Monday, September 29, 2014

ग्रीस से सबक सीखने की जरूरत

ग्रीस बहुत बड़ा देश नहीं है. भारत की तुलना में तो शायद कुछ भी नहीं लेकिन वहां आर्थिक मोर्चे पर पिछले तीन-चार साल में जो भी उतार-चढ़ाव आया है वह किसी सुनामी से कम नहीं है. ग्रीस की घटना ने पूरी दुनिया को चौंकाया है और लगे हाथ सतर्क-सावधान भी किया है. पूरे यूरोझोन में ग्रीस की अर्थव्यवस्था को 2007 तक काफी सुदृढ़ माना जाता रहा. उसकी आर्थिक विकास दर काफी तेज थी और विदेशी पूंजी का प्रवाह की तो पूछिए ही मत!  लेकिन 2009 के अंत में ग्रीस की अर्थव्यवस्था को जैसे ग्रहण लगना शुरु हो गया. ग्रहण इतनी तेजी से लगा कि दुनिया स्तब्ध रह गई. ग्रीस की हालत ऐसी हो गई कि वह कर्ज में डूबने लगा, कर्ज के चुकारे के लिए कर्ज लेने लगा. अंतत: हालात ऐसे हो गए कि ग्रीस दिवालिया होने की कगारा पर आ गया. यदि यूरो झोन के दूसरे देश आगे न आए होते तो ग्रीस डूब ही गया होता.
खैर, महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रीस की यह हालत हुई कैसे? कोई देश खुशहाली की डगर छोड़कर कर्ज के दलदल में कैसे फंसने लगा और भारत को इससे क्या सीखने की जरूरत है? हम एक दशक पीछे लौटें और ग्रीस पर नजर डालें तो वहां की सरकार जनता के बीच लोकप्रिय होने के लिए कुछ भी करने पर उतारू थी. चूंकि आर्थिक विकास दर काफी तेज थी इसलिए ग्रीस की सरकार को किसी संकट की आशंका भी नहीं थी. लिहाजा कई ऐसे प्रकल्प शुरु किए गए जो जनता की वाहवाही तो लूट रहे थे लेकिन उससे ज्यादा राजकीय कोष को क्षति पहुंचा रहे थे. आश्चर्यजनक रूप से सकल घरेलू उत्पाद कम होता जा रहा था और राजकीय घाटा बढ़ता जा रहा था. तीन साल पहले सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में ग्रीस का घाटा 13.6 प्रतिशत तक जा पहुंंचा. ग्रीस की सरकार सांसत में थी. करें तो क्या करें? रास्ता केवल एक था, राजकीय कोष का घाटा कम करना. इसके लिए जरूरी थे कठोर कदम. सरकार ने कोशिश की लेकिन जनता ने नकार दिया. सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे. बेहतरीन जीवनशैली की अभ्यस्त हो चुकी जनता को सरकार के कठोर कदम स्वीकार नहीं थे. सरकार ने हाथ फिर पीछे खींच लिए. स्थिति और खराब हो गई. अंतत: कठोर कदम अवश्यंभावी हो गया. ग्रीस का आथा कर्ज माफ हो गया है लेकिनअभी कहना मुश्किल है कि  इस संकट से वह कब उबरेगा. आयरलैंड, इटली, स्पेन और पुर्तगाल के हालात भी ठीक नहीं हैं.
अब जरा इस बात पर गौर करें कि भारत को इस घटना से क्या सीखने की जरूरत है. दरअसल हमारे यहां भी लोकप्रिय कदम उठाने की होड़ सी लगी रहती है. खासतौर पर चुनाव के ठीक पहले ऐसी घोषणाएं की जाती हैं और ऐसी योजनाएं शुरु की जाती हैं जो लोकप्रिय तो होती हैं लेकिन उसका असर सीधे देश के राजकीय कोष पर पड़ता है. घोषणा करने वाले नेता कभी इस बात की जरूरत भी नहीं समझते कि एक बार अर्थशास्त्रियों से यह पूछ लें कि इसका असर क्या होगा? ऐसी योजनाएं राजकीय कोष को क्षति पहुंचाती हैं. हम हालांकि आज ठीक ठाक स्थिति में हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्वकाल में हमें अपनी माली हालत ठीक रखने के लिए देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था. हमारा देश बड़ा है इसलिए घाटा भी बड़ा हो सकता है और उत्पन्न होने वाली परिस्थितियां ज्यादा विकराल हो सकती हैं. जिस तरह से भारत को दुनिया ने बाजार मान लिया है और बैंकों ने अपनी थैली के मुंह खोल रखे हैं, उससे कई बार गहरे संकट का एहसास होता है. जिस तरह से देश में महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी संकट से जूझ रहा है, वह खतरनाक संकेत दे रहा है.
हमें इस बात पर सख्त नजर रखनी होगी कि उपभोक्तावाद को इतना बढ़ावा न मिल जाए कि बाजार ही सरकार को प्रभावित करने लगे. चाणक्य ने कहा था कि प्रशासन के लिए लोकप्रियता तो जरूरी है ही, कठोर अनुशासन भी अत्यावश्यक है. दुर्भाग्य से शासकीय तौर पर वह आर्थिक अनुशासन दिखाई नहीं दे रहा है. कई बार लगता है कि हम बाजार के हाथों में खेल रहे हैं. बाजार केवल पूंजी की बात करता है, मुनाफे की बात करता है. बाजार का मुख्य ध्येय ही होता है लोगों की जेब से पैसा निकालना, ऐसे हालात पैदा कर देना कि लोग कर्ज लेकर खरीददारी करें. इस समय हिंदुस्तान का हर आदमी कर्ज में डूबा हुआ है. जो कर्ज में सीधे नहीं डूबा है, इसका मतलब है कि बाजार उसे कर्ज देने लायक नहीं समझता. जरा सोचिए कि जिस देश का हर आदमी किसी न किसी तरह के कर्ज में डूबा हो, उस देश की मंगलकामना किन शब्दों में की जाए? हमारी सरकार को इस विषय पर सोचना चाहिए. आम आदमी की सुविधा के लिए कर्ज जरूरी हो सकता है लेकिन इतना भी नहीं कि वह बेजरूरत खर्च करने लगे. दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का मध्यमवर्ग इसी कुचक्र में फंस गया है. इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा है. एक मात्र रास्ता यही है कि सरकारें कठोर कदम उठाएं. बाजार के लाभ का खयाल किए बगैर ऐसे कदम उठाएं जो जनता के हित में हो. हो सकता है कि ऐसे निर्णय लोकप्रिय न हों और विरोधी पक्ष सवाल भी ऊठाए लेकिन सरकार की नजर में केवल देश होना चाहिए.
मैं जिक्र करना चाहूंगा आइसलैंड का जिसने वर्ष 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में गंभीर झटके ङोले. उस वक्त आइसलैंड का पूरा अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग सिस्टम चौपट हो गया था. लेकिन इस बार वह बचा रहा क्योंकि विदेशी बैंकों से वहां के नागरिकों ने किनारा करने का निर्णय ले लिया था. आइसलैंड अत्यंत छोटा देश है इसलिए वहां जागरुकता पैदा करना आसान था लेकिन भारत में यह जरा कठिन काम है. जनता को जागृत किया जाना चाहिए कि कर्ज के कुचक्र में फंसना संकट को न्यौता देना है.
एक बात और! ग्रीस के इस संकट को कुछ लोग पूंजीवाद की असफलता के रूप में भी देख रहे हैं. क्या वाकई ऐसा है? फिलहाल ऐसे किसी निश्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. ग्रीस का संकट वहां की सरकार की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिए. वैश्विक आर्थिक संकट के दौर से आखिर पूरी दुनिया के पूंजीवादी देश बाहर निकले ही हैं, अपनी स्थिति को भी उन्होंने सुधारा ही है. जिस तरह से सोवियत रूस के विघटन और चीन की बदलती चाल को साम्यवाद के खात्मे के रूप में नहीं देखा जा सकता, उसी तरह ग्रीस की विफलता को लेकर पूंजीवाद के खात्मे पर मोहर नहीं लगाई जा सकती. महत्वपूर्ण मसला बाजार पर शासकीय और प्रशासकीय नीतियों के नियंत्रण का है. और बहुत कुछ अपनी लोभवादी प्रवृति पर अंकुश का भी!

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