Wednesday, August 10, 2016

तो क्या गंगा भी मोक्ष की ओर?


वाराणसी की इस यात्र की यह आखिरी शाम है. जाने से पहले गंगा को एक बार भरपूर नजरों से देखने आ पहुंचा हूं. हर रोज की तरह गंगा आरती का वक्त हो रहा है. घाट दुल्हन की तरह सजने लगी है. दुधिया और पीली रौशनी के बीच घुले मिले मंत्रों का उच्चरण पवित्रता प्रवहित कर रही है. इस  प्रवह के बीच मैं गंगा के प्रवाह को टटेलने की कोशिश कर रहा हूं. मैंने कोई 35साल पहले गंगा को उस रूप में देखा है जब दूसरा छोड़ नजर नहीं आता था. अब तो वो देखिए, उस पर के घाट पर लोग स्नना कर रहे हैं. आप थाड़े से भी सफल तैराक हैं तो गंगा के उस पर जाना कोई कठिन काम नहीं रह गया है. मैं उस घंगा को तलाश रहा हूं जिसके भीतर प्रवाह नहीं, गर्मी के दिनों में भी ऊफान हुआ करता था. अब तो किनारे से तीस फीट तक आप फर्राटे से जा सकते हैं. पानी चार फुट भी नहीं मिलेगा!
पहले दिन हम दशाश्वमेघ घाट से अस्सी की ओर गए थे. आज आदिनाथ घाट की ओर चलते हैं. इसी रास्ते में मणिकर्णिका घाट है जहां हर वक्त कोई न कोई मुर्दा जलता रहता है. इसी ओर सिंधिया घाट है, भोंसले घाट है लेकिन हर घाट एक जैसा नहीं है. कोई मेंटेन्ड है तो कोई थोड़ी सी सफाई वाला. मणिकर्णिक घाट से ठीक पहले नेपाल के राजाओं का घाट है. उसी परंपरा में अभी तक देखरेख हो रही है. पास में चूंकि मणिकर्णिका घाट है इसलिए बड़ेअक्षरों में लिखा है कि शवयात्र वाले मंदिर में न आएं.
मणिकर्णिका घाट किनारे से भी उतना ही सत्य स्थल नजर आता है जितना गलियों की ओर से वहां पहुंचने पर मुङो लगा था. वहां टंगा मोदी का एक श्लोगन मुङो याद आने लगा है-‘मोक्ष सबका अधिकार है’. पता नहीं मोदी ने ऐसा कहा भी होगा या नहीं लेकिन यहां एक बोर्ड तो टंगा है. मैं जीवन की अंतिम ज्वाला को देखते हुए आगे बढ़ रहा हूं. आगे आदिनाथ घाट देखने की इच्छा इसलिए प्रबंल हो रही है क्योंकि पर्चा भरने के पहले केजरीवाल ने यहां स्नानाकिया था. कितना अजीब है ना! पहले घाट को केजरीवाल ने पकड़ रखा है तो अंतिम घाट अस्सी को मोदी ने! बीच मे पूरी काशी है.
आदिनाथ घाट पर नहाने वलों की भीड़ नहीं है.
मैं लौट आता हूं फिर दशाश्वमेघ घाट. आरती खत्म होने को है. घाट पर पैर रखने की जगह नहीं है. मैं सोच रहा हूं कि घाट पर नाव टिकने में काफी वक्त लग जाएगा. मैं नाव नालक रामजी से कहता हूं कि किसी और घाट पर लगा लो, पैदल आ जाएंगे. वह मेरी बिल्कुल नहीं सुनता. एक नाव को ठेलता, दूसरे को पीछे घसीटता जगह बनाता जाता है. कुछ मिनटोंमें हम घाट पर उतरचुके होते हैं. नाव चालक रामजी कहता है बाबा विश्वनथ पर भरोसा रखिए, सबको रास्ता दिखाते हैं. मैं मुस्कुरा देता हूं.
एक चबूतरे पर बैठ गया हूं मैं. घाट की रौशनी दूसरे किानारे तक पहुंच रही है. गंगा जगमग हो रही हैं. मुङो लग रहा है कि यह तो ऐसा ही है जैसे किसी बीमार महिला को ब्यूटीफिकेशन कर दें और कहें कि बहुत स्वस्थ है ये! मंत्रोच्चर और आरती के मधुर स्वरों के बीच भी एक गाना मेरी जुबान पर चढ़ आता है..राम तेरी गंगा मैली हो गई! मैं खुद को दिलासा देने की कोशिश करता हूं. नमामी गंगे प्रोजेक्ट को याद करता हूं. गंगा को लेकर किए जा रहे प्रयासों को एक एक कर याद करता हूं ताकि गंगा को लेकर मेरा भय कुछ कम हो सके. फिर मुङो मणिकर्णिका घाट वाला वो बोर्ड याद आ जाता है..मोक्ष सबका अधिकार है!
..तो क्या गंगा का भी?
सरस्वती की तरह क्या गंगा भी लुप्त हो जाएंगी?
गंगा के बिना भारत मां का आंचल कैसा होगा?
देश के विशाल क्षेत्र को उपजाऊ मिट्टी कौन लाकर देगा? सवाल उमड़ घुमड़ रहे हैं.

लीजिए, आरती समाप्त हो गई है. घाट अब वीराना होना चाह रहा है.
मैं गंगा को प्रणाम करता हूं. थोड़ा जल अपने सिर पर डाल लेता हूं. बचपन में मैंने गंगा का साफ पानी पीया है. अब जो पानी है, उसे पीने की हिम्मत मुझमें नहीं है. काश! वो दिन लौट आए जब मैं गंगा का पानी फिर से पी सकूं.

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