Monday, September 21, 2015

संकट कम चिंता ज्यादा..!

पिछले कई सालों से हिंदी को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं. चिंता का कारण पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित वह संस्कृति और सोच है जो हमारे जीवन को गंभीर तौर पर प्रभावित कर रही है. हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं. पश्चिम की भाषा अंग्रेजी है इसलिए हम अंग्रेजी के प्रभाव में हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य की बात यह है कि अंग्रेजी बोलते हुए हमारे भीतर एक बेवकुफाना गर्व पैदा हो जाता है. हमें लगता है कि अंग्रेजी बोलने से सामने वाला हमें ज्यादा स्मार्ट समङोगा! क्या वाकई ऐसा है? जी हां, यह भ्रम एक बड़ी आबादी को अपनी गिरफ्त में ले चुका है इसलिए जिस मां का बच्च अंग्रेजी बोलता है, वह फूली नहीं समाती और मोहल्ले भर की दूसरी औरतों पर अपना रुतबा भी जताती है. इसे आप भारतीय समाज की विडंबना कह सकते हैं. हालांकि जो वाकई अंग्रेज हैं, जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है वे हिंदुस्तानियों की अंग्रेजी को फिसड्डी मानते हैं. ऐसा इसलिए कि हम हिंदी में सोचते हैं, उसे मन ही मन ट्रांसलेट करते हैं और फिर अंग्रेजी में बाहर कर देते हैं. ट्रांसलेशन की जिसकी जैसी रफ्तार, वह अंग्रेजी में उतना माहिर! फिर भी हम अपने गुमान में हैं और शायद आगे भी गुमान में ही रहेंगे! बचपन में मैंने एक कहावत सुनी थी-‘टाई लगाकर कोई अंग्रेज नहीं बन जाता!’ कहावत मुङो सौ फिसदी सही लगती है.
तो क्या हिंदी को लेकर जो चिंताएं निरंतर जाहिर की जाती रही हैं, वो सही हैं? मुझ जैसे लोगों का मानना है कि संकट की तीव्रता उतनी है नहीं जितना हल्ला मचाया जा रहा है. पहली बात तो यह है कि हिंदी बोलने वालो की संख्या लगातार बढ़ रही है. अपने देश में ही देखें तो पहले दक्षिण भारत के राज्यों में हिंदी करीब-करीब गायब थी लेकिन पिछले दशकों में वहां भी हिंदी का प्रभाव बढ़ा है. यहां तक कि उन राज्यों से हिंदी के अखबार भी प्रकाशित हो रहे हैं. देश के स्तर पर देखें तो हिंदी के अखबारों की पाठक संख्या लगातार बढ़ रही है. यदि हिंदी समाप्त हो रही होती और हमारी चिंता के अनुसार अंग्रेजियत हावी ही हो गई होती तो सभी ओर अंग्ररेजी का बोलबाला हो जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा तो बिल्कुल नहीं है! हम कितनी भी भाषाएं सीख जाएं, हमारी मातृभाषा की जगह कोई दूसरी भाषा ले ही नहीं सकती है. बाजार में हम हिंदुस्तानी अंग्रेजी में कितनी भी गिटर-पिटर कर लें, घर में तो हिंदी ही जमी है ना! हिंदी के प्रति इसी प्रेम का इजहार तब होता है जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका या दूसरे देश पहुंचकर हिंदी में भाषण देते हैं. आपने देखा है ना! कितनी तालियां बजती हैं!
अब जरा इस बात पर गौर करिए कि हिंदी को लेकर चिंता उपजी कहां से है? दरअसल चिंता वो ज्यादा कर रहे हैं जो हिंदी के विद्वान हैं. उनकी चिंता विद्वतापूर्ण हिंदी को लेकर है. उन्हें लगता है कि हिंदी भाषा के संस्कृतनिष्ठ शब्द कहीं खो न जाएं क्योंकि उनका उपयोग लगातार कम होता जा रहा है. मुङो लगता है कि कठिन शब्दों के उपयोगकर्ता पहले भी कम रहे हैं और भविष्य में भी कम ही रहेंगे. मानव का स्वभाव है कि वह जिंदगी के हर पहलू को सरल बनाता चले इसलिए वह भाषा को भी सरल बना रहा है. शब्दों के निर्माण का इतिहास यदि ढूंढें तो साफ नजर आएगा कि पहले बोलियों ने जन्म लिया यानि पहले अत्यंत सरल शब्द ही आए. बोलियों का विकास क्षेत्रिय स्तर पर हुआ और बाद में उनकी एकजुटता से भाषा का जन्म हुआ. विद्वानों ने उन्हें सजाया संवारा. हिंदी का जो मौजूदा स्वरूप हम देख रहे हैं, वह अवधी, भोजपूरी, बज्जिका, अंगिका और न जाने कितनी क्षेत्रिय स्तर की बोलियों का सम्मलित रूप है! वस्तुत: भाषा का अपना प्रभाव होता है विद्वानों के बीच यदि वह कलात्मक हो जाती है तो आम जन के बीच उसका सहज स्वरूप कायम रहता है. इसलिए चिंता की बहुत जरूरत नहीं है.
हां, सतर्कता जरूरी है और हमें अपनी भाषा को लेकर सचेत जरूर रहना चाहिए. जिस तरह से हम अपने बच्चों को अच्छी अंग्रेजी सिखाने के लिए लालायित रहते हैं, उसी तरह से हिंदी के प्रति भी हों. यदि अंग्रेजी के किसी शब्द का अर्थ हमें पता नहीं है तो हम तत्काल डिक्सनरी खोल लेते हैं या गुगल महाराज की शरण लेते हैं. क्या हिंदी के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता? क्या हम हिंदी के शब्कोष अपने बच्चों के लिए नहीं खरीद सकते? यदि  हिंदी के एक सहज शब्द के लिए  कुछ और कलात्मक शब्द आपका बच्च सीख ले तो क्या वह ज्ञानवान नहीं होगा? दरअसल नजरिए में बदलाव की जरूरत है. हिंदी अत्यंत समृद्ध और सबसे ज्यादा भावों को प्रकट करने वाली भाषा है. एक उदाहरण दे रहा हूं. अंग्रेजी में स्माइल और लाफ शब्द हैं. हिंदी में मुस्कुराने, हंसने के अलावा और भी शब्द हैं- मुस्की मारना, खिलखिलाना, कहकहे लगाना!
अपनी भाषा को ठीक से जानिए तो सही!

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