Monday, September 29, 2014

आलू खाते हैं लेकिन पौधा पहचानते नहीं


मेरे एक युवा मित्र अभी-अभी हैदराबाद से लौटे हैं. अपनी एक पुरानी मित्र से मिलने गए थे जो बचपन में उनके साथ पढ़ती थी, कस्बे के उसी स्कूल में जहां वे खुद पढ़े हैं. बहुत ही अभिभूत हैं उससे. उसकी तारीफ के कसीदे काढ़ रहे थे- ‘क्या अंग्रेजी बोलती है बॉस! तीन दिनों में हिंदी का तो एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं सुना. मेरे मुंह से ‘अभिप्राय’ शब्द सुनकर तो वो बिल्कुल चौंक गई. कहने लगी योर हिंदी वोकेबलरी इज टू गुड! बॉस, मैं तो उसकी अंग्रेजी पर लोटपोट हो रहा था. उसका बच्च भी अंग्रेजी में ही बात करता है. ऐसी अंग्रेजी बोलता है जैसे अंग्रेज का बच्च बोल रहा हो. अपन लोग तो वैसी अंग्रेजी बोल ही नहीं पाते! बच्चे के पास भी लैपटॉप है. खाना नौकरानी बनाती है, वही बच्चे की देखभाल भी करती है. बहुत ही व्यस्त है मेरी दोस्त. एक मल्टीनेशनल कंपनी की अधिकारी है और कई बार ड्यूटी से रात को दो बजे घर लौटती है. क्या शानदार जिंदगी है बॉस! बिल्कुल लज्जतदार जिंदगी! बहुत आगे निकल गई वो, अपन तो बहुत ही पीछे रह गए!’
मैं युवा मित्र की आंखों की चमक देख रहा था. यह महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि आधुनिक जिंदगी की लालसा किस तरह युवाओं को अपनी चपेट में लेती है. यह सोच कर भयभीत हो रहा था कि अंग्रेजी क्या इस तरह वाकई निगल रही है हमारी मातृभाषा को? क्या अंग्रेजी बोलना इतना महत्वपूर्ण है कि हिंदी या क्षेत्रीय बोली बोलने वाला व्यक्ति ग्लानि का अनुभव करने लगे? युवा मित्र तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे और मेरे जेहन में कई सवाल खड़े हो रहे थे. मैं अपने आप से पूछ रहा था कि रूस, चीन और जापान के लोग अंग्रेजी की दासता के बगैर तेजी से तरक्की कर रहे हैं तो हम  हिंदी वालों को अंग्रेजी के इस भूत ने इस कदर क्यों भयभीत कर दिया है? हिंदुस्तान में यह सोच क्यों विकसित हो गई कि बगैर अंग्रेजी जाने आप इज्जत नहीं पा सकते! यह वही देश है जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी के हिंदी में भषण देने पर इस कदर तालियां बजाई थीं कि गूंज पूरी दुनिया ने सुनी थी, फिर ऐसा क्या हो गया कि हिंदी पर खुद का सीना फुलाने के बजाए अंग्रेजी के नशे में डूबने लगा यह देश!
बेशक अंग्रेजी मौजूदा दौर की एक महत्वपूर्ण भाषा है और किसी भी भाषा की जानकारी व्यक्ति को वैचारिक तौर पर समृद्ध ही बनाती है लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं होना चाहिए कि हम दूसरी भाषा को इतना महान मान बैठें कि खुद की भाषा का ही तिरस्कार करने लगें. सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा कह कर यदि हम खुशी से झूम उठते हैं तो यही भाव अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय बोली को लेकर क्यों महसूस नहीं करते? ..और जो लोग अंग्रेजी बोलते हैं, क्या वे सोचते भी अंग्रेजी नजरिए से ही हैं? बिल्कुल नहीं. हिंदुस्तान में अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादातर लोग सोचते हिंदी में हैं और उसे ट्रांसलेट करके बोलते हैं. अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले ऐसे ज्यादातर ‘महापुरुष’ न अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और न अच्छी हिंदी. भाषायी तौर पर आप उन्हें कंगाल कह सकते हैं. ..तो सवाल यह पैदा होता है कि हम इन भाषायी कांगालों को इतना महान क्यों मान रहे हैं? दरअसल यह हमारी दासता वाली सोच का नतीजा है. दो सौ साल तक अंग्रेजों ने हमें बताया कि तुम हिंदी वाले छोटे लोग हो, इसलिए हम तुम पर राज कर रहे हैं. अंग्रेज चले गए लेकिन हम अंग्रेज बनने की चाहत में पागल हुए जा रहे हैं. हर कोई अपने बच्चे को ऐसे स्कूल में पढ़ाना चाहता है जहां बच्च अंग्रेजी बोलने लगे! यह दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐसी पौध तैयार कर रहे हैं जिसे अपनी भाषा और अपनी मिट्टी की जानकारी नहीं है.
अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले नमूनों के बच्चों को कुछ पौधे दिखाइए और पूछिए कि यह कौन सा पौधा है तो आंखें बाहर आ जाएंगी लेकिन जवाब नहीं सूङोगा! वे आलू खाते हैं लेकिन आलू का पौधा नहीं पहचान सकते. आखिर ये कौन सी ब्रीड और कैसा ब्रांड तैयार कर रहे हैं हम देश के लिए?
एक और बात..!
अंग्रेजियत की यह सुनामी रिस्तों की हर मिठास को ऐसे समंदर में बहा ले जा रही है जहां का पानी बिल्कुल खारा है. उसमें रिस्तों की मिठास के प्रवाह को ढूंढना नामुमकिन सा है. जिस दोस्त के पारिवारिक स्टेटस और लज्जतदार जिंदगी को देखकर हमारे युवा मित्र अभिभूत हुए जा रहे हैं, उसी परिवार का छोटा बच्च उनसे कह रहा था-‘लेट्स प्ले विद मी, मम्मा नेवर प्ले बिकॉज शी इज टू बिजी.’
उस बच्चे के दर्द को समङिाए..जब मां ही उसके साथ वक्त नहीं बिताती है तो वह जिंदगी के राग और अनुराग क्या सीखेगा..?

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