Monday, June 20, 2016

जर्मन बनाम संस्कृत


सरकार तो सरकार है! कुछ भी कर सकती है! आपके नफा नुकसान से उसे क्या लेना देना? वह तो अपना नफा नुकसान देखती है. जर्मन भाषा जर्मनी की है, उससे कोई नफा तो सरकार को होने वाला है नहीं. इसलिए केंद्रीय विद्यालयों से उसे बाहर का रास्ता दिखाने में क्या हर्ज है? संस्कृत अपनी है. संस्कृत जानने वाले अपने हैं. देव भाषा है भाई!  इसे स्थापित करेंगे तो अपनी राजनीति चमकेगी. सरकार का नाम होगा! लोग कहेंगे कि इसे सरकार कहते हैं जो अपनी भाषा की चिंता करे! अभी तक किसी सरकार ने चिंता नहीं की थी. ये सरकार कर रही है! ..लेकिन सरकार से यह कौन पूछे कि जर्मन भाषा को एक झटके में कोर्स से खत्म कर देने का जो नुकसान देश को होगा, उसकी भरपाई कौन करेगा?
मैं संस्कृत का कतई विरोधी नहीं हूं. सच कहें तो संस्कृत में बसती है हमारी संस्कृति. हम जिस भाषा में बोलते-चालते हैं वह संस्कृत की ही उपज है. इस देश में और भी कई भाषाएं हैं जिनकी बुनियाद में संस्कृत ही है. इसलिए संस्कृत के प्रति पूरा सम्मान है जेहन में. और हां, मैं जर्मन तो बिल्कुल नहीं जानता और न कभी जर्मनी गया हूं, इसलिए उसका पक्षधर होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता!
हां, मैंने जितना पढ़ा है और जितना जाना है, उसके आधार पर यह सवाल जरूर खड़ा करना चाहता हूं कि जर्मन की जगह संस्कृत स्थापित करने के पीछे क्या केवल संस्कृत प्रेम है? क्या कोई राजनीति नहीं है? क्या एक वर्ग को खुश करने की कोशिश नहीं है? कमाल तो यह है कि जिस वर्ग को खुश करने की कोशिश है, उस वर्ग का बड़ा हिस्सा ही अपने बच्चों को संस्कृत नहीं पढ़ाता! उसे पता है कि एक विषय के रूप में संस्कृत बहुत बेहतर रोजगार दे पाने की स्थिति में नहीं है. हां संस्कृत के प्रकांड हो जाएं तो बात अलग है. किसी भी भाषा के प्रकांड को बेहतर जगह मिल ही जाती है. मैं तो सामान्य सी बात कर रहा हूं. जब हिंदी के प्रति ही प्रेम नहीं बचा है तो संस्कृत के प्रति प्रेम कहां से पैदा होगा?
चलिए, यह जानने की कोशिश करते हैं कि केंद्रीय विद्यालयों में अभी जर्मन क्यों पढ़ाया जा रहा है. दरअसल विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत और जर्मनी का सहयोग काफी पुराना है. विज्ञान और तकनीक के संदर्भ में जर्मनी के साथ 1971 और 1974 में दो महत्वपूर्ण समझौते हो चुके हैं जिसका फायदा हमें ज्यादा मिला है. भारत और जर्मनी के बीच 170 साइंस प्रोजेक्ट चल रहे हैं. भारतीयों को अभी तक 1800 फेलोशिप मिल चुका है. जर्मनी की मैक्स प्लैंक सोसायटी ने भारत के साथ विज्ञान और तकनीक में सहयोग के लिए 50 से ज्यादा प्रोजेक्ट हाथ में लिए हैं. जर्मनी के मेंज और भारत के चेन्नई के वैमानिक मिलकर स्वास्थ्य और जलवायु पर रिसर्च कर रहे हैं. दिल्ली में अक्टूबर 2012 में जर्मन हाउस फॉर रिसर्च एंड  इनोवेशन की स्थापना हुई. दुनिया में इस तरह के केवल पांच संस्थान हैं. जाहिर है कि इतने सारे प्रकल्प चल रहे हों तो भारत में ऐसे लोगों की जरूरत होगी जो जर्मन भाषा जानें. जर्मनी में भी ऐसे लोगों की जरूरत होगी जो भारतीय हों और जर्मन लिख बोल सकते हों. यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भाषा की निकटता से आपसी संबंध ज्यादा मधुर होते हैं.
यह मान भी लें कि जर्मनी अपनी भाषा को बढ़ाने की कोशिश कर रहा  है तो सवाल उठता है कि संस्कृत या हिंदी को बढ़ाने से हमें किसने रोका है? हम ताल ठोंक सकते हैं कि दुनिया के 200 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. लेकिन क्या हम यह कह सकते हैं कि विज्ञान और तकनीक की शब्दावली हमने तैयार कर ली है? आपको बता दें कि अंग्रेजी के बाद जर्मन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी वैज्ञानिक भाषा है. रिसर्च और डेवलेपमेंट में उसका स्थान दुनिया में तीसरा है. हिंदी का हाल तो यह है कि अपना सरकारी गजट ही आप नहीं समझ सकते! संस्कृत तो बहुत दूर की बात है! जर्मन भाषा ने विश्व बाजार में पहले अपनी हैसियत बनाई है फिर दुनिया में निकला है. जर्मनी अपनी भाषा जानने वालों को ढ़ेर सारा स्कॉलरशिप देता है. कुशलता प्राप्त प्रोफेशनल्स को वर्किग वीजा भी देता है. जर्मन पढ़ने वाले बच्चों को एक्सचेंज प्रोग्रराम के तहत घूमने का मौका देता है.जर्मन पढ़ने से व्यापार व्यवसाय और नौकरी में बेहतर अवसर मिल सकते हैं.  जर्मनी के टूरिस्ट बड़ी संख्या में पर्यटन पर जाते हैं और सबसे ज्यादा खर्च करते हैं. उन्हें जर्मन जानने वाले दुभाषिए की जरूरत रहती है.
जर्मनी भारतीय स्कूलों को भविष्य का पार्टनर कहता है. 1100 सीबीएससी विद्यालयों के साथ उसका एसोसिएशन है. दुनिया में हर तीसरी किताब जर्मन भाषा में छपती है. योरप के विभिन्न देशों में, खासकर पूर्वी योरप में जर्मन भाषा खूब  बोली जाती है. सरकार, आप जर्मन को स्कूल से निकाल देंगे तो कुछ राजनीतिक नफा आपको जरूर होगा लेकिन देश की नई पीढ़ी को नुकसान बहुत हो जाएगा.
जर्मनी आपकी राजनीतिक मजबूरी को समझता है इसलिए उसने अब प्रस्ताव रखा है कि पांचवीं से आठवीं तक जर्मन नहीं पढ़ा सकते तो कम से कम नवीं से ग्यारहवीं तक जरूर पढ़ाएं. आपसे गुजारिश है कि फैसला बच्चों पर छोड़ दीजिए कि वे कौन सी भाषा पढ़ना चाहते हैं. संस्कृत पढ़ाना ही है तो पहली से पांचवीं तक पढ़ाईए ताकि संस्कृत के प्रति समझ तो पैदा हो!



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