Monday, June 20, 2016

हम हिंदी की जगह हिंग्लिश क्यों सींचने में लगे हैं?

एक अखबारनवीस के रूप में मेरे सामने यह सवाल हमेशा ही मुंह बाए खड़ा रहता है कि भाषा कैसी होनी चाहिए? अक्सर कुछ लोग यह कहने से नहीं चूकते कि आपके आलेख का अमुक शब्द जरा कठिन था. मैं सोचने लगता हूं कि क्या वह शब्द वाकई कठिन था? फिर मुङो भारत सरकार के गजट की याद आ जाती है. गजट का हिंदी स्वरूप जब भी मेरे सामने आता है तो मैं उसे कई बार पढ़ता हूं और हर बार लगता है कि समझने में कुछ चूक हो रही है. अंतत: मैं गजट का अंग्रेजी स्वरूप देखता हूं और सबकुछ स्पष्ट हो जाता है. अब इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मैं अंग्रेजी का बड़ा ज्ञाता हूं और यह भी नहीं कि हिंदी मुङो ठीक से नहीं आती! दोनों भाषाएं ठीक-ठाक जानता हूं. दरअसल गजट मूलत: अंग्रेजी में तैयार होता है और उसके रूपांतरण में भाई लोग शब्दकोष से ऐसे-ऐसे शब्द चुन कर लाते हैं कि आदमी घबड़ा जाए! जब ऐसी हिंदी लिखी जाएगी तो उसे पढ़ेगा कौन? तब खयाल आता है कि हिंदी ऐसी होनी चाहिए जिसे आम आदमी पढ़ सके और समझ सके. दरअसल भाषा का यही तो उद्देश्य होता है!
..तो सवाल खह़ा होता है कि क्या मैं अपने आलेख में कुछ कठिन शब्दों का उपयोग करता हूं? मुङो लगता है-नहीं! किसी भाव को स्पष्ट करने के लिए जिन शब्दों की जरूरत हो, उनका उपयोग किया जाना चाहिए. अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए यदि कोई व्यक्ति पांच बार डिक्सनरी देख सकता है या गुगल पर शब्द के अर्थ जानने की जहमत उठा सकता है तो हिंदी का पाठक ऐसा क्यों नहीं कर सकता? क्या सरलता के नाम पर हिंदी को तंग दिल बना दिया जाए? मेरी राय है कि भाषा का अपना स्तर कायम रहना चाहिए. हां, बेवजह का अलंकरण नहीं होना चाहिए. यदि सरल शब्द मौजूद हैं तो बेवजह उसे क्लिष्ट बनाना ठीक नहीं है. वाक्य रचना भी ऐसी होनी चाहिए जो मगज तक सीधे उतर जाए. आप कुछ लिखें और पढ़ने वाला समझ ही न पाए तो उस लेखन का क्या अर्थ? आप कुछ कहें और सामने वाले के दिमाग में कुछ बैठे ही नहीं तो ऐसी बोलचाल का औचित्य क्या है? मजा तो तब है जब आप अपनी बात सामने वाले के दिमाग मैं बिठा दें, भाषा की सरलता के माध्यम से उसके दिल में उतर जाएं.
लेकिन इस  वक्त सवाल केवल हिंदी और हिंदी के शब्दों का नहीं है. सवाल हिंदी की अस्मिता का है. बाजारवाद की हवा में घुली अंग्रेजी हिंदी संसार को प्रदूषित कर देने की भरसक कोशिश कर रही है और इस कोशिश को और हवा दे रही है हमारी गुलाम मानसिकता जहां अंग्रेजी जानना और बोलना श्रेष्ठता का प्रतीक बन बैठा है. मां के मौम और पिता के डैड बन जाने तक तो ठीक है लेकिन कोफ्त तब होती है जब मॉम अबने बेटे को बड़े नाज-ओ-अदा के साथ बताती है-‘बेटा, लुक,  इट्स बटरफ्लाई. हाऊ कलरफुल ना!’ अपने बेटे को अंग्रेजी सिखाने की  ऐसी लत लगी है हमें कि हिंदी को ताक पर रख देने में कोई परहेज नहीं! कोई बच्च कितनी शुद्ध हिंदी बोलता है या लिखता है, उससे ज्यादा पूछ परख इस बात की है कि किसका बेटा अंग्रेजी में अच्छी गिटर-पिटर कर लेता है. अंग्रेजी जानना अच्छी बात है लेकिन क्या अपनी भाषा के प्रति तिरस्कार की कीमत पर? याद रखिए जो समाज अपनी भाषा के प्रति लापरवाह होने लगे, उसकी संस्कृति का क्षरण होने लगता है. दुर्भाग्य यह है कि हमारा समाज इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं है. उसे लगता है कि अंग्रेजी में सारा जहां समाया हुआ है.
अरे अपनी भाषा को जरा जानने की कोशिश तो कीजिए. बहुत फा होगा आपको. अंग्रेजी की औकात का अंदाजा भी हो जाएगा. अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लाफ’ अर्थात हंसना. हमारी हिंदी में हंसने के साथ और भी शब्द है जैसे खिलखिलाना, कहकहे लगाना. बहुत अंतर है हंसने, खिलखिलाने और कहकहे लगाने में. तीव्रता का अंतर है, भाव का अंतर है. इसी से मिलते जुलते शब्द ‘स्माइल’ यानि मुस्कुराने की बात कीजिए. हमारे हिंदी में मुस्कुराने के साथ ‘मुस्की मारना’ भी है. क्या अंग्रेजी में मुस्की मारने के लिए कोई शब्द है? मुस्कुराने और मुस्की मारने में न केवल अंदाज का फर्क होता है बल्कि नजरिए का फर्क भी होता है. ऐसे सैकड़ों शब्दों की चर्चा की जा सकती है. आशय यह है कि हिंदी की व्यापकता को यदि आप समझ पाएं तो सहज ही अंदाजा हो जाएगा कि यह किसी भी भाषा से श्रेष्ठता में कहीं कम नहीं बैठती. कम से कम अंग्रेजी से तो बिल्कुल नहीं. अंग्रेजी से ज्यादा श्रेष्ठ है हमारी भाषा. तो सवाल उठना लाजिमी है कि हम अंग्रेजी को अपनी भाषा में घुसेड़ने को क्यों लालायित रहते हैं? हम हिंदी की जगह हिंग्लिश क्यों सींचने में लगे हैं?
अंग्रेजी के पक्ष में कई लोग तर्क देते हैं कि वह अत्यंत सहज भाषा है. मेरा सवाल यह है कि हिंदी की सहजता में कहां कमी है? हम भाव की अभिव्यक्ति में अंग्रेजी से दस कदम आगे हैं. यदि कोई हिंदी को जानने की कोशिश ही न करे तो उसमें हिंदी का कहां दोष है? दोष तो मानसिकता में है! मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि वैश्विक तरक्की के लिए अंग्रेजी को जीवनशैली में शामिल कर लेना बहुत जरूरी है. यदि ऐसा होता तो दुनिया में तेज रफ्तार तरक्की करने वाला चीन कब का अंग्रजीमय हो गया होता. दरअसल मामला मानसिक गुलामी का है. अंग्रेज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अंग्रेजी की गुलामी हमने ओढ़ रखी है. अंग्रेज बन जाने को आतुर कुछ लोग एक और भी तर्क देते हैं कि अंग्रेजी जब दुनिया भर की भाषाओं से शब्दों को अपने में शामिल कर रही है तो हिंदी को अंग्रेजी के शब्द ग्रहण करने में क्या परेशानी है? ऐसे लोगों को मैं बताना चाहता हूं कि किसी भी भाषा के विकास में दूसरी भाषा के शब्दों का योगदान निश्चय ही मायने रखता है लेकिन इतना भी नहीं कि मूल भाषा ही परिवर्तित होने लगे. हिंदी की विकास गाथा यदि आप पढ़ें तो उसमें फारसी के करीब साढ़े तीन हजार और अरबी के ढ़ाई हजार शब्द शामिल हैं. इतना ही नहीं पश्तो के भी कई शब्द हिंदी में समाहित हैं.
शब्दों को शामिल करने का तर्क देने वालों को मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हिंदी से जुड़ी क्षेत्रीय बोलियों में शामिल किए जाने वाले शब्दों को भी यदि हम हिंदी के शब्दकोष का हिस्सा मान लें तो दुनिया की कोई दूसरी भाषा हमारे पासंग में भी नहीं बैठती! जब इतनी श्रेष्ठ भाषा है हमारी तो हम क्यों इसे बर्बाद करने में लगे हैं. याद रखिए कि किसी भी भाषा के विकास में सैकड़ों-हजारों वर्षो का वक्त लगता है. कुछ वर्षो और अंग्रेजी के प्रति थोड़ी सी सनक में इसे बर्बाद मत कीजिए. हिंदी बोलिए, हिंदी में काम करिए और हिंदी जानने का अभिमान भी करना सीखिए!

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