Wednesday, May 30, 2018

सफर चीन बोर्डर तक पार्ट-3




सफर चीन बोर्डर तक
पार्ट-3
इस अकेली जगह पर कुछ ही घंटों में हमारे 930 सैनिक
शहीद हो गए, 1060 को चीनियों ने बंदी बना लिया
दिरांग में पूरी रात नदी की दहाड़ सुनते रहे. इस नदी को सैलानी तो दिरांग चू के नाम से जानते हैं लेकिन मूल रूप से यह नामका चू नदी है. तिब्बती में चू का मतलब नदी होता है. वैसे भी अरुणाचल प्रदेश में तो नदियों का जाल बिछा हुआ है. आप चाहे कितने भी पहाड़ पार कर जाएं, सड़क के किनारे-किनारे कोई न कोई नदी गरजती, उफनती दिखाई दे ही जाती है. मैंने कहीं पढ़ा था कि इस नामका चू नदी के किनारे भी चीनी और भारतीय सैनिकों में जबर्दस्त लड़ाई हुई थी जिसमें हमारे सैकड़ों सैनिक शहीद हो गए थे.
मनोहारी जंगल और गरजती नदियों का लुत्फ लेते हुए हम आगे बढ़े जा रहे हैं. दोनों ओर इतनी खूबसूरती है कि समझ में नहीं आ रहा है कि किस ओर के नजारे का आनंद लें? अचानक सड़क के दायें मैं एक वार मेमोरियल देखता हूं. फूलचंद रुकना..! मैं ड्रायवर को गाड़ी रोकने के लिए कहता हूं. पीछे लौटते ही मैं देखता रह जाता हूं. ये जगह न्यूकमाडोंग है. सेंजे यहां से कुछ ही दूरी पर है. 1962 की लड़ाई में शहीद हुए सैनिकों और सैन्य अधिकारियों के नाम वाली पट्टिकाएं कतार से लगी हुई हैं. मेरी आंखें नम हो जाती है. सोच रहा हूं- क्या इतने लोग इस एक जगह पर शहीद हुए थे?
बायीं ओर एक कमरे की चौकी पर एक युवा सैनिक तैनात है. मैं उस युवा की ओर मुड़ता हूं लेकिन वह इशारा करता है कि पहले वार मेमोरियल देख आइए, फिर बात करेंगे. पूरी श्रद्धा के साथ मैं वार मेमोरियल की पगडंडियों पर आगे बढ़ रहा हूं. मैं एक पट्टिका के सामने खड़ा हो जाता हूं. इस पर लिखा है-‘तवांग के दुश्मनों के हाथ में चले जाने के बाद 62 इंफैंट्री ब्रिगेड को पीछे हटने और दिरांग में रुकने के आदेश दिए गए थे. जब भारतीय सेना पीछे हट रही थी तो चीनी सेना ने न्यूकमाडोंग और सेंजे के पास एंब्यूस बिछा रखा था. बायीं तरफ भूटान की ओर से और दायीं तरफ चीन की ओर से चीनी सैनिक पहले ही न्यूकमाडोंग पहुंच चुके थे. पीछे लौट रही भारतीय सेना पर चीनी सैनिकों ने अचानक हमला बोल दिया. हमारे सैनिक नीचे थे और चीनियों ने ऊपर से हमला किया. वह 18 नवंबर 1962 की तारीख थी और इस एक जगह पर महज कुछ घंटों में हमारे 862 सैनिक, 30 जूनियर कमांडिंग ऑफिसर और 38 वरिष्ठ अधिकारी यानी कुल 930 लोग शहीद हो गए थे. 1015 घायल सैनिकों, 28 जूनियर कमांडिंग आफसरों और 17 वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को चीनी सैनिकों ने बंदी बना लिया था.’
मैं शहीदों के नाम पढ़ने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन कितनों के नाम पढूं? शहीदों की इतनी बड़ी संख्या? जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही तो कहा था कि चीनियों ने हमारे पीठ में छूरा भोंका है! लेकिन मैं सोच रहा हूं कि क्या केवल चीन ही जिम्मेदार है? क्या वो लोग नहीं जिन्होंने चीन की चाल समझने में गलती कर दी और भारतीय सैनिकों को लड़ने की बेहतर सुविधाएं नहीं दीं? बहरहाल, शहीदों के प्रति श्रद्धा से मेरा सिर झुका है और गुस्से में खून खौल रहा है. मैं उस सैनिक की ओर लौटता है जो सड़क के बायीं ओर तैनात है. वह उस दौर की कहानी सुनाने लगा है कि किस तरह चीन ने भारतीय सैनिकों पर पीछे से हमला किया था. जिस मार्ग के बारे में कोई सोच नहीं सकता था, उस मार्ग से चीनी सैनिक न्यूकमाडोंग पहुंच गए थे. सैनिक बता रहा है कि यदि वार मेमोरियल के ऊपर वाले पहाड़ पर आप जाएंगे तो आज भी बहुत से हथियारों के अवशेष रखे हुए हैं. गोलियों के खोखे भी आपको मिल जाएंगे. सैनिक बता रहा है कि हमारे सैनिक लड़े तो बहुत बहादुरी से लेकिन हालात ऐसे थे कि वे विजयी नहीं हो पाए! यहां सबके किस्से तो नहीं लिखे हैं लेकिन निजी बहादुरी की कई मिसालें हैं.
मैं सहज ही पूछ बैठता हूं कि क्या इस बार चीन हमले की हिम्मत करेगा? वह मुस्कुराता है और कहता है कि अब लड़ाई के तरीके बदल गए हैं. अब केवल एक-दूूसरे के सैनिक ही नहीं लड़ते हैं. मिसाइलों से हमले होते हैं. नागरिकों को बहुत क्षति होती है. लड़ाई होने की आशंका कम ही है. चीन भी जानता है कि अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक भारतीय रक्षा पंक्ति बहुत मजबूत है. इसके अलावा अब हर रास्ते पर हमारी नजर है. हमारी सीमा में घुसने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता!
हमने सैनिक को शुक्रिया कहा और अपनी कार की ओर मुड़े. तभी उस सैनिक ने कहा कि आप आग जाएंगे तो जसवंत गढ़ में वार मेमोरियल जरूर देखिएगा..! साहब ने अप्रतीम बहादुरी का परिचय दिया था. चलते चलते उसने जसवंत सिंह की दो महिला दोस्त शीला और नूरा की एक कहानी भी सुनाई. यह कहानी आपको बताएंगे लेकिन जसवंत गढ़ पहुंचने के बाद..!
फिलहाल हम चल पड़े हैं जसवंत गढ़ की ओर लेकिन उससे पहले हमें गुजरना है शीला पास से जिसकी ऊंचाई है करीब 13700 फीट. हालांकि इस ऊंचाई की मुङो कोई खास चिंता नहीं है क्योंकि लद्दाख में 18 हजार फीट से ज्यादा ऊंचाई वाले खारडूंगला पास पर मैं जा चुका हूं. अपने सैनिकों की वीर गाथाओं को याद करते हुए मैं शीला पास (दर्रा) की ओर लगातार ऊंचाई की तरफ बढ़ रहा हूं! ऊंचाई है तो सांस लेने में तकलीफ स्वाभाविक है लेकिन मैं लगातार पानी पी रहा हूं ताकि शरीर में ऑक्सीजन की कमी नहीं हो! शीला पास पर रुकता हूं, कुछ तस्वीरें खींचता हूं. यहां यह किवदंती है कि इस पहाड़ का नाम जसवंत सिंह की महिला मित्र शीला के नाम पर रखा गया है. दूसरी मित्र नूरा के नाम पर एक पहाड़ है नूरानांग, वह यहां से दिखाई देता है. कहते हैं कि अभी भी नूरा का घर वहां है! शीला और नूरा दोनों ही सगी बहने थीं. चलिए अब आगे बढ़ते हैं!
उस महावीर ने चीनियों से हथियार छीना और
72 घंटे में उनके 300 सैनिकों को मार गिराया
सीला दर्रा से नूरानांग होते हुए हम जसवंत गढ़ आ पहुंचे हैं. मेरा ड्रायवर फूलचंद बता रहा है कि यहां मिलिट्री की ओर से चाय की व्यवस्था है, बिल्कुल मुफ्त! आप चाहें तो मिलिट्री कैंटीन से समोसा खरीद सकते हैं. समोसा बड़ा स्वादिस्ट बनाते हैं ये मिलिट्री वाले. पहाड़ों के बीच घनचक्कर रास्ते के कारण कुछ खाने की इच्छा नहीं हो रही है. मैं सड़क के बायीं ओर बने जसवंत स्मारक की तरफ बढ़ जाता हूं. मैंने उनके बार में खूब पढ़ा है. मेरा सौभाग्य है कि मुङो धरती के उस टुकड़े पर आने और उस मिट्टी को प्रणाम करने का मौका मिला है जहां जसवंत सिंह रावत ने असाधारण शौर्य का परिचय दिया. मैं मिट्टी को प्रणाम करता हूं. मुङो उस मिट्टी में वीर रस घुला हुआ सा लगता है. उनकी प्रतिमा देखकर सिर से गर्व से ऊंचा हो जाता है. भीतर उनकी तस्वीरें लगी हैं. उन्होंने जो कपड़े पहने थे, वो रखा है. दूसरे साजो सामान भी हैं.
मैं उनके बारे में सोच रहा हूं. हिमालय के एक छोर उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल के इस 22 वर्षीय सपूत ने हिमालय के इस दूसरे इलाके में आकर देश की रक्षा के लिए खुद को बहादुरी के साथ कुर्बान कर दिया. अचानक मेरी नजर शो केश में रखे मिडियम मशीन गन की ओर चली गई! अरे ये तो वही मिडियम मशीन गन है जिससे उन्होंने चीनियों के छक्के छुड़ा दिए थे. 1962 की लड़ाई में 4 गढ़वाल राइफल्स के सिपाही जसवंतसिंह रावत की कंपनी के पास हथियार और गोलियां जब कम पड़ने लगीं तो कंपनी को पीछे हटने के आदेश दिए गए लेकिन जसवंत सिंह ने पीछे हटने से मना कर दिया. उन्होंने देखा कि चीनियों की एक एमएजी (मीडियम मशीन गन) भारतीय सैनिकों को सबसे ज्यादा निशाना बना रही थी. लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और राइफल मैन गोपाल सिंह गुस्सैन को साथ लेकर जसवंत सिंह चुपके से रेंगते हुए उस चीनी बंकर के पास पहुंच गए जहां से यह एमएमजी लगातार गोलियां बरसा रहा था. केवल 12 मीटर की दूरी से उन्होंने बंकर के भीतर ग्रेनेड फेंका. इसके साथ ही इन तीनों ने बंकर पर हमला बोल दिया और देखते ही देखते चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. जसवंत ने एमएमजी अपने हाथ में लिया और दोनों साथियों के साथ रेंगते हुए अपने पोस्ट की तरफ वापस लौटे लेकिन लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और राइफल मैन गोपाल सिंह गुस्सैन चीनी गोलियों के शिकार हो गए. अकेले बचे 22 वर्षीय जसवंत सिंह ने गजब का मोर्चा संभाला और चीनियों के एमएमजी से ही चीनियों को मौत के घाट उतारना शुरु किया. 10 हजार फिट की ऊंचाई पर उन्होंने अकेले ही चीन की पूरी फौज को 72 घंटे तक रोके रखा. 17 नवंबर को जब वो शहीद हुए तब तक वे 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार चुके थे.
उनकी अप्रतीम बहादुरी के लिए उन्हें मरणोप्रांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. उनके दोनों साथियों नेगी और गुस्सैन को मरणोप्रांत वीर चक्र से नवाजा गया. उनकी बटालियन को ‘बैटल ऑफ ऑनर नूरानांग’ के पदक से सम्मानित किया गया. 1962 की लड़ाई में वीरता का पदक पाने वाली यह अकेली बटालियन थी. जसवंत सिंह की बहादुरी के सम्मान स्वरूप सेना ने मरणोप्रांत भी उनकी सेवा बरकरार रखी. रिटायर होने की उम्र तक उनके परिवार को तनख्वाह मिलती रही, उन्हें जिवित मानकर प्रमोशन भी दिया गया. तवांग इलाके के लोगों की यह मान्यता है कि शहीद होने के बाद वे संत हो गए और उस पूरे इलाके की अब भी रक्षा कर रहे हैं.
जसवंत सिंह के बारे में इलाके में कई किवदंतियां मौजूद हैं. न्यूकमाडोंग में जिस सैनिक से मेरी मुलाकात हुई थी, उसने कहानी कुछ ऐसी सुनाई थी-‘जसवंत सिंह की दो महिला मित्र थीं. एक का नाम था शीला और दूसरे का नाम था नूरा. दोनों बहनें थीं. चीनियों को 70 घंटे रोके रखने में शीला और नूरा ने जसवंत सिंह रावत की बड़ी मदद की थी. चीनी सैनिक यह समझ रहे थे कि पोस्ट पर भारत के बहुत से सैनिक हैं. एक दिन उन्होंने नूरा के पिता को पकड़ लिया और पूछा कि ऊपर कितने सैनिक हैं? जब उन्हें यह पता चला कि ऊपर तो एक ही सैनिक है तो उन्होंने जोरदार हमला बोला और रावत शहीद हो गए. कहते हैं कि नूरा को नग्न करके चीनी सैनिकों ने व्यभिचार किया और उसकी हत्या कर दी. उसी के नाम पर पहाड़ को नूरानांग कहा जाने लगा. तवांग की स्थानीय भाषा में नांग का मतलब नग्न होता है. शीला के नाम पर एक पहाड़ को सेला नाम दिया गया.’ पता नहीं इस कहानी में कितनी सच्चई है लेकिन तवांग के आपसाक के लोग भी यही कहानी बताते हैं.
करीब डेढ़ घंटे तक हम जसवंत गढ़ में रुके. वहां बहुत से बंकर अभी भी मौजूद हैं. उन्हें देखकर तो यही लगता है कि शायद 1962 के भी कुछ बंकर हों लेकिन दो बंकरों के पास लिखा है कि इन बंकरों का 1962 की लड़ाई से कोई संबंध नहीं है. इन्हें 1980 में तैयार किया गया है. आप जब तक पास नहीं जाते तब तक आपको अंदाजा भी नहीं होता कि यहां बंकर भी है. हमने कुछ बंकरों का भीतर से जायजा लिया लेकिन देश की सुरक्षा की दृष्टि से बंकर के भीतर का खाका खींचना ठीक नहीं है इसलिए हम आपको भीतर नहीं ले जा सकते! बस इतना जान लीजिए कि इस इलाके में बंकर ही बंकर नजर आते हैं! समारिक दृष्टि से जसवंत गढ़ का बहुत महत्व है!
हमें तवांग पहुंचने की जल्दी हो रही है फिर भी हमने सैनिकों को सम्मान देने के लिए मुफ्त की चाय पी. अपने सैनिकों को सलाम किया और आगे बढ़ चले. शाम होने में अभी काफी वक्त है लेकिन मेघों ने शाम जैसा माहौल बना दिया है. बहरहाल, शाम होते होते हम तवांग आ पहुंचे हैं. आते ही हमने पहले इस बात की व्यवस्था की कि कल हर हाल में चीन बोर्डर बुमला पास जाने की अनुमति मिल जाए. (कल चीन बोर्डर चलेंगे, साथ बने रहिए..!)

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