Wednesday, May 30, 2018

सफर चीन बोर्डर तक पार्ट-2




सफर चीन बोर्डर तक पार्ट-2
कल आपने हमारे साथ अरुणाचल के भालुकपोंग तक की यात्रा की थी. अब चलिए अरुणाचल की दुर्गम पहाड़ियों में..
तेजपुर मैदानी इलाका है इसलिए वहां गर्मी थी लेकिन भोलुकपोंग पहाड़ों की गोद में बसा है इसलिए अच्छी खासी सर्दी है..! सुबह मेरी नींद खुली और खिड़की के पार देखा तो लगा कि निकलने का वक्त हो गया है. हमने तय किया था कि सुबह छह बजे तक यहां से जरूर निकल जाएंगे. मैंने घड़ी देखी और चौंक गया! अभी तो केवल साढ़े चार बजे हैं और सामने का पहाड़ दिखाई दे रहा है! बाद में पता चला कि यहां रात का धुंधलका जल्दी छंट जाता है. सुबह जल्दी हो जाती है.
खैर, हमें जल्दी थी आगे बढ़ने की. सुबह सात बजे हम निकल पड़े सफर पर. भोलुकपोंग से तवांग एक दिन में पहुंचना संभव नहीं था इसलिए हमने पहले ही तय कर लिया था कि आज की रात दिरांग रुकेंगे. ड्रायवर की चेतावनी का सम्मान करते हुए हमने भरपूर पानी और खाने का कुछ सामान अपने साथ रख लिया था. यात्र अब दुर्गम थी. बस ऊंचाई पर चढ़ते चले जाना था. रास्ते में लैंड स्लाइडिंग का भी खतरा था. सड़क कुछ दूर तो ठीक ठाक मिली लेकिन जब रास्ता दुर्गम होता चला गया तो चिंता होने लगी कि ऐसी खराब सड़क पर इतनी लंबी यात्रा कैसे कर पाएंगे? लेकिन मन पक्का था..कितनी भी परेशानी आए, भारत-चीन की सीमा पर जरूर पहुंचेंगे! रास्ते में कहीं कोई बस्ती नहीं. ट्रेफिक के नाम पर महज कुछ गाड़ियां जो या तो सेना की थीं या फिर तवांग और तेजपुर के बीच चलने वाली मझोले कद की गाड़ियां. इस अत्यंत दुर्गम रास्ते पर भी ये गाड़ियां फर्राटे से गुजरती हैं कि दिल दहल जाता है. उन गाड़ियों में बैठे लोगों का क्या हाल होता होगा? मेरा ड्रायवर बता रहा है कि गाड़ियां सुबह 4 बजे तेजपुर से निकलती हैं और रात आठ बजे तवांग पहुंच जाती हैं! स्थानीय लोगों के आने जाने का यही एक मात्र जरिया है. पहाड़ों में गड्ढों भरे दुर्गम रास्ते पर 16 घंटे का सफर कितना कष्टदायी होता होगा, यह केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. हमारे आपके जैसे मैदानी लोग ऐसा सफर नहीं कर सकते.
हम रास्ते के बारे में सोच ही रहे थे कि पहला संकट सामने आ गया! सामने देखा तो पहाड़ का एक टुकड़ा टूट कर सड़क पर आ गिरा था और बोर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के कर्मचारी और मजदूर रास्ता साफ करने में जुट गए थे. ड्रायवर ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. एक-आध घंटे में रास्ता खुल जाएगा. यह तो यहां रोज का काम है! गाड़ी से बाहर निकलिए और नेचर का मजा लीजिए लेकिन पीले मच्छरों का ध्यान रखिएगा! मैं सतर्क हो गया! फूलचंद कौन से मच्छरों की बात कर रहा है? गाड़ी से बाहर निकले हुए कुछ मिनट ही बीते होंगे कि मच्छर महाराज मुझे नजर आ गए. वे मुझ पर ही निशाना साध रहे थे. मैं सतर्क हो गया! फूलचंद ने कहा कि टहलते रहिए तो ये नहीं काट पाएंगे. उसके बाद से मैं घंटे भर लगातार टहलता रहा. वहां सेना की कुछ गाड़ियां रुकी हुई थीं. सैनिकों से बातचीत होने लगी. पता चला कि लद्दाख में चीन सीमा पर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच आमने सामने भिड़ंत का जो वीडियो आया है, वैसे पहले भी होता रहा है. सैनिक कह रहे हैं कि अब चीन ने यदि हमला करने की हिम्मत की तो मुंह की खाएगा! मैं महसूस भी कर रहा हूं कि हमारी सेना चप्पे-चप्पे पर छाई हुई है. 1962 में यहस्थिति नहीं थी. कुछ इलाकों में हमारे सैनिक जरूर थे लेकिन आज की तरह इतनी बड़ी संख्या में नहीं! उस समय तेजपुर से तवांग तक सड़क थी नहीं. कुछ कच्ची सड़क थी और ज्यादातर पैदल ही दूरी तय करनी होती थी. इसका मतलब था कि तेजपुर से सैनिकों को तवांग तक पहुंचने में कम से कम 10 दिन तो लग ही जाते थे. रोड बनाने का काम शुरु ही हुआ था. सीमाई इलाके में सड़क बनाने और सुधारने के लिए बोर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन का गठन ही 1960 में किया गया था. अभी भले ही रोड खराब हो लेकिन वाहन चलने की स्थिति तो है.
उबड़ खाबर सड़क पर आगे बढ़ ही रहे थे कि टेंगा के पास हमें एक बड़ा ही खूबसूरत नाग मंदिर मिला. इस पर लिखा था 91, आरसीसी ग्रेफ ! मुझे पता था कि ग्रेफ दरअसल जनरल रिजर्व इंजीनियरिंग फोर्स का संक्षिप्त नाम है और यह बोर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन का हिस्सा है. हम मंदिर के पास रुक गए. बोर्ड पर एक दिलचस्प कहानी लिखी थी. कहानी ऐसी है कि जब टेंगा नाम की इस जगह के पास 1966 में भोलुकपोंग-तवांग मार्ग का निर्माण कार्य चल रहा था तब किसी मजदूर ने एक नाग को मार दिया. इससे नागिन क्रोधित हो गई और मजदूर जब भी पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करते तो भयंकर लैंड स्लाइडिंग होने लगता था. सांपों के काटने की घटनाएं बढ़ने लगीं. ऐसा लगने लगा कि काम आगे बढ़ ही नहीं पाएगा तब कमान अधिकारी मेजर के. रामास्वामी ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया. इसके बाद स्थिति शांत हुई और सड़क निर्माण का काम आगे बढ़ा. आधुनिक विचारों वाले हम लोग इसे भले ही अंधविश्वास कहें लेकिन यहां हर साल नागपंचमी के अवसर पर बड़ा मेला लगता है. दूर-दूर से लोग आते हैं.
आगे बढ़े और भेखू नाम की एक छोटी सी जगह पर सड़क किनारे चाय पीने को रुक गए. चाय दुकान शोनम श्रृंग की है और यह जानकर वे खुश हुए कि हम पत्रकार हैं. मैंने उनसे सवाल पूछ दिया कि क्या 1962 में यहां भी चीनी आ गए थे? कहने लगे-‘मैं तो उस साल पैदा ही हुआ था लेकिन माता पिता से कहानियां जरूर सुनी हैं. चीनी सैनिकों ने यहां के लोगों से कहा था कि तुम तो हमारे लोग हो. किसी को नहीं मारा था. जब वे लौटने लगे तो उन्होंने एक पार्टी की थी. हर गांव के प्रमुख लोगों को बलाया था और कुत्ते-बिल्ली-गाय सहित दूसरे जानवरों को मारकर सब्जी बनाई थी. बड़ी पार्टी हुई थी. जाते-जाते सभी को चीन का एक पर्चा दिया था कि अब तुम सब हमारे लोग हो. हम फिर आएंगे तब हमें यह पर्ची दिखाना. बाद में ज्यादातर लोगों ने भारत सरकार को वह पर्ची सौंप दी थी. कुछ लोगों ने छिपा कर रख भी लिया कि पता नहीं फिर कभी चीन आ गया तो?
बहरहाल, शाम करीब 5 बजे हम दिरांग पहुंच गए. अब सर्दी बढ़ने लगी थी और हम लिहाफ में घुसने को बेताब हो रहे थे. गरजती हुई पहाड़ी नदी के ठीक किनारे हमने एक होटल में अपना ठिकाना ढूंढा. अगली सुबह जल्दी निकलने का कार्यक्रम था इसलिए दिरांग की मोनेस्ट्री को तत्काल देख लेना ही उचित था. कलाकृति का अत्यंत शानदार नमूना है दिरांग मोनेस्ट्री. (कल चलेंगे तवांग, बने रहिए हमारे साथ..!)

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