Monday, September 29, 2014

तेल के कुओं में छिपी है जंग की वजह

इराक में इस वक्त जो कुछ भी चल रहा है, सतही तौर पर आप उसे शिया-सुन्नी विवाद कह सकते हैं. सत्ता का संगर्ष कह सकते हैं लेकिन हकीकत तो तेल के कुओं में छिपी है! सच्चई यह है कि इस सारे संघर्ष के पीछे तेल का खेल है. इस वक्त इस खेल का प्रमुख किरदार है अमेरिका! खेल को समझने के लिए सबसे पहले इन आंकड़ों को जानिए!
अमेरिका की आबादी :
विश्व की आबादी का केवल 5 प्रतिशत
अमेरिका में तेल भंडार :
विश्व के कुल ज्ञात तेल मंडार का केवल 3 प्रतिशत
अमेरिका में तेल खपत :
विश्व के कुल उत्पादन का करीब 25 प्रतिशत

जरा गौर कीजिए कि दुनिया में अनाज की कमी के लिए हम भारतीयों को पेटू बताने वाले अमेरिका में दुनिया की केवल 5 प्रतिशत आबादी रहती है और वह 25 प्रतिशत तेल हजम कर जाता है. तेल की भूख ने उसे इतना चालाक और क्रूर बना दिया है कि दुनिया में शांति का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है. उसे तो केवल तेल चाहिए, चाहे दूसरों को जला कर ही क्यों न मिले! यही हाल पश्चिमी देशों का है. उन्हें भी तेल चाहिए इसलिए वे अमेरिका के पिछलग्गू बने बैठे हैं. ब्रिटेन तो खासकर इस तेल के खेल में शुरु से ही शामिल रहा है. इस कहानी को समझने के लिए बीसवीं सदी के प्रारंभ में जाना होगा.
हालांकि दुनिया के कई देशों में पेट्रोलियम पदार्थो के छुटपुटस्तरोंे पर निकालने की कवायदें चल रही थीं. कई सफलताएं भी मिली थीं लेकिन 1908 में ईरान मे तेल का बड़ा भंडाल मिला. ईरान के पास तब ऐसी तकनीक थी नहीं कि वह इस भंडार का दोहन कर सके. जाहिर है उसने उन्हीं पश्चिमी देशों की ओर आशा भरी नजर से देखा जिन्होंने इस खोज में मदद की थी. अगले ही साल 1909 में एंग्लो-इरानियन आयल कंपनी (एआईओसी) स्थापित हुई ताकि तेल को निकाला जा सके. तेल की खुदाई शुरु हुई लेकिन वक्त बीतने के साथ ईरान को महसूस हुआ कि मोटा माल तो ब्रिटेन निगल रहा है. 1951 में उसने अपने तेल भंडार का राष्ट्रीयकरण करने के साथ ही एआईओसी की इरान में मौजूद संपत्तियों को जब्त कर लिया और तेल खुदाई में लगी सभी पश्चिमी कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया. ब्रिटेन के लिए यह बहुत बड़ा झटका था क्योंकि एआईओसी विदेश में स्थापित उसकी सबसे बड़ी संपत्ति थी.
ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर ईरान को सबक सिखाने का रास्ता अख्तियार किया. अमेरिकी खुखिया एजेंसी सीआईए और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एमआई-6 ने मिलकर ऐसा कुचक्र रचा कि ईरान में सत्ता के खिलाफ विद्रोह हो गया और 1953 में प्रधानमंत्री मोहम्मद माोसादेघ की निर्वाचित सत्ता को उखाड़कर पुराने शाह के बेटे मोहम्मद रजा पहलवी को गद्दी पर बिठा दिया. इसके साथ ही एंग्लो-इरानियन आयल कंपनी (एआईओसी) फिर वजूद में आ गई और इसके संचालन का जिम्मादारी आनन फानन में गठित एक अंतरराष्ट्रीय संघ को सौंप दिया गया. इस संगठन के माध्यम से एआईओसी के शेयर का बंदरबांट हुआ. अमेरिका की पांच कंपनियों को कुल 40 प्रतिशत हिस्सा, ब्रिटेन को 40 फीसदी, रॉयल डच को 14 प्रतिशत तथा एक फ्रेंच कंपनी को 6 प्रतिशत हिस्सा मिला. ईरान को केवल मुनाफे का 25 प्रतिशत मिलना तय हुआ. एआईओसी पहले ईरान को 20 प्रतिशत मुनाफा देती थी. इस तरह यह प्रचारित किया गया कि ईरान को अब 5 प्रतिशत ज्यादा मुनाफा मिल रहा है. उसी समय अमेरिकी कंपनियां तेल निकालने के एवज में सऊदी अरब और दूसरे देशों को 50 प्रतिशत तक मुनाफा दे रहे थे.
इधर अमेरिका यह बखूबी समझ रहा था कि वैश्विक शक्ति के रूप में उभरते हुए उसे ज्यादा से ज्यादा तेल की जरूरत होगी. विकास के साथ तेल की मांग अमेरिका में बढ़ रही थी इसके लिए वह रास्ता तलाश रहा था. अमेरिका ने अपने विकास को नई दिशा देने के लिए तत्पर था. उसने 1971 में अपनी स्वर्ण आधारित आर्थिक प्रणाली को बिदा कहा लेकिन इसका असर एकदम विपरीत हुआ और डॉलर की कीमत में भारी गिरावट आ गई. सोची समझी रणनीति के तहत अमेरिका ने सऊदी अरब से डील किया कि हथियारों के साथ वह सुरक्षा भी देगा और इसके बदले सऊदी अरब जिन देशों को भी तेल बेचता है उनसे भुगतान अमेरिकी डॉलर में लेगा. वक्त के साथ दूसरे ऑर्गेनाइजेशन आफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिग कंट्रीज (अेपेक देश) भी इस समझौते में शामिल हो गए. इस तरह अमेरिकी डॉलर की मांग फिर आसमान छूने लगी. अब देखिए, अमेरिका ने यहां एक बड़ा खेल किया. जो डॉलर वह दुनिया को दे रहा था वह अमेरिकी बाजार में नहीं चल रहा था. तेल के खेल में लगे इस डॉलर को जॉर्ज  टाउन यूनिवसि;टी के प्रोफेसर और जानेमाने इकॉनोमिस्ट इब्राहिम ओवेसिस ने नाम दिया ‘पेट्रो डॉलर’.
अमेरिका समझ रहा था कि अब सब ठीक है लेकिन अक्टूबर 1973 में सीरिया और इजिप्ट की अगुवाई में अरब देशों ने इजराइल पर हमला बोल दिया. अमेरिका और पश्चिमी देशें ने तत्काल इजराइल की सहायता की और इससे नाराज होकर आपेक देशों ने अमेरिका को तेल बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया. अमेरिका को लगा कि ओपेक देशों की बढ़ती ताकत तेल बाजार में ‘पेट्रो डॉलर’ को समाप्त न कर दे. अब अमेरिका ने खुलकर अपनी चाल चलनी शुरु की. उसने अरब देशों को लालच भी दिया, धमकाया भी और जहां जरूरत पड़ी वहां अपने खुफिया साधनों को भरपूर इस्तेमाल किया. सद्दाम हुसैन जैसे लोगों ने अमेरिका को आंख दिखाई तो अमेरिका आंख निकाल लेने की हद तक चला गया और सद्दाम को फांसी पर लटका दिया. दरअसल अरब देशों को उसने बांट कर रख दिया. अभी जो कुछ भी चल रहा है, वह इसी का परिणाम है. उसे पता था कि इराकी फौज आतंकियों का सामना नहीं कर सकती, इसके बावजूद वह इराक को अपने हाल पर छोड़कर चला गया. मजहब के रंग में रंगे अरब देश हालांकि अमेरिका की चाल को समझते रहे हैं लेकिन उनके पास भी इसका कोई इलाज नहीं है. अमेरिका अब चाहता है कि ईरान भी जंग में फंसे. ईरान बचने की कोशिश कर रहा है लेकिन लगता यही है कि बहुत ज्यादा दिनों तक वह बच नहीं पाएगा. इराक के शिया धर्मस्थलों को बचाने का आंतरिक दबाव उस पर है. इधर आतंकी संगठन भी पीछे हटने वाले नहीं हैं क्योंकि तेल से उपजने वाला धन उन्हें ताकत दे रहा है.


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