Wednesday, August 10, 2016

क्योटो नहीं बनना चाहता वाराणसी



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब घोषणा की कि वाराणसी को क्योटो बना देंगे तो पहली नजर में किसी को समझ ही नहीं आया कि वे करेंगे क्या? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला कि ये क्योटो है क्या! इस यात्र के दौरान मैंने दर्जनों लोगों से जानना चाहा कि वे इस मामले में क्या राय रखते हैं. सब यही कहते हैं कि वाराणसी को वाराणसी ही रहने दीजिए इसे क्योटो बनाने की कोई जरूरत नहीं है.
गोदौलिया चौराहे के पास बेहतरीन बनारसी पान लोगों को पेश करने वाले रामश्रवण कहते हैं कि क्योटो हमारे सामने लगता कहां है. वाराणसी तो दुनिया को राह दिखाता रहा है. यहां बाबा विश्वनाथ हैं जो जगत के मालिक हैं. क्योटो के पास क्या है? मैं उन्हें बताता हूं कि जापान का क्योटो शहर सांस्कृतिक शहर है. वहां प्रति वर्ग किलो मीटर 5200 लोग रहते हैं फिर भी बहुत साफ सुधरा है. वाराणसी में आबदी केवल 2400 लोग प्रति वर्ग किलो मीटर है फिर भी हालात बुरे हैं. रामश्रवण मुङो समझाते हैं कि वाराणसी अपनी धुन में बसने वाला शहर है. इसे क्योटो बनाने की कोशिश करेंगे तो सबकुछ बिगड़ जाएगा. वे मोदी की इस बात से बिल्कुल ही प्रभावित नहीं हैं कि जापान का क्योटा शहर हेरिटेज सिटी है. जहां 2000 मठ और मंदिर हैं. जिस तरह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद लंदन का नवनिर्माण हुआ या 2001 के भूकंप के बाद गुजरात के भुज का नवनिर्माण हुआ, उसी तरह का नवनिर्माण बनारस का भी होगा.
जहां तक सरकारी स्तर पर वाराणसी को क्योटो बनाने की पहल का सवाल है तो एक दल वाराणसी से वहां गया है और एक दल वहां से यहां आया है. जापान ने यह आश्वासन जरूर दिया है कि वाराणसी के 1400 हेरिटेज बिल्डिंग को सहेजने में तकनीकी सहयोग वह करेगा.
वाराणसी का मिजाज अलग है
बीएचयू के एक छात्र राधेरमण सिंह मुङो अस्सी घाट पर मिल गए हैं और मैंने क्योटो वाला सवाल उनसे भी पूछा है. वे कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाए यह जरूरी है कि पहले वाराणसी की तासीर को समझा जाए. वे बताते हैं कि वाराणसी शहर का मिजाज क्योटो से कहां मेल खाता है कि इसे क्योटो बना दिया जाए. क्योटो की संस्कृति अलग है, वाराणसी को आप कैसे क्योटो बना देंगे? यहां लाखों लोग घाट पर आते हैं. घाट किनारे जाने वाली सड़क पर करोड़ों का व्यापार फुयपाथ पर होता है. क्या आप फुटपाथ की दुकानें हटा देंगे? क्या आप 70 हजार से अधिक रिक्शा हटा देंगे? वाराणसी काक्योटो बनना संभव ही नहीं है.

आंकड़ बड़े बड़े
राजेंद्र घाट पर बैठे संत हरवंश तो बह़े बड़े आंकड़ों पर ही सवाल खड़ाकरते हैं. वे कहते हैं कि नमामी गंगा प्रोजेक्ट के लिए 6300 करोड़ रुपए की घोषणा हुई थी. इसमें से करीब 2000 करोड़ रुपए गंगा की साफ सफाई पर खर्च होना है. 4200 करोड़ नेविगेशन कॉरिडोर पर और करीब 100 करोड़ रुपए घाटों पर खर्च होना है. बहुत अच्छी बात है लेकिन काम कहीं दिखाई भी तो देना चाहिए. मोदी जी पर भरोसा किया है वाराणसी ने. उन्हें तेजी दिखानी चाहिए. वे भी क्योटो के विरोधी हैं. कह रहे हैं कि क्योटो और वाराणसी के बीच सिस्टर सिटी का समझौता हुआ है लेकिन दोनों शहर बहनें हो ही नहीं सकतीं. एक दूसरे को दोनों शहर जानते समझते ही नहीं हैं.

कहां काशी कहां क्योटो
यहां वाराणसी में कोई भी क्योटो के महत्व को मानने को तैयार नहीं है. जरा उनके तर्क सुनिए..!
1. काशी यानि वाराणसी पांच हजार साल से ज्यादा पुराना शहर है. क्योटो के पास क्या इतनी पुरानी सांस्कृतिक समृद्धि है?
2. वाराणसी के पास गंगा है, क्या क्योटो के पास है?
3. यहां गऊ माता सड़कों पर हमारे साथ घूमती हैं. क्योटो वाले घूमने देंगे क्या?
4. हमारे पास बनारसी पान है, हम कहीं भी पिच कर देते हैं. क्योटो में यह सुविधा नहीं होगी.
5. हमारे यहां 110 तरह की लस्सी बनती है. ब्लू लस्सी पीने क्योटो वाले भी यहीं आते हैं.
6. भांग के साथ मलाई पुष्टि लाजवाब पेय है, क्योटो में नहीं ही मिलता होगा.
7. हमरे यहां मणिकर्णिका घाट है जहां सैकड़ों साल से चिता की आग ठंडी नहीं हुई. क्योटो में ऐसा है क्या?
8. हमारी गलियां हमारी पहचान है. गलियों में जीवन बसता है. क्योटो के पास क्या ऐसी गलियां हैं.
9. काशी में मरने से मोक्ष मिलता है, क्योटो में मरने से क्या मिलेगा.
10. क्योटो बनाने के लिए वाराणसी की गलियों को चौड़ा कर देंगे तो बनारसी संस्कृति बचेगी कहां?

वरुणा और अस्सी को
जीवन मिलना मुश्किल
वाराणसी नाम के पीछे दो नदियों का नाम शामिल है. एक है वरुणा और दूसरी है अस्सी. वरुणा का स्वरप बड़े नाले जैसा बचा है तो अस्सी का स्वरूप इतना बिगड़ चुका है कि उसे ढूंढना भी मुश्कि होता है. बीएचयू जाते हुए मुङो एक नाला दिखाई दिया. मैंने रुक कर इस नाले के बारे में पूछा तो पता चला कि यह तो अस्सी है. इस नाले पर पूरी तरह अतिक्रमण है. मोदी विजन में अभी तक ये दोनों नदियां शामिल नहीं हुई हैं. दोनों ही नाले जाकर गंगा में मिल रहे हैं.

चाय अैर पप्पू दोनों ही निराले!
लीजिए आज की शाम हम आ पहुंचे हैं वराणसी के फेमस पप्पू की चाय दुकान पर. पहुंचते ही ऐसा लग रहा है कि जैसे बगल में कुछ विवाद हो रहा है. एक सज्जन पूरे ताव में हैं और करीब-करीब चिल्लाने की हालत में हैं. ध्यान देते ही पता चल जाता है कि वे मोदी, अखिलेश और वाराणसी के मसले पर दूसरे व्यक्ति के विचारों से गरम हो गए हैं. मैं पप्पू को तलाश रहा हूं. एक पप्पू दुकान पर बैठा है. मैं उससे पूछता हूं कि आप ही पप्पू हैं तो वह हां में सिर हिला देता है और साथ ही यह भी कहता है कि मेरे पिताजी से मिलिए. उसके पिताजी का नाम है विश्वनाथ सिंह. आप उन्हें सिनियर पप्पू कह सकते हैं. मोदी के चुनाव के पहले तक दुकान पर बैठते थे लेकिन अब नेताजी टाइप हाो गए हैं. मोदी की माला जपना शुरु करते हैं. बताते हैं कि मोदी से अभी तक आमने सामने मुलाकात नहीं हुई है लेकिन चाय पर वीहियो चर्चा इसी दुकान से हुई थी.  साथ में चाय की खासियत भी बताते जा रहे हैं कि बिल्कुल ताजा चाय बनाते हैं. कहानी भी सुना रहे हैं कि उनके पिताजी बलदेव सिंह ने कैसे इस चाय की दुकान को संस्कृति का केंद्र बनाया. इस बीच बगल में आवाज तेज हो गई है. बिल्कुल झगड़े जैसी! मैं उधर देखता हूं तो विश्वनाथ सिंह कहते हैं कि पढ़े लिखे लोग हैं, इनका काम ही है बहस करना. अब तो पुराने लोग रहे नहीं. पहले जैसी बहस भी कहां होती है. वे इतिहास के पन्नों में उलझ जाते हैं. बहुत सारे नाम ले रहे हैं. मैं चाय की चुस्की लेता हूं. वाकई बेमिसाल चाय है. पप्पू को नमस्कार करता हूं और अस्सी घाट की ओर बढ़ जाता हूं.



No comments:

Post a Comment