Monday, September 21, 2015

सावधान! मुर्दे कतार में हैं!


बनारस की तंग गलियों से गुजरते हुए मैं उस जगह जा रहा हूं जहां के बारे में दो बातें बहुत स्पष्ट और सत्य हैं. पहला यह कि बेवजह वहां कोई जाना नहीं चाहता और दूसरा यह कि हर किसी को एक न एक दिन वहां जाना जरूर है! हिंदु परंपरा में इसे श्मशान कहते हैं. ऐसे श्मशान पूरे देश में मौजूद हैं लेकिन मैं जहां जा रहा हूं वह बाकी सबसे अलग है. यहां मुर्दो की कतार लगती है. किसी मुर्दे की आग धीमी पड़ेगी और खोपड़ी फूटेगी तभी दूसरे का नंबर आएगा!  इसका नाम है मणिकर्णिका घाट. यहां चिता की ज्वाला कभी बुझती नहीं है.

शाम को नाव में सैर करते हुए मैंने इस घाट को देखा और अचानक खयाल आ गया  कि क्यों न एक पूरी रात मणिकर्णिका घाट पर गुजारी जाए. खयाल को आप चाहें तो बेतुका कह सकते हैं लेकिन ये बेतुका खयाल न आता तो श्मशान घाट पर एक रात की यह कहानी आप तक कैसे पहुंचाता?

इस वक्त रात के साढ़े दस बज रहे हैं. गोदौलिया चौराहे से मैं करीब एक किलो मीटर की यात्र कर चुका हूं और गली लगातार तंग होती जा रही है. अचानक बीच गली में एक गाय नजर आ जाती है और मैं उसे रास्ता देने के लिए एक ओटले पर चढ़ जाता हूं. ओटला ‘ब्लू लस्सी’ वाले का है. मेरे साथी क्रेजी ब्वाय (जनाब फोटोग्राफी की दुनिया में इसी नाम से जाने जाते हैं) कहते हैं कि यहां की लस्सी पीजिए! मैं उस छोटी सी दुकान में पहुंच जाता हूं. दीवार पर दुनिया की कई भाषाओं में लस्सी का गुणगाण लिखा है. इतनी रात को भी कई विदेशी नागरिक यहां लस्सी पी रहे हैं. गली के इतने भीतर इस दुकान मैं बैठने की जगह नहीं है. वाकई लस्सी लाजवाब है! वैसे लस्सी तो सफेद ही थी! पता नहीं ब्लू लस्सी नाम क्यों रख दिया?

इस बीच तीन शवयात्रएं वहां से गुजर चुकी हैं. मैं भी जल्दी से जल्दी श्मशान घाट पर पहुंचना चाहता हूं. गली के किनारे के मकानों की जगह अब मैं लकड़ी के टाल देख रहा हूं. बिल्कुल करीने से सजा कर रखी गई लकड़ियां! मौत का सत्य मेरे जेहन पर दस्तक देने लगा है. घाट के लिए मैं दाहिनी ओर मुड़ता हूं और अचानक एक दीवार पर चस्पा बोर्ड देख कर रूक जाता हूं. नरेंद्र मोदी का चित्र बना है और लिखा है-‘मोक्ष सबका अधिकार है’!

बस इसके ठीक आगे मैं जलती हुई ज्वालाओं की तपन महसूस करने लगा हूं. इतनी सारी चिताओं को एक साथ जलते हुए देख कर जैसे निर्विकार हो गया हूं. रात के इस घुप अंधेरे को चिताओं की ज्वाला खदेरने की कोशिश करती हुई महसूस होती है. मेरी रफ्तार धीमी पड़ चुकी है. अब इस पड़ाव के बाद किसी को रफ्तार की जरूरत ही कहां पड़ती है! आहिस्ते से मैं सीढ़ी के ओटले पर बैठ जाता हूं. अभी जो तीन शव मेरे सामने से गुजरे थे, वे यहां आकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. उनके पहले जो आए थे, अभी उनका ही नंबर नहीं आया है! क्रेजी ब्वाय बता रहे हैं कि यहां हर दिन औसतन 80 लोग पंचतत्व में विलिन होते हैं.

मेरी दाहिनी ओर सात-आठ लोग बैठ कर बीड़ी पी रहे हैं. शवों को लेकर आज वे तीसरी बार मणिकर्णिका घाट पर आए हैं. उनके लिए यह रोज का काम है. मोक्ष की आशा लगाए वृद्धों से यहां के आश्रम भरे पड़े हैं. सबको अपनी-अपनी बारी का इंतजार है! ये जो मेरे पास बैठे हैं, कल किसी और की लाश लेकर आएंगे!

मैंने यहां पहुंचते वक्त अपना मोबाइल बंद कर लिया था. इसलिए पता नहीं क्या वक्त हुआ है! वैसे भी जिंदगी के इस अंतिम पड़ाव पर वक्त मायने भी कहां रखता है? सबकुछ अंतिम सा लग रहा है! रात शायद आधी से ज्यादा हो चुकी है. मैं जिन तीन शवों की बात कर रहा था, उनमें से आगे वाले दो शवों का नंबर आ गया है. तीसरा अभी भी कतार में हैं. उसके पीछे की कतार में और कई आ जुड़े हैं. मैं खुद से बातें करना चाह रहा हूं लेकिन मौन ने गहरे तक जकड़ रखा है. बचपन में सुना था कि पाप करने वालों को यमराज खौलते तेल में तलते हैं. खुद से ही सवाल पूछ रहा हूं कि यह शरीर तो जल गया, तले जाने के लिए क्या आत्मा को दूसरा शरीर मिलेगा या सीधे-सीधे आत्मा ही तल दी जाएगी? बचपन से सुनता और देखता आया हूं कि हिंदू परंपरा में सूर्यास्त के बाद अंतिम संस्कार नहीं होता, फिर यहां आधी रात को भी मुर्दे क्यों जल रहे हैं? जवाब मेरे पास नहीं है. पूछूं भी किस से?

दो शव जलाए जाने के लिए आगे बढ़ चुके हैं. क्रेजी ब्वाय धीरे से फुसफुसाते हैं-‘महाकाल के मंदिर चलेंगे?’ मैं आहिस्ते से उठता हूं. हौले कदमों से श्मशान के ही किनारे पर तहखाने नुमा स्थान पर बने मंदिर के भीतर पहुच जाता हूं. एक अघोड़ी नुमा व्यक्ति मदहोशी की हालत में है. उसकी बाहर झांकती लाल सूर्ख आंखें डराना चाहती हैं लेकिन डरने के लिए मेरे भीतर कुछ बचा कहां है? ..और महाकाल के पास आकर डरना भी क्यों? मैं उसके ठीक बगल में बैठ जाता हूं. उसका नाम पूछता हूं. वह केवल घूरता रहता है. बोलता कुछ नहीं! थोड़ा नीचे मूर्ति के पास दो लोग साधना में तल्लीन हैं. सब चुप हैं. कोई कुछ नहीं बोल रहा है. मैं एक तस्वीर खींचने के लिए कैमरा उठता हूं लेकिन वह अघोड़ी सजग हो जाता है. आंखें तरेर कर चेतावनी देता है. मैं धीरे से सौ रुपए का नोट उसकी ओर खिसकाता हूं. वह नोट को अपनी आसनी के नीचे खिसका देता है. मैं कई तस्वीरें खींचता हूं. फिर उसकी बगल में आकर बैठ जाता हूं. सोच रहा हूं, जिंदगी के इस आखिरी मुकाम पर भी नोट ने अपनी ताकत आखिर दिखा ही दी! क्या कलयुग की सबसे बड़ी ताकत यह नोट ही है?
अचानक वह अघोड़ी अपने कमंडल में हाथ डालता है और मेरी ओर एक लड्डू बढ़ा देता है. मैं सोच में पड़ जाता हूं कि खाऊं या न खाऊं? मौत के इस माहौल में मिठाई? मिठाई तो जश्न का प्रतीक है! मैं लड्डू खा लेता हूं. सोच रहा हूं, इस धरती से विदाई किसी जश्न से कम है क्या?

रात ढ़ल चुकी है. मैं आहिस्से-आहिस्ते बोङिाल कदमों से दूर जा रहा हूं. फिर लौट आने के लिए!
एक बात और..
मणिकर्णिका घाट पर न मुङो कोई भूत मिला और न प्रेत! 

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