Monday, September 21, 2015

जया बच्चन के हीरो हैं दिलीप कुमार!

‘‘..एक लड़की हमारे यहां आने लगी थी और धीरे-धीरे कुछ ज्यादा ही आने लगी थी. उसका नाम था-जया भादुड़ी. मुङो नहीं मालूम अमित जया को पहले पहल कहां मिले थे और एक-दूूसरे के प्रति क्या प्रतिक्रिया हुई थी. ..हिंदी फिल्म संसार में जया की प्रसिद्धि ‘गुड्डी’ के साथ हुई थी. कुछ और बाद को आने वाली फिल्म में भी उसके काम की प्रशंसा हुई थी. ..उसमें अपना एक आकर्षण था, विशेषकर उसके दीर्घ-दीप्त नेत्रों का, और उसके सुस्पष्ठ मधुर कण्ठ का. वह अमित को ‘लंबू जी’ कहती और अमित उसे ‘गिटकी’ कहते.’’
-हरिवंश राय बच्चन (दशद्वार से सोपान तक, पृष्ठ 340)

जब जया बच्चन सामने बैठी हों और आप उनसे संवाद कर रहे हों तो वाकई उनके दीर्घ-दीप्त नेत्र आपको आकर्षित करते हैं. उनकी सुमधुर आवाज आपको भावविभोर करती है. अगस्त 2014 की एक दोपहर उनसे मुलाकात हुई लोकमत मीडिया लिमिटेड के चेयरमैन और सांसद (राज्यसभा) विजय दर्डा के दिल्ली स्थित निवास ‘यवतमाल हाऊस’ में. जया बच्चन की पहचान एक अनुशासन पसंद संस्कारशील महिला की है, उनकी आंखों में मोहक अनुशासन झलकता है. वे गंभीर बनी रहती हैं लेकिन उस दिन बातचीत के दौरान उनकी खुशमिजाजी भी देखने को मिली और उनकी भावनात्मकता भी! बचपन की यादों में खो गईं. लोकमत समाचार दीप भव के पाठकों के लिए यादों का पिटारा खोल दिया. वे अपने ससुर हरिवंश राय बच्चन की दीवानी हैं. अपनी सास तेजी बच्चन की दीवानी हैं. और दीवानी हैं दिलीप कुमार सहब की. वे कहती हैं-हमारे हीरो तो दिलीप साहब ही हैं! जयाजी खुद कहती हैं कि उन्हें अनुशासन से ज्यादा ऑर्डर पर विश्वास है!


बच्चन परिवार बेहद संस्कारशील और अनुशास्ति माना जाता है. पारिवारिकता की मिसाल के तौर पर लोग इस परिवार को देखते हैं. फिल्मी दुनिया में रहकर भी यह सब कैसे संभव हो पाया? क्या बचपन में मिले संस्कारों का प्रतिफल है यह?

हम लोग मीडिल क्लास के थे. हमारे पास बहुत कुछ तो नहीं थाऔर न हमने कभी बुहत कुछ पाने की इच्छा रखी. हमें कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. हमारे घर में हम तीन बहने हैं. हमें कभी ऐसे लगा ही नहीं कि बहन हैं कि भाई हैं या भाई होना चाहिए. तो ये सारे संस्कार हमें घर से मिले. माता पिता से मिले. हमारा एक तरह से संयुक्त परिवार हुआ करता था. उसके बाद सब अपनी नौकरी में चले गए. चाचा वगैरह सब अलग-अलग शहरों में थे. मेरे ग्रैंड पैरेंट्स हमेशा थोड़े-थोड़े दिन हर किसी के साथ रहने की कोशिश करते थे. ज्यादातर हमारे पिताजी के साथ रहते थे. और अंतिम समय में भी वे वहीं थे. मुङो आज भी याद है कि पहले मेरे ग्रैंड फादर की डेथ हुई थी और उसके बाद ग्रैंड मदर की. मेरे फादर बहुत रीलिजीयस नहीं थे. थोड़े नॉस्टालजिक थे और रिचुयल्स में यकिन नहीं था. बहुत ही प्रोगेसिव थे. मुङो याद है कि चोथे दिन वे अपने कमरे में बैठे हुए थे, मैं उनके पास गई तो वे उदास थे. मैंने उनसे पूछा कि आप यहां क्यों बैठे हैं तो उन्होंने कहा कि मुङो पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि मैंने इतने दिनों तक ध्यान नहीं दिया कि मेरी मां ने क्या किया. कैसे बच्चों को पाला, कैसे बड़ा किया. कैसे संभाला होगा. कहां से पैसे आए. मैं बड़ा लड़का था और जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई थी लेकिन मां ने कभी बताया नहीं था कि जिम्मेदारी तुम्हारी है. तो हमारे यहां परंपरा थी, संस्कार थे कि हम खुद ही समझ जाते थे कि हमें करना क्या है. कभी मैंने ध्यान नहीं दिया लेकिन मैं जब यह देख रहा हूं तो लग रहा है कि कितना कुछ छोड़ कर गए हैं. बगैर सिखाए, बगैर बताए संस्कार, ट्रेडिसन, रिच्यूल्स, मोरल्स क्या-क्या सिखा कर गई हैं. जो वो करती थीं, आज मेरी वाईफ कर रही हैं, मेरी तीनों बेटियां कर रही हैं. तो हम लोग अपने जिंदगी में जो मां होती है, उसका जो कंट्रीब्यूसन होता है. यह हमारे हिंदुस्तानी संस्कार में है. कभी न मां बताती है और न हम लोग उसको समझ पाते हैं लेकिन वो जब चली जाती हैं तो हमें समझ में आता है. उन्होंने क्या-क्या संस्कार छोड़े हैं.

मुङो ऐसा लगा कि मेरे पिता मुङो कुछ कन्वे करने की कोशिश कर रहे हैं. मेरे पिता जी जर्नलिस्ट होने के कारण बहुत बाहर रहते थे लेकिन जब भी घर पर होते तो रात का खाना बच्चों के साथ खाते थे. हमने उनके मुंह से कभी भी कोई छोटी बात नहीं सुनी. हमारे घर में बड़े-बड़े लीडर का आना जाना रहता था. मध्ययप्रदेश की सारी सरकार मेरे घर आती थी. वे बहुत पावरफुल और इमानदार थे. लोग उन पर भरोसा करते थे लेकिन कभी गुमान नहीं देखा.

मुङो बहुत कुछ सीखने को बच्चन जी ( हरिवंशराय बच्चन) से मिला. मैंने उनके साथ इतना समय बिताया है कि शायद कोई और नहीं बिता पाया होगा. उन्होंने बहुत कुछ अपने बच्चों को दिया है मगर उनका अनोखा ही तरीका था, कहने का समझाने का. रोज सुबह उनके पास नहा धोकर बैठती थी तो रामायण पढ़ते थे और सुनाते थे. , समझाते थे और उस दौरान बहुत कुछ कहते थे. जो मेरे अंदरर बात चली गई थी. देखिए ये जो वातावरण होता है ऐसे घरों में जहां आर्ट कल्चर, जहां सरस्वती जी विराजमान रहती हैं, वहां कुछ बोले बगैर आप समझ जाते हैं. यदि ऐसे ही परिवार से आप आते हैं और वैसे ही परिवेश में जाते हैं तो वहां भी कुछ एडिशन होता है.
हम लोगों की शादी कम उम्र में हो गई थी. हमारी मदर इन लॉ बहुत स्ट्रांग थीं. वो ऐसे परिवार से आई थीं जो बहुत ही धनाढ्य परिवार था. वो सिख थीं. उनके पिताजी के पास 12 कपड़ा मिलें थीं. उनका ननिहाल भी काफी संपन्न था. जब वे बच्चनजी से मिलीं तो उन्होंने सबकुछ छोड़ दिया. बरेली आई थीं अपने फ्रेंड के साथ. वहां डैड (हरिवंशराय बच्चन) से मुलाकात हुई. वो कहीं से कवि सम्मेलन करके आ रहे थे तो बरेली में रुके थे उनके यहां जहां मम्मी आई थीं. मदर इन लॉ सबकुछ छोड़कर आ गई. उनके फादर ने एक ब्लैंक चेक दिया था कि तुम्हे जब जरूरत हो भुना लेना क्योंकि तुम्हारी एक साड़ी की कीमत उतनी ही है जितनी की उस लड़के की मासिक तनख्वाह.

उस जमाने में प्रेम विवाह और वह भी अलग-अलग जातियों में! बहुत ही कठिन रहा होग? क्या समाज ने उन्हें आसानी से स्वीकार किया? इतने बड़े परिवार की बेटी के लिए कितनी कठिन रही होगी जिंदगी!

नहीं, हमारी सास कहती थीं कि वो रसोई के बाहर बैठती  थीं, उनकी सास रोटी बनाकर उन्हें फेंक कर देती थीं. रसोई के अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. एक सिख लड़की और कायस्थ से शादी. उस समय तो कायस्थों का बोलबाला था उत्तरप्रदेश में. जब मेरी सासू मां की सासू मां की डेथ हुई थी तो श्रद्ध के दिन कायस्थ लोगों को बुलाया था. कोई भी कायस्थ नहीं आया. उस वक्त बच्चनजी ने कहा था अब किसी कायस्थ को घर में नहीं बुलाया जाएगा और मैं कायस्थ नहीं हूं. इसीलिए उन्होंने अपना नाम बच्चन रखा. उनका नाम श्रीवास्तव था. उस जमाने के लोग और थिंकिंग. 73 साल पहले शादी हुई थी. पैसों की तकलीफ रहती थी. बच्चनजी कैंब्रिज चले गए थे डॉक्टरेट करने. नर्मली लोग तीन चार साल में पीएचडी करते थे, उन्होंने दो साल में कर लिया. वे बैठकर जब लिखते थे और थक जाते थे तो डेस्क पर खड़े होकर लिखते थे. नींद आती थी तो खड़े हो जाते थे. सोच सकते हैं क यहां हिंदुस्तान में घर में कितनी दिक्कत होती होगी पैसों की. वे विदेश से कविताएं भेजते थे, वो प्रेस में जाती थीं, छपती थीं और तब पैसे मिलते थे. उससे घर चलता था. एक महिला जो मायके से वैभव छोड़कर आई और ऐसे जीवन को अपनाया. अपने परिवार को बनाया. सासू मां के लिए बड़ा सम्मान और गर्व का भाव है मेरे भीतर. वो बहुत खूबसूरत थीं. जब वो घर से बाहर जाती थीं लोग देखने निकलते थे कि तेजी बच्चन जा रही हैं. बच्चनजी अकेले थे परिवार में. भाई और बहन की डेथ हो गई थी. वो मुङो बताती थीं कि एक पोएट और राइटर को संभालना बड़ा मुश्किल काम है.

आप में इतना अनुशासन कहां से आया?
देखिए मुङो अनुशासन से ज्यादा ऑर्डर में विश्वास है. मैं आपको बताती हूं. आई लाइक डिसिप्लीन. मुङो लगता है कि अनुशासन मेरे भीतर है तो वह मैंने बच्चनजी से सीखा. वैसे ये आदत मेरे फादर में भी थी कि आप घड़ी मिला सकते थे उनकी दिनचर्या से. यदि नहाकर आने में कभी मुङो देर हो गई तो बच्चनजी के सामने पहुंचते ही मैं कहती थी सॉरी  डैड. वे मुङो समझाते थे कि यदि आपको इज्जत कमानी है, अपने घर के सबसे बड़े होने का एक पीलर बनना है या फैमिली को सही रास्ते पर ले जाना है तो अनुशासन बहुत जरूरी है. जो पीलर होता है, जो घर को संभालता है, उसे कोई देखता ही नहीं. मैंने अपनी मदर इन लॉ से यह सीखा कि यदि आप चाहती हैं कि आपके लाइफ पार्टनर लाइफ में सक्सेसफुल हों, अच्छा काम करें, पैसे तो ठीक है अपनी-अपनी तकदीर से आएंगे क्योंकि फैमिली के लिए आप क्या छोड़कर जाएंगे, तो गिव हिम स्पेस. इट्स वेरी डिफिकल्ट!
एक किस्सा सुनाती हूं आपको. बच्चनजी जब विदेश से आए तो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ने उन्हें 100 रूपए का इन्क्रीमेंट दिया. वे अंग्रेजी के फ्रोफेसर थे, लिखते हिंदी में थे. उन्होंने नेहरूजी से कहा कि यह तो इंसल्ट है. यदि 100 रुपए ही कमाना है तो वह मैं अपनी लेखनी से कर लूंगा. पंडितजी ने उन्हें दिल्ली बुला लिया और वे  ेविदेश मंत्रलय में पहले ओ.एस.डी (विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी) बने. अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में जितने ट्रांस्लेसन होते थे वो उनकी नजर से होकर गुजरता था. आप उनकी जीवनी में पढ़ेंगे कि एक बार पंडितजी ने उनसे कहा था कि बच्चन ये ट्रांस्लेसन मुङो ऐसा नहीं ऐसा चाहिए था तो  बच्चनजी बोले कि यदि आप समझते हो कि यह ट्रांसलेसन गलत है तो मैं अपना इस्तीफा दे देता हूं. आप खुद इतने अच्छे ट्रांंस्लेटर हैं, किसी को भी डिक्टेट कर दीजिए वो लिख लेगा, मेरी क्या जरूरत है? इस तरह के वो इनसान थे.

आपने अभी पार्टनर को स्पेश देने की बात की. अमिताभजी को आपने कितना स्पेश दिया और अमिताभजी ने आपको कितना?
आप बताईए! बहुत स्पेश देते हैं! अमितजी जी अत्यंत कम बोलते हैं. ज्यादा बात करने की उन्हें आदत नहीं है. चुप रहते हैं. अपने आप में खोए रहते हैं. मैने कभी भी उनके स्पेश में प्रवेश नहीं किया. वो भी बहुत स्पेश देते हैं. वे जानते हैं. तो एक अंडरस्टैंडिंग इस तरह की हो गई है हम दोनों में.

फिल्मी पत्रिकाओं की गौसिप ने कितना प्रभावित किया?
अमितजी जो जब काम के बाद घर आते हैं तो बिल्कुल घर के होते हैं. गेट के बाहर उनका जीवन अलग और घर के भीतर अलग. हमारे घर में कभी भी उस तरह का  वातावरण नहीं रहा कि बाहर की चर्चा हो. हमारे घर में वातावरण यह होता था कि हम सब खाने की मेज पर एक घंटा बैठते थे. कोशिश करते थे कि सनडे के दिन सब एक साथ खाना खाएं. अमितजी शहर में होते थे तो सनडे की छुट्टी रखते थे. सनडे को लंच, डीनर, चाय सब एक साथ. उस वक्त जो बाते होती थीं, हमारे यहां शाम को. डैड बैठे-बैठे कविता सुनाने लगते थे. या कुछ पढ़ने लगते थे. वो सब एटमॉस्फेयर हमारा बिल्कुल अलग था. हमारे यहां फिल्म इंडस्ट्री के लोग भी जो मिलने आते थे वो भी हल्के माहौल में बैठने के लिए नहीं आते थे.

मैंने सुना है कि परिवार में कोई बाहर गया है तो एसएमएस करना जरूरी है?
ैहां, बच्चनजी (अमिताभजी) इस मामले में बहुत सख्त हैं कि आप कहीं भी जाओ तो बोर्डेड और लैंडेड का एसएमएस जरूर लिखो.  घर के भीतर जो चीजें हैं, उनके लिए मैं बहुत स्ट्रीक्ट हूं. समय पर उठना, खाना, सीलेके से उठना बैठना, सफाई इन सब चीजों में मैं सख्त हूं.

अभिषेक जी में कैसे संस्कार भरे?
देखिए, स्कूल में जब पढ़ते थे तब मैं छोड़ने जाती थी, लेने जाती थी. मगर जब विदेश में रहते थे तब हर दूसरे महीने उनसे मिलने जाती थी. जब दोनों बच्चे बोर्डिग में थे और जब घर आते थे छुट्टियों में हम हंिदूुस्तान से बाहर नहीं जाते थे. अमितजी कोशिश करते थे कि शूटिंग ऐसी जगह रखें जहां बच्चे भी जा सकें. तो हम लोगों में यह कभी नहीं था कि हमारे बच्चों को होलिडे नहीं मिल रहा है. अजिताभजी मुंबई में ही रहते थे. उनके चार बच्चे और मेरे दो साथ में ही बड़े हुए. एकसाथ बड़े हुए.
एक बार बच्चनजी(हरिवंशराय बच्चन) बीमार थे. कुछ ऑपरेशन हुआ था. उस वक्त अमिताभजी का म्यूजिकल टूर चल रहा था विदेश में. हर शनिवार और रविवार को शो होता था. शो खत्म होते ही प्लेन में बैठते थे और मुंबई आते थे. सोमवार से शुक्रवार की शाम तक मुंबई रहते थे और फिर म्यूजिकल टूर के लिए निकल जाते थे. अमितजी की मां करीब-करीब दो साल अस्पताल में रहीं. क्योंकि उन्हें घर में रखना मुश्किल हो गया था तो अस्पताल में थीं. उस वक्त जरूरी नहीं था कि मुङो अमितजी बोलें. मैं रोज सुबह काम खत्म करके दोपहर में अस्पताल जाती थी. रात तक वहां रहती थी. ये सब चीजें संस्कार से आती हैं. संस्कार बोलकर नहीं सिखाए जाते, करके सिखाया जाता है. इस बात को अमितजी भी मानते हैं और मैं भी! मैंने कभी भी अपने बच्चों को बोलकर नहीं सिखाया. हां यह जरूर सिखाया कि घर कोई आया है तो नमस्ते जरूर करना है. नमस्ते करो! बेटा आपने नमस्ते किया?  इतना जरूर सिखाया है. आदत ऐसी है कि मेरी बेटी अभी 40 साल की हो गई है लेकिन अभी भी पूूछ देती हूूं  कि बेटा आपने नमस्ते किया? वह कहती हैं. हां मां! एक आदत सी बन गई!

परिवार का धार्मिक परिवेश कैसा है?
अमिताभ जी सुबह उठकर नहाने धोने के बाद रामायण और गीता पढ़ते हैं. हमारी सास हनुमानजी को बहुत मानती थीं. तो हमारे पूरे परिवार को आदत है हनुमान चालीसा पढ़ने की. मैं उतनी पूजा नहीं करती! मेरी सासू मां, सिख औरत हनुमानजी की भक्त बन गईं! अशोका रोड के बगल से जो एक सड़क जाती है वहां हनुमान मंदिर है. पता है, किसने डिस्कवर किया उसे? मेरी सास ने! छोटा सा एक पत्थर था जिसकी पूजा की जाती थी. हर मंगलवार को वहां जाती थीं. उन्हें पैसे देने का बहुत शौक था. कुछ खरीदते समय बार्गेन करती थीं. यदि दो रूपए दुकानदार कह रहा है और एक रूपए में मिल गया तो शेष एक रुपए किसी गरीब को दे देती थीं. उनकी बहुत आदते अच्छी थीं.

सुना है अमितजी को मीठाईयां बहुत पसंद है?
अमितजी ने मीठा छोड़ दिया. बिल्कुल मीठा नहीं खाते. कुछ आदतें उनकी बहुत वेस्टर्न थीं. खाने के बाद डेजर्ट जरूरी था. बच्चनजी को भी बहुत पसंद थी. उन्हें अल्सर था इसलिए खा नहीं सकते थे तो वे स्टूड एपल, हलकी चीजें खाते थे. सासूजी को भी मीठा खाने का शौक था. दोनों बेटों में भी यह आया. चॉकलेट बहुत पसंद था, जलेबी बहुत पंसद थी. सब छोड़ दिया. (जयाजी हौले से मुस्कुराती हैं और कहती हैं-मुङो छोड़ना बाकी है.)

बचपन की शैतानियों का कुछ जिक्र कीजिए!
शैतानी! मैं शैतान बच्ची नहीं थी. मेरी बीच वाली बहन बहुत शैतानियां करती थी. मैं शैतान नहीं थी. वास्तव में शैतानी करने का मौका नहीं मिला क्योंकि हमारे यहां माहौल ऐसा था, फ्रीडम इतनी थी. मैं एक बात बताती हूं. मेरे फादर कितने लिब्रल थे. हमारे यहां जब रिपोर्ट्स कार्ड आती थी स्कूल से तो हमारी मदर चिड़ चिड़ करती थीं कि मैथ में कम मार्क्‍स मिले, इसमें कम मिला, उसमें कम मिला. मेरे फादर सिर्फ लास्ट कॉलम पढ़ते थे और कहते थे कैन डू बेटर (अच्छा कर सकती हो). कभी फोर्स नहीं किया.

नागपुर की यादें..!
जब नागपुर में थे, पिता जी नागपुर टाइम्स में काम करते थे. मोटर बाइक में जाते थे. मैं बंगाली स्कूल में पढ़ती थी धनतोली से थोड़ा आगे. हम लोग धनतोली में रहते थे. बाद में कांग्रेस नगर चले गए थे. हमने अपने घर में कभी भी यह नहीं देखा, कभी यह महसूस भी नहीं हुआ कि फादर ने इतना स्ट्रगल किया है. घर में फ्रीज नहीं होता था, मटके का पानी आराम से पीते थे. उन दिनों मटके में नल भी नहीं होता था. उसमें चटाई लपेटते थे. पानी छिड़काव किया जाता था.
पटर-पटर अंग्रेजी..!
मुङो दुख होता है कि हम लोग आजकल वेस्टर्न कल्चर से इतने प्रभावित होते जा रहे हैं. हमारे ग्रैंड चिल्ड्ररेन जो हैं सब अंग्रेजी बोलते हैं, पटर-पटर-पटर-पटर. बच्चनजी तो कभी अंग्रेजी में बात नही करते थे. मेरी सासूजी को हिंदी नहीं आती थी ले किन उन्होंने हिंदी सीखी.


आप अपने सासूजी से बहुत प्रभावित हैं. क्या आपकी बहू भी आपसे प्रभावित हैं?
मैंने सास ससुर के साथ इतना समय बिताया कि स्वाभाविक है कि असर तो होगा. मैं कैसे कह सकती हूं कि मेरी बहू मुझसे प्रभावित होगी या नहीं? वैसे वह भी एक ट्रेडिशनल फैमिली से आई है. दक्षिण में तो तो संस्कार ज्यादा होता ही है.

आपने बहुत कम उम्र में सत्यजीत रे की फिल्म मे काम किया. कुछ बताएं.
केवल तेरह साल की उम्र में काम किया था. हमारे फादर ने इतनी किताबें लिखीं कि उन्हें बहुत लोग जानते थे. एक बार हम लोग कोलकत्ता गए थे वहां से पुरी गए. वहां एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. उसमे शर्मिला टैगोर भी थीं. और भी बहुत लोग थे. वहां शर्मिला टैगोर ने मुङो देखा और सत्यजीत रे से कहा कि महानगर के लिए एक लड़की आपको चाहिए तो इसे ले सकते हैं. मुङो तो कुछ फिल्मों की समझ थी नहीं. तेरह साल की उम्र थी. एमपी में रहने वाली लड़की थी. मैं तो सत्यजीत रे से मिलने भी तब गई जब मुङो कैडबरी की चॉकलेट मिली. उन्होंने पता नहीं क्या देखे मुझमें. उन्होंने मेरे फादर से बात की. फादर ने मुझसे कहा. मैंने तो मना भी कर दिया. स्कूल की बात थी, नन्स नाराज होतीं. फिर मुङो समझाया गया कि सत्यजीत रे के साथ काम करने की किस्मत सबकी कहां होती है. जिंदगी में कुछ ऐसे अवसर आते हैं, जिनका सदुपयोग करना चाहिए. स्कूल तो एक साल बाद भी जा सकती हो. लेकिन ये जो अनुभव मिलेगा, वह ज्यादा मायने रखता है. वही हुआ. शूटिंग करके हम लोग वापस आए. मुङो लग रहा था कि स्कूूल में बहुत डांट पड़ेगी लेकिन वहां तो माहौल ही अलग था. मेरा स्वागत हो रहा था. उनकी नजर में मैं स्टार बन गई थी. तो सच कहूं कि मुङो लगता था कि मैं स्कूल में एक साल पीछे हो गई लेकिन मेरे फादर ने मुङो समझाया कि देखो तुमने क्या गेन किया है. अब मुङो लगता है कि मैंने क्या पाया. मेरे जीवन पर उस घटना का इतना प्रभाव पड़ा कि जिंदगी उसी में गुजरी.
फिल्म इंस्टीट्यूट कैसे पहुंचीं और वहां के बारे में कोई अनुभव?
एक बार मैं फिल्म देखकर पैदल लौट रही थी, उस वक्त लोग पैदल ही जाते थे या बस से जाते थे. घर में तो गाड़ी थी नहीं. तो पिताजी लौटते समय कह रहे थे कि क्या बकवास काम करते हैं ये लोग. सरकार ने इतना बढ़िया इंस्टीट्यूूट खोला है, वहां जाकर सीखते क्यों नहीं है? मैंने तो कभी सुना नहीं था कि एक्टिंग भी सीखने की चीज है? मैंने फादर से पूछा कि क्या एक्टिंग सीखी जाती है? उन्होंने कहा कि हर कुछ सीखा जाता है. मेरा सवला था कि आप जो लिखते हैं, क्या वो सीखा है आपने? उन्होंने कहा- और नहीं तो क्या! प्रेरणा होती है, हर जगह है, आप ग्रहण करिए!
हायर सेकेंडरी करने के बाद छुट्टियों ेक दिन थे. मेरे फादर आए और कहा कि ये है पुणो फिल्म इंस्टीट्यूट का विज्ञापन. इसमें क्या मैं जा सकती हूं? मेरे सवाल पर उन्होंने कहा कि ऐसे थोड़े ही जा सकते हैं. परीक्षा पास करनी होगी. खैर, परीक्षा में मेरा सेलेक्शन हो गया. उस वक्त मेरे ग्रैंड पैरेंट दिल्ली में रहते थे. मुङो ऑडिशन के लिए बुलावा आया.  वहां भी मेरा सेलेक्शन हो गया. यह एक और आश्चर्य था मेरे लिए. मैं तो कॉलेज जाने की तैयारी में थी. सोच रही थी कि कॉलेज जाऊं या इंस्टीट्यूट जाऊं? मेरी छोटी बहन ने पूछा कि इंस्टीट्यूट कॉलेज से अलग है क्या?  वहां डिग्री मिलेगी या नहीं?  मैंने बताया कि मिलेगी. छोटी बहन ने कहा कि कॉलेज से डिग्री लेकर आओगी तो क्या करोगी? शादी हो जाएगी, बहुत होगा तो एमए, बीएड कर लोगी.साइंटिस्ट बनने वाली तो तुम हो नहीं. ट्राई करो इंस्टीट्यूट में यदि अच्छा नहीं लगे तो कॉलेज में लौट जाना. वहां तो दिवाली के बाद ही पढ़ाई करनी है.
तो इस तरह मैं पुणो फिल्म इंस्टीट्यूट पहुंच गई. उम्मीद नहीं थी लेकिन मुङो स्कॉलरशिप भी मिल गई. मुङो याद है कि मेरी स्कॉलरशिप होती थी 75 रुपए. उसमें फीस देने के बाद कुछ पैसे बच जाते थे. मेरे फादर मुङो 25 या 50 रुपए भेजते थे. मैंने ज्यादा भेजने से मना कर दिया था.
एनसीसी के पैसे काम आए
हम लोग जब छोटे थे तब कोई पॉकेट मनी वगैरह तो मिलता नहीं था. जो चाहो मांगो मिल जाएगा.
मेरी छोटी वाली बहन शैतान थी. फादर उसे पैसे देते थे सिगरेट लाने के लिए तो जो छुट्टे बचते थे, वह नहीं लौटाती थी और कहती थी कि आप क्या करोगे छुट्टे पैसे का, इसमें तो छेद है. (उस वक्त पैसों में छेद हुआ करता था). वह पैसे वो पाउडर के डब्बे में जमा करती थी.
मुङो पता था कि मेरे फादर बड़े भाई थे. उनके ऊपर जिम्मेदारियां बहुत थीं. मैं एकदम से हटकर अलग कुछ कर रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि मैं पिताजी पर और भार डालूं. कभी उन्होंने मना भी नहीं किया किसी चीज के लिए लेकिन हमें पता था कि क्या मांगना है. मेरे पास मेरे खुद के भी पैसे थे. मैं ऑल इंडिया एनसीसी की बेस््ट कैडेट थी. मैंने दिल्ली में 26 जनवरी को परेड भी की थी, जूनियर वर्ग में. उस वक्त एनसीसी में सिर्फ एक ही विंग हुआ करता था. नेवी और एयरफोर्स में लड़कियां नहीं होती थीं. मैं ऑल इंडिया बेस्ट कैडेट चुनी गई थी. प्रधानमंत्री की सराहना भी मिली थी. उसमें पैसे भी मिलते हैं सात सौ-आठ सौ रुपए या पता नहीं ऐसा ही कुछ! मैंने पिताजी को दिए पैसे तो उन्होंने कहा कि नहीं ये तुम्हारे पैसे हैं, अपने पास रखो. ये पैसा काम आया.

अमितजी की पहचना एक फस्र्ट पर्सन आर्टिस्ट के रूप में है. दिलीप कुमार साहब से उनकी तुलना की जाती है. एक कलाकार के रूप में जब आप आकलन करती होंगी तो आपकी नजर में दोनों का स्थान क्या है?
देखिए, दिलीप कुमार साहब तो मेरे चाइल्ड हुड आइडियल हैं. मातीलाल, दिलीपकुमर जैसे लोग मास्टर क्राफ्ट थे. मेरे लिए तो नंबर वन हमेशा दिलीप कुमार ही रहेंगे.
लेकिन हमारी पीढ़ी के लोग अमिताभ जी की तरफ ज्यादा आकर्षित है. 
देखिए, एक नया जनरेशन सेवेंटिज में आया. अमितजी ने उस जनरेशन को रिप्रजेंट किया. अब आप शाहरुख खान को लो, वो नेक्सट जनरेशन के हैं. अमितजी वर्सेटाइल कलाकार हैं. शायद मैं उनके साथ रहती हूं, पत्नी हूं तो मुङो वो फिल्म स्टार नजर नहीं आते. मेरे लिए तो फिल्म स्टार दिलीप कुमार ही रहेंगे.


रोल में ऐसे डूबते हैं अमितजी
अनुपम खेर को अमिताभजी के साथ काम करना था. वे कह रहे थे कि मैं बहुत नर्वस हूं. मैंने उसे बताया कि अमितजी से ज्यादा बात मत करिएगा, वो ज्यादा बात करना पसंद नहीं करते हैं. अनुपम को बात करने की बहुत आदत है. अनुपम से हमारी दोस्ती और अच्छी हो गई थी क्योंकि हम किरण को बहुत अच्छी तरह जानते थे. समर में शूटिंग हो रही थी, वह परेशान था गर्मी से. पास में ही शूटिंग के लिए दाढ़ी बढ़ाए और कंबल ओढ़े अमितजी बैठे थे. अनुपम ने पूछा कि आपको गर्मी नहीं ल ग रही है. उनका कहना था कि जब एक कलाकार रोल में डूब जाता है तो उसे नहीं लगता कि सर्दी है या गर्मी है या बारिश हो रही है. अमितजी को वैसे भी गर्मी कम लगती है, सर्दी ज्यादा लगती है. अभी एक और किस्सा कोई बता रहा था कि अमितजी एक जगह बैठे थे चुपचाप. लोग जा-जा कर उनसे पूछ र हे थे कि कुछ चाहिए तो नहीं. वे केवल कह देते थे कि आई एम फाइन. उनके फाइन बोलने का मतलब होता है कि तुम लोग मुङो डिस्टर्ब मत करो. लोगों को लग रहा था कि यह आदमी सूट पहनकर गर्मी में बैठा है और कह रहा है- आई एम फाइन! अमितजी का जो यह डिस्प्प्लीन है वह बच्चनजी से आया है.

अमितजी का कोई असर आप पर?
नहीं, कभी नहीं!
अमितजी सोशल मीडिया में बहुत एक्टिव हैं. आप क्यों नहीं?
अरे, मेरे में इतना पेसेंस नहीं है. अमितजी बहुत ङोल लेते हैं लोगों को.  वे या तो काम करते हैं या फिर सोशल मीडिया पर रहते हैं. कहते हैं कि बात करने से तो बेहतर है कि ये सब किया जाए. बात करने से बहुत परहेज करते हैं.

राजनीति में उन्हें बहुत परेशानी उठानी पड़ी लेकिन आपको लगता है कि राजनीति रास आ गई.
एक्चूअली मैंने बचपन से देखा हुआ है ना! मुङो कोई फर्क नहीं पड़ता और मेरे में डिप्लोमैसी थोड़ी कम है. एक कलाकार के लिए बहुत कठिन होता है. कभी-कभी मैं भी एग्री नहीं करती हूं लेकिन चुप रह जाती हूं. चुप रह जाना मेरी आदत नहीं है लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि पार्टी की  लाइन से आप सहमत नहीं होते हैं लेकिन एज ए पार्टी पर्सन आपको साथ रहना होता है.

अमितजी ने राजनीति में आने से रोका नहीं?
नहीं उस समय ऐसा हुअ कि अमर सिंहजी ने कहा जाने दीजिए क्यों आप रोक रहे हैं. तो उन्होंने सोचा कि मैं इंडीविज्यूलिटी को क्यों नकारूं. उन्होंने हां कर दी. आप स्पेश की बात कर रहे थे ना! उन्होंने स्पेश दी. इलेक्शन लड़ना नहीं चाहती, मैं कर भी नहीं सकती लेकिन कभी ऐसा हो तो अमितजी कभी नहीं मानेंगे.

अमरसिंह जी जब पार्टी छोड़कर गए तब कहीं आप पर भी दबाव रहा होगा कि आप भी इस्तीफा दें.
देखिए मैं कमेंट नहीं करना चाहती हूं. मैं उनके करीब थी. डिफेंस ऑफ ओपिनियन जरूर रही तभी तो अलगाव हुआ. एक बात मैं आपको बताऊं. यह मैं बहुत कनफिडेंस और सच्चई के साथ कह सकती हूं कि हमारे पार्टी में जितनी फ्रिडम किसी मेंबर को है, उतनी किसी पार्टी में नहीं है. हमारे पार्टी में यदि मैं कल खड़े होकर नेता के खिलाफ बोल दूं कि मैं मुलायमसिंह जी से सहमत नहीं हूं तो वो कभी बुरा नहीं मानेंगे. मुङो याद है, शुरु में मैं जब आई थी तब एक दिन मीटिंग में देखा कि लोग गुस्से से बाल रहे हैं और मुलायमसिंह जी चुप थे. मैंने उनसे पूछा कि यह सब आप कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं. मुझसे तो नहीं होगा. इतने लिब्रल हैं कि क्या बताऊं!

मुलायमसिंह जी को पहले से जानती थीं या अमरसिंह की वजह से?
अमरसिंह की वजह से.
अब आप राजनीति में रम चुकी हैं.
मैं खुश हूं जहा हूं.
आप सदन में समय पर आती हैं और आखिरी में जाती हैं?
कल किसी ने कहा कि आपको पहली बार आखिरी तक देखा तो मैंने कहा कि आपने इसका मतलब देखा नहीं. यह तो मेरा सेकेंड टर्म है इसलिए मुङो पता है कि कितना बैठना है. कितना जरूरी है. फस्र्ट टर्म में तो पूरे समय बैठती थी. यदि आपने सवाल किया है और जवाब आना है तो आपको रुकना चाहिए. कर्ट्सी जरूरी है.

मैंने सुना है कि मोबाइल से फोटो लेने पर चिढ़ती हैं.
मोबाइल से लोग फोटो लेते हैं, उससे मैं बहुत चिढ़ती हूं. मुङो समझ में नहीं आता कि एक खिलौना दे दिया और बात करने की तमीज है नहीं-मैडम कैन आई टेक ए क्लिक विथ यू.’ ये क्या अंग्रेजी हुई? बात करने की तमीज नहीं है. मेरी मेड सर्वेट दो शब्द तो हिंदी का बोलती है और कहती है वो शिट्! मैं पूछती हूं शीला ये क्या कह रही हो? मैं उससे मराठी में बात करती हूं. ओह सॉरी-सॉरी! मैं पूछती हूं कि सॉरी का मतलब मालूम है?

मराठी कहां सीखी?
अरे मैं पुणो रही हूं, भोपाल रही हूं. वहां सीखा.
भोपाल में मराठी कहां है?
अरे, वहां एक पूरा एरिया है जिसे टीटी नगर कहते हैं. वहां मराठी बोलने वाले बहुत हैं. मैं मराठी बोल सकती हूं, मैं गुजराती बोल सकती हूं. तमिल बोल सकती हूं. पंजाबी भी समझती हूं. बंगला तो बोलती ही हूं. मैं बहुत सारे लैंग्वेज समझ लेती हूं.

क्या आप कोशिश करती हैं कि आपकी पोती मराठी सीखे, बोले.
क्या है कि माता पिता को भी तो हिंदी बोलनी चाहिए ना!
आपकी इसमें बड़ी भूमिका रहने वाली है
कोई नहीं. बच्ची सारा दिन स्कूल में रहती है. अंग्रेजी बोलेगी. माता पिता अंग्रेजी बोलेंगे. तो वो भी अंग्रेजी ही बोलेगी. ये है कि लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि जब बच्चे बड़े होंगे तब वे महसूस करेंगे. हम लोग बहुत कोशिश करते हैं कि घर में हिंदी में ही बात करें. आराध्या को मैं स्ट्राबेरी बुलाती हूं. मैं कहती हूं कि स्ट्राबेरी यहां आओ. मैं उससे हिंदी में बात करती हूं. मैं पूछती हूं दादी क्या बोल रही है? वो जवाब नही देगी लेकिन समझती सब है.
हजार चौरासी की मां में आपकी भूमिका सराहनीय थी. नक्सलवाद पर क्या कहेंगी?
नक्सलवाद के उपर मुङो कोई कमेंटे नहीं करना है. हां, वो फिल्म करने में मुङो बहुत मजा आया. उस समय मेरी बेटी की शादी हो गई थी और मेरी लाइफ में एक कमी आ गई थी. उसके जाने का इफेक्ट बहुत बड़ा था मेरे ऊपर. बहुत मजा आया वह फिल्म करने में. देखिए, उस दौर की फिल्में बन नहीं रही हैं, देखने वाले नहीं हैं. लोगों की रुचि बदल गई है. रूचि क्यों बदल गई है कि वेस्टर्न चैनल्स इतना पैसा लेकर आ रहे हैं इंडिया में कि वो फिल्में प्रोड्यूस करते हैं. उन फिल्मों में वे अपना कल्चर दिखा रहे हैं और हमाररे यूथ सोचते हैं कि वही फैशन है. उसे एडोप्ट करते हैं. किसके पास वक्त है कि जो हिंदुस्तान की वास्तविकता को दिखाए 

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