खयाल सेना रखती है. देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही यहां के लोगों के दिल में भी हिंदुस्तान बसता है. वे अपने सैनिकों की जयजयकार करते नहीं थकते..!





on china boarder

No comments:

Post a Comment