Monday, September 21, 2015

बहुत कठिन है डगर पनघट की

देखिए, सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग या तो नरेंद्र मोदी के अंध समर्थक हैं या फिर कट्टर आलोचक! बॉर्डर लाइन पर खड़े होकर कोई उनका आकलन करने की कोशिश ही नहीं कर रहा है. सोशल मीडिया पर या तो आलोचनाओं का अंबार लगा है या फिर लोग नमो नमो कर रहे हैं. यह जानने-समझने की कोशिश ही नहीं हो रही है कि जिस राह पर नरेंद्र मोदी देश को ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, वह रास्ता किस मंजिल की ओर जाता है. सीधे शब्दों मे कहें तो टारगेट क्या है? कोई कह रहा है कि नरेंद्र मोदी आरएसएस के प्रचारक रहे हैं इसलिए भगवा रंग में पूरे देश को रंग देना चाहते हैं तो कोई कहता है कि उनके तेवर से आरएसएस प्रसन्न नहीं है और विकल्प के रूप में मोदी ने बाबा रामदेव की शक्ति को अपने पॉकेट में रखा हुआ है! चलिए, यह सब तो राजनीति है. हम तो यह जानने की कोशिश करें कि मोदी क्या वास्तव में उम्मीदों की छतरी हैं या फिर उम्मीदों की गठरी के वजन से दबे जा रहे हैं? 


अपने देश में एक कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. इस लिहाज से देखें तो मोदी ने देश को बहुत निराश नहीं किया है. जो निराशा हमें नजर आती है, वह उम्मीदों की भारी गठरी के कारण है. हम हिंदुस्तानी जितनी जल्दी किसी से खुश हो जाते हैं, उम्मीदें बांध लेते हैं, उतनी ही जल्दी खफा भी होते हैं और निराशा में भी डूब जाते हैं. चुनाव में नरेंद्र मोदी क्या जीते, हमने यह मान लिया कि वे जादू की छड़ी लेकर आए हैं. एक बार छड़ी घुमाएंगे और सब कुछ बिल्कुल ठीक ठाक हो जाएगा! हमारे ऐसा मान लेने में हमारी गलती भी नहीं है. नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने सुपरमैन की तरह प्रोजेक्ट किया था जो कुछ भी कर सकता है. हम यह भूल गए कि नरेंद्र मोदी सुपरमैन नहीं हैं. गुजरात ने भी कोई एक दिन में तरक्की नहीं कर ली. उसे भी कई साल लग गए! फिर हमने यह क्यों मान लिया कि नरेंद्र मोदी के हाथ में जादू की छड़ी है. नेताओं का तो काम ही है आश्वासन देना! दरअसल हमें कोई भी सब्जबाग दिखाता है और हम ख्वाबों की दुनिया में खो जाते हैं.  सरकारों के साथ हमारा हनीमून पीरियड बहुत जल्दी समाप्त हो जाता है और हम असंतुष्टों की कतार में जाकर खड़े हो जाते हैं. अब मोदी के एक साल के कार्यकाल की समीक्षा हो रही है. लेकिन ऐसी समीक्षा से पहले हमें यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि भारत जैसे देश में अचानक सबकुछ ठीक कर देना क्या वाकई संभव है? जी नहीं, एक मोदी तो क्या दस मोदी भी आ जाएं तो अचानक सबकुछ ठीक-ठाक नहीं हो सकता! यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि मोदी से उम्मीदें इतनी ज्यादा हैं कि कसौटियों पर खरा उतरने के लिए मोदी को वही रफ्तार दिखानी होगी जो रफ्तार वादे करने में वे दिखाते हैं. एक साल का वक्त बहुत बड़ा नहीं होता. जनता की ओर से दिए गए पांच साल के वक्त का यह केवल 20 फीसदी हिस्सा है. हमें एक साल और इंतजार करना होगा तब शायद बेहतर आकलन कर पाएंगे.

हकीकत का सामना कौन करे ?
मोदी से आम आदमी की सबसे बड़ी उम्मीद महंगाई को कम करने की थी. भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में इसे बड़ा मुद्दा भी बनाया था. इसीलिए लोग सबसे ज्यादा बातें महंगाई की ही कर रहे हैं! जी, बिल्कुल ठीक बात है कि कागजों पर भले ही मुद्रास्फीति ऊपर-नीचे होती रहे, जमीनी तौर पर महंगाई बढ़ती जा रही है. पिछले दो महीने में ही तुअर दाल के भाव करीब दो गुना हो गए हैं. ऐसे में यदि कोई मोदी की आलोचना कर रहा है तो क्या गलत कर रहा है? हरी सब्जी खाने के बारे में तो इस देश का कोई मजदूर सोच भी नहीं सकता!
..तो क्या मोदी इस मुद्दे पर फेल हो गए? आलोचक कहेंगे हां! समर्थक मौन साध लेंगे या फिर वही मुद्रास्फीति वाले रिकार्ड लेकर बैठ जाएंगे. महंगाई की हकीकत पर  बोलने की हिम्मत न समर्थकों में है, न ही आलोचकों में और न ही नरेंद्र मोदी में. क्योंकि हकीकत की बात करते ही लोग उन्हें खाने दौड़ेंगे. ..और ये हकीकत है हमारी आबादी. आबादी की हमारी रफ्तार थमने का नाम नहीं ले रही है. वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर दंपति औसतन 2.5 बच्चे पैदा करता है. यह आंकड़ा ईरान और चीन जैसे देशों से भी ज्यादा है. ईरान में औसतन 1.9 और चीन में 1.7 बच्चे प्रति दंपति होते हैं. सीधा सा अर्थ है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है. जो जमीन हमारे पास है वह बढ़ती आबादी का पेट कैसे भरेगी? सच्चई यही है कि महंगाई रोकनी है तो हमें आबादी को थामना होगा!
तो मोदी क्या करें?
वे खुद को शेरदिल की तरह पेश करते रहे हैं. 56 इंच का सीना दर्शाते रहे हैं तो उन्हें सच का सामना करने की हिम्मत दर्शानी चाहिए. आबादी कम करने की बात करनी चाहिए. लेकिन सच मानिए, वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि हिंदुवादी नेता लगातार कहते रहे हैं कि एक वर्ग की जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरे वर्ग को भी तेजी दिखानी चाहिए!
बहरहाल मोदी को उस बाजार पर रोक लगा देनी चाहिए जो कंप्यूटर पर कागजी खरीद-फरोख्त करता रहता है. उस सिंडिकेट पर भी लगाम लगानी चाहिए जो बाजार का भाव हमेशा बढ़ाए रखना चाहता है. मुश्किल काम है लेकिन मोदी से यह अपेक्षा तो देश कर ही रहा है! मोदी भी बाजार के सिंडिकेट का शिकार हो गए तो दूसरों में और मोदी में अंतर क्या रहेगा?

कुछ दिन तो गुजारिए..!
मोदी की विदेश यात्रओं पर उनके आलोचक प्रहार कर रहे हैं. कह रहे हैं कि कुछ दिन तो गुजारिए हिंदुस्तान में!  क्या यह प्रहार ठीक है? दरअसल इस तरह के प्रहार के पहले यह सोचना जरूरी है कि मोदी क्या विदेशों की यात्रएं केवल तफरीह के लिए नहीं कर रहे हैं? प्रारंभिक दृष्टि में ऐसा नहीं लगता है. हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि अपने पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध हाल के वर्षो में लगातार बिगड़ते गए हैं. उन संबंधों को जीवन देना वक्त की सबसे पहली जरूरत है. तटस्थता के साथ समीकरण भी बनाना जरूरी है. ऐसे में मोदी यदि बाहर जा रहे हैं तो इससे संबंधों को जीवन देने में फायदा ही होगा. विदेश नीति और संबंधों के मामले में मोदी ने निश्चय ही कदम आगे बढ़ाए हैं.
फेंकू कहना ठीक नहीं
मोदी के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें सोशल मीडिया पर फेंकू कहना शुरू कर दिया है. बड़ी अजीब बात है, कोई ज्यादा न बोले तो उसे मौनी बाबा की पदवी देने में देर नहीं लगती है और कोई निरंतर बातचीत करता रहे तो उसे फेंकू बना देते हैं. मोदी ने ‘मन की बात’ शुरू की और इसे आम आदमी ने सराहा ही. कुछ ऐसे मसलों पर वे बोले जो दिल के बिल्कुल करीब रहता है. हां, यह उम्मीद भी की जा रही है कि जिन-जिन मसलों पर वे बोले हैं, उन पर सख्ती से अमल भी हो. युवाओं के बीच ड्रग्स को लेकर वे बोले लेकिन ड्रग्स माफिया के खिलाफ कोई बड़ा अभियान अभी तक शुरू नहीं हुआ है.

सुस्ती तो दूर हुई है!
हां, मोदी ने एक बड़ा काम किया है और वह है राजनीतिक और प्रशासनिक सुस्ती दूर करने का. अब सरकार का कोई भी मंत्री अपनी मनमर्जी से दिल्ली से गायब नहीं रहता. यह बड़ा परिवर्तन है. एक मुखिया की जो पकड़ होनी चाहिए, वह पकड़ मोदी की है. मंत्रियों के पास अब एक एजेंडा है. वे जवाबदार बनाए गए हैं. इसका नतीजा है कि प्रशासनिक सुस्ती दूर हो रही है. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि जब प्रशासनिक और राजनीतिक सुस्ती दूर होगी तो सक्रियता बढ़ेगी.

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