Monday, June 20, 2016

हम खौफ की गोद में क्यों जा बैठे हैं?


पि छले  सप्ताह दिल्ली में एक डॉक्टर की हत्या हुई और कुछ ही मिनटों में खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई क्योंकि इसमें फटाफट मीडिया के लिए भरपूर मसाला मौजूद था. क्रिकेट था, गुंडे थे, आतंक था, बाप को मरते हुए देख रहा आक्रांत बच्च था, धर्म का फैक्टर था!  फटाफर मीडिया ने खबर फैलाई और  सोशल मीडिया पर टिप्पणियों और भड़ास का सैलाब आ गया. मरने वाला इस धर्म का था, मारने वाला उस धर्म का था! कुछ लोगों ने जरूर गिनाया कि मारने वालों में दोनों ही धर्मो के लोग शामिल थे लेकिन ऐसे लोगों की सुनता कौन है? सोशल मीडिया पर नफरत की आंधी अब भी चल रही है.
अब जरा इस बात पर गौर करिए कि इस पूरे प्रकरण में वो मुद्दा ही गौण हो गया जिस पर एक सभ्य समाज के नाते हमें गौर करना चाहिए. डॉ. नारंग पर जब हमला हुआ तब उन्होंने शोर मचाया, खुद को बचाने के लिए पड़ोसियों को आवाज देते रहे. उनका बेटा चीखता रहा, चिल्लाता रहा लेकिन एक भी पड़ोसी उनकी मदद के लिए बाहर नहीं निकला! अब टीवी पर किस्से सुनाने के लिए बहुत से पड़ोसी निकल आए हैं लेकिन घटना के वक्त सबको काठ मार गया था. सब खौफजदा हो गए थे या यूं कहें कि खौफ की गोद में जाकर बैठ गए थे! ऐसा क्यों? यदि आप मानव विकास की श्रृंखला पर नजर  डालें तो समूह की ताकत को पहचानते हुए ही संयुक्त बसाहय की शुरुआत हुई. बस्तियां बनीं. आधुनिक भाषा में हम जिसे कॉलोनी या कहते हैं. आज यह सामूहिकता समाप्त हो रही है और समाज पर डर इस कदर हावी हो गया है कि काोई किसी की जान लेता रहे, कोई मनचला किसी लड़की को छेड़ता रहे या फब्तियां कसता रहे, राह से गुजरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता है! उसे तो केवल यही खयाल आता है कि इस पचड़े में हम क्यों पड़ें? वह कभी नहीं सोचता कि यही हादसा उसके साथ भी हो सकता है! सच मानिए, पहले हालात इतने बुरे नहीं थे. पड़ोसी की चीख सुनकर पड़ोसी दौड़ता हुआ था लेकिन अब तो खिड़की भी नहीं खोलता.
मुङो याद है कि पहले यदि किसी मोहल्ले के किसी व्यक्ति को यदि बाहर का कोई आदमी चमकाने की कोशिश करता था तो पूरा मोहल्ला एक हो जाता था. रात में यदि किसी ने ‘चोर-चोर’ की आवाज लगा दी तो पूरा का पूरा गांव डंडे लेकर निकल पड़ता था और गांव की सीमा से बाहर तक जाकर चोर को ढूंढता था. क्या अब ऐसा होता है? कहीं अपवाद स्वरूप कुछ उदाहरण दिखाई दे जाएं तो अलग बात है अन्यथा ज्यादातर लोग अपने घरों में दुबके रहते हैं. कोई दूसरे की मदद के लिए बाहर निकलने के बारे में सोचता तक नहीं है. जब हालात इतने बुरे हों तो गुंडों और मवालियों को खौफ का राज स्थापित करने में सहूलियत होगी ही!
यही कोई 30 साल पहले रांची शहर के फिरायालाल चौक से गुजरते हुए मैं एक बोर्ड देखकर ठिठक गया था. बोर्ड पर वहां के एसपी(पुलिस अधीक्षक) का बड़ा सा संदेश चस्पा था-‘अपराधी वहीं पनपते हैं जहां के लोग डरपोक होते हैं’. उन दिनों रांची बिहार का हिस्सा हुआ करता था (अब झारखंड की राजधानी है) और अपराधियों का बोलबाला था. शाम ढ़लने के बाद लोग घरों में रहना ही बेहतर समझते थे. उस एसपी ने लोगों को समझाया कि जब तक डरोगे, तभी तक कोई आपको  डरा सकता है. उस शहर ने जैसे ही डरना छोड़ा. अपराधियों की सल्तनत बिखड़ गई.
कहने का आशय यह है कि यदि आप भी सुरक्षित रहना चाहते हैं तो सबसे पहले डरना छोड़िए! एक बात तो तय है कि लोहे का गेट लगाकर घर के भीतर दुबकने से आप सुरक्षित नहीं रह सकते. जब तक एक-दूसरे की मदद के लिए आगे नहीं आएंगे तब तक अपराधियों का बोलबाला रहेगा. आतंक घरेलू हो या बाहरी, उससे लड़ना ही एकमात्र विकल्प है. 

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