Wednesday, May 30, 2018

सफर चीन बोर्डर तक पार्ट-4




सफर चीन बोर्डर तक
पार्ट-4
चीन बोर्ड पर सांस लेना भी कठिन हो रहा है..!
तवांग छोटा है लेकिन बेहदू खूबसूरत शहर है. हमने तय किया है कि पहले यहां से बुमला पास चलेंगे. तवांग हम कल घूमेंगे और आपको भी घुमाएंगे. तवांग पहुंचते ही हमने यहां के डिप्टी कमिश्नर ऑफिस में बुमला र्दे तक जाने के लिए अनुमति का आवेदन कर दिया था. आपको बता दें कि केवल अरुणाचल के इनर परमिट से काम नहीं चलता. बुमला तक जाने के लिए आपको डिप्टी कमिश्नर ऑफिस से पास बनवाना होता है जिस पर सेना के वरिष्ठ अधिकारी का कांउंटर साइन भी जरूरी है. हमे यह अनुमति मिल गई है. जिस गाड़ी को लेकर हम यहां आए हैं, वह भी बुमला तक नहीं जाएगी. दूसरी ऐसी गाड़ी की व्यस्था हमने कर ली है जो ऊंचे पहाड़ के पथरीले रास्ते पर चल सके.
अल सुबह हम बुमला के लिए रवाना हो गए हैं. बस कुछ किलो मीटर जाने के बाद ही भीषण चढ़ाई शुरु हो गई है. रास्ता बिल्कुल पथरीला है. ऐसा लग रहा है जैसे कमर ही टूट जाएगी लेकिन हमारा इरादा पक्का है. ड्रायवर दायीं ओर की समतल पहाड़ी की ओर इशारा करता है और कहता है कि यहां बहुत से भारतीय सैनिकों को चीनियों ने मार दिया था.
बीच में थोड़ी सी अच्छी सड़क मिली लेकिन कुछ ही मिनटों बाद फिर वही भीषण सड़क . तवांग से बुमला तक 37 किलो मीटर पहुंचने में हमें करीब तीन घंटे का वक्त लग गया. तवांग से बुमला की यात्र में पांकेंटांग के बाद हमें कोई पेड़ पौधा दिखाई नहीं दिया है. पहाड़ कहीं काले पत्थरों के हैं तो कहीं सफेद और छोटे पत्थरों वाले. बीच-बीच में सेना ने कैंटिन भी बना रखे हैं ताकि कोई पर्यटक आए तो उसे असुविधा न हो. यहां नाश्ते के लिए मोमो और समोसे है. गरमागरम चाय और गरम पानी मौजूद है. एक जगह हम भी रुकते हैं. आप चाहें तो यहां से जैकेट, जूते इत्यादी खरीद सकते हैं. याद के लिए कुछ मोमेंटो भी खरदी सकते हैं. रास्ते से गुजरते हुए मैं सैनिकों की आवाजाही देख रहा हूं. सैनिकों के साथ मुस्कुराहट बांट रहा हूं. रास्ते में पहाड़ों की गोद में बेहद कठिन परिस्थितियों में अपने सैनिकों को देखकर जज्बाती भी हो रहा हूं.
बेहद कठिन यात्र के बाद अंतत: हम बुमल पहुंच गए हैं. ऊंचाई है 15200 फीट. यहां सांस लेना कठिन हो रहा है. इसी बुमला पास से चीनियों ने तवांग पर कब्जा किया था. लड़ाई अक्टूबर और नवंबर के महीने में हुई थी जब यह इलाका बर्फ की चादर ओढ़ लेता है. हमारे सैनिकों के पास इस सर्दी से बचने के लिए ठीक से कपड़े भी नहीं थे, बर्फ में चलने के लिए अच्छे जूते नहीं थे. उन्हें जितना चीनियों ने मारा होगा, उससे ज्यादा तो मौसम की मार पड़ी होगी. आज बुमला तक सैनिकों को पहुंचाने के लिए उन्हें तीन पड़ावों पर 15-15 दिन रखा जाता है ताकि मौसम का अनुकूलन हो जाए. 1962 में तो सैनिकों को सीधे यहां भेज दिया गया था.
वाहन से उतरते ही मेरी नजर एक बोर्ड पर पड़ी जिस पर मुंबई हमले के वक्त शहीद हुए मेजर पी. यून्नीकृष्णन की तस्वीर और वीर गाथा लिखी हुई है. मैं समझ गया कि इस वक्त यहां 7 बिहार रेजिमेंट के सैनिक तैनात हैं. सैन्य बटालियन कहीं भी पोस्टेड हो, अपने वीर सपूतों को नहीं भूलती. यहां सैन्य अधिकारी आदरपूर्ण तरीके से अगवानी करते हैं. यह यहां का दस्तूर है. मुख्य द्वार से करीब 100 मीटर की दूरी पर बड़ा सा बोर्ड है जिस पर अंग्रेजी और चीनी भाषा में लिखा है-थैंक यू! सैन्य अधिकारी बता रहे हैं कि यह आपके आने के लिए तो थैंक्यू है ही, जब निर्धारित बैठक के लिए चीनी अधिकारी यहां आते हैं तब लौटते हुए यह धन्यवाद पढ़ते हैं इसलिए चीनी भाषा में भी हमने लिख रखा है. पहाड़ के ठीक किनारे एक बड़ा सा पत्थर है जिसके पास दो सैनिक दूरबीन लगाकर बैठे हैं. एक सैनिक देखना बंद करता है तो दूसरा शुरु कर देता है. इस पत्थर के आगे चीन है. दूरबीन से मैं भी उस पार चीन के पोस्ट को देख लेता हूं. मेरे सामने की यह सड़क उसी पोस्ट की ओर जा रही है. लेकिन क्या ये चीन है? नहीं, यह तिब्बत है जिसे चीन हजम कर गया है. कभी तवांग भी तिब्बत का ही हिस्सा हुआ करता था इसलिए चीन तवांग को अपना मानता है.
इसी सड़क से आए थे दलाई लामा
तवांग और तिब्बत के बीच बुमला पास से गुजरने वाली यह सड़क बहुत ऐतिहासिक है. सदियों से इसी मार्ग से व्यापार होता रहा है लेकिन जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया और दलाई लामा की जिंदगी खतरे में पड़ गई तो वे जान बचाने के लिए इसी मार्ग से भाग कर तवांग पहुंचे जहां असम राईफल्स के जवानों ने उन्हें सलामी दी थी. कहते हैं कि इसके बाद ही चीन ने भारत पर जल्दी हमला करने की ठानी. 1962 में इस मार्ग पर खून की नदियां बही थीं और उसके बाद आम लोगों के लिए यह मार्ग बंद हो गया. 2006 में व्यापार के लिए इसे फिर खोल दिया गया. यह पता नहीं कि कितना व्यापार इस मार्ग से होता है? अपनी यात्र के दौरान मुङो तो एक भी ऐसा वाहन दिखाई नहीं दिया जो सामान लेकर जा रहा हो या फिर आ रहा हो!
इस दुर्गम इलाके में भी हॉट लाइन?
बोर्डर पर अपने पत्थर के पार मैं चीन सीमा में कदम रख देता हूं. एक तस्वीर खिंचाना चाह रहा हूं. सैन्य अधिकारी कहते हैं कि कुछ कदम जा सकते हैं लेकिन ज्यादा दूर नहीं क्योंकि सामने वाले चीनी पोस्ट से भी हम पर नजर रखी जाती है. यहां से उनका इलाका शुरु होता है. यदि उनके इलाके में थोड़ा भी आगे गए तो हॉट लाइन पर तत्काल आपत्ति दर्ज कराते हैं. मैं नजर घुमाकर देखता हूं, वाकई यहां तो हॉट लाइन लगी हुई है! मैं महसूस कर रहा हूं कि आस पास के जो ऊंचे पहाड़ हैं, वे खाली नहीं हैं. हमारे सैनिक वहां जरूर तैनात हैं. .लेकिन ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. मैं सैन्य अधिकारी से पूछता हूं और वे मुस्कुरा देते हैं.
करीब डेढ़ घंटे पहले जब हम बुमला पास आए थे तब मौसम खुला हुआ था लेकिन अचानक बादलों ने जैसे हमला बोल दिया है. सर्दी बढ़ गई है. चीनी कब्जे वाला तिब्बत अब दिखाई नहीं दे रहा है. यह लौटने का वक्त है. बुमला पास पर करीब डेढ़ घंटे तक रुकना आसान नहीं है. एक-एक कदम चलना मुश्किल होता है क्योंकि इस जगह पर नीचे की तुलना में केवल 21 प्रतिशत ऑक्सीजन है. हम इसे महसूस कर रहे हैं. मैं तो इससे ज्यादा ऊंचाई पर जा चुका हूं इसलिए थोड़ा कम परेशान हूं लेकिन थोड़ी परेशानी तो है. जिस सैन्य अधिकारी के साथ मैं घूम रहा हूं, वे बता रहे हैं कि यदि रोज कुछ घंटे वॉलीवाल न खेलें तो सीना इतना जकड़ जाता है कि रात का खाना भी न खा सकें! वाकई यहां रहना मुश्किल है. मैं अपने सैनिकों की हिम्मत और बहादुरी को सलाम करता हूं.
माधुरी दीक्षित के दीवानों ने झील का नाम ही बदल दिया!
बुमला पास से नीचे उतरते हुए सांस लेना थोड़ा आसान होने लगा है लेकिन तभी ड्रायवर ने सावधान कर दिया कि वाय जंक्शन से हम फिर ऊपर की ओर चलेंगे. वाय जंक्शन वो जगह है जहां से एक रास्ता बुमला पास की ओर और दूसरा रास्ता माधुरी लेक की ओर जाता है. दूरी बहुत तो नहीं है लेकिन पथरीला रास्ता इसे दूर बना देता है. गाड़ी ऐसे हिलती है जैसे आपकी हड्डियों के सारे जोड़ों की परीक्षा ले रहा हो!
माधुरी लेक के बारे में पहले पढ़ चुका हूं और 1996 में बनी फिल्म कोयला में इसे देख भी चुका हूं लेकिन उस झील के किनारे खड़े होकर उसे देखने का उतावलापन गाड़ी के सारे झटकों को बर्दाश्त करने की शक्ति दे रहा है. लीजिए, फिलहाल हम नूरानांग फॉल के पास आ गए हैं. करीब 100 मीटर की ऊंचाई से गिरते इस जलप्रपात को देखकर ही दिल बाग बाग हो उठा. पानी की लहराती बूंदें किसी को भी तरोताजा कर दें! इस जलप्रपात को भी फिल्म कोयला में फिल्माया गाया था. अभिभूत हो गया हूं इस जलप्रपात से लेकिन वक्त तेजी से बीत रहा है और माधुरी लेक तक पहुंचने की जल्दी है. हम कुछ फोटो खींचते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. मैं ड्रायवर से यह जानना चाहता हूं कि माधुरी दीक्षित यहां तक पहुंची कैसे? नाजुक बदन हसीना को बड़ी दिक्कत हुई होगी? ड्रायवर हंसने लगा! उसकी बात मुझे सटीक लगी-‘तवांग तक तो हेलिकॉप्टर है ही, बाकी किसी महंगी, लक्जरी गाड़ी में आई होंगी साहब!’ खैर, फिलहाल तो हम माधुरी दीक्षित को भुलाकर खुद को संभालने में लग गए क्योंकि रास्ता विकट था और लग रहा था कि जरा सा चूके तो नीचे दहाड़ती नदी में जा गिरेंगे या किसी खाई में दफन हो जाएंगे. यहां तो यदि दुर्घटना हो जाए तो शरीर के टुकड़े तलाशना भी मुश्किल होगा. इधर मैं अपने ड्रायवर को देखकर हैरान था कि वह किस तरह से गाड़ी को संभाल रहा है और संकड़ी सी पगडंडी नुमा सड़क पर यदा कदा आने वाली दूसरे वाहनों से भी बच रहा था! अब मेरी समझ में आ रहा था कि तवांग से जो गाड़ी और ड्रायवर लेकर हम आए थे, उसे यहां आने की इजाजत क्यों नहीं मिली!
और तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद, भीषण झटके खाते हुए हम आ पहुंचे हैं एक खूबसूरत झील के किनारे. यह हिंदुस्तान की एकमात्र झील है जहां सूखे पेड़ों की ठूंठ अभी भी मौजूद है जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देती है. दरअसल 1950 में जबर्दस्त भूकंप के बाद आए जलजले में यह खूबसूरत झील बन गई जिसे संग्त्सर त्सो कहा जाता है. स्थानीय भाषा में त्सो का अर्थ झील होता है. 1996 तक स्थानीय और बाहरी लोग इसे इसी नाम से जानते थे लेकिन कोयला फिल्म की शूटिंग के लिए माधुरी दीक्षित क्या आईं, दीवानों ने इस झील का नाम ही बदल दिया! अब संग्त्सर त्सो कम और माधुरी लेक के नाम से ज्यादा जाना जाता है.
1962 की लड़ाई में इस झील के किनारे भी जबर्दस्त मुठभेड़ हुई थी. हमारे सैनिकों ने अदम्य बहादुरी का परिचय दिया था लेकिन हालात ऐसे थे कि चीन ने हमें यहां भी परास्त कर दिया था. हमारे बहुत से सैनिक इस इलाके में शहीद हुए थे और बहुत से सैनिकों को चीनियों ने बंधक बना लिया था. कहते हैं कि झील के किनारे के पहाड़ की ओर से चीनी सैनिक यहां आ गए थे और हमारी टुकड़ी पर हमला बोल दिया था. आज इस जगह पर भारतीय सेना ने एक खूबसूरत सा गार्डन बना रखा है और लजीज व्यंजनों से पर्यटकों का स्वागत करने के लिए एक कैंटिन भी खोल रखी है. गरमा गरम समोसे और मोमो का आनंद आप ले सकते हैं. अपनी सेना के इस अंदाज से यहां आने वाले पर्यटक उनकी मुरीद हो जाते हैं. अभी यहां सेना के वरिष्ठ अधिकारी आने वाले हैं इसलिए यहां तैनात जवान ज्यादा व्यस्त हैं, फिर भी पर्यटकों का पूरा खयाल रख रहे हैं.
मैं झील किनारे घूम रहा हूं और तलाश रहा हूं कि कहीं ‘गोल्ड डक’यानि सुनहरे रंग का बत्तख दिख जाए. मेरे ड्रायवर ने रास्ते में बताया था कि आपको यदि गोल्डेन डक दिख गया तो आप भाग्यशाली हैं! उसने यह भी बताया था कि ये डक चीन से तैरते हुए यहां पहुंच जाते हैं. तो क्या इस झील का फैलाव चीन तक है? मेरे इस सवाल का जवाब ड्रायवर के पास नहीं है लेकिन वह कहता है कि पानी के स्नेत तो मिले ही हुए हैं न सर! ..और अचानक ड्रायवर की ही नजर गोल्डन डक पर पड़ जाती है. हम आहिस्ता-आहिस्ता उस किनारे की ओर बढ़ते हैं जहां से गोल्डेन डक को नजदीक से देखा जा सकता है. उम्दा..! बेहद उम्दा..! ऐसा बत्तख तो मैंने तस्वीरों में भी नहीं देखा है. मैं अपना कैमरा संभालता हूं लेकिन वह लगातार तैर रहा है और अब भी काफी दूर है इसलिए तस्वीर लेने में कठिनाई हो रही है. फिर भी कुछ तस्वीरें तो मैंने उतार ही लीं!
इस रमणीय झील से दूर जाने की इच्छा नहीं हो रही है. काश! यहां रुकने की व्यवस्था होती! लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए जाना पड़ेगा. तवांग तक की वापसी यात्र रूह कंपा रही है लेकिन क्या करें? लौटना तो है ही! एक जानकारी आपको और दे दें कि जिस बुमला-तवांग मार्ग पर हम अभी सफर कर रहे हैं, वह कभी व्यापारियों की पगडंडी हुआ करती थी लेकिन चीन ने 1962 में जब भारत पर हमला किया तो बुमला और तवांग के बीच चीनी सेना ने केवल दो हफ्ते में 30 किलो मीटर ऐसी सड़क बना ली जिस पर उसके वाहन चल सकें. बहरहाल, तवांग पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई है. घटाओं ने तवांग को अपने आगोश में ले लिया है. (कल हम आपको ले चलेंगे चौथे दलाई लामा के घर)

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