Friday, May 25, 2012

मां तुझे सलाम




मशहूर शायर मुन्नवर राना का एक शेर है..

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है.

माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है.

वाकई मां की ममता का इससे बेहतर वर्णन नहीं हो सकता है. आप लाख गलती कर लें, अपनी हरकतों से मां को ठेस पहुंचा दें लेकिन मां हमेशा ही अपने बच्चों की सलामती चाहती है. मां का प्यार वह उर्जा है जो साधारण इनसान को असंभव कार्य करने में सक्षम बनाती हैं.

मदर्स डे के मौके पर कहिए..

मां तुङो सलाम!

तेजी से चेहरे बदलती, दौड़ती और भागती दुनिया में कुछ बिल्कुल शांत, संयमित और उर्जा से परिपूर्ण नजर आता है तो वह मां का प्यार है, उसकी ममता है. पता नहीं ब्रह्मांड के कहीं सुदूर स्वर्ग नाम की कोई जगह है या नहीं, पता नहीं वहां अमृत नाम की कोई चीज है भी या नहीं. लेकिन हमारी इस दुनिया में स्वर्ग भी है और अमृत भी! मां की गोद और उसके आंचल की छांव हमारे लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं. उसका ममत्व किसी अमृत से कम नहीं! सीधे तौर पर मां ही हमारे लिए ईश्वर है क्योंकि उसी ने तो हमें जन्म दिया है. हम उसकी इबादत न करें तो किसकी करें? हमने जिस ईश्वर को कभी देखा नहीं, वह हमारी मां से ज्यादा बेहतर हो ही नहीं सकता!

एक यहूदी कहावत है कि एक मां वह भी समझ लेती है जो उसका बच्च नहीं कहता! यह नैसर्गिक सच्चई है. बचपन में जब हम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होते तब भी मां को बहुत अच्छी तरह पता होता है कि हमें क्या चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जब हम बड़े हो जाते हैं तो यह जानने की कभी कोशिश नहीं करते कि हमारी मां क्या चाहती है? हम शायद भूल जाते हैं कि पूरी दुनिया के लिए हम केवल एक व्यक्ति हैं लेकिन अपनी मां के लिए हम पूरी दुनिया की तरह हैं. वह हमारी आंखों में अपना अक्स देखती है. हमारी खुशियों में अपना वजूद तलाशने की कोशिश करती है लेकिन हम हैं कि मां की भावनाओं के प्रति उतने सचेत नही होते जितना होना चाहिए. अपनी घर गृहस्थी क्या बसा ली, मां से ही दूर होते चले गए? वो खुशनसीब लोग हैं जिन्होंने मां की अहमीयत को खुद में समेटे रखा है और मां की गोद की खुशबू को अपनी खुशबू के रूप में तब्दील कर लिया है.

लेकिन क्या हिंदुस्तान की हर मां इतनी खुशनसीब है कि बुढ़ापे में भी उसका बच्च उससे भावनात्मक रूप से जुदा न हो? मुङो लगता है कि दिन प्रतिदिन की घटनाएं और ओल्ड एज होम की बढ़ती संख्या साफ-साफ कहती है कि मां के ममत्व का सिला हम नहीं दे रहे. जो मां हमें अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए अपनी जिदंगी के कई साल प्यार और मोहब्बत के साथ खर्च कर देती है, वही मां जब शारीरिक रूप से कमजोर होने लगती है और उसे हमारे सहारे की जरूरत होती है तो हम मुंह छिपाने लगते हैं. हम अपने जीवन आनंद में ज्यादा मशरूफ हो जाते हैं. लेकिन कमाल की बात यह है कि मां फिर भी ममत्व नहीं छोड़ती. पिछले दिनों मैं कुछ बेसहारा माओं का दर्द जानने एक ओल्ड एज होम गया. उनकी बातें सुनीं, उनका दर्द सुना लेकिन कोई भी मां यह बताने को तैयार नहीं थी कि उसके बेटे का नाम क्या है जिसने उसे यहां छोड़ दिया है. हर मां को केवल यह चिंता सता रही थी कि अखबार में जानकारी छपेगी तो बेटे की बदनामी होगी. जरा सोचिए कि मां कितना सोचती है. जिस बेटे-बहू ने उसे ओल्ड एज होम पहुंचा दिया, उसके नाम की भी सलामती चाहती है मां. यही तो मां की वास्तविकता है. पुत भले ही कपूत हो जाए, मां का ममत्व कभी कम नहीं होता.

ऐसी मां को हम सलाम करते हैं.

बहुत से घरों के भीतर भी मां की हालत ठीक नहीं है. हास्य-व्यंग के मशहूर कवि सुरेंद्र शर्मा बड़ी सटीक व्याख्या करते हैं. वे कहते हैं- ‘हम एक तरफ पूजा के लिए माता की चौकी सजाते हैं और दूसरी तरफ घर की मां चौकी पर बैठकर बर्तन मांजने पर मजबूर होती है.’ तेजी से भौतिकवादी होते समाज के इस बदलाव को हमें गंभीरता से लेना होगा. जो लोग मां के साथ अपनमानजनक व्यवहार करते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि उनकी औलाद भी उनके साथ इसी तरह का व्यवहार करेगी. हमारी पुरानी सामाजिक व्यवस्था में बुजुर्गो को सम्मान देने की परंपरा रही है लेकिन भागती दौड़ती दुनिया में सम्मान की यह परंपरा समाप्त होती जा रही है. हालात ठीक नहीं हैं. याद रखिए मां की उपेक्षा पूरे समाज को तबाह कर देगी.

मां से बड़े होते बच्चे

मां के लिए यह बड़ी कठिन दौर है. दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है और उसके बच्चे दुनिया की माया में इस तरह रमे जा रहे हैं कि मां स्वयं को कई बार उपेक्षित महसूस करने लगी है. बच्चों के पास अब कंप्यूटर है, इंटरनेट है..विस्तृथ दुनिया उनके लिए खुली पड़ी है. मां के बचपन में यह सब नहीं था. तकनीक की दुनिया विकसित नहीं हुई थी. शायद इसीलिए बच्चों को यह लगने लगा है कि मां मौजूदा दौर की इस दुनिया को नहीं समङोगी. हकीकत यह है कि मां के दर्द को समझने की बच्चे कोशिश नहीं कर रहे हैं.

मेरी एक परिचित महिला हैं. उनका बच्च इंजीनियरिंग कर रहा है. महिला पढ़ी लिखी हैं, प्रोफेसर रही हैं. उनके मन में सहज जिज्ञासा रहती है कि बच्च क्या पढ़ रहा है? क्या कर रहा है? वे जानना चाहती हैं लेकिन बच्चे की ओर से कई बार टका सा जवाब आ जाता है- ‘इस विषय को तुम नहीं समझ पाओगी!’ वे दंग रह जाती है. जानती हैं कि इंजीनियरिंग के विषयों को समझ पाना उनके लिए बहुत आसान नहीं होगा लेकिन वे यह भी जानती हैं कि कुछ तो समझ ही सकती हैं.

उन्हें पीड़ी इस बात की होती है कि बच्चे मां की भावना को क्यों नहीं समझते? हमारे एक और परिचित परिवार में यही कहानी है. बच्च अपने पिता को तो अपनी पढ़ाई या अपनी गतिविधियों की पूरी जानकारी देता है लेकिन मां को अत्यंत संक्षिप्त जानकारी देकर बात समाप्त कर देता है. वह कहता है कि मां को समझाने का मतलब है कि एबीसीडी से शुरु करो. इतना वक्त कहां है? इस तरह की कहानियां आपको करीब-करीब हर घर में मिल जाएंगी.

महत्वपूर्ण मसला यह है कि क्या केवल सांसारिक जानकारियों के आधार पर बच्चे अपनी मां से बड़े हो सकते हैं? हमें बच्चों को प्रारंभिक दौर से ही यह शिक्षा देनी चाहिए कि मां का स्थान किसी भी जानकारी या ज्ञान से बिल्कुल अलग है. आप दुनिया में बहुत सफल व्यक्ति हो सकते हैं, शिखर पर पहुंच सकते हैं लेकिन याद रखिए कि अपनी मां से बड़े कभी नहीं हो सकते. मां के पास थोड़ी देर बैठना और उन्हें समझाना कि आप क्या कर रहे हैं, एक सुखद अनुभव होता है. कुछ देर मां के साथ बैठिए, मां से हमेशा छोटे रहिए!

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