Friday, May 25, 2012

मंदिर से ज्यादा जरूरी है स्कूल


इस देश में संत और कथावाचक बहुत से हैं लेकिन मोरारी बापू एक अलग शख्य्सियत है. उनसे बातचीत करना सत्य से साक्षात्कार करने जैसा है. उनकी मंद मधुर आवाज गहरे दिल तक पैठ बनाती है तो नजरों का तेज भीतर तक पड़ताल करती है. शिक्षा और विद्या के अंतर को परिभाषित करते हुए जब वे बताते हैं कि मैट्रिक में तीन बार फेल हो गए तो सहसा विश्वास करना कठिन हो जाता है. मोरारी बापू की यही खासियत है, नागपुर प्रवास के दौरान उनसे ढ़ेर सारे मुद्दों पर बातचीत हुई. बातचीत में लोकमत मीडिया लिमिटेड के चेयरमैन और सांसद विजय दर्डा ने भी शिरकत की. मोरारी बापू बिना किसी लाग लपेट के बोलते हैं. वे कहते हैं कि मंदिर बनाने से ज्यादा जरूरी है स्कूल बनाना क्योंकि विद्यावान व्यक्ति ही मंदिर के रहस्य को बेहतर तरीके से समझ पाएगा. वे केवल कथा वाचक नहीं हैं, यथार्थ को समझने और जीने वाले व्यक्ति हैं. उन्होंने शौचालयों के लिए रामकथा की है. रामकता से पांच करोड़ रुपए एकत्रित किए और इन्हीं पैसों से बने उनके गांव तालगजरदा और आसपास के गावों के घर-घर में अनगिनत शौचालय. पढ़िए बापू से लंबी बातचीत के कुछ परमुख अंश..





प्रश्न : भारत में धर्म, आध्यात्म और संतों की लंबी परंपरा रही है. सामाजिक सुधार की बातें लगातार होती रही हैं. इसके बावजूद अत्याचार, अनाचार, दुराचार लगातार बढ़ता गया है. क्या आपको लगता है कि संत शिक्षा परिणामदायक नहीं रही.

बापू : मेरी दृष्टि में अत्याचार और अनाचार बढ़ रहा है लेकिन मैं स्वामी विवेकानंद के एक कथन की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा. वे कहते थे कि इतने अस्पताल हैं, फिर भी बीमारी है. यदि अस्पताल नहीं होते तो क्या होता? मुद्दे की बात यह है कि घास के ढ़ेर में आग लगी हुई है तो बेहतर यह है कि जितनी घास की पुलिया (बंधा हुआ टुकड़ा) बचा सकें, बचा ली जाए. संतोष की बात यह है कि धर्म, आध्यात्म और संस्कारों के प्रति युवा पीढ़ी जागृत हो रही है.

प्रश्न : संस्कारों के संरक्षण और संवर्धन में संत परंपरा की भूमिका को आप कितना सफल मानते हैं.

बापू : मैं 100 में से 35 नंबर देना चाहूंगा. इसे पासिंग मार्क्‍स कहते हैं. जरूरत इससे ज्यादा की है. हर दिन कोशिश का है.

प्रश्न : आप लंबे अरसे तक शिक्षक रहे हैं और आज भी संस्कारों शिक्षण में लगे हैं. क्या शिक्षा की मौजूदा प्रणाली से आप संतुष्ट हैं?

बापू : शिक्षा में व्यापक बदलाव की जरूरत है. शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो दीक्षा भी दे और परस्पर प्रेम की भीक्षा भी दे. विज्ञान और तकनीक का उपयोग करते हुए शिक्षा प्रणाली में संशोधन की जरूरत है. बल्कि मैं तो शिक्षा के बदले विद्या शब्द का इस्तेमाल करना चाहूंगा क्योंकि शिक्षा भयभीत करती है. मौजूदा शिक्षा स्पर्धा पैदा करती है. बेवजह स्पर्धा ठीक नहीं है. स्पर्धा एवरेस्ट तक ले जा सकती है लेकिन कैलाश (पर्वत) पाने के लिए तो श्रद्धा चाहिए!

प्रश्न : आपके कंधे पर हमेशा काला चादर रहता है, आप काला टीका लगाते हैं. लोग कहते हैं कि आपकी जन्म कुंडली में कालसर्प योग है इसलिए आप काले रंग का उपयोग करते हैं.

बापू : ये कालसर्प योग्य जैसी किसी चीज को मैं बिल्कुल नहीं मानता. पता नहीं इस तरह की बातें कहां से उठती हैं. दरअसल धर्म वह है ही नहीं जो किसी को डराए. धर्म का काम तो लोगों को अभय करना है. भय और प्रलोभन के कारण यह शुभ अशुभ का सवाल जीवन में आ गया है. यह ठीक नहीं है. मेरे काले कपड़ों या काले टीके का राज यह है कि मैं दादी की गोद में पला बढ़ा और वो काले रंग को बहुत पसंद करती थीं. बस काले रंग से प्रेम हो गया. काला रंग वैसे भी गहनता का प्रतीक है.

चुनरी ओढ़ी रंग चुए

रंग बिरंगी होए!!

मैं तो ओढ़ूं कारी कांवरी

जिसमें दूजो रंग न लाए कोय!!

प्रश्न : आपकी कथा में शायरी भी है, गजल भी है. फिल्मी गीतों की पैरोडी भी है और मटके की मीठी टन-टन भी? क्या यह सब कथा को रोचक बनाने के लिए? या कोई और कारण?

बापू : रामकथा तो वास्तव में गायन ग्रंथ ही है! श्रद्धा के लिए गीत-संगीत तो जरूरी है. गजल और भजन में कोई अंतर नहीं है. साहित्य के प्रति मेरी अभिरुचि रही है. मेरे गांव में साहित्यक सम्मेलन होते रहे हैं. जहां तक मटका बजाने का सवाल है तो यह मेरे गांव की परंपरा का वाद्य यंत्र है.

प्रश्न : एक बहुत पुराना सवाल आपके सामने भी दोहराना चाहूंगा कि धर्म और राजनीति का घालमेल कितना खतरनाक लगता है आपको?

बापू : धर्म को सामाजिक रूप से देखने की जरूरत है. सत्य, प्रेम और करुणा वाला धर्म राजनीति में होना चाहिए. गांधीजी में यह था. दरअसल धर्म में भी संशोधन की जरूरत है. वास्तविक धर्म वही है जो जीवन को संस्कारित करे. धर्म को भय के सहारे की जरूरत नहीं होनी चाहिए. मनुष्य को आज भय डस रहा है.

प्रश्न : गंगा को बचाने के लिए सार्थक पहल कहीं नजर आती है आपको?

बापू : प्रयास तो हो रहे हैं, योजनाएं बन रही हैं, क्रियान्वित हो रही हैं लेकिन सफलता के लिए यह जरूरी है कि सब लोग मिलजुल कर प्रयास करें. सामाज, सरकार और संस्कार की त्रिवेणी ही गंगा को बचा सकती है. गंगा को केवल धर्म के नजरिए से नहीं बल्कि सामाजिक नजरिए से देखिए. गंगा लाखों लोगों के लिए जीवन का आधार हैं. नासमझी ने गंगा मैली कर दी!

प्रश्न : मोह और माया से क्या व्यक्ति कभी दूर हो सकता है?

बापू : मोह, माया, काम-क्रोध, लोभ का जीवन में संतुलन होना चाहिए





ऐसे जुड़ा बापू शब्द

गुजरात के भावनगर जिले में महुआ के पास एक छोटे से गांव तालगजरदा में महाशिवरात्रि के दिन मोरारी बापू का जन्म हुआ. पिता का नाम प्रभुदास बापू और माता का नाम हरियानी. यह परिवार बाबा साधु निम्बारिका परंपरा वाला परिवार है जहां हर पुरुष को बापू कहा जाता है. इस तरह उनके नाम के आगे भी बापू शब्द जुड़ गया.

परिवार और बचपन

मोरारी बापू के पांच भाई और तीन बहनें हैं. एक बेटे और तीन बेटियों की शादी हो चुकी है. नाती पातों से भरा पुरा परिवार है. बापू का बचपन अपनी दादी अमृत मां के सानिध्य में गुजरा. दादी उन्हें लोककथाएं सुनाया करती थीं. केवल पांच वर्ष की उम्र में दादा जी त्रिभुवनदास बापू ने उन्हें रामचरित मानस की शिक्षा देनी शुरु की. वही मुरारी बापू के एकमात्र गुरु हैं. वे रामचरित मानस के ज्ञाता माने जाते थे. प्रति दिन वे बापू को पांच चौपाईयां याद करवाते और उनके गहन गूढ़ अर्थ समझाते. बापू का स्कूल घर से करीब 7 किलो मीटर दूर था और स्कूल जाने तथा लौटने के दौरान रास्ते के समय का उपयोग बापू उन चौपाईयों को याद करने और उनके अर्थ समझने में करते थे. घर लौटकर दादाजी के पास पहुंच जाते और उन्हें सुनाते. बापू की योग्यता को संवारने में उनके चचेरे दादाजी महामंडलेश्वर विष्णुदेवानंद गिरी जी महाराज का भी काफी योगदान रहा. वे कैलाश आश्रम ऋषिकेष में रहते थे. भगवत गीता और वेद के ज्ञाता विष्णुदेवानंदजी बापू को निरंतर पत्र लिखा करते थे.

शिक्षक थे बापू

बारह वर्ष की उम्र तक बापू को रामचरितमानस पूरी तरह कंठस्थ हो गया था और रामचरित मानस के संदर्भ में उनके ज्ञान को देखकर गांव के बुजूर्ग अचंभित हो रहे थे. स्नातक तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद बापू ने जूनागढ से शिक्षक होने का प्रशिक्षण लिया. करीब दस सालों तक उन्होंने शिक्षक की भूमिका निभाई. इस दौरान वे आध्यात्मिक और साहित्यिक आयोजनों में श्रोता की भूमिका में शिरकत करते रहे. 1960 में तालगजरदा में पहलीबार उन्होंने रामकथा कही. तब से जो शुरुआत हुई तो बापू को सुनने वालों की भीड़ बढ़ती चली गई. वे रामकथा को प्रेम यज्ञ कहते हैं. वे प्रवाही प्ररंपरा के व्यक्ति हैं.



कोटेशन

-आदमी का भीतरी खालीपन केवल दो चीजो से भरा जा सकता है, प्रेम से और त्याग से.

-संघर्ष में कोई निर्णय ना लें, क्योंकी संघर्ष में हमारे चित की दशा ठीक नहीं होती.

-जब निकट के लोग निंदा करने लगे तो समझना सत्य परम निकट है.

-भरोसा ही भजन है.

-आदमी को तीन काम करना चाहिये: देह सेवा, देव सेवा और देश सेवा

- अगर कोई पूछे, सत्य की व्याख्या करो, तो शांत रहो. यह है सत्य की व्याख्या.

अगर कोई पूछे, प्रेम की व्याख्या करो, तो थोडा मुस्करा दो. यह है प्रेम की व्याख्या.

अगर कोई कहे, करुना की व्याख्या करो, आंख मे थोड़ी सी नमी भर लो. यह है करुना की व्याख्या.





सबको शिक्षा, अन्न औार आदर मिलनी चाहिये.

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