Monday, September 29, 2014

क्या इस दुष्चक्र से उबर पाएगा इराक?

इराक का नाम जेहन में आते ही अब केवल खून खराबा ध्यान में आता है. यह सत्य कहीं इतिहास में दफन हो गया कि दुनिया के जिन हिस्सों में सभ्यता ने जन्म लिया उनमें से एक इराक भी है. इतिहास के पन्नों पर इस इलाके को हम मेसोपोटामिया के रूप में भी जानते हैं. इतिहासकार इराक को सभ्यता का पालना भी कहते हैं. जिस तरह से पालने में झूलते हुए बच्च बड़ा होता है, ठीक उसी तरह से इराक में सुमेरियन सभ्यता ने जन्म लिया और करीब 3 हजार साल तक उसका वजूद कायम रहा. इराक अर्थात पुराने मेसोपोटामिया की दूसरी खासियत भी इतिहास में कही दफन है. कम ही लोगों को पता होगा कि करीब 6 हजार साल पहले विश्व में पहली बार ‘राइटिंग सिस्टम’ अर्थात व्यवस्थित लेखन की परंपरा यहीं से शुरु हुई थी क्योंकि वहां सभ्यता के विकास के साथ व्यापार व्यवसाय का विकास हो चुका था और व्यवस्थित लेखन की जरूरत महसूस की जा रही थी.
जिस देश का इतिहास इतना स्वर्णिम हो, उसे किसकी नजर लग गई? इसके लिए इतिहास में थोड़ा पीछे लौटना होगा. वक्त बदला और यहां तेल की प्रचूरता ने सबका ध्यान आकृष्य किया. प्रथम विश्वयुद्ध में युनाइटेड किंग्डम यानि ब्रिटेन की सेना ने इस इलाके के शासक को पराजित कर दिया. इसके बाद से यह इलाका ‘स्टेट ऑफ इराक’ नाम से ब्रिटेन का हिस्सा बन गया. ब्रिटेन ने सीरिया से भगाए गए फैसल को यहां का शासक नियुक्त किया. शासन व्यवस्था में सुन्नियों को प्रमुखता दी गई. 1932 में ब्रिटेन ने इराक को आजादी तो दे दी लेकिन अपना सैन्य अड्डा वहां बनाए रखा. अगले ही साल किंग फैसल की मृत्यु हो गई. फिर गाजी और उसके बाद उसके नाबालिग बेटे फैसल द्वितीय की ओर से अब्दुल्ला ने रीजेंट के रूप में गद्दी संभाली लेकिन 1941 में एक सैन्य विद्रोह में राशिद अली ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. इसी दौरान ब्रिटेन को यह भय सताने लगा कि कहीं इराक से पश्चिमी देशों को तेल की आपूर्ति न रुक जाए. तेल की खातिर ब्रिटेन ने इराक पर फिर से कब्जा कर लिया. ब्रिटेन वहां से फिर 1947 में  हटा. इराक हशमित राजघराने के पास आ गया. 1958 में फिर सैन्य विद्रोह हुआ आौर ब्रिगेडियर जनरल अब्दुल करीम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. उसके बाद से कई सैन्य विद्रोह हुए और शासक बदलते रहे. सत्ता के लिए खून बहना इराक में आम बात हो गई. 1968 में बाथ पार्टी के अहमद हसन अल बकर ने सत्ता पर कब्जा किया लेकिन धीरे-धीरे सत्ता उनके हाथ से भी फिसली और जनरल सद्दाम हुसैन के हाथों में आ गई.
सद्दाम ऊंचे ख्वाब वाले व्यक्ति थे. उन्होंने 1980 में ईरान पर हमला बोल दिया. करीब आठ साल चले इस युद्ध में दोनों ओर के करीब पंद्रह लाख लोग मारे गए. इस युद्ध के समाप्त होने से ठीक पहले इराक की बाथ पार्टी ने कुर्द लोगों के खिलाफ एक अभियान चलाया और माना जाता है कि करीब एक लाख कुर्द लोगों को मौत के घाट उतार दिया. मरने वालों में शिया भी थे. शिया और कुर्दो के खिलाफ जब यह अभियान चल रहा था तभी इराक ने एक और मोर्चा खोला और कुवैत पर कब्जा कर लिया. अमेरिका और पश्चिमी देशों को फिर तेल की चिंता सताने लगी कि कहीं सद्दाम रोड़ा न बन जाए. अंतत: अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने हमला बोला और इराक को वापस जाने पर मजबूर कर दिया. अमेरिकी हितों के लिए सद्दाम पूरी तरह से दुश्मन की तरह थे और अंतत: मार्च 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया. हमले का बहाना था इराक का न्यूक्लियर और केमिकल हथियार लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ वहां मिला ही नहीं. अमेरिका ने कई सालों तक वहां कब्जा जमाए रखा और एक कठपुतली सरकार की स्थापना की जिसमें सुन्नियों का कोई रोल नहीं था क्योंकि सद्दाम सुन्नी थे. अब सुन्नियों ने विद्रोह किया और लड़ाकों के कई समूह बन गए. जाहिर है कि शिया-सुन्नी के झगड़े को बढ़ाने में अमेरिका ने भी रोल निभाया लेकिन हमले उस पर भी हो रहे थे. इसी दौरान सद्दाम पकड़ में आ गए औार 2006 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया. देश गृह युद्ध की स्थिति में पहुंच गया. अमेरिका का काम पूरा हो चुका था. वह अपना हित साधना चाहता था. वास्तव में इराक की जनता से उसका कोई लेना देना नहीं था. उसने जून 2009 में इराकी सेना को कानून-व्यवस्था का काम सौंपना शुरु किया और 2011 तक ज्यादातर सैनिक वापस हो चुके थे. राजनीतिक रूप से भी इराक बदहाल हो चुका था. बगदाद में सुन्नियों की संख्या कभी 35 प्रतिशत हुआ करती थी जो अब घटकर 12 प्रतिशत रह गई है. खैर सुन्नियों ने शियाओं के नेतृत्व वाली सरकार की खिलाफत की सभी हदें पार कर दी हैं. सुन्नियों के चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आईएसआईएस) ने इराक के कई प्रमुख शहरों पर कब्जा कर लिया है. आश्चर्य नहीं कि बगदाद भी उनके कब्जे में आ जाए. दरअसल इराक के ये हालात पूरे अरब जगत के लिए चिंता का विषय है.
तो अब सवाल पैदा होता है कि ऐसी स्थिति में अमेरिका क्या करेगा? क्या अमेरिका फिर से इराक पर हमला करेगा? अभी कुछ कहना मुश्किल है. वह कुछ भी कर सकता है. इतना तो स्पष्य्ट लग रहा है कि वह हस्तक्षेप जरूर करेगा. अमेरिका की नीतियों पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका अपनी बुद्धिमानियों में खुद ही फंस जाता है. इस बार भी हालात ऐसे ही हैं. इराक में अमेरिका ने दोहरा खेल खेला. एक तरफ सुन्नियों को सत्ता में जगह नहीं दी तो दूसरी ओर सुन्नियों के कई संगठनों की मदद की ताकि अल कायदा को पछाड़ा जा सके. यहां याद करना मुनासिब होगा कि अलकायदा को भी पैदा तो अमेरिका ने ही किया था ताकि अफगानिस्तान से रूस को खदेड़ा जा सके. बहरहाल अब अमेरिका उसी ईरान से बातचीत कर रहा है जिसे वह अब तक दुश्मन मानता रहा है. ईरान की आबादी में 90 से 95 प्रतिशत लोग शिया हैं और अमेरिका इसी का फायदा उठाना चाहता है. उसकी चाहत शायद यही है कि इराकी सुन्नियों के खिलाफ ईरान उसकी मदद करे. ईरान फिलहाल फूंक-फूूंक कर कदम रख रहा है है क्योंकि वह अमेरिका की चाल समझ रहा है लेकिन उसका उलझना भी तय लग रहा है. बगल में आग लगी है तो वह चुप कैसे बैठ सकता है. इराक में शियाओं को बचाने का आंतरिक दबाव भी उस पर होगा ही. बहरहाल इराक बदहाल है. सत्ता किसी के भी पास रहे. मरना आम आदमी को ही है!

No comments:

Post a Comment