Monday, September 21, 2015

मैं हूं आपका रुपया!


बस यूं समझ लीजिए कि जेब खाली है तो कोई हैसियत नहीं. जेब जितनी भरी है, हैसियत उतनी ही ऊंची है. सीधे-सादे शब्दों में कहें तो मौजूदा दौर की कहानी का सबसे बेहतरीन शीर्षक यही है- ‘सबसे बड़ा रुपय्या!’ जेब भरी हो तो प्रफुल्लित हैं आप. कुछ भी खरीद सकते हैं, चाहे जितने साधन जुटा सकते हैं और दुनिया भर की सैर कर सकते हैं. हां, इस रुपए की कमी केवल इतनी है कि इसकी बदौलत आप मौत को मात नहीं दे सकते!  लेकिन आपके पास रुपया है तो मौत को कुछ टाल जरूर सकते हैं. रुपया है तो अपनी सेहत तो सुधार ही सकते हैं. समस्या यह है कि इस रुपए की सेहत ही बिगड़ रही है. इसके सामने खड़ा है पहलवान (डॉलर) जो हर दिन और मजबूत हो रहा है. क्या आपने यह सच्चई जानने की कभी कोशिश की है कि रुपए की यह सेहत कैसे बिगड़ी और कैसे और बिगड़ रही है? कौन दोषी है? दरअसल सच्चई यही है कि हम रुपए को ही ठीक से नहीं जानते तो सेहत के बारे में क्या जानेंगे? आइए जानते हैं रुपए की कहानी रुपए की जुबानी..!

मैं हूं आपका प्यारा रुपया! बिल्कुल अजीज, आपके इतने करीब कि कोई दूसरा मेरी जगह ले ही नहीं सकता. आपकी जेब में हूं तो आप भौतिक पहलवानी दिखा सकते हैं. आपकी जेब में नहीं हूं तो खाने के भी लाले पड़ सकते हैं. मैं आपको जिंदगी की सारी सुख-सुविधाएं दिला सकता हूं, हवा में सैर करा सकता हूं, आपके बच्चे को देश और दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में पढ़ा सकता हूं. आपका बच्च सरकारी मेडिकल कॉलेज के लिए योग्यता भले ही न रखता हो लेकिन मैं अपनी हैसियत की बदौलत उसे निजी मेडिकल कॉलेज में दाखिला जरूर दिला सकता हूं. मैं हूं तो आपके पास सब कुछ है. मैं नहीं हूं तो आप कुछ नहीं हैं! मेरी हैसियत आपसे बेहतर कोई नहीं जान सकता. लेकिन हकीकत यह है कि आप में से बहुत से लोग मेरे बारे से ठीक से नहीं जानते. मुङो खयाल आया कि अपनी कहानी आपको खुद ही क्यों न सुनाऊं. आपको क्यों न बताऊं कि मेरी सेहत क्यों बिगड़ रही है. 
क्या कभी आपको यह खयाल आया कि मेरे जन्म के बारे में कुछ जानें? चलिए मैं ही बताता हूं आपको. मेरी इस कहानी से आपको पता चलेगा कि वक्त के साथ मेरा रंग-रूप कैसे बदला, नाम में बदलाव कैसे आया और कैसे सेहत में आया उतार-चढ़ाव! मेरा नाम दरअसल देवभाषा संस्कृत से लिया गया है जिसका मूल अर्थ होता है चांदी का सिक्का. मेरे उद्भव को लेकर इतिहास के पन्ने बहुत स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इतना तय है कि दुनिया के जिन हिस्सों में प्राचीन काल में मुद्रा का चलन शुरू हुआ, उनमें एक हिंदुस्तान भी है. खैर, मैं अपने नाम का जिक्र कर रहा था. आर्यो के लिए मैं रुपया रहा लेकिन द्रविड़ों ने मेरा नाम ‘रुपा‘ कर दिया. उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में अत्यंत कम पढ़े लिखे लोग आज भी मुङो रुपा ही बोलते हैं. चाणक्य के अर्थशास्त्र में मेरे तीन नामों का जिक्र आता है-1. स्वर्णरुपा (सोने का रुपया), रुप्यरुपा (चांदी का रुपया) तथा ताम्र रुपा (तांबे का रुपया). स्वर्णरुपा राजा और सेठों, रुप्यरुपा अमीरों और ताम्ररुपा आम आदमी की हैसियत में था. मेरा मुख्य काम तब भी विनिमय था, आज भी है. 
मुगल बादशाह शेर शाह सूरी ने पहली बार मेरा वजन अधिकृत तौर पर निर्धारित किया. सूरी के जमाने (1446-1545  ईस्वी) में 178 ग्रेन चांदी के वजन में मेरा रूप निर्धारित हुआ. आप में से बहुत से लोगों के लिए ग्रेन शब्द नया होगा. यह तौल का न्यूनतम पैमाना हुआ करता था. आज के गणित के अनुसार 1 ग्रेन का अर्थ है 0.06479891 ग्राम. यानी मेरा वजन था 11.53420598 ग्राम. इसे रुपिया कहा गया. पूरे मुगलकाल में रुपिया ही चलन में रहा. 
कागज का हो गया मैं
जापानियों ने की नकल!
अंग्रेजों के आने के बाद रुपिया बदलकर रुपया हो गया लेकिन 19वीं शताब्दी तक मैं ज्यादातर चांदी का ही बना रहा.  हालांकि तब कागज के नोट भी बाजार में आ गए. ब्रिटिश सरकार ने 1861 में एक रुपए का कागजी नोट जारी किया. 1864 में दस रुपए, 1872 में पांच रुपए, 1899 में दस हजार, 1900 में सौ रुपए, 1905 में पचास रुपए, 1907 में 500 रुपए, 1909 में एक हजार तथा 1917 में एक और ढाई रुपए के पेपर नोट जारी हुए. मेरे सीने पर अंग्रेजों के राजा का फोटो था. 1935 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का गठन हुआ था और बैंक ने सरकार की ओर से 1938 में दस, सौ, एक हजार और दस हजार के नोट जारी किए. 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ और जापानियों ने भारतीय रुपए की हूबहू नकल की और अर्थव्यवस्था पर चोट करने के लिए इसे बाजार में उतार दिया. नोटों की नकल से ब्रिटिश सरकार घबराई और आनन-फानन में वाटर मार्क और दूसरे बदलाव किए गए. भारत में नकली नोटों का वह पहला मामला था. जॉर्ज पंचम श्रृंखला के नोट 1950 तक जारी रहे. उसके बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत के नोट जारी किए. उसके एक साल पहले 1 रुपए का नोट जारी किया गया. 1978 में कालाबाजारी से निपटने के लिए दस हजार रुपए के नोट बंद कर दिए गए. 

तब हैसियत नहीं थी डॉलर की!
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ठीक सौ साल पहले आज के महारथी डॉलर की मेरे सामने कोई हैसियत नहीं थी. मैं अकेला ही 11.5 डॉलर खरीदने की हैसियत रखता था क्योंकि तब एक डॉलर की कीमत थी केवल साढ़े आठ पैसे. थोड़ा और आगे आइए.. 1925 तक भी मेरी हैसियत इतनी थी कि मैं अकेला ही 10 डॉलर खरीद लेता. हैरान हो गए ना आप? मैं भी हैरान हूं. लेकिन मुङो अपनी हैसियत के जमींदोज होने की कहानी याद है. आजादी के साल तक मेरी सेहत इतनी गिर गई कि मैं डॉलर की पायदान पर जा खड़ा हुआ..1 रुपया =1 डॉलर! ..लेकिन आजादी क्या मिली, मेरी तो हैसियत ही बेकार होती चली गई. आपके लिए मैं अपनी हैसियत के गिरने का चार्ट पेश कर रहा हूं. 

मेरा स्वास्थ्य ऐसे बिगड़ा
आप एक बात जरूर जानना चाह रहे होंगे कि  हैसियत बिगड़ी क्यों? दरअसल इसे समझने के लिए आपको काफी पीछे लौटना होगा. दुनिया में वस्तु विनिमय (एक्सचेंज) के बाद मुद्रा की जरूरत महसूस की गई. फिर मेरा जन्म हुआ और मेरे जैसे दूसरों (अन्य देशों के सिक्के/नोट) ने भी जन्म लिया. वक्त बदलने के साथ यह निर्धारित होने लगा कि मुद्रा व्यवस्था क्या होगी, अर्थात किस बहुमूल्य चीज को आधार बनाकर मुद्रा छापी जाएगी? दुनिया के जिन देशों को आप धनाढ्य और विकसित देख रहे हैं, उन्होंने स्वर्ण आधारित मुद्रा व्यवस्था अपनाई. सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत में चांदी आधारित व्यवस्था अपनाई गई. यहां तक कि हम पर राज करने वाले अंग्रेजों ने खुद की अपनी मुद्रा का आधार स्वर्ण रखा और भारतीय रुपए को चांदी के भरोसे छोड़ दिया. बाद में हुआ यह कि दुनिया में चांदी के ज्यादा भंडारों की खोज हो गई. स्वर्ण की तुलना में चांदी का मूल्य कम होने लगा और जो देश चांदी आधारित मुद्रा व्यवस्था पर चल रहे थे उनकी अर्थव्यवस्था गिरने लगी. दूसरी तरफ सोने की कीमत बनी रही और जिन देशों की मुद्रा स्वर्ण आधारित थी, वे दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की करते चले गए. आजादी के बाद बहुत कुछ बदला. हमारी अर्थव्यवस्था कमोडिटी आधारित ज्यादा हो गई और डॉलर की तुलना में मैं बहुत ही कमजोर हो गया. 

ऐसे गिरता-उठता हूं मैं
मेरे अवमूल्यन का एक बड़ा कारण देश का घरेलू बाजार है. जब भी घरेलू बाजार में महंगाई बढ़ती है तो खरीदने की मेरी क्षमता कम हो जाती है और मेरी औकात गिर जाती है. दुर्भाग्य से महंगाई पर रोक नहीं है इसलिए मुङो बार-बार गिरने को मजबूर होना पड़ता है. खरीदने की क्षमता का यह मामला विदेशों से  व्यापार पर भी लागू होता है. दुनिया में इस वक्त डॉलर की स्थिति सोने जैसी है. वह कहीं भी चलता है, खरीदने की उसकी क्षमता जगजाहिर है. इसलिए हमारा देश ऐसी चीजों का ज्यादा उत्पादन करे जिसे दुनिया भर में बेचा जा सके तो हमारे पास डॉलर आएगा. हमारे पास जितना ज्यादा डॉलर होगा, मैं उतना ही मजबूत रहूंगा. अभी हमारा देश निर्यात कम करता है और आयात ज्यादा कर रहा है. इसका मतलब है कि हमारे पास जो डॉलर आता है, उससे ज्यादा खर्च कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में मैं मजबूत कैसे रह सकता हूं? 
डॉलर आएगा कैसे?
फिलहाल हमें उन लोगों का शुक्रगुजार होना चाहिए जो विदेशों में काम कर रहे हैं और अपनी कमाई का डॉलर अपने परिवार को भारत भेज रहे हैं. वह डॉलर सरकार लेती है और उसके बदले में देशी रुपए देती है. हमारे भंडार में कुछ डॉलर आ जाते हैं. विदेशियों को यदि भरोसा हो कि हमारे शेयर मार्केट में पैसा लगाना उनके लिए लाभदायी होगा तो वे यहां डॉलर लगाएंगे. इसमें लगातार कमी आ रही है. हमें बिजनेस फ्रेंडली देश नहीं माना जाता और रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं कि भारत में पैसा लगाना सुरक्षित नहीं है. जरा आप ही सोचिए कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो मेरा क्या होगा? मैं जितना कमजोर रहूंगा, आप उतने ही कमजोर रहेंगे. 
कवि प्रदीप चौबे की एक कविता की दो पंक्तियां सुनाकर अपनी कहानी का यह संक्षिप्त अध्याय समाप्त करता हूं. चौबे जी ने कहा है..
जब पर्स में हो नोट भरा
रेगिस्तान भी लगे हरा-भरा..!
अपने पर्स को मजबूत नोटों से भरा रखना है तो अपनी सरकार से कहिए कि वह अर्थव्यवस्था के साथ राजनीति करना छोड़ दे. हालात को समङो..! हालात इस  वक्त बहुत बुरे हैं..!
आपका हाल ठीक रहे, इसलिए मेरा खयाल रखिएगा.

मैं हूं आपका रुपया!
 

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